डार्क हॉर्स आपकी पहली किताब है. पुरस्कार की दौड़ में तमाम किताबें रही होंगी, लेकिन साहित्य अकादेमी पुरस्कार आपको मिला. इस बारे में क्या कहेंगे?
निश्चित रूप से यह किसी नए लेखक के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. पहली किताब वाले सवाल पर तो कहूंगा कि किसी भी रचनाकार को उसकी पहली किताब या उसकी लिखी किताबों की संख्या के आधार पर नहीं मापना चाहिए. कई लोग दस किताब के बाद एक अच्छी रचना दे पाते हैं, और कई लोगों की पहली ही रचना एक अच्छी रचना हो सकती है. मामला रचना का है. पहली या आखिरी का नहीं है. दूसरी बात है कि निश्चित तौर पर स्पर्धा में कई किताबें होंगी, वे निर्णय समिति के सामने आई होंगी. कई लेखक निश्चित रूप से प्रतिभाशाली रहे होंगे, सबकी प्रतिभा का सम्मान है, लेकिन चूंकि दौड़ में रचना होती है, उसमें अगर डार्क हॉर्स ने बाजी मारी, तो यह मेरी रचना के लिए, मेरे और मेरे प्रकाशन के लिए अच्छी खबर है.
आम तौर पर हम लोगों ने देखा है कि साहित्य अकादेमी जो भी पुरस्कार देती है, उस पर विवाद होता है कि लॉबिंग की गई, वगैरह-वगैरह. डार्क हॉर्स को यह पुरस्कार मिलने से क्या यह धारणा ध्वस्त होती है?
मैंने साहित्य अकादेमी का कार्यालय सिर्फ एक बार देखा है जब मैं अखबार में विज्ञापन देखकर अपने प्रकाशक के साथ किताब जमा करवाने गया था. मेरे जैसे लेखक की ओर से मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि उस संस्थान में मेरा कोई परिचय नहीं है, लेकिन साहित्य अकादेमी ने किताब पढ़ी और पुरस्कृत किया. मेरी साहित्य जगत में भी कोई पहचान नहीं है, मैं अपने पाठकों की वजह से जाना जाता हूं. इस किताब की कोई ढंग की समीक्षा भी नहीं हुई है. आलोचकों की नजर में मैं कहीं हूं ही नहीं. मेरी पृष्ठभूमि झारखंड की है, जो साहित्यिक मामले में पीछे है. अगर ऐसे लेखक की किताब को पुरस्कार मिला है तो साहित्य अकादेमी बधाई की पात्र है. साहित्य अकादेमी के लिए यह बात प्रसारित होनी चाहिए कि निष्पक्ष आकलन होता है.
आपने कहा कि आलोचकों ने अभी इस किताब पर कुछ नहीं लिखा. ढंग से समीक्षा भी नहीं हुई. ये कैसे होता होगा कि कोई नया लेखक है जिस पर आलोचक बात ही नहीं करते?
असल में, आलोचकों ने बात नहीं की, रचना की समीक्षा नहीं हुई और साहित्य अकादेमी मिल गया तो यह पाठक की क्षमता की विजय है. यह पाठक की शक्ति का प्रतीक है. लेखक को पाठक ही बनाता है. यह एक आश्वस्ति है. मुझे पाठकों का स्नेह मिला. सोशल मीडिया पर इसका खूब प्रचार-प्रसार हुआ. लोगों ने पढ़कर वहां अपनी प्रतिक्रियाएं दीं. अब साहित्य अकादेमी हो या कोई दूसरा संस्थान, वह सोशल मीडिया से अछूता तो नहीं है. हो सकता है कि यह बयार वहां तक पहुंची होगी और समिति ने ध्यान दिया होगा. आलोचकों की एक सीमा है कि चर्चित किताबों को पढ़ने की परंपरा रही है. मैं बहुत साफ टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हूं, लेकिन जो चर्चित किताबें हों, आलोचक उन्हीं को पढ़ते हैं. अब हो सकता है कि आलोचक भी इसे पढ़ें और आलोचना करें.
इतनी सारी किताबें छपती हैं. हो सकता है कि आलोचकों तक किताब पहुंचती ही नहीं या किसी सिफारिश पर पहुंची तो वे लिख देते हैं. नए का संज्ञान नहीं लेते.
