बात करीब डेढ़ साल पहले की है. पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में राष्ट्रीय जनता दल का एक आयोजन था. इसमें अध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारी चुनने की परंपरा निभाई जानी थी. कार्यकर्ताओं और नेताओं से खचाखच भरे हॉल में पार्टी के कर्ता-धर्ता लालू प्रसाद यादव ने अपने लोगों को कुछ नसीहतें दीं. उन्होंने एक बात पर बार-बार जोर दिया कि सामंती शब्द का इस्तेमाल नहीं करना है. वे यह भी साफ-साफ समझा रहे थे कि सवर्णों को भी साथ लेकर चलना है, सब अपने हैं. लालू राजपूतों पर विशेष बल दे रहे थे और कह रहे थे कि ये तो बिल्कुल अपने हैं. लालू यहीं नहीं रुके. सवर्णों को अपनी तरफ करने की कवायद में वे यह भी कह गए कि अगर कभी कोई गलती हुई होगी तो माफी चाहते हैं. उस सम्मेलन के बाद लालू प्रसाद यादव ने तहलका से एक विशेष बातचीत की थी. इसमें भी उन्होंने कुछ यही बातें दोहराई थीं. उनका कहना था कि भूराबाल यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला को साफ करनेवाला नारा जो उनके नाम से जोड़ा गया है, वह एक साजिश है. इसके बाद कई खबरें आती रहीं जिनसे यह साफ होता रहा कि नीतीश से नाराज चल रहे सवर्णों को अपने पाले में करने के लिए लालू प्रसाद दिन-रात एक कर रहे हैं.
लेकिन यह सब पुरानी बातें हुई. वहीं लालू अब एक पुराने रंग के साथ नये अवतार में आने की कोशिश में हैं. लोकसभा चुनाव में हार के बाद पिछले दिनों वैशाली में अपनी पार्टी के प्रशिक्षण शिविर में उन्होंने 180 डिग्री की पलटी मारते हुए ऐलान किया कि मंडलवादी राजनीति को उभारना ही उनका लक्ष्य होगा. लगे हाथ उन्होंने यह भी मांग कर दी कि सरकारी ठेके में 60 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों के लिए होना चाहिए. अपनी पार्टी के उन्हीं कार्यकर्ताओं को उन्होंने एक हिसाब भी समझाया. बताया कि बीते लोकसभा चुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस को मिलाकर 45 प्रतिशत मत मिले हैं. लालू का कहना था, ‘अगर हम साथ होते, पिछड़े मतों का बिखराव नहीं होता तो भाजपा कहीं की नहीं होती.’
ठेके में आरक्षण वाला लालू का बयान सुर्खियां तो बना, लेकिन पटना के कुछ गलियारों और राजनीति में भी कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर किसी ने इस पर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया. भाजपा का तुंरत बयान आया कि वह तो पिछड़ों की राजनीति की हमेशा हिमायती रही है. अतिपिछड़े कोटे से मंत्री बने सत्ताधारी जदयू के भीम सिंह जैसे लोगों ने फॉर्मूला बनाया कि कैसे ठेके में आरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है. पटना में कुछ चुनिंदा जगहों पर ठेके में 60 प्रतिशत आरक्षण की बात को अच्छे दिन आने के संकेत के तौर पर देखा गया और उसके सच होने की परिकल्पना के साथ ही भविष्य के ताने-बाने तक बुन लिये गए. लेकिन इसके अलावा लालू प्रसाद के मंडल बम की कोई खास गूंज नहीं सुनाई दी. राजनीति के पटल पर थक-हार जाने और चारों तरफ से परास्त हो जाने के बाद लालू ने यह बम इस उम्मीद से फोड़ने की कोशिश की थी कि इसकी धमक से पूरे बिहार का राजनीतिक गलियारा हिलने-डोलने लगेगा.
