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दिल्ली के चावड़ी बाजार में स्थित जामा मस्जिद हिंदुस्तान की सबसे बड़ी औ सुंदर मस्जिद है. सन 1656 में जब यह बनकर तैयार हुई तो कहा जाता है कि मुगल बादशाह शाहजहां प्रसन्न होने के साथ-साथ चिंतित भी थे. उन्हें समझ में नहीं आता था कि इस भव्य मस्जिद का इमाम किसे बनाया जाए. शाहजहां की इच्छा थी कि इस विशेष मस्जिद का इमाम भी विशेष हो. एक ऐसा इंसान जो पवित्र, ज्ञानी, और हर लिहाज़ से श्रेष्ठ हो. उज्बेकिस्तान के बुखारा शाह ने शाहजहां को एक ऐसे ही व्यक्ति के बारे में बताया. इसके बाद शाहजहां के बुलावे पर उज्बेकिस्तान के बुखारा से आए सैयद अब्दुल गफ्फूर शाह बुखारी जामा मस्जिद के पहले इमाम बने. उन्हें उस वक्त इमाम-उल-सल्तनत की उपाधि दी गई. आज उसी परिवार के सैयद अहमद बुखारी जामा मस्जिद के 13वें इमाम हैं.
सैयद अब्दुल गफ्फूर शाह बुखारी को जामा मस्जिद का पहला इमाम बनाते वक्त शाहजहां को जरा भी इल्म नहीं होगा कि उस पवित्र व्यक्ति की आने वाली किसी पीढ़ी और जामा मस्जिद के भावी इमाम पर इमामत छोड़कर सियासत करने, जामा मस्जिद का दुरुपयोग करने, इसके आस-पास के इलाके में लगभग समानांतर सरकार चलाने की कोशिश करने और कानून को अपनी जेब में रखकर घूमने जैसे आरोप लगाए जाएंगे.
18 मई, 2013 को दिल्ली की एक अदालत ने सन 2004 में सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अली फहमी के घर पर जानलेवा हमला कराने के आरोप में इमाम अहमद बुखारी को गिरफ्तार करके पेश करने का आदेश जारी किया. हालांकि इमाम अहमद बुखारी के लिए यह कोई नई बात नहीं है. इससे पहले भी कई मौकों पर अदालतें उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दे चुकी हैं. मगर वे कभी अदालत में पेश नहीं हुए.
इससे जरा ही पहले जामा मस्जिद के बिजली बिल का विवाद भी सामने आया था. जामा मस्जिद पर चार करोड़ रुपये के करीब बिजली बिल बकाया है. इमाम का कहना है कि इस बिल को भरना वक्फ बोर्ड की जिम्मेदारी है. जबकि वक्फ बोर्ड का कहना था कि चूंकि मस्जिद और उसके सभी संसाधनों पर इमाम बुखारी का नियंत्रण है और इससे उन्हें जबरदस्त आमदनी होती है इसलिए बिजली बिल भी उन्हें ही भरना चाहिए.
बिल्कुल हाल ही की बात करें तो इमाम बुखारी उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और पिछले से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ देने के बाद अब राष्ट्रीय लोक दल के शीर्ष नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं. जानकारों के मुताबिक समाजवादी पार्टी से उनकी नाराजगी की वजह उनके निकट रिश्तेदारों को प्रदेश सरकार में महत्वपूर्ण ओहदे नहीं दिया जाना है.
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बुखारी परिवार की यात्रा आज से करीब साढे़ तीन दशक पहले तक बिना किसी विवाद के चली आ रही थी. सैकड़ों सालों से. इस पवित्र परिवार के राजनीति में हस्तक्षेप करने की शुरुआत वर्तमान इमाम के पिता अब्दुल्ला बुखारी के कार्यकाल में हुई जिसने अहमद बुखारी तक आते-आते हर तरह की सीमाओं को लांघ दिया. आज हालत यह है कि इमाम अहमद बुखारी राजनीति में अवसरवादिता की हद तक जाने के अलावा और भी तमाम तरह के गंभीर आरोपों के दायरे में हैं.