इस बारे में ईमानदारी से कहूंगा कि साहित्य की इस परिपाटी का मुझे जरा भी भान ही नहीं था. अभी तक मैं ये समझ नहीं पा रहा था कि किसी के द्वारा किताब की सिफारिश होती है तो उसे पढ़ा जाता है. मैं और मेरा प्रकाशक दोनों नए हैं, हमारी प्राथमिकता यही रही कि पाठक के पास कैसे पहुंचा जाए. मेरे मन में एक नए लेखक और नए प्रकाशक के तौर पर यही था कि पाठक ही तो किताब पढ़ते होंगे. आलोचक प्राथमिकता में नहीं रहे. अब हमारा ध्यान इस ओर गया है कि आलोचक भी इसे पढ़ेंगे. मेरे लिए तो सब कुछ पाठक ही हैं.
अगर आपको यहां तक पाठकों ने ही पहुंचाया तो क्या वह अवधारणा ध्वस्त नहीं हो जाती कि हिंदी में पाठक नहीं हैं?
मैं ऐसा सुनता रहा हूं, लेकिन यह अतिशयोक्ति है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. हिंदी में किताब की पहुंच की समस्या है. गाजीपुर, बलिया, देवरिया, जहानाबाद या दूरदराज गांव में बैठे पाठक तक हिंदी किताबों का पहुंचना मुश्किल है. अंग्रेजी के लेखक शहर में रहते हैं, शहर में इंटरनेट की सुविधा है, अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन शॉपिंग सेवाएं उपलब्ध हैं, उनका पाठक भी शहर में रहता है. लेकिन हिंदी के पास संसाधन की कमी है. हिंदी में पाठक हैं लेकिन उन पाठकों के पास किताबें पहुंचें कैसे? यह मेरे लिए और मेरे प्रकाशक के लिए भी चुनौती है. हम मेहनत करके यह अंतर पाटना चाहते हैं. हिंदी को सोशल मीडिया, अमेजन, फ्लिपकार्ट या अन्य कूरियर सेवाओं से जोड़ना होगा. हिंदी के प्रकाशक को अंग्रेजी के पुस्तक वितरण सिस्टम जितना स्मार्ट होना होगा. ऐसा हो जाए तो इस धारणा में ज्यादा दम नहीं दिखता कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. जिसके हाथ में किताब पहुंचती है, वह पढ़ता है और सराहता है. अभी भी मैला आंचल और गोदान भारतीय रेलवे की हर बोगी की शान हैं.
आप लेखन में नए हैं. लेखन की दुनिया का अनुभव कैसा रहा?
मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती रही कि मैं जो लिख रहा हूं वह साहित्य की ओर जाएगा या उपन्यास लेखन के नाम पर जो स्टोरी राइटिंग का चलन आया है, उस ओर जाएगा. मेरे लिए सबसे बड़ा खतरा वही था कि कहीं यह उपन्यास के ढांचे से अलग तो नहीं हो जाएगा. इसके लिए मैंने कई बड़े लेखकों को पढ़ा. उनसे सीखा, और समझने की कोशिश की. हालांकि, मैं साहित्यकार होने का दावा नहीं करता, लेकिन उसकी जो बनावट हो, वह हिंदी साहित्य की उपन्यास परंपरा के अगले चरण का विस्तार हो, यह कोशिश मैंने की. इस चुनौती से पार पाने के बाद अब मुझे अच्छा लग रहा है कि यदि आप ईमानदारी से यथार्थ को पन्ने पर उतारते हैं तो यथार्थ धुंधला है, मैला है, चमकीला है, यह मायने नहीं रखता. मायने यह रखता है कि आपने कहां का यथार्थ उतारा है. पूरी ईमानदारी, सरलता, सहजता से उतारा है कि नहीं. आप जो दिखाना चाह रहे हैं, चाहे गंदगी, चाहे सफाई, चाहे अच्छाई, चाहे बुराई, जो भी दिखाना चाह रहे हैं, उसे दिखाने में आप ईमानदार हैं कि नहीं. यहां पर अगर लेखक कृत्रिम होगा तो उसकी लेखनी कमजोर हो जाएगी.
