देश के बड़े हिंदी प्रकाशन समूह अब भी लोकप्रिय साहित्य प्रकाशित करना ‘टैबू’ (वर्जित कार्य) समझते हैं ऐसे में हार्पर कॉलिंस की ओर से लुगदी साहित्य प्रकाशित करने की कोई खास वजह?
देश का कोई भी प्रकाशक जबरदस्त कहानी ही तो ढूंढता है और हिंदी अपराध लेखन में सुरेंद्र मोहन पाठक (सुमोपा) से जबरदस्त कोई नाम नहीं. हिंदी में पॉकेट बुक प्रकाशन और लुगदी साहित्य का कल्चर था इसलिए बड़े हिंदी प्रकाशक ‘सुमोपा’ जैसे लेखकों को नहीं छापते थे. इसे लेकर एक किस्म की स्नॉबरी (दंभ) भी था. हम अपराध लेखन को मुख्यधारा में ले आए. मैं खुद सुरेंद्र मोहन पाठक के शिल्प की मुरीद हूं. मजेदार कथानक साहित्य होता है, न कि लुगदी साहित्य या उच्च साहित्य. अब तक हमने उनके तीन उपन्यास प्रकाशित किए हैं और पिछले डेढ़ साल में इनकी लगभग 30-30 हजार प्रतियां बेच चुके हैं.
फिर भी सुरेंद्र मोहन पाठक ही क्यों?
आप उनसे मिलें, अपराध लेखन, अन्य साहित्य के बारे में या फिर सिर्फ जीवन के बारे में ही बात कीजिए, आप खुद जान जाएंगी कि वो हमारे वक्त के खास लेखक हैं जिन्हें हम सब के बीच होना चाहिए, जिनकी किताबें घर-घर पहुंचनी चाहिए. वे ‘मासेस’ (आम जनता) के लेखक हैं और जल्द ही ‘क्लासेज’ (वर्ग विशेष) के लेखक भी बन जाएंगे. उनकी किसी किताब पर किसी ने अब तक फिल्म नहीं बनाई है पर अगर कोई अक्षय कुमार या सलमान खान को लेकर फिल्म बनाता तो बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रहती.
उनकी किताबों का फीडबैक कैसा रहा?
दोनों उपन्यासों की लगभग तीस हजार कॉपी बिक चुकी हैं और अब भी बिक ही रही हैं.
‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ का अंग्रेजी अनुवाद भी आया है, क्या उम्मीद है कि अंग्रेजी के पाठक इसे किस तरह लेंगे?
हमने इस महीने बाजार में अंग्रेजी की 5000 प्रतियां भेजी हैं. अभी तक तो अच्छा चल रहा है, आगे देखते हैं कि कितने अंग्रेजीदां कन्वर्ट होते हैं. वैसे ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट ‘अमेजन’ पर हिंदी संस्करण पिछले वर्ष की सबसे सफल किताबों में से एक था.
क्या किसी अन्य हिंदी रचना (विशेषकर पल्प फिक्शन) का भी अंग्रेजी अनुवाद करवाया जा रहा है?
हमने पहले भी इब्ने सफी के 15 उपन्यास प्रकाशित किए थे. और कई किताबों के अनुवाद पर भी काम चल रहा है. ये खासकर ‘न्यूजहंट’ (मोबाइल एप) पर बहुत अच्छी बिकती हैं.
आपने पहले कहीं बताया था कि आपको हिंदी किताबों के डिस्ट्रीब्यूशन में काफी परेशानी हुई जबकि अन्य प्रकाशकों के अनुसार हिंदी के पाठकों तक पहुंचना आसान है. क्या आपको लगता है कि आप आमजन तक पहुंचने में चूक रहे हैं?
जो कह रहे हैं कि हिंदी पाठकों तक पहुंचना आसान है उनका या तो खुद का डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क है या फिर उन्हें असली पाठक की कोई फिक्र ही नहीं है, उनका काम लाइब्रेरी के आॅर्डर से चल जाता है. पिछले दस सालों में तो कम से कम हिंदी डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क में कोई सुधार नहीं हुआ है. फिर कुछ किताबें हैं जो अपने दम पर चल जाती हैं, पाठक उनको ढूंढते हुए दुकानों तक आ जाते हैं तो डिस्ट्रीब्यूटर खुद किताबें उपलब्ध करवाने लगते हैं. हमारे यहां ऐसा पाठक की किताबों, पाउलो कोएल्हो के अनुवाद, अरविंद केजरीवाल की ‘स्वराज’ आदि के साथ हुआ है.