दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और मानवाधिकार कार्यकर्ता जीएन साईबाबा को पिछले दिनों महाराष्ट्र की नागपुर सेंट्रल जेल से 14 महीने के एकांत कारावास के बाद ‘अस्थायी’ जमानत पर रिहा किया गया. ‘रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट’, जिसे सरकार द्वारा गैर-कानूनी घोषित सीपीआई (माओवादी) का मुख्य संगठन माना गया है, के संयुक्त सचिव के बतौर शारीरिक रूप से अक्षम साईबाबा ने मध्य भारत के घने जंगलों और आदिवासियों की बसावट वाले क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के अत्याचारों के विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान के लिए समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. 9 मई 2014 को विश्वविद्यालय से घर जाते समय पुलिस ने उन्हें उठा लिया था. उन्हें नागपुर ले जाकर माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. लगभग 90 प्रतिशत विकलांग साईबाबा को नागपुर जेल के बदनाम ‘अंडा सेल’ में रखा गया. इस दौरान उचित देखभाल और स्वास्थ्य सेवाओं के बिना साईबाबा की तबीयत कई बार बिगड़ी. साईबाबा ने अपनी गिरफ्तारी और पुलिस प्रताड़ना के बारे में दीप्ति श्रीराम से बात की. इस बातचीत में उन्होंने सरकार द्वारा आदिवासियों के किसी भी असंतोष को माओवादी गतिविधि के नाम पर दबाने के तरीके पर भी सवाल खड़े किए.
14 महीनों की कैद में 4 बार आपकी जमानत याचिका खारिज की गई, अब जब ‘अस्थायी’ जमानत मिली है, तो आपकी क्या प्राथमिकताएं होंगी?
इस समय तो मेरा स्वास्थ्य ही मेरी पहली प्राथमिकता है. मैं शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका हूं. दिल की बीमारी के अलावा कैद की इस अवधि के दौरान मेरी शारीरिक व्याधियां कुछ और बढ़ गई हैं. कुछ अंग काम करना बंद कर रहे हैं और अगर उचित इलाज नहीं करवाया तो मेरा बचना मुश्किल होगा. ये सब मेरे साथ पहली बार हो रहा है और मैं इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराता हूं.
परिजन और दोस्तों ने आपकी इस अनुपस्थिति का सामना कैसे किया?
मैं, मेरे दिल्ली के दोस्तों का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि उनकी बदौलत मेरी गिरफ्तारी के बाद मेरी मां, पत्नी और बेटी को अपार सहयोग मिला, सबने उनका बहुत ख्याल भी रखा. जिस कॉलेज में मैं पढ़ाता हूं, उन्होंने भी मेरे परिवार की आर्थिक जरूरतों का ध्यान रखा. मेरी रिहाई के लिए कई मंचों पर अभियान भी चलाए गए, इन सभी को मैं एक बहुत ही सकारात्मक संदेश के रूप में देखता हूं और ये कह सकता हूं कि जब मैं अपने सेल में बैठा, अपने परिवार के बारे में सोचता था तब मुझे ज्यादा चिंता नहीं होती थी.
आपकी गिरफ्तारी पर दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन का क्या रवैया था?
केंद्रीय विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार अगर कोई प्रोफेसर निलंबित होता है तो वो पहले तीन महीनों तक अपने वेतन के 50 प्रतिशत का हकदार होता है, जिसके बाद इसे 75 प्रतिशत कर दिया जाता है. पर दिल्ली विश्वविद्यालय ने इन नियमों को दरकिनार करते हुए इन 14 महीनों में मुझे मेरे वेतन का पचास प्रतिशत ही दिया. ये बात किसी को भी बुरी लगेगी वो भी तब, जब आपको कई लोन चुकाने हों. यदि हमारे पास कोर्ट का आदेश न होता तब तो शायद वो मेरे परिवार को स्टाफ क्वार्टर से भी निकाल देते.
