‘जो जिया सो लिखा, हवा-हवाई कुछ नहीं’

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आपके उपन्यास  ‘वर्दी वाला गुंडा’  की आठ करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं. ये रिकॉर्ड बिक्री है. इसके बनने की प्रक्रिया क्या थी?

प्रक्रिया लंबी थी पर मैं संक्षेप में बताता हूं. मैं जिस समाज से आता हूं वहां वर्दी का खौफ हमेशा से रहा है. इसके अलावा हर रोज किसी न किसी से एक ऐसी कहानी सुनने को मिलती थी जिसमें किसी पुलिस वाले की दबंगई शामिल रहती थी. ये सारी फुटकर कहानियां दिमाग में किसी कोने में कुलबुला रही थीं. एक शाम मैं अपने दोस्त के साथ टहल रहा था, तभी देखा कि उत्तर प्रदेश पुलिस का एक वर्दीधारी सिपाही नशे में धुत चौराहे पर इधर-उधर लाठियां भांज रहा है. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि लाठी किसके माथे पर लग रही है, किसकी कमर पर. इस सिपाही को देखकर पहली दफा मेरे मन में ख्याल आया कि ये तो वर्दी की गुंडागर्दी है और इसी से ‘वर्दी वाला गुंडा’ नाम मेरे जहन में आया. मुझे लगा कि ये रोचक नाम है और फिर मैं इस नाम से उपन्यास लिखने लगा. थोड़ा लिखने के बाद महसूस हुआ कि कहानी में अभी दम नहीं है, कहानी कमजोर है. इसी दौरान एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना में राजीव गांधी की मौत हो गई और मैंने इस घटना को भी अपने उपन्यास में शामिल किया. लोगों ने इसे बहुत पसंद किया. मुझे लगता है कि पाठकों को कथानक से ज्यादा ‘वर्दी वाला गुंडा’ नाम पसंद आया.

छोटी उम्र में ही आपके पिता जी का देहांत हो गया था. किराये के जिस घर में आप रहते थे वो एक बारिश में ढह गया. निजी जीवन में एक के बाद एक कई दुख देखे हैं, लेकिन जो आप लिखते हैं उसमें वो दुख या पीड़ा नहीं दिखती. उसमें थ्रिलर होता है, रोमांस होता है. क्या जो जीवन में भोगा उसे लिखने का ख्याल कभी नहीं आया?

ऐसा नहीं है. मैंने वही लिखा जो अपने और दूसरों के जीवन से महसूस किया. आप जिसे दुख कह रहे हैं, मैं उसे एक तरह का थ्रिल मानता हूं. अपना-अपना नजरिया है. आपने सही कहा बचपन में ही मेरे पिता जी गुजर गए थे,जब मैं दस-बारह साल का था तब बारिश में हमारा किराये का घर ढह गया था.

आज जब मैं उन घटनाओं को याद करता हूं तो खास तरह का थ्रिल महसूस करता हूं. तब दुख हुआ होगा लेकिन आज उन दुखों को याद करके कांप जाता हूं. मेरे जैसा जीवन न जाने कितने लोगों ने जिया होगा. मैंने जो भी लिखा है वो जिया हुआ यथार्थ है, हवा-हवाई कुछ भी नहीं है. मेरे जीवन में जो दुख आए उन्हीं से यह सीख मिली कि चाहे कुछ भी हो रुकना नहीं है, आगे ही बढ़ना है.

समय-समय पर कई साहित्यकारों और जानकारों ने साहित्य को परिभाषित किया है. आपकी दृष्टि  में साहित्य के क्या मायने हैं? आपके विचार से साहित्य क्या है या किसे कहना चाहिए?

हमारे सामने ‘साहित्य’ की कई परिभाषाएं हैं. मैंने भी साहित्य की कई परिभाषाएं देखी-सुनी हैं, लेकिन इन सब में जो मुझे याद है या जिस परिभाषा से मेरी सहमति है वो है- साहित्य समाज का दर्पण है. मैं इस एक पंक्ति से ही साहित्य को समझता हूं. हालांकि हम जो लिखते हैं उसे कई लोग साहित्य न कहकर ‘लुगदी साहित्य’ कहते हैं जबकि हम वही लिखते हैं जो समाज में चल रहा होता है. हम समाज से ही कहानियां लेते हैं. हां, इन कहानियों में हम अपनी कल्पना जरूर डालते हैं. ‘वर्दी वाला गुंडा’ में उसी तरह की पुलिसवालों का जिक्र है जैसे हमारे बीच होते हैं.

जब मैंने देखा कि दहेज के लिए लड़कियों को जलाया जा रहा है, प्रताड़ित किया जा रहा है तो मैंने ‘बहू मांगे इंसाफ’ लिखी. इस उपन्यास को भी पाठकों ने बहुत पसंद किया. कई हजार पत्र मिले. थोड़े दिनों बाद मैंने ऐसी कई कहानियां सुनी जिसमें कुछेक परिवारों पर दहेज के फर्जी मामले दर्ज करा दिए गए थे. तब मैंने ‘दुल्हन मांगे दहेज’ लिखी. पाठकों ने इसे भी खूब सराहा. मेरे विचार से हम समाज से कहानियां लेते हैं और उसे आसान और रोचक तरीके से समाज को वापस करते हैं. अगर इसे कोई व्यक्ति साहित्य नहीं मानता है तो न माने, उसकी मर्जी है. मुझे केवल उन पाठकों से मतलब है जिन्होंने हर एक उपन्यास के बाद मुझे झोले भर-भर के पत्र लिखे हैं.

