वन्य जीव संरक्षण कानून लागू होने तक, कुछ दशक पहले हम भारतीय जान जोखिम में डाल कर भी आखेट करते थे. बाजार में वधिक की दुकान पर हर तरह का मांस सुलभ होने के बावजूद पूरे दिन और कभी-कभी तो कई दिनों तक जंगलों में एक हिरन या खरगोश की तलाश में भटकते थे. इसमें निहित जोखिम का रोमांच, स्वयं के तीस मार खां होने की दंभ पूर्ति और स्वयं को बुरी तरह थका देने का जुनून इसके पीछे प्रमुख कारण था. मध्य हिमालय में नंदा देवी राज जात के नाम से होने वाले धमाल को मैं इसी रूप में देखता हूं. प्रायः हर बारहवें साल होने वाले इस आयोजन को हिमालयी कुम्भ कह कर महिमा मंडित किया जाता है. बगैर यह सोचे– समझे कि हरिद्वार, प्रयाग, नासिक या उज्जयिनी में होने वाले कुंभ पर्व एक समतल भूमि पर होते हैं जहां महान सरिताएं वहां जमा होने वाले अनगिनत मनुष्यों के दैहिक कलुष धोने में यथा शक्ति सक्षम हैं. वहां की स्थिर और समतल भूमि उन सबका बोझ भी उठा लेती है. लेकिन उच्च हिमालय का जो क्षेत्र खुद अपना ही बोझ उठा पाने में सक्षम नहीं है, वहां एक साथ हजारों लोगों की धमा चौकड़ी क्या कहर बरपाएगी? सचमुच यह भेड़ चाल है. सड़क पर दो मनुष्यों, दो गाड़ियों या दो सांडों की टक्कर को देखने, एक के पीछे एक हम जिस तरह मजमा लगा देते हैं, भले ही हमारा उससे कुछ भी लेना देना नहीं होता. लेकिन चूंकि दस लोग वहां पहले से जमा हैं इसलिए ग्यारहवां भी अपनी गाड़ी साइड लगा कर दर्शक बन जाता है.
उत्तर मध्य युग में कभी गढ़वाल के राजा, उसके उप सामंतों और पुरोहितों द्वारा शुरू की गयी यह रस्म वर्ष 2000 तक स्थानीय स्तर पर ही निभायी जाती रही है. शिव उत्तराखंड और खास तौर पर गढ़वाल के आराध्य देव रहे हैं. एक सह्स्राब्धि पूर्व, यहां देश के अन्य हिस्सों से उच्च जाति के सवर्ण समुदाय के आ बसने तक शिव ही यहां के आदिवासी और दलित मूल निवासियों के मुख्य आराध्य थे. बाहरी लोगों ने यहां आकर उन पर तथा उनकी मूल परंपराओं पर कुठाराघात किया. (उन बाहरी लोगों में हमारी जाति के बंद्योपाध्याय भी शामिल थे, जो यहां आकर बहुगुणा कहलाए). मूल निवासियों की कुछ मान्यताओं को अपनी सुविधा के अनुसार ढाल दिया गया जिसमें नंदा देवी राज यात्रा भी शामिल है. चार सींग वाले एक मेंढे को नंदा देवी का वरद मवेशी मान कर उसकी अगुआई में चमोली जिले के नौटी गांव से नंदा देवी पर्वत शिखर की ओर एक वार्षिक लोक यात्रा आयोजित की जाने लगी. हर बारहवें साल इस पर्व को बड़े स्तर पर आयोजित किया जाता था, फिर भी इसमें गढ़वाल और कुमाऊं के कुछ सौ स्थानीय लोग ही शामिल होते थे. वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य गठन की प्रक्रिया अंतिम चरण में थी. उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार ने लोगों को रिझाने के लिए इस यात्रा के लिए एक भारी-भरकम बजट का प्रावधान कर दिया. संयोगवश उस वक्त उत्तर प्रदेश के धर्म और संस्कृति पद पर इस क्षेत्र के स्थानीय विधायक आसीन थे. उन्होंने इस आयोजन के महिमा मंडन में विशेष रुचि ली. भारी राजकीय ढिंढोरे के फलस्वरूप हजारों लोग इस यात्रा में शामिल होने को यहां इकट्ठा हो गए जिनमें से कुछ दुरूह प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण काल कलवित भी हुए. तबसे यह नितांत स्थानीय आयोजन एक तमाशा बन गया. मैदानी क्षेत्रों में पावस की उमस से आकुल और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटे प्रवासी जन भी इस यात्रा में भागीदार बनने को बढ़-चढ़ कर दौड़े आये. दिल्ली- बद्रीनाथ हाईवे पर बसे कर्णप्रयाग कस्बे से 20 किलोमीटर दूर नौटी गांव से शुरू होने वाली 200 किलोमीटर से अधिक की इस 19 दिवसीय यात्रा में शामिल होने के लिए उत्तराखंड के प्रवासी जिस तरह से तन , मन और धन से शामिल होने टूट पड़ते हैं, काश ऐसी ही त्वरा उन्होंने यहां चिपको, टिहरी बांध विरोधी या नशा विरोधी आंदोलनों में दिखाई होती तो आज राज्य की तस्वीर ही कुछ अलग होती. मीडिया के द्वारा रचित आभा मंडल के कारण इस बार की यात्रा में भी 50 हजार ‘श्रद्धालु’ आ जुटे. नौबत यहां तक पहुंची कि केदारनाथ जैसी दुर्घटना की आशंका को भांप सरकार को अपील जारी करनी पड़ी, कि अब विशाल जन समूह 12 हजार फीट की ऊंचाई से आगे न जाए, जबकि पहले सरकारी तौर पर ही इस यात्रा को हिमालयी कुंभ की संज्ञा देते हुए भारी प्रचार किया गया था.
