जिन स्नेहा खानवलकर को हम जानते हैं, ‘प्रीत’ के हर रेशे में उनकी रौनक है. वही तबीयत, कभी न सुने गीत को बुनना-बनाना-सुनाना, और साजों-आवाजों से वही आवारागर्दी वाली यारी रखना. जसलीन कौर रॉयल ‘प्रीत’ को ‘काला रे’ की स्नेहा के आस-पास बैठकर ही गाती हैं और ऐसा सुखद जैसे कोई भोला बचपन सफेद कागज पर पहाड़, सूरज धीरे-से धीमे-से गढ़कर दुनिया की रगड़ खत्म कर रहा हो. शकील बदायूँनी के ‘जो मैं जानती बिसरत हैं सैंया’ से आत्मा लेता ‘प्रीत’ देह अपनी बनाता है, और अमिताभ वर्मा अपनी लिखाई से उस देह को प्यार के दुख में खोई एक जिंदगी की चमक देते हैं.
साउंड ट्रिपिंग वाली स्नेहा इसके बाद के दो गीतों में हैं. और साउंड ट्रिपिंग वाली शिकायतें भी. एहतियात से सहेजे साजों और आवाजों का अच्छी कोशिश के बाद भी शोर हो जाना. ‘बाल खड़े’ ऐसी ही नाकाम प्रयोगधर्मिता का उदाहरण हैं. लेकिन एक राष्ट्रीय समस्या के लिए समर्पित अगले गीत के लिए हम अपनी शिकायतों को झाड़कर सपोर्ट में खड़े हो जाते हैं. ‘मां का फोन’ हर देश की उस विकल राष्ट्रीय समस्या की तरफ इशारा करता है जिसे आप-हम हर रोज कई दफे मुस्कुराते हुए आत्मसात करते हैं, इसलिए जब गाने में दो मौकों पर अठाईस-अठाईस बार ‘मां का फोन आया’ प्रिया-मौली-स्नेहा लगातार गाती हैं, एक जगत-पीड़ा को स्वर देकर अमर कर देती हैं. राष्ट्रीय गीत!
गाने भी दिलचस्प सफर तय करते हैं. कादर खान से लेकर सोनम कपूर तक. अनू मलिक से लेकर स्नेहा खानवलकर तक. ‘इंजन की सीटी’ ऐसा ही गीत है जिसे सुनिधि और मलयाली गायिका रश्मि सतीश मौज से थिरकता मस्ती का गोला बना देती हैं. सुस्त को मस्त कर देने वाला गीत. आखिरी गीत अमल मलिक का रचा ‘नैना’ प्रीतम के ‘कबीरा’ सा है जो सिर्फ सोना मोहापात्रा की सुनहरी आवाज से जीवन पाता है. मगर अधूरा.