‘ब्याह हमें किस मोड़ पे ले आया…’

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हम अपने आप को इक्कीसवीं सदी की स्त्रियां मान बैठे हैं. यही वजह है कि हम पितृसत्ता के नियमों-कानूनों से अपना विरोध जताते हुए भरपूर प्रतिरोध की पहचान बनाने पर गर्व करते हैं. हम चाहते हैं कि दबी सहमी स्त्री छवि नदारद हो जाए. लेकिन जरा रुक कर सोचिए, कहीं यह हमारी खामखयाली तो नहीं? क्योंकि हम ऐसा सोच ही रहे होते हैं कि अचानक हमें पुरुष सत्ता के किले की ईंट से ईंट बजा देने वाली नारियों का दूसरा चेहरा नजर आता है. जिसको हम ने आत्मसजग माना था वही स्त्री झुकी हुई कमर वाली समर्पिता के रूप में हम से मुखातिब है.

यह क्या हुआ? यह ब्याह का मामला है.

( ब्याह हमें किस मोड़ पे ले आया)

मैं बार-बार कहती हूं कि स्त्री जब तक प्यार में रहती है, उससे ज्यादा ताकतवर और खुदमुख्तार कोई नहीं होता मगर विवाह उसे घेर लेता है. बेशक आज भी औरत विवाह के ऐसे चक्रव्यूह में फंसी है जिसे भेदने की कला उसके पास नहीं. भेदने की कला या विद्या इसलिए भी उसके पास नहीं कि वह खुद भी विवाह संस्था को अपने लिए सुख, सुरक्षा और संतोष का गढ़ मान बैठी है.

पिछले दिनों बनारस में घटित स्त्री हिंसा की चर्चा हर जगह है. कहीं चोरी छिपे तो कहीं खुलकर उस पर बात हो रही है. इस घटना के मुख्य पात्र एक प्रोफेसर और उनकी पत्नी हैं. यह मोहब्बत और शादी के बीच अपना करिश्मा दिखाता कोई अजूबा नहीं है, बल्कि ऐसा हो जाता है की तर्ज पर जन्मी स्थिति है. प्रोफेसर साहब की पत्नी जाहिल नहीं हैं, एिक्टविस्ट रही हैं जागरूक और समझदार हैं, पढ़ी-लिखी हैं और सत्रह अठारह साल पहले तक प्रोफेसर साहब की जाने अदा रही हैं. वह तो प्यार की दीवानगी ही थी कि विवाह के सिवा कुछ न सूझा. वैसे भी लोग शादी हो जाने को ही पक्का प्रेम मानते हैं. प्रेम को सामाजिक दायरे में वैध बनाते हैं. साथ ही खाली प्रेम पर पुख्ता यकीन कौन करे, कल के दिन शादी किसी और से कर ली तो प्यार टूटे न टूटे भरोसा छूट जाता है. धैर्य विहीन लोगों को प्रेम नहीं करना चाहिए क्योंकि अधीरता में अक्सर अन्याय और हिंसा घटित हो जाती है.

खैर, हम प्रोफेसर साहब की शादी पर थे. शादी हुई. बेटा हुआ. गृहस्थी बसी. मेरा मानना यह भी है कि प्रेम विवाह में प्रेम तो शादी के मंडप में ही स्वाहा हो जाता है, अब आपकी जिंदगी विवाह की कब्जेदारी में आ जाती है. लोग कहते हैं कि जिससे प्यार किया है उसके साथ प्रेम निभाना है. विवाह के बाद आप प्रेम नहीं विवाह निभाते हैं और नहीं निभता तो तलाक लेने चल देते हैं किसी कोर्ट कचहरी में. प्यार के साथ तो ऐसा नहीं होता. प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी के साथ भी यही हुआ कि विवाह से पहले प्रेम खट्टा तक नहीं हुआ, शादी के बाद सड़ने लगा. प्रेम के समय जिस पुरुष-सा पुरुष दुनिया में नहीं था और जिस लड़की-सी हूर कहीं नहीं थी वही रिश्ता इतना बिगड़ जाता है! अनजाने ही कोई महीन दरार फटते-फटते भयानक खाई में तब्दील हो जाती है जिसकी प्रेमी युगल ने कल्पना तक नहीं की होती. क्या साथ-साथ रहने की अबूझ ललक अब ऊब में तब्दील होने लगी? क्योंकि पत्नी रह गई प्रेमिका गायब!

कोई क्या करे जब प्रोफेसर साहब को अपनी पत्नी रूपी प्रेमिका बासी, चिड़चिड़ी और उबाऊ लगने लगी. दिल हाथ पकड़ने लगा- कोई तरोताजा लड़कीनुमा हंसमुख, मन लुभावन नारी मिले. वे दिल के हाथों पहले हारे थे दिल के ही हाथों फिर हारने लगे! यह अकेले उनके मन की मुराद नहीं है, हमारे आगे ऐसी बड़ी दुनिया है जिसमें प्रोफेसर, समाजकर्मी, लेखक, कलाकार, राजनीतिज्ञ आते हैं जो ‘ये अपना दिल तो आवारा’ के बैनर तले रहना पसंद करते हैं.

