जब तक यह रिपोर्ट प्रकाशित होगी और आप इससे गुजर रहे होंगे, पूरी संभावना है तब तक दिल्ली में मुलायम सिंह के आवास से जनता परिवार के विलय की घोषणा हो चुकी होगी या उसकी आखिरी प्रक्रिया चल रही होगी. मुलायम सिंह यानी नेताजी के नेतृत्व में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, जनता दल (एस) वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, समाजवादी जनता पार्टी वाले कमल मोरारका, इंडियन नेशनल लोकदल वाले चौटाला परिवार के सदस्य आदि एक-दूसरे से गलबहियां भी कर रहे होंगे और हाथ ऊपर उठाकर दृश्यों को कैमरे में कैद करवा रहे होंगे. संभव है इस रिपोर्ट के आने और इससे आपके गुजरने तक सब मिलकर कोई संयुक्त प्रेस सम्मेलन भी कर लें और देश के संकटों पर बात करते हुए भाजपा को उखाड़कर फेंक देने, देश में समाजवादियों की सरकार कैसे बनेगी आदि का खाका भी पेश कर दें. ये देश-दुनिया, काॅरपोरेट, मोदी, सांप्रदायिकता, समाजवाद आदि को मिलाकर इतना जबर्दस्त काॅकटेल बनाकर पेश करने की कोशिश करेंगे कि उसमें बार-बार बिहार को लाने से बचेंगे. वे देश को बचाने के लिए इस विलय की बुनियाद तैयार होने की बात कहेंगे लेकिन एक सामान्य बच्चे की भी समझ में आनेवाली बात यह होगी कि फिलहाल यह सब बिहार में प्रयोग करने के लिए और बिहार में सबकुछ बचाने के लिए हो रहा विलय होगा. बिहार में इस महाविलय का परीक्षण इसी साल के आखिरी में होगा. अगर वह सफल रहा तो उसका मनोवैज्ञानिक असर 2017 में होनेवाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा और फिर 2019 में होनेवाला लोकसभा चुनाव इस प्रयोग का अहम पड़ाव होगा. लेकिन इस महाविलय का पूरा भविष्य बिहार विधानसभा चुनाव से ही तय होना है. बहरहाल, दूसरी बात.
इस महाविलय में न कुछ नया है, न कुछ बुरा और न ही हंगामा मचाने जैसी बात. समय और परिस्थितियों के अनुसार यह एक जरूरी राजनीतिक अभ्यास है, जो समय-समय पर पहले भी होता रहा है. कांग्रेस भी करती रही है और भाजपा भी. राजनीति में मिलना-हटना फिर जुड़ना बहुत सामान्य-सी बात रही है. इसलिए ही राजनीति के चरित्र को एक भद्दी गाली मुहावरे के तौर पर दी जाती रही है कि इसमें न कोई स्थायी दोस्त होता है, न स्थायी दुश्मन. और ऐसी प्रक्रियाओं में बात यदि समाजवादियों की हो, जनता परिवार की हो तो मिलने-जुड़ने-बिछुड़ने और अलग होते ही एक-दूसरे का अस्तित्व खत्म करनेवाली लड़ाई लड़ने का समृद्ध इतिहास और लंबा अभ्यास भी रहा है. समाजवादियों के आपस के झगड़े के इतिहास की शुरुआत जयप्रकाश नारायण और डाॅ. राममनोहर लोहिया के जमाने से ही हो गई थी और अपने जमाने में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ बोलने के कई अवसर भी तलाशे थे. खैर! वह बात पुरानी हो गई. जनता परिवार के मिलन और बिछड़न की कहानी का मूल अध्याय 1977 के बाद शुरू हुआ था. जयप्रकाश नारायण की सलाह पर 1977 में चार दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन हुआ था और उसे केंद्र में सत्ता भी मिली थी. बाद में जगजीवन राम की पार्टी सीएफडी का भी उसमें मिलन हो गया था. लेकिन जब एक-दूसरे के अहं टकराने लगे तो सब अलग भी हो गए थे. फिर लगभग एक दशक बाद बीपी सिंह ने कोशिश कर जनता दल को 1988 में खड़ा किया और 1989 में सत्ता भी मिल गई लेकिन अगले ही साल 1990 में उससे चंद्रशेखर अलग भी हो गए थे. दो सालों बाद मुलायम सिंह ने अपने कुनबे के साथ अलग रास्ता अपना लिया था, 1994 