बुखारी परिवार के वर्तमान को समझने के लिए करीब 36 साल पहले के उसके अतीत में चलते हैं. सन 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ फतवा देकर मुसलमानों से जनता पार्टी को समर्थन देने की अपील वह पहली घटना थी जिसने जामा मस्जिद के इमाम का एक दूसरा पक्ष लोगों के सामने रखा. धार्मिक गुरु के इस राजनीतिक फतवे से भारतीय राजनीति में जो हलचल पैदा हुई वह आगे जाकर और बढ़ने वाली थी. इससे पहले तक इमाम और राजनीति के बीच सिर्फ दुआ-सलाम का ही रिश्ता हुआ करता था. सन 1977 की इस घटना के बाद जामा मस्जिद राजनीति का एक प्रमुख केंद्र बन गया. अब यहां राजनेता तत्कालीन इमाम से राजनीति के दांव-पेंचों पर चर्चा करते देखे जा सकते थे. जैसे-जैसे मस्जिद में राजनीतिक चर्चा के लिए आनेवाले नेताओं की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे यहां शुक्रवार को होने वाले इमाम के संबोधनों का राजनीतिक रंग भी गाढ़ा होता गया. ‘कांग्रेस लाई फिल्मी मदारी, हम लाए इमाम बुखारी’ जैसे नारे 1977 की उस चुनावी फिजा में खूब गूंजे जो बुखारी की भूमिका और प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए काफी थे.
[box]कई मौकों पर अदालतें बुखारी को गिरफ्तार करने का आदेश दे चुकी हैं. लेकिन पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने की कभी हिम्मत नहीं कर पाई[/box]
चुनाव में इंदिरा गांधी हार गईं और जनता पार्टी की सरकार बनी. इंदिरा की हार का कारण चाहे जो रहा हो लेकिन इसने इमाम को अपनी मजबूत राजनीतिक हैसियत के भाव से सराबोर कर दिया. 1977 के बाद अगले आम चुनावों में इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने जनता पार्टी के बजाय इंदिरा के लिए समर्थन का फतवा जारी किया. उन्होंने कहा कि इंदिरा ने जामा मस्जिद से अपने किए की माफी मांग ली है इसलिए हम उनका समर्थन कर रहे हैं.
खैर चुनाव हुआ और उसमें इंदिरा विजयी रहीं. जानकार बताते हैं कि इन दो चुनावों के कारण इमाम अब्दुल्ला बुखारी की ऐसी छवि बन गई कि वे जिसे चाहें उसे जितवा सकते हैं. उस दौर के गवाह रहे लोग बताते हैं कि यहीं से मुसलमानों को रिझाने के लिए बड़े-बड़े राजनेता जामा मस्जिद शीश नवाने पहुंचने लगे.
जानकारों का एक वर्ग मानता है कि इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने अधिकांश मौकों पर हवा का रुख देखकर फतवा जारी किया. मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ पत्रकार सलीम अख़्तर सिद्दीकी कहते हैं, ’77 में आपातकाल में हुईं ज्यादतियों को लेकर कांग्रेस के प्रति लोगों में जबरदस्त रोष था. खासकर मुसलमान जबरन नसबंदी को लेकर बहुत ज्यादा नाराज थे. ऐसे में यदि अब्दुल्ला बुखारी कांग्रेस को वोट देने की अपील करते तो मुसलमान उनकी बात नहीं सुनते. ऐसा ही 1980 के चुनाव में भी हुआ. इस चुनाव में अब्दुल्ला बुखारी ने देखा कि आपातकाल की जांच के लिए गठित शाह आयोग द्वारा इंदिरा गांधी से घंटों पूछताछ की वजह से इंदिरा गांधी के प्रति देश की जनता में हमदर्दी पैदा हो रही है. उन्होंने मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की अपील कर दी. यही बात 1989 के लोकसभा चुनावों में भी दोहराई गई.’