आपके कारावास के दौरान क्या आपकी पत्नी को किसी प्रकार की प्रताड़ना झेलनी पड़ी?
आप उनसे ये प्रश्न पूछ सकती हैं पर क्योंकि ये कठिन समय उन्हें मेरी वजह से देखना पड़ा तो मैं आपको बता सकता हूं कि उन्होंने क्या भोगा. 12 सितंबर 2013 को मेरे घर पर पहली बार छापा पड़ा था. पूरे घर में पुलिस के लोग काफी थे. ऐसे में मेरी मां, पत्नी और बेटी के लिए कहीं भी आना-जाना मुश्किल हो गया, क्योंकि वे लोग हर जगह उनके पीछे जाया करते थे चाहे दिन हो या रात. उनकी ऐसी डराने वाली रणनीति को देख राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर से कहा भी था कि घर के सामने कोई भी निगरानी नहीं करेगा. पर मेरे गिरफ्तार होने के कुछ समय बाद ही कई अपरिचित लोग मेरे घर के आस-पास दिखने लगे. मेरी पत्नी का पीछा किया जाता था, उन्हें धमकी भरे फोन कॉल्स भी आते थे. वो अगर कभी जेल में मेरे लिए किताबें आदि लेकर आतीं तो जेल प्रशासन उन्हें मुझे वो देने की अनुमति ही नहीं देता था. अगर वो मुझसे बात करने आतीं तो वो उन्हें जितना हो सके उतना टालते थे. और सबसे खराब ये था कि मुझे कभी वो दवाइयां नहीं दी गईं जो मेरी पत्नी मेरे लिए लाई थीं. और अगली बार मिलने तक हम दोनों ही इस बात से अनजान रहते. मेरी पत्नी इन्हीं वजहों से परेशान रहती थीं. मैं कह सकता हूं कि एक तरह से जो पीड़ा और यंत्रणा मैंने जेल के अंदर भोगी वो उन्होंने जेल के बाहर रहते हुए झेली.
ऐसी खबरें थीं कि आपने जेल में भूख हड़ताल की थी. ये कदम क्यों उठाना पड़ा?
मैं जब जेल में था तब मुझे छोटी-छोटी जरूरतों जैसे टॉयलेट, मेज, फल, चारपाई आदि को पूरा करने के लिए ट्रायल कोर्ट को चिट्ठी लिखनी होती थी. मेरी जैसी शारीरिक स्थिति में आप जमीन पर नहीं सो पाते हैं. हर बार जब मैं कोर्ट को लिखता वो मेरे ही पक्ष में फैसला देती पर कोर्ट के किसी भी फैसले पर कभी भी अमल नहीं किया गया. सामान्यतया कैदी अपने सेल के दरवाजे की छोटी-सी जगह में से अपने मिलने वालों से बातें कर लिया करते हैं पर ह्वीलचेयर पर होने के कारण मैं ऐसा भी नहीं कर सकता था, तो कोर्ट ने एक आदेश पारित करते हुए मुझे सेल से बाहर पर जेल परिसर के अंदर ही अपने मिलने वालों से बात करने की अनुमति दी पर जेल अधिकारियों ने इस बात की भी मंजूरी नहीं दी. केवल एक समय वो मेरे पक्ष में कुछ करते थे वो तब जब मेरी जमानत याचिका पर सुनवाई होती. तब वो मुझे हर सुविधा देते थे जो वो दे सकते थे पर जमानत याचिका खारिज होते ही सब चीजें वापस ले ली जाती थीं. ऐसा मेरे साथ लगातार चार बार हुआ. तब मैंने भूख हड़ताल की. हफ्ते भर के अंदर ही मैं अचेत हो गया क्योंकि मैं न खाना खा रहा था न दवाइयां. मुझे एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया गया. बाद में कोर्ट ने मुझे निजी अस्पताल में भर्ती करवाने का आदेश भी पारित किया पर उसका भी पालन नहीं किया गया. मई के महीने तक मेरी हालत और बिगड़ चुकी थी. तब जो डॉक्टर मेरा इलाज कर रहे थे