भीड़ का इंसाफ, मानवता साफ

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शाम के आठ बजने को हैं. अक्टूबर की इस शाम की हवा में ठंडक घुल चुकी हैै. जाहिर है कि आने वाले दिन और सर्द होंगे. यहां दिल्ली से महज 70 किमी. दूर गौतमबुद्ध नगर जिले के दादरी कस्बे के पास स्थित बिसाहड़ा गांव में भी एक अजीब सी ठंडक पसरी हुई है. गांव में चुप्पी का डेरा है. इसकी वजह एक इंसान की हत्या है, जो कुछ दिन पहले यहां हुई. इस हत्या ने गांव के सामाजिक ताने-बाने को खून की लकीर खींचकर बांट दिया गया है.

मौसम की गर्माहट से इस ठंड में कोई अंतर नहीं आएगा. सालों से इस गांव के रहवासी 50 वर्षीय मोहम्मद अखलाक को पिछले दिनों हिंदुओं की भीड़ ने गोमांस खाने के अाशंका के चलते पीट-पीटकर मार डाला गया. इस घटना में अखलाक के 22 साल के बेटे दानिश भी गंभीर रूप से घायल हुए. दानिश अब आईसीयू से बाहर हैं पर इस घटना के बाद बिसाहड़ा गांव शायद हमेशा के लिए बदल गया.

यहां क्या हुआ है, इस बारे में गांव वालाें के कुछ बताने से पहले गांव के बाहर एक अस्थायी चाय की दुकान का माहौल सारी कहानी बयान कर देता है कि यहां सब कुछ कैसे बदल गया है. चीजें कैसे रातों-रात बदल जाती हैं! जिस गांव में दो अलग-अलग आस्थाओं के लोग सदियों से रह रहे थे. आखिरकार उसे नफरत की उपजाऊ जमीन बना देने में ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ता लगा.  28 सितंबर की उस भयानक शाम को जब अखलाक को मारा गया, तबसे ये दुकान बंद है. लेकिन इस दुकान के ग्राहक अपने तय समय पर यहां पर यह देखने आते हैं कि हालात सामान्य हुए या नहीं. 70 वर्षीय किसान रूपचंद बताते हैं, ‘पिछले 30 सालों से हमारे मिलने-जुलने की जगह यही दुकान है. कोई ऐसा दिन नहीं है जब हम यहां मिलते न हों. ज्यादा चीनी वाली चाय के साथ हम यहां पारिवारिक मसलों से लेकर राजनीति और हर चीज पर चर्चा करते हैं, लेकिन हमने कभी धर्म पर चर्चा नहीं की. दरअसल, हमने शायद ही कभी गौर किया हो कि हममें में आधे हिंदू हैं और आधे मुसलमान हैं.’ उस शाम के बाद से रूपचंद हर रोज यहां पर निश्चित समय पर आते हैं कि दोस्तों से साथ एक कप चाय पिएंगे लेकिन दुकान बंद मिलती है. वे कहते हैं, ‘इस गांव का सामाजिक तानाबाना इस तरह छिन्न-भिन्न कर दिया गया है कि अब उसे वापस संभाला नहीं जा सकता. बिसाहड़ा को फिर से बिसाहड़ा होने में लंबा समय लगेगा.’

28 सितंबर की शाम ‘मोदीमय’ हुए भारत के नागरिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘डिजिटल इंडिया’ अभियान के समर्थन में फेसबुक पर अपनी प्रोफाइल पिक्चर को तिरंगे के रंग में रंग रहे थे, जबकि मोदी फेसबुक के अमेरिका स्थित मुख्यालय में उसके सीईओ मार्क जुकरबर्ग के साथ थे और बड़े गर्व से दुनिया को बता रहे थे कि वे कितनी साधारण पारिवारिक पृष्टभूमि से हैं और देश ने उनको प्रधानमंत्री बनाकर कितना बड़ा मौका दिया है. उसी समय यहां बिसाहड़ा में कुछ ऐसा घटित हो रहा था, जो बेहद भयावह था. उसी समय अखलाक और उसके परिवार को पीटकर मार डालने के लिए भीड़ अपनी योजना को अंतिम रूप दे रही थी. अफवाह यह थी कि इस परिवार ने गाेमांंस खाया है और घर में भी रखा हुआ है. सांप्रदायिक तनाव इस गांव के लिए नया है. यहां पर 2500 परिवार हैं, जिसमें से केवल 50 परिवार मुस्लिमों के हैं.