खैर, पार्टियों की जीत का कारण चाहे जो रहा हो लेकिन इन चुनाव परिणामों ने धीरे-धीरे इमाम के राजनीतिक प्रभुत्व को स्थापित किया और छोटे-बड़े राजनेता और राजनीतिक दल जामा मस्जिद के सामने कतारबंद होते चले गए. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इमाम बनने के बाद एक लंबे समय तक सैय्यद अब्दुल्ला बुखारी राजनीति से जुड़ी हर चीज से दूर रहे थे. लंबे समय से बुखारी परिवार को देखने वाले और अब्दुल्ला बुखारी के बेहद नजदीक रहे उर्दू अखबार सेक्यूलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मजहरी कहते हैं, ‘अब्दुल्ला बुखारी राजनीतिक तबीयत वाले व्यक्ति हैं लेकिन उनके अब्बा सियासी आदमी नहीं थे. यही कारण है कि जब तक वे जिंदा रहे तब तक अब्दुल्ला बुखारी राजनीति से दूर रहे. लेकिन अब्बा के इंतकाल के बाद उन्होंने इमामत के साथ ही सियासत में भी हाथ आजमाना शुरू कर दिया.’
ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के पूर्व अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘यहीं से जामा मस्जिद का राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रयोग शुरू हुआ. अब्दुल्ला बुखारी के बाद उनके बेटे अहमद बुखारी ने इस नकारात्मक परंपरा को न सिर्फ आगे बढ़ाया बल्कि और मजबूत किया.’ अब्दुल्ला बुखारी द्वारा जामा मस्जिद के राजनीतिक दुरुपयोग का एक उदाहरण देते हुए शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘इंदिरा गांधी के जमाने में जब वे बतौर प्रधानमंत्री 15 अगस्त को लालकिले से भाषण दिया करती थीं तो उसको कांउटर करते हुए जामा मस्जिद से अब्दुल्ला बुखारी ने भाषण देना शुरू कर दिया था. ये पहली बार था. जब लालकिले से पीएम के भाषण के खिलाफ कोई उसके सामने स्थित जामा मस्जिद से हुंकार भर रहा था.’
[box]बुखारी परिवार के राजनीति में हस्तक्षेप करने की शुरुआत वर्तमान इमाम के पिता अब्दुल्ला बुखारी के कार्यकाल में हुई[/box]
पिता के सामने राजनेताओं को रेंगते और हाथ जोड़कर आशीर्वाद देने की अपील करते नेताओं को देखकर अहमद बुखारी को भी धीरे-धीरे जामा मस्जिद और उसके इमाम की धार्मिक और राजनीतिक हैसियत का अहसास होता चला गया. ऐसे में अहमद बुखारी भी पिता की छत्रछाया में राजनीति को नियंत्रित करने की अपनी महत्वाकांक्षा के साथ सियासी मैदान में कूद पड़े. 1980 में अहमद बुखारी ने आदम सेना नामक एक संगठन बनाया. इसका प्रचार एक ऐसे संगठन के रूप में किया गया जो मुसलमानों की अपनी सेना थी और हर मुश्किल में, खासकर सांप्रदायिक शक्तियों के हमले की स्थिति में, उनकी रक्षा करेगी. लेकिन बुखारी के तमाम प्रयासों के बाद भी इस संगठन को आम मुसलमानों का समर्थन नहीं मिला. वरिष्ठ पत्रकार वदूद साजिद कहते हैं, ‘मुस्लिम समाज की तरफ से इस सेना को ना में जवाब मिला. समर्थन न मिलता देख अहमद बुखारी ने इस योजना को वहीं दफन कर दिया.’
जानकार बताते हैं कि बुखारी की यह सेना भले ही समर्थन के ऑक्सीजन के अभाव में चल बसी लेकिन उसने अन्य सांप्रदायिक शक्तियों के लिए खाद-पानी का काम जरूर किया. उस समय संघ परिवार के लोग यह कहते पाए गए कि देखिए, भारतीय मुसलमान अपनी अलग सेना बना रहा है. हिंदू धर्म और हिंदुओं पर खतरे की बात चारों तरफ प्रचारित की गई. ऐसा कहते हैं कि बजरंग दल के गठन के पीछे की एक बड़ी वजह आदम सेना भी थी.