उन्होंने अंडा सेल के ही एक आदिवासी कैदी लड़के को मेरी देखभाल करने को कहा. छत्तीसगढ़ और गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) से आने वाले इन किशोरों को फर्स्ट-एड की तकनीकें सिखाई जाती हैं, तो जब भी मैं बेहोश हो जाता तो वो मुझे होश में ले आते. इस समय कोर्ट ने जेल अधिकारियों को मुझे पांच सहायक और एसी या कूलर की सुविधा देने का आदेश दिया पर ये भी नहीं हुआ. अब तक मेरी हालत बहुत बिगड़ चुकी थी. इसी समय राष्ट्रीय अखबार ‘द हिंदू’ में मेरी सेहत की बिगड़ती हालत पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई और एक कार्यकर्ता पूनम उपाध्याय, जिनसे मैं आजतक कभी नहीं मिला, ने ये रिपोर्ट चीफ जस्टिस को ईमेल कर दी.
वैसे तो यहां कोई तुलना नहीं की जा सकती पर आपको हिरासत में लेने से पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय(जेएनयू) के शारीरिक रूप से एक अक्षम छात्र हेम मिश्रा को भी माओवादी संपर्क रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. जहां एक तरफ आपको सहयोग मिला, यहां तक कि आपका मुद्दा एक पत्रिका के मुखपृष्ठ पर भी आया, वहीं हेम को कहीं भुला-सा दिया गया. क्या कह सकते हैं कि ऐसे कई और हेम मिश्रा अभी तक जेलों में हैं?
हेम बहुत साहसी हैं. उन्होंने जेल में लगभग 28 दिनों तक थर्ड डिग्री टॉर्चर झेला क्योंकि उनसे एक ‘स्क्रिप्ट’ (लिखी-लिखाई कहानी) मानने के लिए कहा जा रहा था. उन्होंने हेम को ये स्वीकारने के लिए कहा कि ‘साईबाबा माओवादियों के संपर्क में हैं और माओवादियों को कुछ सूचनाएं पहुंचाते हैं.’ मैं कभी नहीं सोच सकता कि इस हद तक प्रताड़ित होने के बाद भी कोई उतना साहस दिखा सकता है जितना हेम ने दिखाया. मैं आपकी बात से पूरा इत्तेफाक रखता हूं. मैं 14 महीनों तक सेल में था और अब मुझे अस्थायी जमानत दी गई है. हेम 60 प्रतिशत विकलांग हैं, पिछले दो सालों से जेल में हैं और आज तक उन्हें जमानत नहीं मिली है. यहां सोचने वाली एक और बात है कि जब हेम जैसे कार्यकर्ता को 28 दिनों तक लंबा टॉर्चर झेलना पड़ा तो उन आदिवासी लड़कों के बारे में सोचिए जिन्होंने लगातार 400 दिनों तक इस अत्याचार को झेला था! कौन-सी अदालत पुलिस को इतने लंबे समय तक आरोपी को हिरासत में रखने की अनुमति देती है? कोई भी इन बातों की परवाह नहीं करता.
2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर किए एक हलफनामे में कहा था, ‘सीपीआई (माओेइस्ट) के विचारकों और शहरी समर्थकों ने केंद्र सरकार को गलत बताने के लिए सम्मिलित रूप से एक व्यवस्थित प्रचार अभियान शुरू किया है. इन्हीं विचारकों ने ये माओवादी अभियान अबतक जिंदा रखा हुआ है और ये पीपुल्स लिबरेशन गोरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के लोगों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं.’ यानी सरकार आपको उन व्यक्तियों के रूप में पहचानती है जो शहरों में माओवादी अभियान का राजनीतिक समीकरण आगे बढ़ा रहे हैं?
