चार साल पहले की बात है. लखनऊ का दिल कहे जाने वाले हजरतगंज में किताबों की एक दुकान पर एक शोधार्थी पहुंचा. उसने चार हजार रुपये से अधिक की किताबें निकालीं पर जब पैसे देने की बारी आई तो उसकी जेब से मुश्किल से दो हजार रुपये ही निकले. उसने बिल कैंसिल करने की गुजारिश करते हुए अगली बार किताबें ले जाने की बात कही. यह देखकर दुकान के मालिक ने उसे बैठाया. बातचीत का सिलसिला चला तो उसके शोध के विषय से लेकर किताबों पर लंबी बात हुई. इसके बाद मालिक ने किताबें ले जाने और अगली बार आने पर पैसे देने की बात कही. आज के समय में एक अनजान ग्राहक पर इस तरह का विश्वास करने वाले दुकान के मालिक थे- राम आडवाणी.
क्या ‘राम आडवाणी बुक सेलर्स’ के मालिक अपने यहां आने वाले किसी भी शख्स पर इस तरह आंख मूंदकर भरोसा कर लेते हैं, इस पर राम आडवाणी का कहना था, ‘ऐसा नहीं है. दुकान में आने वाले शख्स की नजर और उसका किताबें देखने का सलीका बता देता है कि वह किताबों से कितनी मोहब्बत करता है और जो किताबों से मोहब्बत करता है, वह यहां बार-बार आना चाहता है और आता भी है. ऐसे में पैसे न देने का सवाल ही नहीं उठता. यह मेरा 90 साल की जिंदगी का तर्जबा है.’ बचपन में नाना से किताबों की दुकानदारी की बारीकियां जानने वाले राम आडवाणी विभाजन के समय परिवार के साथ रावलपिंडी से पहले शिमला आए, फिर लखनऊ. यहां जेबी कृपलानी के सहयोग से हजरतगंज स्थित गांधी आश्रम परिसर के एक कोने में किताबों की दुकान की नींव डाली गई, फिर कुछ समय बाद वे मेफेयर बिल्डिंग में अपनी किताबों की दुनिया लेकर पहुंच गए. इस दुनिया से उन्हें कितनी मोहब्बत थी इसका अंदाजा उनकी इस बात से मिल जाता था, ‘जब हमारे अधिकतर दोस्त पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वकील और जज बनने का ख्वाब देखते थे, तब मैं एक अच्छी किताबों की दुकान खोलने का सपना बुनता था.’
किताबें बेचने के साथ-साथ पढ़वाने के फलसफे में यकीन रखने वाले राम आडवाणी अपनी पारखी नजर से पुस्तक प्रेमियों को पहचानने में देर नहीं लगाते थे. पुस्तक प्रेमी भी उनके अनुभव व लखनवी संस्कृति के किस्से-कहानियों का भरपूर लाभ उठाते थे. लखनऊ और अवध पर वे शोधार्थियों के लिए संदर्भ केंद्र का काम करते थे. लखनवी तहजीब में गहरे रचे-बसे राम आडवाणी किसी भी पुस्तक प्रेमी का एक मेहमान की तरह स्वागत करते थे. इतिहासकार आलोक बाजपेयी बताते हैं, ‘25 साल पहले झिझकते हुए उनकी दुकान पर गया तो वे मुस्कुराकर मिले. पहले मेरी झिझक तोड़ी फिर पसंद पूछी और खुद उठकर किताबें दिखाने लगे. उस दिन से एक जान-पहचान बन गई और अब तक जब भी लखनऊ जाता तो वहां जरूर जाता.’
राम आडवाणी के पास बैठना एक तरह से लखनऊ के पास बैठना था. उन्होंने लखनऊ को दुल्हन की तरह सजते-संवरते और इठलाते हुए देखा था. यानी बग्घी के दौर से लेकर ऑडी फिर बीएमडब्ल्यू तक का जमाना देखा. किताबी दुनिया से सरोकार रखने वाले जब गंजिंग (लखनऊ के हजरतगंज इलाके में तफरीह करना) के लिए निकलते तो उनकी दुकान के सामने से निकलते हुए उन्हें एक नजर देखने की इच्छा रखते. उनमें लखनऊ धड़कता था. बातचीत में अगर लोग गलती से उन्हें मूल स्थान से रेखांकित करते तो वे मुस्कुराते हुए यह कहने में संकोच नहीं करते कि ‘मैं सिंधी नहीं, लखनवी हूं.’ वे लखनऊ को देखने, जानने और समझने का आईना थे. उनका निधन एक तरह से लखनऊ के आईने का बिखरना है तो सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षति भी.