सन 2000 में अहमद बुखारी जामा मस्जिद के इमाम बने. एक भव्य समारोह में उनकी दस्तारबंदी की गई. तब अहमद बुखारी पर इस बात का भी आरोप लगा कि उन्होंने अपने पिता से जबरन अपनी दस्तारबंदी करवाई है. नाम न छापने की शर्त पर परिवार के एक करीबी व्यक्ति कहते हैं, ‘उन्हें अपनी दस्तारबंदी कराने की हड़बड़ी इसलिए थी कि उन्हें लगता था कि यदि इससे पहले उनके वालिद का इंतकाल हो जाता है तो कहीं उनके भाई भी इमाम बनने का सपना ना देखने लगें.’ दस्तारबंदी के कार्यक्रम में मौजूद लोग भी बताते हैं कि कैसे उस कार्यक्रम में बड़े इमाम अर्थात अब्दुल्ला बुखारी को जामा मस्जिद तक एंबुलेंस में लाया गया था. उन्हें स्ट्रेचर पर मस्जिद के अंदर ले जाया गया था.
खैर, अहमद बुखारी जामा मस्जिद के इमाम बन गए. इमाम बनने के बाद बुखारी ने पहली घोषणा एक राजनीतिक दल बनाने की की. बुखारी का उस समय बयान था, ‘हम इस देश में सिर्फ वोट देने के लिए नहीं हैं, कि वोट दें और अगले पांच साल तक प्रताड़ित होते रहें. हम मुसलमानों की एक अलग राजनीतिक पार्टी बनाएंगे.’ एक राजनेता कहते हैं, ‘बड़े इमाम साहब के समय में भी नेता उनके पास वोट मांगने जाते थे लेकिन वो वोट के बदले कौम की भलाई करने की बात करते थे. लेकिन इन इमाम साहब के समय में ये हुआ है कि नेता वोट के बदले क्या और कितना लोगे जैसी बातें करने लगे.’ बुखारी परिवार को बेहद करीब से जानने वाले वरिष्ठ स्तंभकार फिरोज बख्त अहमद कहते हैं, ‘वर्तमान इमाम के पिता बेहद निडर और ईमानदार आदमी हुआ करते थे. समाज में उनका प्रभाव था, स्वीकार्यता थी, विश्वसनीयता थी लेकिन इनके साथ ऐसा नहीं रहा.’
खैर, समय बढ़ने के साथ ही अहमद बुखारी के राजनीतिक हस्तक्षेप की कहानी और गहरी व विवादित होती गई. उन पर यह आरोप लगने लगा कि वे व्यक्तिगत फायदे के लिए किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन कर सकते हैं. राजनीतिक-सामाजिक गलियारों में यह बात बहुत तेजी से फैल गई कि बुखारी के समर्थन की एक ‘कीमत’ है जिसे चुकाकर बेहद आराम से कोई भी उनका फतवा अपने पक्ष में जारी करा सकता है.
इसे समझने के लिए 2012 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में बुखारी की भूमिका को देखा जा सकता है. चुनाव में अहमद बुखारी ने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने की बात की. यह भी उल्लेखनीय है कि प्रदेश में 2007 के विधानसभा चुनावों और 2009 के लोकसभा चुनावों में बुखारी ने सपा का विरोध किया था. कुछ समय पहले तक सपा को सांप्रदायिक पार्टी बताने वाले इमाम साहब ने जब मुलायम को समर्थन का एलान किया तभी इस बात की चर्चा चारों ओर शुरू हो गई थी कि इसके बदले इमाम साहब क्या चाहते हैं? अभी लोग कयास लगा ही रहे थे कि पता चला कि इमाम साहब के दामाद उमर अली खान को सहारनपुर की बेहट विधानसभा सीट से सपा ने अपना उम्मीदवार बना दिया है.