मैं यहां पुरुषों की बातों के बाद स्त्रियों के उस पक्ष पर आती हूं जिसमें उनका दिल भी किसी पर आ जाता है. मानती हूं की यह मर्द का जज्बा ही नहीं है, स्त्री में भी ऐसी ग्रन्थियां हो सकती हैं. फिर भी उक्त घटना के चलते एक बात का जवाब चाहती हूं कि कोई स्त्री उस पुरुष से क्या अपेक्षा करती है जो अपनी पत्नी को घर से बलपूर्वक निकाल रहा है? अपनी स्त्री को सड़क पर घसीट रहा है. अपने बेटे की मां के बदन के उघड़ने से बेखबर है. अगर वह औरत अपनी इच्छा से किसी के सामने विवस्त्र हो जाती तो यह पति उसको क्या नाम नवाजता? अपना ही जाया बेटा उसे लाठी से पीट रहा है साथ ही ये बाप बेटे इस ‘परित्यक्त’ औरत का गुजारा भत्ता भी खाए पचाए जा रहे हैं. याद रखिए कि यह भी प्रेम विवाह ही था.

‘विश्वास किसी मर्द का नहीं, इंसान का किया जा सकता है और इंसान होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं. स्त्री सशक्तिकरण के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है जिसे पितृसत्ता हमसे छीनने की फिराक में रहती है’

प्रोफेसर साहब की मनचाही नई स्त्री तुम इस घर के बाशिंदों पर कितना भरोसा कर रही हो? यहां प्यार की आशा में आई हो तो हमें भी तुम्हारे लिए अफसोस है क्योंकि यह घर हमदर्द इंसानों का तो कतई नहीं. ये डिग्रीधारी होंगे शिक्षित और सभ्य होने के नाम पर जीरो हैं. तुमने स्त्री सशक्तिकरण क्या इसी रूप में अपनाया है कि किसी स्त्री के हक पर डाका दाल दें? क्या ऐसे भी प्यार होता है की दूसरी औरत को सड़कों पर घसीटा जाये और महसूस किया जाये कि घर में बैठी स्त्री पहली से सौ दर्जे बेहतरीन है? उस बेटे से भी आगे क्या उम्मीद बांधी है जो सोलह साल की अल्पायु में मां को तड़ातड़ पीट रहा है. यह अपनी मां का ही न हुआ तो सौतेली मां का क्या होगा? वह तो अपने बाप की मर्दानगी की रिहर्सल कर रहा है जो बीबी को काबू में रखने के काम आयेगी. सोच लो कि एक स्त्री जहां उजड़ रही है तो नई औरत के लिए अपनी बसावट का सपना भ्रम के सिवा क्या है?

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स्त्री सशक्तिकरण संपन्नता में छलांग लगाने से नहीं होता, यहां तो सजग विचारों के खजाने चाहिए क्योंकि देश में महिला विचारकों की बहुत कमी है. सादगी सशक्तिकरण की पहली शर्त है और अभावों से लड़ना, चेतना सम्पन्न स्त्रियों का पहला कदम होता है. इसी कदम के आगे अत्याचारों, प्रताड़नाओं और घरेलू-बाहरी हिंसा से निजात के लिए पितृसत्ता से टकराने के लम्हे आमने-सामने होते हैं.

क्या हमारा स्त्री विमर्श किसी न किसी बिंदु पर डगमगाने लगता है?

प्यार, मोहब्बत, अपनत्व और हमदर्दी भरा लगाव, ऐसे कुदरती लक्षणों से लैस स्त्री अपनी मनुष्यता के लिए प्रतिबद्ध होती है लेकिन यह क्या कि अब उसे प्यार के नाम पर संपत्तियों की जागीरें नजर आने लगी हैं. यह प्यार है या प्यार का बाजार? पढ़ी लिखी ‘समझदार’ युवा स्त्रियां विवाह के नाम पर बूढ़े वरों को चुनकर अपने आप को प्यार का इश्तहार बना रही हैं और सात फेरों के जादुई असर से घंटे-भर में संपत्ति की स्वामिनी बन बैठती हैं. कहां गई प्रेमचंद के उपन्यास ‘निर्मला’ की त्रासदी और किधर गया बेमेल विवाह का अन्यायी चलन? मैं मानती हूं कि प्रेम की अपनी ताकत होती है सो कहा भी गया है- प्रेम न जाने जात कुजात/भूख न माने बासी भात. अब जब मोहब्बत का जलवा है तो कभी किसी समझदार आधुनिक युवती को किसी कंगाल बूढ़े से प्रेम क्यों नहीं होता? यदि कहीं ऐसा हुआ हो तो मुझे बताइये. मैं उस मौहब्बत को सलाम भेजूंगी.

पितृसत्ता दीमक की तरह स्त्री के जीवन से चिपटी है जो जिंदगी को भीतर ही भीतर खोखला करती जाती है. हम यहां आगे बढ़ने के उत्साह में अगली योजनाएं बना रहे हैं और वे वहां अपने धन-ऐश्वर्य और पद का लालच दिखाकर जागरूक स्त्रियों पर भी मर्दानगी की मूठ मार रहे हैं कि नई प्रेमिका के प्रेम में वे क्या-क्या नहीं कर गुजरेंगे. पहली औरत के लिए यातना-प्रताड़ना उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो जैसे.

आखिर में यही कहूंगी विश्वास किसी मर्द का नहीं, इंसान का किया जा सकता है और इंसान होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं. स्त्री सशक्तिकरण के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है जिसे पितृसत्ता हमसे छीनने की फिराक में रहती है.

(मैत्रेयी पुष्पा द्वारा लिखित आलेख का सम्पादित अंश)