में जाॅर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने अलग रास्ता अपना लिया था और 1997 में लालू प्रसाद ने अलग पार्टी बना ली थी. लगभग एक साल बाद ओम प्रकाश चौटाला अपनी राह पकड़ चल दिए थे. और अब जब एक बार फिर मिल रहे हैं तो वही पुराना सवाल सामने खड़ा है कि अलग ही क्यों हुए थे. क्या कोई राजनीतिक वजह थी या अहं के टकराव और व्यक्तिगत स्वार्थों की वजह से खंड-खंड घमंड पालते हुए ये अलग हुए थे. जवाब दूसरावाला सही है. बिना किसी ठोस राजनीतिक वजह के प्रायः सबके अपने स्वार्थ थे. तब स्वार्थों का टकराव हुआ था तो अलग हुए थे, अब स्वार्थ साधने हैं तो साथ आने की एक और बड़ी राजनीतिक परिघटना घट रही है. यह जानते हुए भी कि इस महाविलय की प्रक्रिया को बेहद ही अस्वाभाविक बुनियाद पर तैयार किया गया है. हालांकि इस बीच उम्मीद की सबसे बड़ी किरण यही है कि 1977 हो या 1988, समाजवादी जब-जब मिले हैं, एक बड़ी परिघटना घटी है. जैसा कि शरद यादव कहते हैं, ‘हमारे मिलन से परिवर्तन का इतिहास रहा है. हम मिलते हैं तो केंद्र की सत्ता को हिला देते हैं.’ शरद यादव के ऐसा कहने के पीछे या उनके इस आत्मविश्वास के पीछे की वजह 1977 और उसके बाद 1989 में मिलन से सत्ता में हुई वापसी है. लेकिन 2015 के हिसाब से शायद खयाली पुलाव बनाने जैसी बात भी.
इस महाविलय में दलों और नेताओं की एक-एक कर बात करें तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती हैं. इस महाविलय का मुखिया नेताजी यानी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को बनाया गया है. यह वही मुलायम सिंह यादव हैं, जिनके प्रधानमंत्री बनने का एक बेहतरीन मौका कभी आया था और लालू प्रसाद ने वीटो पावर लगाकर नेताजी की तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. वह कसक अभी भी नेताजी को रहती और किसी न किसी तरह से वह अभिव्यक्त भी होती रही है. बेशक मुलायम सिंह यादव फिलहाल उत्तर प्रदेश के बड़े नेता हैं, उनकी पार्टी सत्ता में हैं, वे अपने परिवार के दर्जन-भर सदस्यों को राजनीति में सेट करवा चुके हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर उनका असर ज्यादा नहीं दिखता. इस महाविलय में सजपा जैसी पार्टी शामिल है, जिसके संस्थापक मुखिया चंद्रशेखर ने सबसे पहले जनता दल में बगावत का बिगुल फूंका था और वीपी सिंह के खिलाफ हुए थे. खैर! अभी तो सजपा को कमल मोरारका देख रहे हैं और वह पार्टी किसी एक राज्य क्या, पक्के तौर पर किसी एक खास इलाके में भी प्रभावशाली रह गई हो, यह दावे से नहीं कहा जा सकता. इस महाविलय में एचडी देवगौड़ा अपनी पार्टी जदएस के जरिये आए हैं. परिस्थितियों की देन की तरह देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री जरूर बन गए थे और राज भी किया लेकिन वे प्रधानमंत्री रहते हुए भी इतने असरदार नेता कभी नहीं रहे कि पूरे देश क्या, दक्षिण में ही अपने ताप और इकबाल से असर पैदा कर सकें. ऐसे में उत्तर भारत में उनके किसी असर की उम्मीद करना व्यर्थ के चिंतन जैसा है. फिलहाल देवगौड़ा अपने बेटे के साथ अपने गृह राज्य कर्नाटक में किसी तरह अपने वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ रहे नेता हैं. और आखिर में इस महाविलय के दो अहम किरदारों की बात सामने आती है, जिनके लिए इसे जल्दी में किया गया है. वे दो किरदार लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार हैं, उनकी पार्टी राजद और जदयू है.