लेकिन चुनाव के बाद जो परिणाम आया वह बेहद भयानक था. सपा ने जिन इमाम साहब से यह सोचकर समर्थन मांगा था कि इससे उप्र के मुसलमान पार्टी से जुड़ेंगे उन्हीं के दामाद चुनाव हार गए. और वह भी एक ऐसी सीट से जहां कुल वोटरों में से 80 फीसदी मुसलमान थे. और उस सीट से लड़ने वाले प्रत्याशियों में एकमात्र उमर ही मुसलमान थे. दामाद के हार जाने के बाद भी अहमद बुखारी ने हार नहीं मानी. उन्होंने उमर को विधान परिषद का सदस्य बनवा दिया. बाद में जब उन्होंने दामाद को मंत्री और भाई को राज्य सभा सीट देने की मांग की तो उसे मुलायम ने मानने से इनकार कर दिया. बस फिर क्या था. अहमद बुखारी और सपा का एक साल पुराना संबंध खत्म हो गया. बुखारी के दामाद ने विधान परिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. मीडिया और आम लोगों ने जब इमाम साहब से इस संबंध विच्छेद का कारण पूछा तो वे यह कहते पाए गए कि यूपी में सपा सरकार मुसलमानों के साथ धोखा कर रही है. सरकार का एक साल का कार्यकाल पूरा हो चुका है लेकिन अभी तक उसने मुसलमानों के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया. उल्टे मुसलमान सपा सरकार में और अधिक प्रताड़ित हो रहे हैं.
खैर, इधर इमाम साहब मुस्लिमों के साथ अन्याय करने का सपा पर आरोप लगा रहे थे तो दूसरी तरफ सपा के लोग उन्हें भाजपा का दलाल तथा सरकार को ब्लैकमेल करने वाला करार दे रहे थे. मुसलमानों के साथ अन्याय के आरोप पर सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान का तंज भरा बयान यह आया कि मुलायम सिंह यादव को अहमद बुखारी की बात मान लेनी चाहिए थी क्योंकि ‘भाई को राज्य सभा और दामाद को लाल बत्ती मिल जाती तो मुसलमानों की सारी परेशानियां दूर हो जातीं.’
सपा से अलग होने के कुछ समय बाद ही बुखारी ने मुलायम सिंह यादव के गृह जनपद इटावा में ‘अधिकार दो रैली’ की. उस रैली में इमाम साहब बहुजन समाजवादी पार्टी पर डोरे डालते नज़र आए. जिन मायावती में कुछ समय पहले तक उन्हें तमाम कमियां दिखाई देती थीं उनकी शान में कसीदे पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि मुल्क में अगर कोई हुकूमत करना जानता है तो वह मायावती ही हैं. सपा सरकार ने राज्य के मुसलमानों को न सिर्फ छला है बल्कि उन्हें असुरक्षा की भावना का शिकार भी बना दिया है. हम उम्मीद करते हैं कि उन्होंने (मायावती ने) जिस तरह से दलितों का वोट हासिल करके दलितों का उद्धार किया है उसी तरह अब मुसलमानों का भी भला करेंगी.’
यह कहानी हमें बताती है कि बुखारी किस तरह से क्षण में समर्थन और दूसरे ही पल में विरोध की राजनीति में पारंगत रहे हैं और यह सब मुस्लिम समाज के हितों के नाम पर किया जाता रहा है. अहमद बुखारी की इमामत का दौर ऐसे ढेरों उदाहरणों से भरा पड़ा है.
इमाम अहमद बुखारी की इमामत और सियासत के बीच आवाजाही उनके साथ बाकी लोगों के लिए भी काफी पहले ही एक सामान्य बात हो चुकी थी. लेकिन आम मुसलमानों के साथ ही बाकी लोगों में उस समय हड़कंप मच गया जब 2004 के लोकसभा चुनावों में इमाम साहब ने मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील कर डाली.