आखिर वे कौन लोग हैं जो तय करते हैं कि कौन-सा उपन्यास  ‘लुगदी साहित्य’  है और कौन-सा  ‘वास्तविक साहित्य’  है? क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति या ऐसी किसी संस्था को जानते या मानते हैं?

(हंसते हुए) पचास साल उम्र हो गई है. लंबे वक्त से लिख भी रहा हूं. पाठकों का प्यार भी मिलता है लेकिन आजतक मैं ऐसे किसी व्यक्ति या ऐसी किसी संस्था को नहीं जान पाया हूं. जब जानता ही नहीं हूं तो मानने का सवाल कहां उठता है. हां, मैं अपने उन असंख्य पाठकों को जानता हूं जिनसे मुझे हर रोज मरते दम तक लिखते रहने की प्रेरणा मिलती है. जिसकी जो मर्जी हो कहता रहे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मुझे ऐसे किसी कथित साहित्यिक उपन्यास का लेखक बनना पसंद नहीं, जिसकी पांच सौ या हजार प्रतियां छपें और वो भी लाइब्रेरी के शेल्फ में जाकर कैद हो जाए. मैं अपने पाठकों के बीच रहना चाहता हूं और इसी से मुझे खुशी मिलती है. वैसे तो मैं इन चीजों के बारे में कभी कुछ सोचता नहीं हूं लेकिन कभी-कभी दुख होता है कि बिना पढ़े ही किसी किताब को ‘लुगदी  साहित्य’ बता दिया जाता है. किसी भी किताब को अच्छा या बुरा कहने से पहले उसे पढ़ना चाहिए. किसी किताब का मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए कि वो किस तरह के कागज पर छप रही है.

साहित्य रचनाओं के लिए कई सम्मान मिलते हैं, सभा-गोष्ठियां होती हैं. इन सम्मानों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या कभी इच्छा नहीं हुई कि आपको साहित्य के मंच से सम्मान मिले?

सच कहूं तो कभी भी नहीं. एक पल के लिए भी नहीं. कभी खयाल नहीं आया कि मुझे किसी मंच से कोई सम्मान मिलेगा भी या नहीं. शायद इसके पीछे वजह यह थी कि मैं शुरू से ही जानता था कि ऐसा कभी होगा नहीं. दूसरी बात कि मंच से मिलने वाला शॉल या कोई सम्मान उतना बड़ा नहीं हो सकता जो मुझे पाठकों से मिला है. पाठकों से जो प्रेम और सम्मान मुझे मिला है या जो अभी भी मिल रहा है वो ऐसे कई सम्मानों से कई गुना ज्यादा बड़ा है और मेरे लिए महत्वपूर्ण भी है. अपने जीवन की सबसे यादगार घटना सुनाता हूं. ‘वर्दी वाला गुंडा’ तब बाजार में आ चुका था. मैं अपने चार बच्चों और पत्नी के साथ ट्रेन से दार्जिलिंग जा रहा था. हमारी चार बर्थ को छोड़कर हर बर्थ पर लोग ‘वर्दी वाला गुंडा’ ही पढ़ रहे थे. बच्चे छोटे थे तो वो शोर मचाने लगे कि पापा-पापा आपकी किताब. बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें चुप करवाया और ऊपर वाली सीट पर कंबल डालकर सो गया. आप कल्पना कीजिए कि मुझे उस वक्त कैसा लगा होगा. उस वक्त जो खुशी मुझे मिली वो ऐसे किसी भी सम्मान से बहुत बड़ी थी.

हिंदी साहित्य में क्या-क्या पढ़ा है? खासकर यदि अपने समकालीन  साहित्यकारों का कुछ पढ़ा हो तो बताएं?

मैंने प्रेमचंद का पूरा काम पढ़ा है. आज भी जब मन कई बार थकता है तो मैं उन्हें ही पढ़ता हूं. बाकी अपने समकालीनों में से किसी को नहीं पढ़ा. अगर कभी कोई किताब उठाई भी तो बहुत बोरियत हुई. कई किताबें तो ऐसी हैं कि अगर उनमें से देह, बिस्तर और सेक्स निकाल दीजिए तो कुछ बचेगा ही नहीं. सेक्स के बाहर भी एक दुनिया है. एक बहुत बड़े लेखक हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगा. उनका एक कहानी संग्रह ‘जन्नत’ पढ़ने बैठा. बाप रे बाप! हर पन्ने पर सेक्स, हर पन्ने पर बिस्तर! इसके अलावा कुछ है ही नहीं. ऐसे शब्द और ऐसे चित्रण हैं कि मैं बता भी नहीं सकता. सेक्स पर लिखने या बात करने से मुझे कोई गुरेज नहीं लेकिन हम इसे कितना और कैसे लिखें इसकी एक सीमा तो तय होनी ही चाहिए न? एक किताब में कहानी के हिसाब से बिस्तर या बेडरूम का जिक्र हो सकता है लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि केवल यही हो और कहानी कुछ हो ही नहीं. ईमानदारी से कहूं तो मैंने अपने समकालीन हिंदी साहित्यकारों को बहुत पढ़ा नहीं है और ऐसा न कर पाने का कोई अफसोस भी नहीं है.