इन डरावनी वजहाें से अचानक यह गुमनाम सा गांव बिसाहड़ा सुर्खियों में आ गया. रात भर में ही यह पुलिस छावनी और मीडिया हब में तब्दील हो गया, गांव की गलियां ओबी वैन और मीडियाकर्मियों से भर गईं. मीडिया के खुलासे के चलते कुछ संदिग्ध लोगों की गिरफ्तारी हुई. एक हफ्ते में ही बिसाहड़ा कट्टरपंथियों के अड्डे में तब्दील हो गया और सभी अपनी नफरत की राजनीति को अमल में लाने के लिए शोर करने लगे.

रूपचंद का कहना है, ‘हमारे गांव में अब स्पष्ट तौर पर सांप्रदायिक तनाव की रेखा खींची जा चुकी है. अब हिंदू, हिंदू है और मुसलमान, मुसलमान है. भाईचारे का पुराना बंधन अब नहीं रहा.’

जैसे ही आप मुख्य हाइवे से जुड़ने वाली सड़क से गांव की तरफ बढ़ेंगे, आपके लिए सामाजिक बंटवारे की वजह से फैली उस उदासी को नजरअंदाज कर पाना नामुमकिन होगा जिसने अभी अभी गांव में घुसपैठ की है और यहां अपना स्थायी बसेरा बना लेना चाहती है. समूह में खेल रहे युवाओं के माथे पर तिलक और चेहरे पर झलकती आक्रामकता वहां मौजूद तनाव के एहसास को बढ़ा देती है.  राष्ट्रीय राजधानी से 70 किमी दूर इस गांव में फिलहाल माहौल सामान्य नहीं है.

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मृतक अखलाक

गांव में इस तरह के युवाओं का दिखना नया है. भीड़ के कानून अपने हाथ में लेने के बाद यह छवि गढ़ी गई है. इसी तरह के एक युवा ने बैरभाव से भरी आवाज में इस संवाददाता का स्वागत किया, ‘मीडिया यहां बुरी तरह मारी जाएगी, टाइम रहते निकल लो.’ कुछ देर समझाने के बाद वह इस संवाददाता को बृजेश सिसौदिया के पास ले चलने को राजी हो गया. बृजेश सिसौदिया इस गांव के नए नवेले नेता और स्वयंभू मसीहा हैं.

सिसौदिया राष्ट्रवादी प्रताप सेना के अहम सदस्य हैं. राष्ट्रवादी प्रताप सेना हाल ही में सामने आया संगठन है जो हिंदुओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए लड़ने का दावा करता है. बिसाहड़ा के लिए शर्म का कारण बनी इस घटना का जिक्र करते हुए उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखी. उसने दो-टूक शब्दों में कहा, ‘गोहत्या अपराध है. हम हिंदू लोग गाय का माता के रूप में सम्मान करते हैं. हम किसी को उसे नुकसान पहुंचाने के बारे में सोचने की इजाजत भी कैसे दे सकते हैं?’

जितनी बार उनसे पूछा गया कि आपको एक मार दिए गए आदमी और उसके परिवार को लेकर कोई अफसोस है, वह अपने फोन में कुछ ढूंढने या फोन पर बात करने के बहाने बात टालता रहा. भीड़ द्वारा अखलाक को पीटकर मार डालने से संबंधित एक सवाल के जवाब में उसने कहा, ‘देखिए, हमारे संगठन का भाजपा या आरएसएस से कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि, जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने के मसले पर हम आरएसएस से सहमत हैं. हमारा संगठन ज्यादातर गांववालों की रोजमर्रा की समस्याओं को सुलझाने में उनकी मदद करता है.’