लोगों को वह समय याद आ रहा था जब 2002 में गुजरात दंगों के बाद बुखारी भाजपा के खिलाफ हुंकार भर रहे थे. तब तक के अपने तमाम भाषणों में वे बाबरी मस्जिद के टूटने और मुसलमानों के मन में समाए डर के लिए भाजपा और संघ को जिम्मेदार बताते रहते थे. वे बताते थे कि कैसे भाजपा और संघ परिवार भारत में मुसलमानों के अस्तित्व के ही खिलाफ हैं.
बुखारी से जब भाजपा को समर्थन देने का कारण पूछा गया था तो उनका कहना था, ‘भाजपा की नई सोच को हमारा समर्थन है. बाबरी मस्जिद की शहादत कांग्रेस के शासनकाल में हुई लेकिन क्या कांंग्रेस ने इसके लिए कभी माफी मांगी? गुजरात दंगों के मामले में भी क्या कांग्रेस ने दंगा प्रभावित मुसलमानों के पुनर्वास के लिए कुछ किया है? भाजपा ने तो कम से कम गुजरात दंगों के लिए दुख व्यक्त किया है और वो अयोध्या मामले में भी कानून का सामना कर रही है.’ उस समय इमाम बुखारी यह कहते भी पाए गए थे, ‘हर गुजरात के लिए कांग्रेस के पास एक मुरादाबाद है, जहां ईद के दिन मुसलमानों को मारा गया और अगर उन्होंने भाजपा की तरफ से की गई इस शुरुआत का जवाब नहीं दिया होता तो बातचीत का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो जाता. मुसलमानों को जेहाद, हिजरत (पलायन) और सुलह के बीच चुनाव करना है. मुझे लगता है कि इस वक्त सुलह सबसे अच्छा विकल्प है.’
परिवार को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इस 360 डिग्री वाले हृदय परिवर्तन के पीछे मुस्लिम समाज की चिंता और बेहतरी के बजाय परिवार का दबाव था. परिवार के एक सदस्य ने अहमद बुखारी के ऊपर चुनावों में भाजपा को समर्थन देने का दबाव बनाया था. इस शख्स का नाम है याह्या बुखारी.
याह्या अहमद बुखारी के छोटे भाई है. यहां यह उल्लेखनीय है कि जब इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने अहमद बुखारी की दस्तारबंदी की उस समय याह्या चाहते थे कि नायब इमाम का जो पद अहमद बुखारी संभालते थे वह उन्हें दे दिया जाए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अहमद बुखारी ने इसके लिए मुगल परंपरा का हवाला दिया जिसके मुताबिक अभी तक इमाम के बेटे को ही नायब इमाम बनाने की पंरपरा चली आ रही थी. उस समय की अखबारी रिपोर्टों और परिवार से जुड़े सूत्रों के मुताबिक इस पर याह्या का कहना था कि उनके बड़े भाई ने दो शादियां की हैं. दूसरी शादी से जो बेटा है वह इस पद के योग्य नहीं है. ऐसे में नायब का पद उन्हें दिया जाना चाहिए.
खैर, याह्या नायब नहीं बन पाए. दोनों भाइयों के बीच तनाव बढ़ता गया. तनाव कम करने और भाई को मनाने के लिए अहमद बुखारी ने पारिवारिक संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा याह्या को देने की पेशकश की और मस्जिद के अंदर और अधिक सक्रिय भूमिका की उनकी मांग को भी मान लिया. भाई को मनाने के लिए अहमद हर तरह से लगे हुए थे कि एकाएक याह्या ने उनसे 2004 के चुनाव में भाजपा का समर्थन करने की मांग कर दी. याह्या की इस मांग पर इमाम बुखारी बेहद चिंतित हुए. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इससे वे कैसे निपटें. खैर तमाम सोचने विचारने के बाद वे इसके लिए मान गए. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी हिमायत समिति बनाई गई और हिमायत कारवां नाम से यात्रा निकालकर मुसलमानों से भाजपा का समर्थन करने की अपील की गई.