प्रकाशकों को लेकर मेरा अनुभव दिलचस्प रहा. नए लेखक को खारिज किया जाए या स्वीकार किया जाए, ये मामला तो बाद में आता है, सबसे बड़ी चुनौती है कि उसको पढ़े कौन. लेखक कैसे एक प्रामाणिक व्यक्ति के पास गुहार लगाए और उसे इस बात के लिए तैयार कर ले कि आप मेरी किताब को पढ़ें. पढ़ने के बाद यह मुहर लगवाना कि वह छपने लायक है कि नहीं. इस गफलत में कई नए लेखक भटकते हैं, ये सबसे त्रासद होता है कि आपको कोई पढ़ता ही नहीं. खारिज करने के लिए भी पढ़ना जरूरी होता है. पहला अनुभव मेरा यही रहा जो बेहद कठिन था. दूसरा आश्चर्यजनक अनुभव यह रहा कि हम जैसे लोगों की कल्पना में यह नहीं था कि किताब छपाने के लिए पैसा देना पड़ता होगा. प्रकाशन की मंडी में जिसके पास सिर्फ कलम है, रचनात्मकता है लेकिन मुद्रा नहीं है, वह नहीं छपेगा. यह चुनौती मेरे सामने थी, इसलिए मैं ऐसा प्रकाशक ढूूंढ़ रहा था जो रचना देखकर प्रकाशक होने का दायित्व निभाए. वह प्रकाशन को व्यवसाय जरूर बनाए, लेकिन रचना को बाजारू नहीं बना दे कि आप पैसा दीजिए, फिर हम कुछ भी छाप देंगे. ये जानना रोचक था कि पैसा देकर कुछ भी छप सकता है और पैसा न हो तो अच्छी रचना भी नहीं छपेगी. मुझे दर-दर भटकना पड़ा. अधिकतर लोग ऐसे ही मिल रहे थे कि अगर आपको छपवाना है तो इतना शुल्क दे दीजिए, छप जाएगा. यह मुझे स्वीकार नहीं था क्योंकि तब मेरी रचना का मूल्यांकन ही नहीं हो पाता. जब प्रकाशक ही मेरा मूल्यांकन नहीं कर पाता तो आगे पाठक के पास जाने का मेरा नैतिक बल कहां था. मेरा यह तय करके मैदान में उतरना कि रचना का मूल्य पहचाना जाए, न कि मूल्य देकर रचना छपवाई जाए, इसका परिणाम सकारात्मक रहा. मैंने शब्दारंभ प्रकाशन को रचना भेजी तो उन्होंने रचना पढ़ी और छापने को तैयार हो गए. हमारे बीच कोई सौदेबाजी नहीं हुई. अब मैं यह कह सकता हूं कि अगर मैं बिना पैसा दिए छप सकता हूं और पाठकों तक पहुंच सकता हूं, तो बाजार में ऐसे भी प्रकाशक हैं जो अच्छी रचनाओं को बिना पैसा लिए छाप सकते हैं. पूरी तरह से निराशा नहीं है.
आपको खूब पाठक मिले और पुरस्कार भी. जाहिर है कि आपसे उम्मीदें बढ़ गई हैं. इस उम्मीद को कैसे आगे ले जाएंगे?
मैं यही मानता हूं कि पुरस्कार आपके लिए उपहार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है. एक लेखक के तौर पर मेरी जिम्मेदारी बढ़ी है. मैं कोशिश करूंगा कि आगे बेहतर लिखूं और किसी समाज, किसी वर्ग के जीवन को बड़ी ईमानदारी से उकेर पाऊं, यही प्रयास करूंगा. एक और उपन्यास लिख रहा हूं जो एक गांव की कहानी है. इसमें मैं दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि 30-40 के दशक में जो ग्रामीण समाज प्रेमचंद के साहित्य में था, आज 21वीं सदी में वही गांव, वही समाज, वही प्रथा, वही शोषण, वही उत्सव, वही भारत एक युवा लेखक की नजर में कैसा है. अब वह कहां तक पहुंचा है. उम्मीद है कि आप सबकी, पाठकों की उम्मीदों पर खरा उतरूंगा.