मंगल का एक पारंपरिक नाम भौम भी है. इसका अर्थ होता है भूमि या पृथ्वी का पुत्र. जैव विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह क्या यह पुत्र पृथ्वी पर चल रहे जीवन को एक नया विस्तार दे सकता है, इस संभावना पर लंबे समय से बहस होती रही है. इस पुरानी संभावना को नई नजर से जांचने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) का मंगलयान बीते पखवाड़े अपने अंतिम लक्ष्य यानी मंगल ग्रह की अंडाकार कक्षा में सफलतापूर्वक पहुंच गया. करीब 10 महीनों और 67 करोड़ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद यहां पहुंचा यह उपग्रह मंगल के वायुमंडल और उसकी सतह का अध्ययन करेगा.
भारत के लिए यह उपलब्धि दो तरह से अहम है. एक तो वह दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने मंगल अभियान के अपने पहले ही प्रयास में कामयाबी का झंडा गाड़ दिया. सफल मंगल अभियानों की कतार में भारत से पहले खड़े अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ का इस दिशा में पहला प्रयास असफल रहा था. दूसरे, उसने सबसे कम लागत में यह सफलता अर्जित की. इस अभियान पर खर्च हुई 450 करोड़ रु की रकम दूसरे देशों के ऐसे ही अभियानों के मुकाबले काफी कम है. उदाहरण के लिए लगभग इसी अवधि के दौरान भेजे गए नासा के ऐसे ही मंगल अभियान मैवन की लागत इससे करीब 10 गुना ज्यादा है. कुछ लोग यह दिलचस्प तथ्य भी साझा कर रहे हैं कि मंगलयान पर बनी हॉलीवुड की हालिया चर्चित फिल्म ग्रैविटी से भी कम लागत आई है जिसका बजट करीब 600 करोड़ डॉलर था. ग्रैविटी की कहानी भी एक अंतरिक्ष अभियान के इर्दगिर्द ही घूमती है.
करीब 200 अरब डॉलर राजस्व वाले अंतरिक्ष उत्पाद और सेवा क्षेत्र में मंगलयान जैसे अभियान भारत के लिए बड़ी उम्मीद जगाते हैं
मानव जीवन के भविष्य के लिहाज से मंगल को बहुत अहम माना जाता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक कई अरब साल पहले जब पृथ्वी आग का दहकता हुआ गोला थी तो मंगल पर जीवन के लिए बेहद अनुकूल वातावरण मौजूद था. इसकी सतह पर पर्याप्त पानी था और इस ग्रह का अपना एक घना वायुमंडल भी था. धीरे-धीरे धरती ठंडी और फलत: जीवनदायिनी हुई और मंगल पर परिस्थितियां कठोर होती चली गईं. उसकी सतह बहुत ठंडी हो गई. वायुमंडल सघन से विरल हो गया और इस ग्रह की सतह का सारा पानी सूखकर उड़ गया. मंगलयान से मिली जानकारी बेहतर तरीके से यह जानने में मदद कर सकती है कि ऐसा कैसे हुआ और क्या अब भी मंगल पर जीवन की कोई संभावना मौजूद है. यह मंगल के वातावरण में मीथेन गैस की मौजूदगी भी जांचेगा. गौरतलब है कि धरती पर अरबों टन मीथेन है जिसका अधिकतर हिस्सा छोटे-छोटे जीवाणुओं से आता है. एक वर्ग है जो मानता है कि मीथेन पैदा करने वाले जीवाणु यानी मीथेनोजेंस मंगल पर भी हो सकते हैं जो वहां के कठोर वातावरण के चलते सतह के नीचे मौजूद हों.
माना यह भी जा रहा है कि मंगलयान जैसे अभियानों से मिलने वाली जानकारियां भविष्य में वहां मानव बस्तियां बसाने के लिहाज से काफी अहम होंगी. 2030 तक इंसान के मंगल पर उतरने की बात हो रही है. दरअसल आज भी हमारे सौरमंडल में पृथ्वी के बाद मंगल ही है जो इंसानों के रहने के लिए अनुकूल है. इसकी सतह के नीचे पानी की मौजूदगी है. यह न तो बहुत गर्म है और न बहुत ठंडा. सोलर पैनलों के लिए यहां पर सूरज की पर्याप्त रोशनी है. इसका गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के मुकाबले 38 फीसदी है और बहुत से वैज्ञानिक मानते हैं कि मानव शरीर खुद को इसके मुताबिक ढाल सकता है. विरल ही सही, पर यहां एक वायुमंडल है जो सौर विकिरण से ढाल का काम कर सकता है. मंगल पर दिन-रात का चक्र भी पृथ्वी जैसा है. यहां एक दिन 24 घंटे 39 मिनट और 35 सेकेंड का है.
हालांकि मंगलयान सहित भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम एक वर्ग में आलोचना का विषय भी बना है. ऐसे भी लोग हैं जिनका मानना है कि अंतरिक्ष कार्यक्रम अमीर औद्योगिक देशों के शगल हैं जिनकी देखादेखी भारत को नहीं करनी चाहिए. वह इस पैसे का इस्तेमाल शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी उन बुनियादी सेवाओं में कर सकता है जो आम आदमी को सीधे प्रभावित करती हैं और जिनका हाल देश में बहुत बुरा है. वहीं इसके उलट बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि इसके अपने फायदे हैं. अंतरिक्ष उत्पाद और सेवा क्षेत्र का बाजार भविष्य के लिए काफी संभावनाओं से भरा हुआ है. अमेरिका स्थित सेटेलाइट इंडस्ट्री एसोसिएशन की सितंबर 2014 में ही आई एक रिपोर्ट बताती है कि 2013 में सेटेलाइट उद्योग से करीब 195 अरब डॉलर का राजस्व पैदा हुआ. कई दूसरी रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि अगले कुछ साल में व्यावसायिक मकसद के लिए लांच किए जाने वाले सेटेलाइटों का कारोबार कम से कम 15 फीसदी सालाना की दर से बढ़ेगा. इस क्षेत्र में सफल खिलाड़ी गिने-चुने ही हैं. मंगलयान ने एक बार फिर संदेश दिया है कि कोई कम खर्च में अपना उपग्रह अंतरिक्ष में भेजना चाहे तो उसे नासा या यूरोपियन स्पेस एजेंसी की बजाय इसरो की तरफ देखना चाहिए.
लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि विज्ञान और तकनीक में निवेश अंतत: योग्यता और क्षमता को प्रोत्साहन देता है. इससे उन प्रतिभाओं के उभरने में मदद मिलती है जो व्यापक रूप में अर्थव्यवस्था और समाज को लाभ पहुंचाती हैं. इस लिहाज से देखें तो मंगलयान की सफलता हर नजरिये से मंगलकारी दिखती है.