मेरे ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के विरोध का माओवादी आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है. मेरी लड़ाई जनसंहार के खिलाफ है. मुझे माओवादी आंदोलन का शहरी चेहरा कहना मूर्खता होगी. मुझे लगता है मुझे या अरुंधती राॅय को माओवादी आंदोलन के शहरी चेहरे के रूप में पेश करना एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है. हम सभी समाज में बुद्धिजीवी या लेखक के रूप में अपना एक स्वतंत्र स्थान रखते हैं. इन स्थानों पर हम हर उस चीज से जुड़ते हैं जिससे हमारा सामना होता है. एक शोधार्थी और अध्यापक के बतौर मैंने सीखा है कि साहित्य से जुड़ें और विभिन्न तरह के संघर्षों के बारे में पढ़ें. मैं सोचता हूं कि एक बुद्धिजीवी होने के नाते हम सभी को लोगों से जुड़े आंदोलनों का हिस्सा बनना चाहिए, इनका अध्ययन करना चाहिए. तो अगर सरकार ये कहती है कि हम किसी आंदोलन का ‘शहरी चेहरा’ भर हैं तो वो बस हमें नीचे गिराने की कोशिश कर रही है.
तो फिर ओडिशा और आंध्र प्रदेश ने ‘रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट’ (आरडीएफ) को बैन क्यों कर दिया?
आरडीएफ इन दो राज्यों में सशस्त्र संघर्ष की बात नहीं कर रहा था. ओडिशा में लोगों का हाल दिन-ब-दिन बद से बदतर होता जा रहा था. ऐसे में आरडीएफ ने विकास के वैकल्पिक मॉडल का प्रस्ताव रखा. जैसे कि हमने सरकार को बड़े बदलावों की बजाय छोटे बदलाव करने के लिए कहा. उदाहरण के लिए, हमने बड़े बांधों के निर्माण की बजाय छोटे बांधों के निर्माण का प्रस्ताव रखा जिससे कि उन्हें ज्यादा लोगों को विस्थापित न करना पड़े और न ही किसी प्राकृतिक आपदा का खतरा रहे. जल्द ही लोगों ने हमें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. इससे नाराज ओडिशा सरकार ने हम पर प्रतिबंध लगा दिया. आंध्र प्रदेश में भी ऐसा ही कुछ हुआ था. वैसे प्रतिबंध के बावजूद भी इन दोनों राज्यों में कभी भी, किसी भी गतिविधि के लिए आरडीएफ का कोई सदस्य गिरफ्तार नहीं किया गया. पर दिल्ली में, जहां आरडीएफ पर कोई प्रतिबंध नहीं है, वहां मुझे यानी आरडीएफ के एक सदस्य को माओवादी गतिविधियों के आरोप में हिरासत में ले लिया गया. इसके बाद मुझे नागपुर की सेंट्रल जेल में भेजा गया यानी महाराष्ट्र में जहां पर भी आरडीएफ पर कोई प्रतिबंध नहीं है. तो स्पष्ट रूप से इस मामले में मेरी गिरफ्तारी के कारण कुछ और ही थे.
आप पिछली सरकार यानी यूपीए के कार्यकाल के दौरान संदेह के घेरे में थे. मोदी सरकार के आने से हफ्तेभर पहले आपको हिरासत में ले लिया गया. आपको दोनों सरकारों के कार्यकाल में क्या अंतर नजर आता है?
(हंसते हुए) मुझे लगता है इस बारे में मुझसे बेहतर आप बता सकती हैं क्योंकि आपने बाहर रहकर सब देखा है. मैं सरकार के अबतक के कार्यकाल के दौरान जेल में था तो मैं नहीं समझता कि मैं इस सरकार का कोई विश्लेषण कर सकता हूं. मुझे तो जेल में अखबार तक नहीं दिया जाता था.