नरेंद्र मोदी-अमित शाह. ये दोनों आज भारतीय राजनीति के सबसे सफल चेहरे हैं. लोकसभा चुनाव में इस जोड़ी के अभूतपूर्व प्रदर्शन को देखकर इनके आलोचकों के साथ ही प्रशंसकों की आंखें भी चौंधिया गईं थी. इनकी आसमानी राजनीतिक सफलता का सिलसिला अभी भी जारी है. हाल ही में इन दोनों की जुगलबंदी से हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने वह सफलता अर्जित की जिसकी कल्पना लोग मजाक में भी नहीं करते थे. स्थिति यह हुई कि जिस हरियाणा में दशकों तक सक्रिय रहने के बाद भी अपने दम पर सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं पहुंच सकी थी उस हरियाणा में पार्टी बिना संगठन और बिना किसी बड़े स्थानीय चेहरे के उतरी और गठबंधन की बैसाखी फेंककर दौड़ते हुए बहुमत रेखा के पार निकल गई. महाराष्ट्र में भी पार्टी शिवसेना से अपना पुराना याराना तोड़ते हुए बिना किसी मजबूत संगठन के चुनावी समर में उतरी थी. यहां से भी नतीजा उसे सातवें आसमान पर भेजने वाला ही मिला. पार्टी प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. उसका आंकड़ा सौ सीटों को पार कर गया. महाराष्ट्र में भी पार्टी अपनी सरकार (अल्पमत) बना चुकी है.
मोदी और शाह की सफल जुगलबंदी आज की बात नहीं है. दोनों का साथ बहुत पुराना है. पिछले 20 साल से राजनीति के बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक सुपरहिट परिणाम देने वाली इस जोड़ी की पहली मुलाकात गुजरात के अहमदाबाद में लगने वाली संघ की शाखाओं में हुई थी. दोनों अपने बाल्यकाल से ही संघ की शाखाओं में जाया करते थे. हालांकि दोनों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि में काफी अंतर था. मोदी जहां एक गरीब परिवार से आते थे, वहीं शाह गुजरात के एक बेहद संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे. गुजरते समय के साथ जब दोनों युवा हुए तो दोनों ने अलग-अलग राह पकड़ ली. मोदी जहां सब कुछ छोड़ते हुए कथित तौर पर ज्ञान की तलाश में हिमालय की ओर चले गए, वहीं दूसरी तरफ शाह संघ से जुड़े रहते हुए शेयर ट्रेडिंग तथा प्लास्टिक के पाइप बनाने का अपना पारिवारिक व्यापार करने लगे.
अस्सी के दशक की शुरुआत में गुजरात वापस आने के बाद मोदी की मुलाकात एक बार फिर से अमित शाह से हुई. शाह ने मोदी से भाजपा में शामिल होने की अपनी इच्छा जाहिर की. पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला उस दिन को कुछ इस तरह याद करते हैं, ‘मैं पार्टी ऑफिस में ही बैठा था. मोदी अपने साथ एक लड़के को लेकर मेरे पास आए. कहा कि ये अमित शाह हैं. अच्छे व्यवसायी हैं. आप इन्हें पार्टी का कुछ काम दे दीजिए.’ इस तरह से मोदी की सिफारिश पर अमित शाह भाजपा में शामिल हो गए. पार्टी में शामिल होने के बाद शाह धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के करीब होते चले गए.
नब्बे के दशक में जब गुजरात में भाजपा मजबूत हो रही थी उस समय अमित शाह के राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा मौका आया. 1991 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सांसद का चुनाव लड़ने के लिए गांधीनगर का रुख किया. उस समय शाह ने नरेंद्र मोदी के सामने लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव प्रबंधन की कमान संभालने की इच्छा जाहिर की. शाह का दावा था कि वे अकेले बहुत अच्छे से पूरे चुनाव की जिम्मेदारी संभाल सकते है. अगर आडवाणी यहां अपना चुनाव प्रचार नहीं करते हैं तब भी वे इस सीट को आडवाणी के लिए जीत कर दिखाएंगे. शाह के इस आत्मविश्वास से मोदी बड़े प्रभावित हुए और आडवाणी की उस सीट के चुनावी प्रबंधन की पूरी कमान उन्हें सौंप दी. आडवाणी उस चुनाव में भारी मतों से जीते. इस चुनाव के बाद शाह का कद गुजरात की राजनीति और मोदी के हृदय में बढ़ता चला गया.
शाह की राजनीति को करीब से देख चुके एबीपी न्यूज से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश सिंह कहते हैं, ‘ चुनाव प्रबंधन में अमित शाह की मास्टरी रही है. अपनी इसी काबिलियत के दम पर वे मोदी पर प्रभाव डालने में सफल रहे.’