जनता परिवार के मिलन और बिछड़न की कहानी का मूल अध्याय 1977 के बाद शुरू हुआ. जेपी की सलाह पर 1977 में चार दलों से जनता पार्टी गठित हुई और उसे केंद्र में सत्ता मिली थी
इन दोनांे नेताओं के एक हो जाने की बात को ही इस महाविलय की पूरी प्रक्रिया मंे सबसे बड़ी परिघटना मानी जा रही है. दोनों बिहार की राजनीति करनेवाले नेता हैं और बिहार में ही सिमट कर रह जानेवाले नेता भी. दोनों राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं, दोनों की पार्टी मजबूत रही है और है भी, दोनों एक ही राजनीतिक स्कूल के छात्र रहे हैं, दोनों केंद्र में भी मंत्री रहे हैं लेकिन दोनों में से किसी का ताप और प्रभाव कभी इतना नहीं बढ़ सका कि वे अपने राज्य से बाहर भी अपना जनाधार खड़ा कर सकें. और नहीं तो कम से कम बिहार से बाहर रहनेवाले बिहारियों के बीच ही अपने प्रभाव को दिखा सकें. हां, बिहार का पड़ोसी राज्य झारखंड में कुछेक दूसरी वजहों से इन दोनों की पार्टियों के उम्मीदवार जीतते रहे हैं. खैर यह भी अलग किस्म की बात है. इन दोनों नेताओं के और दोनों के दलों के सदा-सदा के लिए मिलन या विलयन में भले पेंच न हो और अभी यह स्वार्थ का साथ फाॅर्मूले के तहत हो भी जाए लेकिन उसके बाद इसके नफे-नुकसान से जुड़े कई सवाल ऐसे हैं जिसका जवाब खुलकर विश्लेषक भी नहीं दे पा रहे. विश्लेषकों का एक वर्ग है, जो साफ-साफ कह रहा है कि दोनों नेताओं के मिलन से बिहार जैसे राज्य की राजनीति में सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की गोलबंदी होगी. फिर से मंडलयुग की तरह आंधी चलेगी और भाजपा का रथ बिहार में रुक जाएगा. बिहार में भाजपा का रथ रुकना या नहीं रूकना, यह बिल्कुल ही अलग किस्म का सवाल है और यह अभी बहुत कुछ पर निर्भर करेगा. यह लगातार नरेंद्र मोदी के गिरते ग्राफ और कम होती लोकप्रियता, अब तक कोई बड़े फैसले नहीं लिए जानेवाली बात, बिहार प्रदेश भाजपा में सीएम कैंडिडेट बनने के लिए आपसी सिरफुटव्वल आदिवाले फैक्टर पर भी निर्भर करेगा. यहां सवाल यह है कि क्या वाकई में ऐसा होगा कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के मिलन से बिहार की राजनीति में पिछड़ों-अल्पसंख्यकों-दलितों का मिलन होगा और फिर देखते ही देखते सारे समीकरण बदल जाएंगे? राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन बेहतर तरीके से इस सवाल का जवाब देते हैं. वह कहते हैं कि ऐसा इतनी आसानी से होगा, यह कहना हड़बड़ी है. एक तो यह पिछड़ों का मिलन या विलयन नहीं है. यह मूलतः उच्च पिछड़ी जातियों का मिलन है. यादव और कुरमी नेता का और उसमें भी यादव नेताओं का पलड़ा भारी है. एक साथ उत्तर भारत के तीन-तीन बड़े यादव वर्षों बाद मिल रहे हैं, बेशक इससे यादवों में उत्साह आएगा, वे गोलबंद होंगे लेकिन यह इस मिलन का खतरा भी होगा. जैसे ही यादव मतदाताओं की गोलबंदी होगी, वैसे ही गैर यादव पिछड़े अलग ध्रुव पर जाने लगंेगे. महेंद्र सुमन कहते हैं कि बात इतनी ही नहीं है, यह भी देखना होगा कि अब पिछड़ों की राजनीति 1990 से बहुत दूर जा चुकी है. अब अतिपिछड़ा एक अलग समूह बन चुका है और दलित राजनीति में स्वर जगानेवाले एक नए नेता जीतन राम मांझी भी बिहार में उदित हो चुके हैं. ऐसी स्थिति में यह कह देना कि महज राजद-जदयू के मिलन-विलयन से बहुत कुछ बदल जाएगा, जल्दबाजी होगी.