‘एक अलग पहचान गढ़ चुके नीतीश तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर एक बार फिर विशुद्ध जाति की राजनीति के दायरे में नहीं लौट सकते’
अब सवाल कई हैं. पहला तो यह कि 1990 में जिस मंडल की राजनीति पर सवार होकर लालू प्रसाद देश के बड़े नेता बनने और 15 साल तक बिहार पर राज करने में सफल रहे थे, 2014 में अचानक वे फिर वही पुराना राग छेड़ने को क्यों मजबूर हुए. दूसरा सवाल यह है कि क्यों पूरी ऊर्जा लगाकर भी यह राग छेड़ने के बाद वह हलचल पैदा नहीं हो सकी जिसकी उम्मीद लालू या उनके पार्टी के नेताओं ने की थी. और इन दोनों सवालों के बीच बड़ा सवाल यह भी कि जिन नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को लेकर लालू प्रसाद 45 प्रतिशत वोट की बात बार-बार कह रहे हैं, उन नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की ओर से इस कवायद पर कोई गर्मजोशी वाले बयान क्यों नहीं आए. आखिर इस मंडल बम पर नीतीश ने क्यों पूरी तरह मौन साध लिया?
इन सवालों का जवाब अलग-अलग लोग, अलग-अलग तरीके से देते हैं. राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘चीजें समय के साथ आगे बढ़ती हैं. लालू प्रसाद अपने फायदे के लिए चीजों को पीछे ले जाना चाहते हैं. वे अगर मंडलवादी राजनीति की ही बात करते और ठोस आंकड़ों के साथ कहते कि पिछड़ों की शिक्षा की स्थिति में सुधार होना चाहिए, भूमि सुधार को पिछड़ों के हित के लिए लागू किया जाना चाहिए या फिर पिछड़ों के कौशल आदि का विकास होना चाहिए तो लगता कि वे सच में पिछड़ों या अतिपिछड़ों की हिमायत करते हुए राजनीति करने का मन बना रहे हैं. लेकिन उन्होंने तो सिर्फ मंडलवादी राजनीति का नाम लिया और ठेके में आरक्षण की बात कह दी.’ चौधरी आगे कहते हैं, ‘ पिछड़ों को यह समझ में आ रहा है कि ठेके में इस आरक्षण से किसे फायदा होनेवाला है. लालू प्रसाद ने अपने कार्यकाल में ठेके-पट्टे के जरिये ही एक नया सामंत और प्रभु वर्ग खड़ा किया था. एक बार फिर वे वैसा ही करना चाहते हैं जिससे मुट्ठी भर लोगों को फायदा हो. बिहार की तो छोड़िए, इससे खुद लालू प्रसाद की पार्टी का भी भला नहीं होगा. नीतीश कुमार के साथ गठजोड़ की जो उम्मीदें बंध रही हैं, दो और दो मिलाकर चार का जो ख्वाब लालू प्रसाद दिन-रात देख रहे हैं, वह भी अधूरा रह जाएगा. ऐसा इसलिए होगा कि नीतीश कुमार ने पिछले नौ सालों में बिहार की राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनायी है और राजनीति को सामाजिक न्याय, विकास और पूंजीवाद की ओर ले जाने की कोशिश की है. तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर नीतीश एक बार फिर विशुद्ध जाति की राजनीति के दायरे में नहीं लौट सकते.’
प्रो चौधरी जो कहते हैं वह सिर्फ एक आलोचक का विरोधी बयान भर नहीं माना जा सकता. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि लालू के इस बयान के बाद नीतीश कुमार के लिए जवाब देना इसलिए भी आसान नहीं होगा क्योंकि इससे लालू ने कमंडल को मंडल के जरिये खत्म करने की चाल चलने के साथ ही नीतीश की राजनीति पर भी कब्जा जमाने का एक दांव खेला है. नीतीश अगर कहते हैं कि हां, ऐसा होना चाहिए तो पूछा जाएगा कि इतने सालों तक सत्ता में रहते हुए ऐसा करने से उन्हें किसने रोका था. अगर न कहते हैं तो लालू यह प्रचार करेंगे कि हमने तो पिछड़ों की भले की बात कही, नीतीश ने ही साथ नहीं दिया. नीतीश के लिए मुश्किलें इतनी भर नहीं हैं. अपने पहले कार्यकाल में सवर्ण आयोग का गठन कर और इस बार लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में सवर्णों को विशेष तरजीह दिए जाने की बात कहकर वे पिछड़ों की पहचान वाली राजनीति से बहुत आगे निकल चुके हैं. इसलिए तुरंत उसी खोल में लौटना अब उनके लिए उतना आसान नहीं रह गया है.