जिस तरह कुछ समय पहले मोदी देश के शीर्ष पद पर बैठने को बेताब थे उसी तरह की बेकरारी से वे उस समय भी ग्रस्त थे जब केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मोदी की नजर सीएम की कुर्सी पर थी. मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षा से शाह को अवगत करा दिया था. लेकिन प्रदेश के राजनीतिक समीकरण आने वाले समय में कुछ इस कदर बदले कि मोदी को केशुभाई पटेल और तत्कालीन संगठन मंत्री संजय जोशी ने गुजरात से बाहर भिजवाने का इंतजाम कर दिया. वर्ष 1996 में मोदी राष्ट्रीय सचिव बनकर दिल्ली आ गए. लेकिन उनका मन गुजरात से दूर नहीं हो पाया और वे अमित शाह के माध्यम से गुजरात पर नजर बनाए रहे.
उधर केशुभाई पटेल के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही थी. पार्टी स्थानीय चुनावों में लगातार हार रही थी. रही सही कसर 2001 में आए भयानक भूकंप ने पूरी कर दी. भूकंप पीड़ितों को राहत पहुंचाने के मामले में विफल रहने का आरोप केशुभाई सरकार पर लगने लगा. भाजपा को लगने लगा कि यदि केशुभाई पटेल के नेतृत्व में सरकार को छोड़ा गया तो आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ेगा. केशुभाई के खिलाफ दिल्ली में खूब लॉबीइंग हुई. पद्मश्री से सम्मानित गुजरात के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक देवेंद्र पटेल कहते है, ‘केशुभाई के खिलाफ माहौल बनाने का काम नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह ने ही किया था.’
केशुभाई को मुख्यमंत्री पद से हटाकर मोदी को प्रदेश की कमान सौंप दी गई. यहां से मोदी और अमित शाह के संबंधों का एक नया दौर शुरू हुआ.
2002 में जब प्रदेश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो सबसे कम उम्र के अमित शाह को मोदी ने गृह (राज्य) मंत्री बनाया. यही नहीं, सबसे अधिक 10 मंत्रालय उन्हें दे दिए गए. अमित शाह के रसूख में दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की होने की यह सिर्फ शुरुआत भर थी. धीरे-धीरे प्रदेश में स्थिति ऐसी होती गई कि अमित शाह राज्य में मोदी के बाद सबसे अधिक प्रभाव वाले नेता बन गए.
गुजरात में अमित शाह अपनी क्षमता साबित कर चुके थे. इसलिए जब मोदी की दिल्ली पर नजर पड़ी तो उन्होंने गांधीनगर से 7 आरसीआर (भारत के प्रधानमंत्री का आधिकारिक आवास) तक की राह सुनिश्चित करने का दायित्व भी शाह को सौंपा. शाह अपने ‘साहेब’ की उम्मीदों पर खरे उतरते हुए उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने में सफल रहे. शाह को इसका तुरंत इनाम भी मिला और वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिए गए.
मोदी की तरफ से शाह को हमेशा खुली छूट मिली है. उसका एक उदाहरण हाल ही में हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी देेखने को मिला. हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने को लेकर भाजपा के भीतर काफी असमंजस था तो वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना के खिलाफ लड़ने पर भी पार्टी एकराय नहीं थी. लेकिन अमित शाह किसी दुविधा में नहीं थे. उन्होंने सारी आशंकाओें को किनारे रख गठबंधन तोड़ने और अकेले चुनाव में उतरने का फैसला ले लिया. जितने आत्मविश्वास के साथ शाह आगे बढ़े उसी भरोसे के साथ मोदी ने भी उनके निर्णयों पर अपनी मोहर लगा दी. उसी तरह जब महाराष्ट्र चुनाव में शाह ने मोदी की 30 के करीब रैलियां रखीं तो बतौर प्रधानमंत्री मोदी को यह कुछ अव्यावहारिक सा लगा. उन्होंने शाह से रैलियों की संख्या कम करने के लिए कहा लेकिन पार्टी अध्यक्ष ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इससे कम में काम नहीं हो पाएगा. मोदी ने शाह की बात मान ली.
खैर चुनावी राजनीति में जीत या हार कुछ भी अंतिम नहीं होता. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि अगर पार्टी आने वाले विधानसभा चुनावों में हारती है या 2019 में शाह अपने ‘साहेब’ को फिर से पीएम नहीं बना पाते हैं तब इस जोड़ी के आपसी रिश्ते किस रूप में सामने आएंगे?