कैसा रहे यदि जंगल से कभी पचास हजार बाघ, तेंदुए, हिरन, भेड़िये, सियार आदि किसी शहर मेंआकर दहाड़ते-चिंघाड़ते हुए अपनी यात्रा निकालें
जात का अभिप्राय स्थानीय भाषा में यात्रा या पशुबलि से है. उत्तराखंड के निवासी बहुधा परंपरा से ही मांसाहारी रहे हैं इसलिए इस तरह की ‘जात’ का प्रचलन यहां शुरू से ही रहा है. सार्वजनिक तौर पर और बड़े पैमाने पर पशु बलि की प्रथा सामाजिक प्रयासों से समाप्त प्रायः हो चुकी है. पहले यहां देवी के विविध मंदिरों में खास अवसरों पर एक साथ सैकड़ों बकरों, भेड़ों और भैंसों की बलि दी जाती थी. उन्हें देवी को अर्पित करने के बाद भक्तगण खुद खा जाते थे. अब देवी के नाम पर एक मात्र सार्वजनिक और बड़ा मजमा नंदा देवी राज जात पर ही जुटता है. यद्यपि इस जलसे के नायक खाडू ( चमत्कार नर मेढ़े ) को 19 दिन की कठिन यात्रा में यात्रा समाप्ति के बाद इस मान्यता के साथ वहीं छोड़ दिया जाता है कि वह सशरीर देवी के पास चला जाता है, लेकिन स्वतः ही समझा जा सकता है कि वह कहां जाता होगा. यह मान्यता है कि यह चार सींग वाला खाडू बारह साल में एक बार देवी की विशेष अनुकम्पा के फलस्वरूप खास गांव और खास घर में जन्म लेता है, लेकिन कौन नहीं जानता कि किसी पशु के दो की बजाय चार सींग उग आना कोई दैवी चमत्कार नहीं बल्कि एक जन्मजात शारीरिक विकृति है जो मनुष्यों और दूसरे प्राणियों में भी होती है. इसी बार की यात्रा में वीआईपी खाडू के अलावा कम से कम चार खाडू ऐसे शामिल थे जिनके दो की बजाय चार सींग थे.
स्थानीय लोगों द्वारा अपने स्तर पर पहले की तरह यह आयोजन होता रहे, तो शायद ही किसी को आपत्ति हो, लेकिन हर तरह के मीडिया और प्रचार माध्यमों के जरिए हजारों लोगों को यहां हांका लगाकर जुटा लाना भारी अनर्थ का द्योतक है. यह यात्रा चार हजार फीट से शुरू होकर अठारह हजार फीट से अधिक ऊंचाई तक पहुंचती है. इस क्षेत्र में कस्तूरी मृग, मोनाल, गोरल, काकड़ जैसे दुर्लभ और संकट ग्रस्त प्रजाति के थल और नभ चर पशु-पक्षियों का सुरक्षित आवास है. उनका एक अलग ही लोक है. उन्हें शायद यह आभास भी नहीं होगा कि इस सृष्टि में मनुष्य नाम का कोई प्राणी भी है. कैसा रहे यदि जंगल से कभी पचास हजार बाघ, तेंदुए, हिरन, भेड़िये, सियार आदि किसी गांव या शहर में आकर दहाड़ते-चिंघाड़ते हुए अपनी यात्रा निकालें ? कभी-कभार इक्का-दुक्का बाघ या हाथी के आबादी में आ जाने पर हम कैसी हाय-तौबा मचाते हैं? मुझे यह तथ्य इसी बार और इसी संदर्भ में विदित हुआ कि कस्तूरी मृग के शिकारी कस्तूरी मृग को देखते ही जोर से शंख बजाते हैं. इस अपूर्व शंख ध्वनि को सुनते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ता है. तब उस पर गोली चलाई जाती है. हजारों लोगों की तुमुल ध्वनि और अनगिनत शंख नाद से उनकी क्या गति हुई होगी, यह कल्पनातीत है.