लालू प्रसाद अपने कहे को लगातार हवा पानी दे रहे हैं. वे बयान पर बयान दिये जा रहे हैं. लेकिन नीतीश लगातार इस पर मौन साधे हुए हैं. लालू के इस नये शिगूफे पर उनकी पार्टी के भीतर भी बहस हो रही है. पार्टी से जुड़े वरिष्ठ नेता व राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘लालू प्रसाद ने 21वीं सदी के दूसरे दशक में यह बात कही है जब मंडल के प्रतीकों की राजनीति का समय बीत गया है. अगर उन्हें ठेके में आरक्षण की बात ही करनी थी तो यह लड़ाई तो बहुत पहले से ही लड़ी जा रही है.’ मणी के मुताबिक 2003 में वे खुद इस मसले पर धरने पर बैठे थे. वे यह भी बताते हैं कि मध्यप्रदेश में जब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कहा था कि सरकारी खरीद में से अधिकांश हिस्सा पिछड़ों और दलितों के दुकान-प्रतिष्ठान से खरीदा जाए. मणी कहते हैं, ‘तब लालू प्रसाद कहां थे. तब उन्होंने क्यों एक बार भी साथ नहीं दिया था. अब थक-हारकर अपनी राय मिला रहे हैं. लेकिन मार्क्स ने कहा था कि इतिहास कभी दुहराता नहीं है अपने को और दुहराता है तो कभी प्रहसन के रूप में तो कभी ट्रेजडी के रूप में. लालू प्रसाद अगर उम्मीद करते हैं कि एक बार फिर इतिहास दुहरा लेंगे तो इतिहास प्रहसन के रूप में ही दुहरायेगा.’
जानकारों के मुताबिक इस मुद्दे पर लालू और नीतीश का मेल कोई खास फलदायी नहीं होने वाला क्योंकि मंडलवादी राजनीति का नया चेहरा अब भाजपा है
मणी सहित कई जानकारों से लंबी बातचीत होती है. उनके मुताबिक मान भी लिया जाए कि लालू प्रसाद या फिर नीतीश कुमार मंडल की राजनीति का दौर बिहार में वापस लाना चाहते हैं. लेकिन सिर्फ जुबानी जमा खर्च करने से तो होगा नहीं. सवाल पूछा जाएगा कि पिछले करीब 25 साल से सामाजिक न्याय के नाम पर ही लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सत्ता बिहार में रही है. किसने रोका था उन्हें ठेके में आरक्षण लागू करने से और अब जब मुश्किल दौर में पहुंच गए हैं तो यह सब क्यों याद आ रहा है.
