21 जून की शाम झारखंड की राजधानी रांची के भाजपा कार्यालय में गहमागहमी का माहौल था. दिल्ली से उड़ान भरकर वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता एमजे अकबर वहां पहुंचे थे. झारखंड में एक साल के लिए खाली हुई एक राज्यसभा सीट पर उन्हें भेजने की घोषणा हुई थी. अचानक हुई यह घोषणा कोई चौंकानेवाली नहीं थी. राज्य के लगभग सभी दलों में लंबे समय से यह परंपरागत तौर पर होता रहा है. जब अकबर भाजपा कार्यालय मे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बतिया रहे थे, तब राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा के वरिष्ठ नेता अर्जुन मुंडा भी मौजूद थे. लगभग खामोश से. क्यों, कोई नहीं जानता लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में अपने सीट से हार जाने के बाद चाय में गिरी मक्खी की तरह निकालकर अलग रख दिए गए मुंडा को यह उम्मीद थी कि कम से कम पार्टी इस छोटे-से अवसर पर स्वाभाविक तौर पर उन्हें ही याद करेगी. लेकिन ऐसा हो न सका. मुंडा को यह उम्मीद करना गैरवाजिब भी नहीं था. राज्य बनने के बाद भाजपा की ओर से वे तीन बार मुख्यमंत्री बने हैं. देशभर में तेजी से आदिवासी नेताओं के बीच पहचान कायम करने वाले नेता रहे हैं. ऐसी तमाम संभावनाओं व खासियतों के बावजूद पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बाद वे जिस तरह से एकदम से किनारे कर दिए गए, उससे कई सवाल भाजपा के अंदरखाने में ही उठते हैं. कुछेक मानते हैं कि अर्जुन मुंडा को महज एक चुनाव हारने के बाद इस तरह से उपेक्षित किया जा रहा है तो उसकी वजह सिर्फ चुनाव हारना नहीं बल्कि यह राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास से वर्षों तक चले 36 के आंकड़े का परिणाम है, जिसे अब रघुबर के सत्ता में आने के बाद उन्हें भुगतना पड़ रहा है. कुछेक यह बताते हैं कि चूंकि मुंडा घोषित तौर पर आडवाणी खेमे के नेता रहे हैं, इसलिए नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आडवाणी की चेलई की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है. ऐसी ही कई और वजहें लोग बताते हैं. वजह जो भी हो लेकिन खुद भाजपा के अंदर भी एक बड़ा खेमा यह मानता है कि इस तरह से मुंडा को उपेक्षित करना पार्टी के स्वरूप के अनुसार ठीक नहीं दिखता. चुनाव हारने वाले लोग केंद्र में अहम मंत्री बनाए गए हैं. चुनाव न लड़ने वाले लोग भी बहुत महत्व पा रहे हैं. एक वर्षों के लिए राज्यसभा की एक खाली हुई सीट पर मुंडा के नाम पर एक बार भी विचार नहीं किए जाने के बाद ऐसे तमाम सवाल भाजपा के अंदर ही उठने शुरू हो गए हैं.
सबको मालूम है कि ये सवाल धरे के धरे रह जाएंगे. सूत्र बताते हैं कि झामुमो से आने के बाद भाजपा में छा जाने वाले अर्जुन मुंडा अगर चुनाव हारने के बाद से एकदम से खामोश हैं और चुपचाप पार्टी के हर सभा-सम्मेलन में शामिल हो रहे हैं तो उनकी इस खामोशी में भी एक राजनीति है, जिसका स्वरूप आने वाले दिनों में देखा जा सकता है. क्या एक समय में बाबूलाल मरांडी को अपदस्थ कर मुख्यमंत्री बनने वाले मुंडा भी कभी मौका पाकर बाबूलाल की तरह राह अपनाने का साहस जुटा पाएंगे? क्या मुंडा तब तक एक अनुशासित सिपाही की तरह रघुबर दास को उनके कार्यकाल के बीच में ही हटा दिए जाने की उम्मीद में टकटकी लगाए रखेंगे? क्या अर्जुन मुंडा वक्त की नजाकत तो समझकर अभी चुपचाप ही रहेंगे, क्योंकि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है. और एक बार भी मुंह खोलना उन्हें भारी झमेले में फंसा सकता है. ऐसे कई सवाल मुंडा को लेकर आए दिन भाजपा कार्यालय में सुनने को मिलते रहते हैं.
जिस दिन एमजे अकबर के नाम की घोषणा हो रही थी, उस दिन भी कार्यालय के बाहर भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच बतकही में एक विषय मुंडा थे. जाहिर सी बात है कि यह सवाल अर्जुन मुंडा से पूछने का मतलब नहीं था कि आपकी ओर पार्टी ने ध्यान क्यों नहीं दिया, आपके नाम पर एक बार विचार तक क्यों नहीं हुआ? मुंडा का सीधा जवाब होता कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व फैसला करता है और उनका हर फैसला सिर आंखों पर होगा. एमजे अकबर हमारी पार्टी के बड़े और योग्य नेता हैं, इसलिए यह फैसला लिया गया. यही सवाल दूसरे तरीके से एमजे अकबर के सामने रखा जाता है कि आप तो 1989 में बिहार के किशनगंज से चुनाव लड़े और जीत दर्ज की थी. दोबारा भी लड़े मगर जीत नहीं सके. लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा में शामिल हुए और फिर अचानक झारखंड से उम्मीदवार बनने कैसे आ गए. एमजे अकबर कहते हैं, ‘मैंने पत्रकारिता के दौरान बहुत समय झारखंड में गुजारा हैं, इसलिए मेरा झारखंड से रिश्ता बहुत पुराना और गहरा है. यह मेरा सौभाग्य है कि झारखंड की सेवा करने का मौका मिला है.’
खैर! आगे क्या होगा, आगे की बात है. अकबर का राज्यसभा जाना तय है. भाजपा के पास खुद का अंकगणित है. बाबूलाल मरांडी की पार्टी को तोड़ देने के बाद यह गणित और मजबूत हो चुका है. आजसू पार्टी का साथ उसके पास है ही. हालांकि इस बहाने झामुमो ने अपनी स्थिति मजबूत जरूर कर ली है. झामुमो ने पार्टी की ओर से हाजी हुसैन का नामांकन करवाया है. हाजी हुसैन जीत भले न सके लेकिन हेमंत सोरेन ने हाजी के बहाने पूरे विपक्ष को एकजुट कर उसका सिरमौर नेता बनने की कवायद की और यह उनकी सफलता भी रही.