सिसौदिया के संगठन से जुड़े यशपाल सिंह भी उन लोगों में से एक हैं जो इस घटना के संबंध में गिरफ्तार किए गए हैं. मित्रों और समर्थकों से घिरे सिसौदिया ने यशपाल सिंह के बारे में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया. इस सेना के प्रमुख जो कि ग्रामीणों के रोजमर्रा सुख-दुख में शामिल होने का दावा करते हैं, कहते हैं कि उन्हें कोई अंदाजा नहीं था कि गांव के कुछ लोग एक मुसलमान के घर पर गोमांस खाने के आरोप को लेकर हमला करने की योजना बना रहे हैं. वे मीडिया का उपहास उड़ाते हुए कहते हैं, ‘मुझे नहीं मालूम है कि वे कौन लोग थे. मैं उस पर कोई बयान नहीं देना चाहता. मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त है और गांव वाले उनकी मौजूदगी से चिढ़ रहे हैं. सतर्क रहें, एक गलत सवाल करने पर आप पर हमला हो सकता है.’  हाल ही में गठित सेना से जुड़े युवाओं और पुलिसकर्मियों के अलावा गांव ऐसे दिख रहा है, जैसे उसकी आत्मा ही न रह गई हो. गांव के लोग मीडिया से बात करने से कतरा रहे हैं.

गौरव और सौरव नाम के दो भाई जो अखलाक के घर के बगल में ही रहते हैं, हत्या के संदिग्ध आरोपियों के तौर पर गिरफ्तार किए गए हैं. उनके घर के मुख्य दरवाजे की दरार से रोशनी बाहर झांक रही है. दरवाजे पर दस्तक देने पर दरवाजा खुलता है. यह आरोपियों की मां उर्मिला है. लगातार रोने से सूज गए चेहरे के साथ वे कहती हैं, ‘मेरे बेटों का इस हत्या से कुछ लेना देना नहीं है. मैं मीडिया को यह बताते-बताते थक गई हूं. सारा गांव जानता है कि अखलाक को किसने मारा. हत्यारे खुलेआम घूम रहे हैं और मेरे बेटों को बिना वजह फंसाया जा रहा है.’  जब इस संवाददाता ने उनसे हत्यारे का नाम पूछा तो उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया. दोबारा दरवाजे खटखटाने पर उन्होंने दरवाजा खोला और पूछा, ‘हम त्योहारों पर उनके घर जाते थे, अपने यहां उनको बुलाते थे. मेरे बेटे अखलाक को चाचा कहते थे. वे उनकी हत्या कैसे कर सकते हैं? आपको एक बात और बता दूं कि हत्यारे बाहर के नहीं हैं. वे इसी गांव के रहने वाले हैं.’

उर्मिला यह स्वीकार करने वाली अकेली नहीं हैं कि अखलाक को मारने वाले इसी गांव के हैं. गांव के प्रधान संजय राणा भी कहते हैं कि हत्यारे इसी गांव के हैं. संजय राणा के केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा समेत कई भाजपा नेताओं से नजदीकी रिश्ते हैं, जिसे लेकर उनकी अकड़ जगजाहिर है. अखलाक की हत्या के आराेप में जो पकड़े गए हैं, उनमें से एक संजय राणा का बेटा भी है, लेकिन इसे लेकर संजय बेहद सहज नजर आते हैं.

राणा इसलिए भी चर्चा में हैं क्योंकि पिछले दिनों में वे बार बार अपना रवैया व बयान बदलते रहे. जब अखलाक को मारे जाने की घटना सामने आई तब संजय राणा ने कहा कि 28 सितंबर की रात को वे और उनका बेटा दोनों गांव में नहीं थे. एक हफ्ते बाद उन्होंने ‘तहलका’ से कहा, ‘जब यह घटना घटी मैं अपने घर के अंदर था.’ अखलाक के घर से राणा का घर कुछ ही मीटर की दूरी पर है. लेकिन, ग्राम प्रधान होने के बावजूद, जब भीड़ अखलाक को पीट-पीटकर मार रही थी, वे अपने घर से नहीं निकले. वे याद करते हुए कहते हैं, ‘गांव के पुजारी ने मंदिर के लाउडस्पीकर से घोषणा कर गांववालों से बिजली के ट्रांसफार्मर के पास इकट्ठा होने को कहा. मुझे बताया गया कि लोग अखलाक के घर के पास इकट्ठा हो रहे हैं. मैंने 10.30 बजे रात को पुलिस को फोन किया. जब तक पुलिस न आ जाए, मैंने घर में ही रहने का फैसला किया. यह मैं ही था जो अखलाक को अपनी कार में लेकर अस्पताल गया.’