एक शख्स चुपचाप किताबों का व्यवसाय करते हुए किस तरह एक संस्था बन जाता है, राम आडवाणी इसका साक्षात उदाहरण थे. उनकी या उनकी दुकान की लोकप्रियता का कारण यह भी था कि वे उसे महज व्यवसाय नहीं मानते थे. उनका मानना था कि किताबों की दुनिया में गोता लगाने के दौरान अच्छे लोग मिलते हैं. जानकारों से बात करने का अवसर मिलता है. आदमी अच्छे मिलते हैं तो आपका जीवन भी अच्छा बनता है. अपने इसी फलसफे के कारण उनकी दोस्ती का दायरा लखनऊ और हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों तक फैला. उनके यहां देशी-विदेशी शोधार्थियों के आने का क्रम बना रहता था. उनके दोस्तों में रस्किन बॉन्ड से लेकर रोजी लवलेन जोंस, वीएस नायपॉल, विक्रम सेठ, विलियम डेलरिंपल, अमिताव घोष, मार्क टुली, प्रो. मुशीरुल हसन आदि न जाने कितने लेखक शामिल थे. इस तरह वे अंग्रेजी किताबों के व्यवसायी व लखनऊ के जानकार के तौर पर देशी-विदेशी शोधार्थियों के बीच ख्यातिलब्ध थे. अवध और लखनऊ पर किताबें लिखने वाली रोजी के लखनऊ प्रेम को देखकर उन्होंने रोजी को अपने घर लॉरेंस टैरेस में रहकर किताब लिखने की अनुमति दी थी. अनेक लेखक उनके जरिए ही देश-विदेश से किताबें मंगवाते थे. लेखक विलियम डेलरिंपल ने बताया था, ‘लॉन्च होने के बाद जिस किताब का हम लंदन में तीन दिन तक इंतजार करते वह राम आडवाणी के यहां 48 घंटे में मिल जाती.’
उनमें लखनऊ धड़कता था. बातचीत में अगर लोग गलती से उन्हें मूल स्थान से रेखांकित करते तो आडवाणी मुस्कुराते हुए यह कहने में संकोच नहीं करते कि ‘मैं सिंधी नहीं, लखनवी हूं.’
एक वाकया प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी जुड़ा है. आडवाणी बताते थे, ‘एक बार इंदिरा गांधी के पीए का फोन आया कि दिल्ली में ‘पीस ऑफ माइंड’ किताब खोजकर थक गया हूं. इंदिरा जी ने आपके पास फोन करने को कहा है. मैंने कहा कि मेरे पास किताब है और उन्हें भिजवा दी.’ प्रधानमंत्री नेहरू भी एक बार राम आडवाणी के यहां किताब खरीदने पहुंचे थे तो सुचेता कृपलानी, गोविंद बल्लभ पंत, संपूर्णानंद जैसे अनेक नेता उनके स्थायी ग्राहक हुआ करते थे. वे किताब लेने पहुंचते थे तो लंबी बातचीत का खाका बुन जाता था. यही वजह थी कि राम आडवाणी के पास संस्मरणों का भरपूर खजाना था. वे सकारात्मक सोचते थे. इसी बात का ख्याल रखते हुए वे लोगों की नकारात्मक बातें बताने से परहेज करते थे. उनका मानना था कि लोगों को उनके अच्छे काम से याद करना चाहिए. उसका समाज में अच्छा संदेश जाता है.
राम आडवाणी की दुकान में एक विजिटर बुक रखी रहती है. वे उसमें अपने यहां आए प्रमुख लोगों की राय लिखवाते थे. हिंदी के आलोचक वीरेंद्र यादव बताते हैं, ‘उनकी विजिटर बुक में नेहरू, इंदिरा गांधी, फिरोज गांधी से लेकर जाने कितने ख्यात पुस्तक प्रेमी राजनेता, नौकरशाह, शिक्षक थे.’ एक मुलाकात में विजिटर बुक के बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि वे ये बातें अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहते हैं. वे बच्चों को बताते थे कि पढ़ने-लिखने वालों से उन्हें कैसे और क्या सीखना चाहिए. बढ़ती उम्र के बावजूद उनकी सक्रियता कम नहीं थी. उन्होंने खुद को कभी रिटायर नहीं होने दिया. दुकान चलाने के साथ वे किताबों और संस्कृति से जुड़े आयोजनों में बराबर शरीक होते थे. अपना यह पुस्तक प्रेम उन्होंने बेटे रुकुन में भी पैदा किया, जो अंग्रेजी लेखक होने के साथ-साथ एक प्रकाशन के मालिक हैं. राम आडवाणी की सक्रियता देखकर युवाओं को भी रश्क होता था. कम लोगों को पता होगा कि वह गोल्फ के अच्छे खिलाड़ी भी थे. 90 साल की उम्र तक गोल्फ खेलते रहे. लखनऊ गोल्फ क्लब के संस्थापक सदस्यों में उनका नाम है. साथ ही वे पियानो और शास्त्रीय संगीत के दीवाने थे. उनके बारे में कहा जाता है कि उनमें अंग्रेजी को लेकर श्रेष्ठता भाव था, लेकिन पांच साल में अनेक मुलाकातों और घंटों की बातचीत में इस बात का कभी अहसास नहीं हुआ. हां, इतना अवश्य था कि वे समय के पाबंद थे. इसमें कोताही करने वालों को वह कभी गंभीरता से नहीं लेते थे.
पिछले दस महीने से उनकी सक्रियता में कमी आई थी. पिछले साल जून में पत्नी का निधन हुआ, फिर नवंबर में गिरने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई. तब से वे चलने-फिरने की स्थिति में नहीं थे और अंततः बीती नौ मार्च की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली. उनकी दोनों संतानें लखनऊ से बाहर हैं. ऐसे में पुस्तक प्रेमियों के मन में सवाल है कि क्या अब यह दुकान उसी स्वरूप में मौजूद रहेगी. जिस बिल्डिंग में यह दुकान है, पहले उसमें लखनऊ की पहचान मेफेयर सिनेमा बंद हुआ, फिर ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी. काश… यह सिलसिला आगे न बढ़े और राम आडवाणी की खेती को खाद-पानी मिलता रहे.