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि घोर मंडलवादी राजनीति की सिफारिश करके भी लालू प्रसाद अपनों से ही घिरते जा रहे हैं. दूसरी ओर मौन साधकर नीतीश कुमार भी उसी चक्र में फंसते जा रहे हैं. लालू के इस नये पैंतरे से दोनों के बीच संबंध बनने के जो आसार बने हैं, उसमें भी अगर-मगर लगने की संभावनाएं बढ़ गई हैं. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि जाति की राजनीति करने के बावजूद नीतीश कुमार खुलकर अब इस तरह जाति की राजनीति करने सामने नहीं आएंगे. तब सवाल यह उठता है कि आखिर दोनों करेंगे क्या. नीतीश कुमार क्या करेंगे ? क्या लालू प्रसाद की इस कवायद का खंडन करेंगे या मौन साधकर साथ हो जाएंगे. मणी कहते हैं, ‘दोनों के पास कोई विकल्प नहीं है. मजबूरी में साथ हो रहे हैं. लेकिन बहुत संभावनाएं अब नहीं दिखती क्योंकि मंडलवादी राजनीति का नया चेहरा अब भाजपा है जिसका नेता, जो अब पीएम बन चुका है, पिछड़े समूह का है. वह आर्थिक रूप से भी पिछड़ी श्रेणी का है. चाय बेचनेवाला है और भाजपा की ओर से पीएम बन चुका है.’
बातचीत के आखिर में मणी एक और सवाल उठाते हैं. कहते हैं, ‘बिहार में मगध विश्वविद्यालय सबसे बड़े दायरेवाला विश्वविद्यालय है. उसका नाम कुशवाहा जाति से आनेवाले और बिहार आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्गज नेता जगदेव प्रसाद के नाम पर करने की मांग वर्षों से होती रही. लेकिन अभी कुछ दिनों पहले उस विश्वविद्यालय का नामकरण बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के नाम पर करने की घोषणा कर दी गई. मगध में या पिछड़ों की राजनीति में या फिर शिक्षा के क्षेत्र में क्या सत्येंद्र नारायण सिन्हा की भूमिका जगदेव प्रसाद से ज्यादा थी? फिर क्यों लालू प्रसाद या नीतीश कुमार ने नहीं कहा कि जगदेव प्रसाद के नाम पर ही विश्वविद्यालय का नाम होगा. वीपी सिंह के नाम पर ही रखा जाता तो भी एक बात होती. वीपी सिंह का इतना हक तो बिहार पर बनता ही है और मंडल की राजनीति को आगे बढ़ानेवालों से इतनी उम्मीद भी की ही जाती है. वे पहचान के तौर पर ही सही, वीपी सिंह का सम्मान करें. मणी कहते हैं, ‘मंडल या आरक्षण अब बूढ़ी गाय हो चुकी है, इसका दोहन अब बात बनाकर उस तरह से नहीं किया जा सकता.’
लालू प्रसाद के संगी-साथी या राजनीतिक विश्लेषक जो सवाल उठा रहे हैं, वह हवाबाजी जैसी बात भी नहीं. लालू के एक सहयोगी कहते हैं, ‘उन्होंने इस चुनाव में देख लिया कि उनके तीन दिग्गज राजपूत नेता जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह और प्रभुनाथ सिंह हार गए. सवर्णों की एक ही जाति पर लालू प्रसाद को ज्यादा भरोसा था. वे मानकर चल रहे थे कि राजपूत पहले की तरह उनका साथ देंगे. लेकिन इस बार उलटा हुआ. जहां-जहां राजपूत उम्मीदवार थे वहां यादवों ने तो राजद के नाम पर राजपूत उम्मीदवारों का साथ दिया, लेकिन राजपूतों ने राजद के नाम पर गैर राजपूत राजद उम्मीदवारों का साथ नहीं दिया.’ जानकारों की मानें तो लालू प्रसाद को लग रहा है कि अब सवर्णों के किसी खेमे से मोह रखने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला इसलिए एक बार पिछड़ी राजनीति पर बाजी लगाई जाए. शायद कुछ हासिल किया जा सके. इसीलिए लालू प्रसाद ककहरा रट रहे हैं और कह रहे हैं कि राजद, जदयू और कांग्रेस को मिलाकर 45 प्रतिशत मत मिले हैं, तीनों साथ होते या आगे होंगे तो भाजपा की हवा निकल जाती या निकल जाएगी.
