हैदर का ‘आओ न’ पांच के ‘सर झुका खुदा हूं मैं’ की ऊंचाई का गीत है. और बस यही सर्वश्रेष्ठ है कहा ही था कि बाकी के गीत आंखें तरेरते खड़े हो गए. अच्छी चीजों का घमंड भी अच्छा ही होता है. बाकी के अच्छे-गजब गीतों में ‘सो जाओ’ मरे हुए लोगों का गीत है, कश्मीर की वह त्रासदी कहता गीत जिसे गुलजार-विशाल ही गीत बना सकते थे. अद्भुत को छोटा शब्द बना देने वाला गीत. रूह में चुभकर सुकून छीनने वाला गीत. बाद इसके ‘बिसमिल’ है, हैदर के आक्रोश को दुनिया के लिए कमाल तरीके से मंचित करता, कहानी कहता और उसपर नाचता नचवाता. गवाता. तीन गीत बाद फैज के ‘गुलों में रंग भरे’ को मेंहदी हसन से गाने के सबक लेकर गाते अरिजित हैं, और उतना ही सुख देते हैं जितना सर्दी में अदरक डले गर्म दूध के साथ गुड़ की डेली. वे इसके बाद ‘खुल कभी’ गाते हैं, और हम सुनना विशाल को चाहते हैं, फिर भी उन्हें सुनते जाते हैं, बस अनगिनत से थोड़े कम बार. झुमका-झूमकर की तुकबंदी संग गुलजार की तपती इमेजरी की दुकान है ये गीत. अगले दो गीत ‘त्रासदी नदी की भी है इंसान की भी’ सिखाते हैं. सालों से अपने किनारों पर जुल्म होते देख रही झेलम को विशाल भारद्वाज ‘झेलम’ गीत बनाकर बहा देते हैं. आप बह सकें साथ तो बहें, नहीं तो सहें. लेकिन सारे दुख जो हम सहते हैं छोटे लगते हैं जब रेखा भारद्वाज फैज की नज्म ‘आज के नाम’ गाती हैं. मां, ब्याहताओं, हसीनाओं, बेवाओं के दर्द को चादर पर बिछाकर धूप में सुखाने रख देने वाला यह रूदन-गीत दिल ठहरा देता है, सृष्टि के बाकी दर्दों को झुठला देता है. आखिर में सुरेश वाडेकर हैं. बादल सी मुलायम उनकी आवाज है और उतना ही मुलायम गीत है. ‘दो जहान’, जो हमारी किस्मत से हमारे जहान में है.