महेंद्र सुमन जो कहते हैं, उसका विस्तार दूसरे रूप में भी बिहार में अभी से ही दिखाई पड़ता है. इस विलय के बाद यह तय है कि अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों की गोलबंदी महाविलय के बाद अस्तित्व में आई नई पार्टी की ओर होगी. इसका एक बड़ा कारण यह होगा कि बिहार जैसे राज्य में मुसलमानों के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं होगा. कांग्रेस खत्म हो चुकी है और दूसरे दल भाजपा के साथ हैं. लेकिन अल्पसंख्यकों के बाद किसी और समूह या पिछड़ी-दलित जाति के बारे में ताल ठोककर या दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता िक वह विलय के बाद खड़ी हुई पार्टी के साथ खड़ी हो जाएगी. अगर यादवों की ही बात करें तो यह तय है कि लालू प्रसाद आज भी बिहार में यादवों के सबसे बड़े नेता हैं और उनके साथ मुलायम सिंह यादव का नाम जुड़ने और शरद यादव के भी साथ रहने से यादवों की गोलबंदी होगी लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा ने बिहार में यादव मतदाताओं में सेंधमारी की, वह अलग किस्म का संकेत दे चुकी है. और अभी स्थितियां भी बदल रही हैं. यादव नेताओं में से लालू के करीबी रहे रामकृपाल यादव भाजपा के साथ हैं और मंत्री भी हैं. रामकृपाल की राज्यव्यापी अपील तो नहीं लेकिन राज्य भर में जाने जाते हैं. यादव नेताओं में से ही उत्तर बिहार में प्रभाव, असर और पकड़ रखनेवाले पप्पू यादव इन दिनों राजद में रहते हुए ही उत्तराधिकार के सवाल पर लालू प्रसाद से छत्तीस का आंकड़ा बनाते हुए नई चुनौती के तौर पर खड़े हो रहे हैं. पप्पू यादव उत्तराधिकार की बजाय जीतन राम मांझी को इस महाविलय से अलग रखने की बात को लेकर बवाल काट रहे हैं और इसका असर यादवों पर नहीं पड़ेगा तो दलितों-महादलितों पर तो पड़ना तय ही है. और दूसरी ओर नंदकिशोर यादव के रूप में एक बड़े यादव नेता तो भाजपा के विधायक दल के ही नेता हैं. यादवों के बाद नीतीश कुमार की जाति कुरमी की बात करें तो उसका रुख इस बात पर निर्भर करेगा कि महाविलय के बाद नेतृत्व नीतीश कुमार के पास रहता है या नहीं. अगर लालू प्रसाद की बड़ी भूमिका रहेगी तो कुरमी पूरी तरह से इस महाविलय के पक्ष में खुलकर नहीं आ सकेंगे. उच्च पिछड़ी जातियों में दो और अहम जातियां कुशवाहा और वैश्य हैं. कुशवाहा जाति के नए नेता के तौर पर उपेंद्र कुशवाहा का उदय हो चुका है और वे भाजपा के साथ हैं. वैश्य पारंपरिक तौर पर भाजपा के साथ माने जाते हैं. लेकिन सवाल सिर्फ इन उच्च पिछड़ी जातियों का नहीं. राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि पिछले 25 सालों मंे सामाजिक न्याय की राजनीति के बाद निम्न पिछड़ों, जिसे नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ा समूह के तौर पर खड़ा किया और दलितों, जिसे बांटकर नीतीश कुमार ने महादलित वर्ग बनाया था, उनमें राजनीतिक आकांक्षा बहुत बढ़ी है. वह अब सत्ता में सीधे हिस्सेदारी चाहता है और दुर्भाग्य से इस महाविलय के बाद बननेवाली पार्टी में अतिपिछड़ों और दलितों में से किसी का नेतृत्व करनेवाला उनके समूह से कोई प्रमुख नेता नहीं है. राजनीतिक चिंतक प्रसन्न कुमार चौधरी कहते हैं, उत्तरप्रदेश में मायावती इनके साथ नहीं है और बिहार में दलित राजनीति के नये स्वर बने जीतन राम मांझी विरोध में हैं, इसका असर होगा. प्रसन्न चौधरी की बातों को आगे बढ़ाएं तो यह भी अहम है कि समाजवादी राजनीति को ही आगे बढ़ाकर और जनता दल से ही निकले बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक की दूर-दूर तक इस महाविलय में रुचि नहीं दिखी है. तमाम समाजवादी नेताओं में नवीन पटनायक की पहचान अलग किस्म की है. वे भाजपा से अलग होकर भी अपना जनाधार लगातार बढ़ाते रहनेवाले नेता के तौर पर उभरे हैं और इस बार की मोदी आंधी में भी ओडिशा में अपने दम पर करिश्मा करनेवाले नेता माने गए हैं.