साफ है कि लालू दो और दो चार का हिसाब लगा रहे हैं. उनके और नीतीश, दोनों के ही साथ रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘राजनीति में दो और दो चार कभी-कभी सिर्फ संयोग से ही होता है. लालू प्रसाद अब यदि सिर्फ जाति की राजनीति और मंडल के जरिये नैया पार लगाना चाहते हैं और नीतीश उस पर सवार होना चाहते हैं तो सिवाय घाटे के कुछ नहीं होनेवाला.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में तमाम कोशिशों के बाद यादवों तक का वोट लालू प्रसाद अपने पक्ष में नहीं रख सके तो दूसरों को क्या समेट पाएंगे? पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों का वोट भाजपा के साथ गया है. उससे लड़ने के लिए 1990 का फॉर्मूला नहीं आजमाया जा सकता. वह एक समय की बात थी. अब बहुत पानी बह चुका है. मंडल का राग गाकर या ठेके में आरक्षण की बात भर करने से पिछड़ी जाति के युवा आकर्षित नहीं होनेवाले. उन्हें रोजगार चाहिए, अच्छी पढ़ाई चाहिए, सारी सुविधाएं चाहिए. ठेका सार्वजनिक तौर पर आर्थिक सशक्तिकरण नहीं करता. इसका दायरा सीमित होता है.’ तिवारी जो कहते हैं उसका विस्तार प्रेम कुमार मणी भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘लालू प्रसाद को कुछ भी कहने से पहले आंकड़ों को विस्तार से देखना चाहिए. बीते लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ों के मतों में भाजपा ने जबर्दस्त सेंधमारी की है. अतिपिछड़ों का 42 प्रतिशत वोट भाजपा को गया है, 26 प्रतिशत जदयू को और महज नौ प्रतिशत राजद को. ऐसा क्यों हुआ, इस पर सोचना चाहिए.’
मंडलवादी राजनीति का दौर लौटाने की लालू की इस बात पर जितने लोगों से बात होती है, उनमें ज्यादातर यही कहते हैं कि सबकुछ आजमा कर थक चुके लालू प्रसाद एक बार चित या पट की राजनीति करना चाहते हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘वक्त बहुत आगे निकल चुका है. इसे न तो लालू समझ रहे हैं, न नीतीश. लालू प्रसाद की तरह नीतीश कुमार भी आजकल सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को ही मूल मसला बनाने की राह पर दिखते हैं, लेकिन अब इतने से युवा पीढ़ी साथ नहीं आनेवाली. विकास एक अहम एजेंडा होगा. इसके इर्द-गिर्द ही सबको रखना होगा.’ अर्थशास्त्री टीएन झा कहते हैं, ‘बिहार में मंडलवादी ताकतों के एकजुट होने, सामाजिक न्याय की धारा को और गति देने की जरूरत है. लेकिन इसके रास्ते क्या होंगे इस पर सोचना होगा. मंडल की राजनीति से एक और सामंती वर्ग का उदय भर न हो, इसका ध्यान रखना होगा. ‘
सवाल सबके सही होते हैं, विश्लेषण भी सबके सही लगते हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि लालू तो अपनी चाल चल चुके हैं. इस चाल से उन्हें क्या फायदा होगा, क्या नुकसान, यह खुद लालू या उनके दल के नेता भी नहीं जानते. हां, इतना तय है कि यह बयान देकर वे भाजपा को मुख्य पार्टी के तौर पर मजबूत करने की एक कोशिश कर रहे हैं. एक ओर भाजपा, दूसरी तरफ लालू या नीतीश या फिर दोनों. माना जा रहा है कि अगली लड़ाई का स्वरूप ऐसा ही होगा. जिस तरह से लोकसभा चुनाव में मुकाबला भाजपा बनाम लालू के बीच रहा, उसी तरह लालू प्रसाद यादव विधानसभा चुनाव में भी भाजपा बनाम लालू के बीच ही मुकाबला रखना चाहते हैं. नीतीश या तो लालू प्रसाद के साथ आएं या फिर अन्य की श्रेणी में रहें.