जनता परिवार में छह दलों के मिलने अथवा विलय होने की खबरें रोज ही देख-सुन रहा हूं. इसके पीछे कहीं और कभी सामाजिक न्याय की राजनीति को मजबूत करने की बात कही जा रही है तो कहीं सांप्रदायिकता के विरोध करने की बात. लेकिन मुझे दोनों में संदेह लगता है. सामाजिक न्याय का एक चरण पूरा हो चुका है और अब दूसरे अध्याय की जरूरत है और उस दूसरे अध्याय के लिए लोहिया आदि के जमाने के नारे से और इन पुराने नेताओं से कुछ होगा, ऐसा नहीं लगता. 1990 के नारे से भी कुछ होगा, संदेह है. सामाजिक न्याय के दूसरे चरण के लिए नया नारा चाहिए, दौर के अनुसार नई भाषा चाहिए, नए कार्यक्रम चाहिए, नई कार्यशैली चाहिए और उससे भी बढ़कर नए लोग चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से जो दल मिल रहे हैं वे 1990 की बिसात और बुनियाद पर ही राजनीति को आगे बढ़ा देना चाहते हैं. 1990 से अब तक 25 साल का समय हो चुका है और एक चक्र पूरा हो चुका है. आरक्षण और हिस्सेदारी आदि का एक काम तो फिर भी बहुत हद तक हो चुका है, अब सीधे-सीधे सत्ता-शासन में हिस्सेदारी चाहिए. सामाजिक न्याय में पिछड़ी बहुतेरी ऐसी जातियां हैं, जो अब भी सत्ता-शासन से बहुत दूर हैं. उन्हें अब सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए. जो हिस्सेदारी देगा, हिस्सेदारी के लिए रास्ता खोलेगा, वह समूह उधर ही जाएगा. अभी भी न जाने कितनी ऐसी जातियां हैं, जिनके समुदाय में एक करोड़पति नहीं मिलेगा. जो इसके लिए अवसर खोलेगा, वह समूह उधर ही जाएगा. उन्हें समाजवादी सिद्धांत, नीति और सांप्रदायिकता आदि का नारा देकर नहीं रोका जा सकता. सुदूर गांव में रहनेवाले अतिपिछड़ों और महादलितों के लिए सांप्रदायिकता बड़ा मसला नहीं है, उन्हें हिस्सेदारी चाहिए. उन्हें सामाजिक न्याय की लड़ाई से जोड़ने के लिए नए नारे चाहिए लेकिन इस महाविलय के प्रस्ताव में कुछ भी ऐसा नहीं दिख रहा.
आप सामाजिक न्याय की लड़ाइयों का या आंदोलनों का इतिहास देखिए. हमेशा नए तरीके अपनाकर राजनीतिक व सामाजिक लड़ाई लड़ी गई है और उसका असर बहुत दिनों बाद हुआ और एक चरण के बाद फिर तरीके बदलते रहे हैं. बिहार में 40 के दशक में त्रिवेणी संघ के जरिये राजनीति हुई, जनेउ आंदोलन चला. उससे माहौल बना तो लोहिया ने उसे आगे बढ़ाने के लिए एक सुव्यवस्थित रूप देते हुए 50 के दशक में पिछड़ा पावे सौ में साठ, सप्तक्रांति, चौखंभा राज आदि का नारा दिया, जो लोकप्रिय हुआ और उसके पक्ष में गोलबंदी हुई. तब कर्पूरी जैसे नेता का उभार हुआ. बाद में उसी का परिणाम रहा कि 90 में बिहार में मंडल आंदोलन सफल हुआ, राजनीति में सब कुछ बदला. 25 सालों तक राज बदला रहा और उस मंडल आंदोलन ने और सामाजिक न्याय की लड़ाई ने मानसिक तौर पर भी परिवर्तन किए. उसी का असर यह है कि निचले स्तर तक राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है, आत्मसम्मान का भाव जगा है, 90 के दशक में बड़े हुए नौजवान पीढ़ी की दूसरी आकांक्षाएं बढ़ी हैं और अब आप कहेंगे कि राजनीतिक चेतना और तमाम आकांक्षा को छोड़ दो और नब्बे के दशक की तरह ही हमारे साथ रहो तो यह व्यावहारिक तौर पर नहीं होगा. फिर सामाजिक न्याय की लड़ाई में ऊपर से गोलबंदी होगी, निचले स्तर से बिखराव होगा और जब बिखराव होगा तो विचारधारणा गौण हो जाएगी. विचारधारा गौण होगी तो व्यक्तिगत स्वार्थों का टकराव होगा. ऊपरी स्तर पर नेता अपने स्वार्थ के लिए मिलेंगे और निचले स्तर पर जनता अपने समुदाय की आकांक्षा की पूर्ति के लिए अलग-अलग ठांव तलाशेगी और इसमें कुछ बुरा भी नहीं.
इस महाविलय में बिखराव के और भी पुख्ता संकेत मिल रहे हैं. महाविलय से बिखराव के रास्ते तैयार हो रहे हैं. उत्तरप्रदेश से मायावती को लिए बिना और बिहार से जीतन राम मांझी को लिए बिना आप सामाजिक न्याय की राजनीतिक लड़ाई का अध्याय पूरा नहीं कर सकते. मेरी राय है महाविलय की इस बेला में महाबिखराव के सबसे स्वर्णिम दिन हैं और अब ऐसे में अगर इसका फायदा भाजपा या एनडीए के नेता अगले विधानसभा चुनाव में नहीं उठा पाते हैं तो यह उनकी अपनी नाकामी होगी, उनके नेतृत्व की नाकामी होगी.
(निराला से बातचीत पर आधारित)