मगर याह्या बुखारी ने अपने बड़े भाई को भाजपा का समर्थन करने लिए क्यों मजबूर किया? परिवार से जुड़े सूत्र बताते हैं कि याह्या 2004 से एक दशक पहले से ही भाजपा से जुड़े हुए थे. नब्बे के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में धीरे-धीरे भाजपा ने अल्पसंख्यकों को जोड़ने के लिए मन बनाना शुरू किया. उसी समय प्रमोद महाजन का संपर्क याह्या बुखारी से हुआ. प्रमोद ने याह्या से भाजपा की योजना के बारे में बताया और पार्टी को सपोर्ट करने का प्रस्ताव रखा. 1998 के लोकसभा चुनावों में खुद याह्या बुखारी मुंबई में प्रमोद महाजन के लिए प्रचार करने पहुंचे थे. उस चुनाव में भाजपा के लिए प्रचार करने गए एक मुस्लिम नेता कहते हैं, ‘याह्या को मैंने वहां देखा था. वो भाजपा के लिए वहां प्रचार करने आए थे. हम लोग एक ही होटल में रुके हुए थे.’
2004 में प्रमोद महाजन के कहने पर ही याह्या ने अपने भाई अहमद बुखारी को भाजपा का समर्थन करने के लिए बाध्य किया. अपने राजनीतिक व्यवहार के कारण विवादित रहे बुखारी पर सबसे बड़ा आरोप उस जामा मस्जिद के दुरुपयोग का लग रहा है जिसके वे इमाम हैं. आरोप लगाने वालों का कहना है कि बुखारी परिवार ने इमाम अहमद बुखारी के नेतृत्व में पूरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया है और इसे अपनी निजी संपत्ति की तरह प्रयोग कर रहे हैं. वैसे तो कानूनी तौर पर जामा मस्जिद वक्फ की संपत्ति है लेकिन शायद सिर्फ कागजों पर. मस्जिद का पूरा प्रशासन आज सिर्फ बुखारी परिवार के हाथों में ही है.
मस्जिद पर बुखारी परिवार के कब्जे के विरोध में लंबे समय से संघर्ष कर रहे अरशद अली फहमी कहते हैं, ‘पूरी मस्जिद पर बुखारी और उनके भाइयों ने अंदर और बाहर चारों तरफ से कब्जा कर रखा है. मस्जिद का प्रयोग ये अपनी निजी संपत्ति के तौर पर कर रहे हैं. बुखारी जामा मस्जिद के इमाम हैं, जिनका काम नमाज पढ़ाना भर है लेकिन वो मस्जिद के मालिक बन बैठे हैं.’
बुखारी पर इन आरोपों की शुरुआत उस समय हुई जब मस्जिद के एक हिस्से में यात्रियों के लिए बने विश्रामगृह पर इमाम बुखारी ने कब्जा जमा लिया. बुखारी के खिलाफ कई मामलों में कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके सुहैल अहमद खान कहते हैं, ‘जामा मस्जिद में आने वाले यात्रियों के लिए सरकारी पैसे से जो विश्रामगृह बना था उस पर अहमद बुखारी ने अपना कब्जा कर उसे अपना विश्रामगृह बना डाला है. उस विश्रामगृह पर कब्जा करने के साथ ही बगल में उन्होंने अपने बेटे के लिए एक बड़ा घर भी बनवा लिया. बाद में जब मामले ने तूल पकड़ा तो उन्होंने उसे बाथरूम दिखा दिया.’
आरोपों की लिस्ट में सिर्फ ये दो मामले नहीं हैं. सुहैल बताते हैं, ‘डीडीए ने मस्जिद कैंपस में पांच नंबर गेट के पास जन्नतनिशां नाम से एक बड़ा मीटिंग हॉल बनाया था, जो आम लोगों के प्रयोग के लिए था. कुछ समय बाद अहमद बुखारी के छोटे भाई याह्या ने उस पर अपना कब्जा जमा लिया. आज भी उनका उस पर कब्जा है. इसके साथ ही गेट नंबर नौ पर स्थित सरकारी डिस्पेंसरी पर बुखारी के छोटे भाई हसन बुखारी ने कब्जा कर रखा है.