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पूरी बातचीत के दौरान राणा कहीं भी चिंतित नहीं दिखते. अपने समर्थकों से घिरे हुए, वे पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं कि उनका बेटा जल्दी ही छूट जाएगा. वे कहते हैं, ‘मेरा बेटा गुड़गांव में मेरे दामाद की फैक्ट्री में काम करता है. जब यह घटना हुई, उस समय वह दिल्ली में था.’ घटना के बाद राणा का बेटा बिसाहड़ा से सटे एक गांव से गिरफ्तार किया गया था.

‘तहलका’ ने उस पुजारी से भी मिलने की कोशिश की जिसने मंदिर के लाउडस्पीकर से घोषणा की थी, लेकिन मंदिर के पास जिस कमरे में वह रहता है, वह बंद था. वहां आसपास रहने वाले ज्यादातर लोगों ने बताया कि पूछताछ के बाद जबसे पुलिस ने उसे छोड़ा है, तबसे वह दिखाई नहीं दिया. यह कोई नहीं जानता कि असल में वह पुजारी कहां से आया था. संजय राणा कहते हैं, ‘मैं उसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता. एक साल पहले पुराने पुजारी की मौत हो गई थी, तब से मंदिर की देखरेख बिना किसी पुजारी के की जा रही थी. पूर्व प्रधान बाग सिंह द्वारा बहुत सिफारिश करने पर मैंने सुखदास को नए पुजारी के रूप में नियुक्त किया था.’ जबकि बाग सिंह ने ‘तहलका’ को बताया, ‘यह निहायत बकवास है. मैं उस पुजारी को नहीं जानता. मैं किसी ऐसे आदमी के नाम की सिफारिश क्यों करूंगा जिससे मैं पहले कभी मिला ही नहीं?’  कुछ गांव वालों ने बताया कि पुजारी बताया करता था कि वह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का रहने वाला है. एक ग्रामीण ने बताया, ‘लेकिन हर आदमी से अपने गांव का नाम उसने अलग-अलग बताया है.’ गांव में पुलिस तैनात है, लेकिन पुलिस को भी नहीं पता है कि प्रारंभिक पूछताछ के बाद वह पुजारी कहां गया? जन हस्तक्षेप नामक संगठन की ओर से गांव में एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम भेजी गई थी. इस टीम के सदस्य विकास वाजपेयी ने बताया, ‘कहा जा रहा है कि पुजारी एक अक्टूबर को डॉक्टर के पास गया था, तबसे नहीं लौटा.’

इस बीच अखलाक के घर का दरवाजा बंद है. इस गांव का एक पुश्तैनी परिवार उजाड़ा जा चुका है. वे अपने ही पड़ोसियों से धोखा खाकर आहत हैं इसलिए किसी ‘सुरक्षित’ जगह जाना चाहते हैं. फिलहाल अखलाक का परिवार वायुसेना में कार्यरत उनके दूसरे बेटे के साथ चला गया है. अखलाक की बेवा की टूटी चूड़ियों के टुकड़े खून सने दरवाजे के पास बिखरे एक निष्ठुर संदेश दे रहे हैं कि ‘बिसाहड़ा अब दोबारा वैसा नहीं हो सकेगा.’ लेकिन कुछ लोग तो यह भी पूछते हैं कि क्या भारत अब पहले जैसा रह जाएगा और क्या अखलाक के परिवार जैसे अन्य परिवार अधिक समय तक महफूज रह पाएंगे?