प्रेम कुमार मणि, प्रसन्न चौधरी या महेंद्र सुमन की बातों से इंकार नहीं किया जा सकता. बिहार के लिए और नीतीश कुमार-लालू प्रसाद की साख बचाने के लिए और अगले बिहार विधानसभा चुनाव को साधने के लिए ही यह महाविलय हो रहा है, यह सब जानते हैं. लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही लालू प्रसाद ने गणित जोड़कर कहना शुरू कर दिया था कि नीतीश का इतना, मेरा इतना, कांग्रेस का इतना, वामपंथियों का इतना हुआ और अगर सब साथ रहते तो भाजपा इतनी बड़ी जीत बिहार में हासिल नहीं करती. लालू प्रसाद ने यही कहकर पासा खेला था जिस पर नीतीश कुमार मोहित हुए थे और उसके बाद लगातार इस महाविलय के लिए दिल्ली से लेकर पटना तक की दौड़ लगाते रहे और लालू प्रसाद लगातार इसे टालते रहे. लालू प्रसाद ने पासा फेंकने के बाद मौन ही साध लिया था और पूछने पर यही कहते थे कि इतनी हड़बड़ी क्या है, जब होगा तो देश के स्तर पर होगा और जैसे होगा वह मुलायम सिंह यादव तय करेंगे. लालू प्रसाद निश्चिंतता की बजाय चिंतन के मूड में थे, क्योंकि इस महाविलय से फायदे अगर नीतीश कुमार और उनको, दोनों को संयुक्त रूप से होने हैं तो नुकसान भी दोनों को ही होना है. लालू प्रसाद दुविधा में रहे तो इसकी वजह यह बताई गई िक वे इस बात से चिंतित थे कि अगर महाविलय के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व का एलान वे कर देते हैं तो संभव है कि कुरमी नेतृत्व के नाम पर यादव मतदाता बिखर जाए और लोकसभा चुनाव में आंशिक रुख दिखाने के बाद इस बार विधानसभा चुनाव में ज्यादा संख्या में भाजपा की ओर रुख कर जाए. लालू प्रसाद जानते हैं कि अगर एक बार भाजपा की ओर यादव मतदाता चले गये तो फिर उनकी भावी पीढ़ी के लिए बिहार में राजनीतिक फसल काटने को कुछ खास नहीं बचेगा. हालांकि लालू प्रसाद यादव इस महाविलय के बारे में अब खुलकर बोलने लगे हैं और उन्होंने अपना उत्तराधिकारी भी अपने बेटे को घोषित कर दिया है लेकिन अभी भी इस महाविलय के बाद पार्टी के नेतृत्व के सवाल पर चुप्पी ही साधे रहते हैं.
इस तरह देखें तो इस महाविलयवाली पार्टी में मिलन-विलयन के बाद नए सिरे से अतिपिछड़ों और महादलितों में आधार वोट तलाशने और उसे फिर से खड़ा करने की चुनौती बड़ी होगी. और यही समूह होगा जो आगे बिहार में चुनावी राजनीति की दिशा और दशा तय करेगा. महाविलयवाली पार्टी के पास यह चुनौती इसलिए भी बड़ी होगी, क्योंकि जीतन राम मांझी तो लगातार दलितों के बीच अभियान चला ही रहे हैं, वे भाजपा के साथ जाने के लिए बेताब से भी दिख रहे हैं. दूसरी ओर पहले से ही बिहार के एक बड़े दलित नेता रामविलास पासवान भाजपा के साथ हैं. भाजपा के एक बड़े नेता बताते हैं कि हमारी पार्टी की रणनीति साफ है कि हम अतिपिछड़ों और दलितों को सबसे ज्यादा तवज्जो देंगे. उन्हें प्रखंड कमिटी का अध्यक्ष बनाएंगे, बूथ कमिटी उनके हवाले करेंगे और आखिरी में वोट के वक्त यही कमिटियां सबसे कारगर होती हैं.
महाविलय का पहला परीक्षण बिहार विधानसभा चुनाव में होगा. यह सफल रहा तो इसका असर 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के साथ ही 2019 के लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा
इन्हें भी बढ़ें
रिपोर्ट: उत्तर के पैंतरे में दक्षिण का टोका
विचार: सांप्रदायिकता के विरोध और धर्मनिरपेक्षता की मजबूती का छद्मराग
इंटरव्यू: पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (एस) के मुखिया एच. डी. देवगौड़ा खास बातचीत