उच्च हिमालय पर रहने वाले इन प्राणियों की वहां उपस्थिति केवल सजावट के लिए नहीं है. वहां वृक्ष तथा वनस्पतियों, नदियों, झरनों और ग्लेशियरों का अस्तित्व उन्हीं से है. एक छोटी-सी चिड़िया अपने जीवन काल में कितने महावृक्षों को जन्म देती है, जिनके कारण नदियां अखंड सौभाग्यवती हैं, यह अपने कौतूहल में उन्मत्त धर्मध्वजियों को कौन समझाए. इसी यात्रा पथ पर, सोलह हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर स्थित रूप कुंड सरोवर के तट पर पड़े मानव कंकालों का सटीक रहस्य आज भी पता नहीं चल सका है. सच्चाई के सर्वाधिक निकट यही तथ्य प्रतीत होता है कि उत्तर मध्य युग में कभी तिब्बत की ओर विजय यात्रा पर जाने या वहां से इस ओर आने वाली कोई सैन्य वाहिनी यहां बर्फ के अंधड़ में फंसकर काल कलवित हो गई. आज हम इस यात्रा के रूप में वस्तुतः प्रकृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वहां जा रहे हैं जिसमें अंतिम और निर्णायक हार हमारी ही होनी है. आठ हजार फीट से ऊपर की ऊंचाई पर नर्म घास और फूलों के ढालदार मैदान जिन्हें स्थानीय भाषा में बुग्याल और अंग्रेजी में अल्पाइन कहा जाता है, इस बार हजारों लोगों की धमाचौकड़ी के फलस्वरूप मिनटों में रेगिस्तान में तब्दील हो गए. ये बुग्याल वस्तुतः यहां धरती की त्वचा हैं, जिन्हें पुनर्जीवित होने में वर्षों लगेंगे और शायद वे अपने वास्तविक स्वरूप में कभी आ भी न पाएं. तब तक केदारनाथ और जम्मू-कश्मीर जैसी विपत्तियों को झेलने के लिए हमें प्रस्तुत रहना चाहिए.
धार्मिक यात्रा के नाम पर यह अंधाधुंध पर्यावरण नाश रोकने के लिए दृढ इच्छा शक्ति और राजनीतिक जोखिम उठाने का साहस चाहिए, जो फिलहाल यहां के राजनेताओं में नजर नहीं आता. यह यात्रा अपनी निर्धारित अवधि के अनुसार गत वर्ष होनी थी, लेकिन केदारनाथ की भीषण आपदा ने सरकार और आयोजकों, दोनों के होश फाख्ता कर दिए. वरना गत वर्ष भी राज्य सरकार ने वाह-वाही और वोट बैंक लूटने के लिए इस आयोजन के लिए अच्छी खासी रकम नियत की थी. इस बार साल बीतते न बीतते सभी पक्ष पिछली आपदा भूल गए. इस बार की यात्रा में कांग्रेस और भाजपा दोनों के प्रमुख नेता जहां-तहां यात्रा में शामिल हुए. लेकिन यह परिवर्तन अवश्य दिखा कि यात्रा में शामिल आम लोगों और राजनेताओं, सभी ने पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर भी चिंता जताई. मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भले ही यात्रा को समर्थन और सरकारी संरक्षण दिया, पर अंततः लोगों से अति संवेदनशील क्षेत्र में न जाने की अपील भी की. विडंबना यह है कि यात्रा में शामिल श्रद्धालु वहां अपने लिए हर तरह की सुविधा मांगने लगे हैं. अर्थात तम्बू से लेकर चूल्हा तक. जनबल से सहमी सरकार ने कुछ हद तक यह किया भी. सरकारी तौर पर भारी तादाद में जगह जगह तम्बू गाड़े गए, बगैर यह सोचे कि उन्हें गाड़ने के लिए जो जमीन खुर्ची जाएगी और उनके तले कई दिन तक वहां की संवेदनशील भूमि का जो दम घुटेगा, उसके नतीजे क्या होंगे. इस बार पर्यावरण को लेकर आई लोक चेतना का ही सबूत है कि वहां होने वाले प्रकृति विध्वंस के चित्र और विवरण वहां से लौटने वाले श्रद्धालुओं ने ही सार्वजनिक किए. उनसे ही पता चला कि यात्रा मार्ग पर यहां-वहां प्लास्टिक की बोतलों के अंबार ने नर्म घास और फूलों का कबाड़ा कर दिया है. आखिर किसी को इतनी अक्ल भी नहीं आई कि वहां कम से कम मिनरल वाटर की बोतलें ले जाने से तो लोगों को रोका जाता. उस क्षेत्र में हर झरने का पानी उच्च गुणवत्ता वाला प्राकृतिक मिनरल वाटर ही है. लेकिन बहती गंगा को छोड़ कूप में नहाने वालों का क्या इलाज?
दरअसल उत्तराखंड में बीते 13 वर्षों से लचर नेतृत्व के कारण नौकरशाही के लिए आपदा और उत्सव दोनों ही सुखद हैं. इनसे उनकी जेब हरी होती है. बड़ी उम्मीदों और वादों के हिंडोले पर बैठ कर आए नए मुख्यमंत्री हरीश रावत भी यह सब न रोक पाए तो माना जाना चाहिए कि नदियों और गाड-गदेरों (लघु-सरिताएं) की बात वह भी सिर्फ कहने भर को ही करते हैं.