जिस जन्नतनिशां पर याह्या बुखारी के कब्जे की बात सुहैल कर रहे हैं उसी जन्नतनिशां में कुछ समय पहले दुर्लभ वन्य जीवों ब्लैक बक और हॉग डियर के मौजूद होने की खबर और तस्वीरें सामने आईं थी.
2012 में जामा मस्जिद के ऐतिहासिक स्वरूप को कथित अवैध निर्माण से बिगाड़ने संबंधी आरोपों को लेकर अहमद बुखारी के खिलाफ सुहैल कोर्ट गए थे. उन्होंने अपनी याचिका में यह आरोप लगाया कि इमाम व उनके दोनों भाइयों ने जामा मस्जिद में अवैध निर्माण कराया है और वे आसपास अवैध कब्जों के लिए भी जिम्मेदार हैं. आरोपों की जांच के लिए हाई कोर्ट ने एक टीम का गठन किया. बाद में उस टीम ने कोर्ट के समक्ष पेश की गई अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्वीकार किया कि हां, मस्जिद में अवैध निर्माण कराया गया है.
‘जामा मस्जिद प्रांगण में तो इस परिवार ने अपना कब्जा जमाया ही है, इसके बाहर भी इस परिवार ने कब्जा कर रखा है. ‘मस्जिद के बाहर उससे सटे हुए सरकारी पार्कों के बारे में बताते हुए अरशद कहते हैं, ‘मस्जिद के चारों तरफ स्थित इन पार्कों पर बुखारी परिवार ने कब्जा कर रखा है. किसी को उन्होंने अपनी पर्सनल पार्किंग बना रखा है तो किसी को उन्होंने यात्रियों के लिए पार्किंग बना रखा है. इससे होने वाली आमदमी सरकारी खाते में नहीं बल्कि बुखारी परिवार के खाते में जाती है.’
[box]2000 में जामा मस्जिद के इमाम बने अहमद बुखारी पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने पिता से जबरन अपनी दस्तारबंदी करवाई[/box]
अवैध कब्जे की ऐसी ही एक कहानी बताते हुए जामा मस्जिद के बाहर मोटर मार्केट में दुकान लगाने वाले तनवीर अख्तर कहते हैं, ‘मस्जिद के गेट नंबर एक के पास कॉर्पोरेशन का एक ग्राउंड है. वो शादी-ब्याह के लिए लंबे समय से इस्तेमाल होता था. लेकिन आज उस पर अहमद बुखारी के भाइयों का कब्जा है. किसी को अगर उस पार्क को शादी आदि के लिए बुक कराना है तो उसे बुखारी परिवार के आदमी को मोटी रकम देनी पड़ती है.’
नाम न छापने की शर्त पर मीना बाजार के एक दुकानदार कहते है, ‘चारों भाइयों ने चारों तरफ से मस्जिद पर कब्जा कर रखा है. इसके अलावा मस्जिद के गेट नंबर दो से लेकर लालकिला तक और गेट नंबर दो से ही उर्दू बाजार तक जितनी रेहड़ी पटरी की दुकानें हैं वो सभी इमाम के आशीर्वाद से ही चल रही हैं. इनकी कमाई का एक हिस्सा उन तक भेजा जाता है.’
मस्जिद प्रांगण के दुरुपयोग का एक उदाहरण देते हुए सैयद शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘कुछ समय पहले इमाम अहमद बुखारी के छोटे भाई याह्या ने मस्जिद में ही मूर्ति बेचने की दुकान खोल ली थी. जिसकी इस्लाम में सख्त मनाही है. बाद में इसका भारी विरोध होने पर उन्होंने उस दुकान को बंद किया.’
साल 2006 में उस समय भी इमाम बुखारी गंभीर आरोप के घेरे में आए जब सउदी अरब के प्रिंस अब्दुल्ला ने जामा मस्जिद की रिपेयरिंग के लिए आर्थिक मदद देने की पेशकश की. सउदी प्रिंस की इस पेशकश पर भारत सरकार हैरान रह गई थी. सरकार ने प्रिंस से कहा कि वह अपनी मस्जिद की खुद मरम्मत करा सकती है और धन्यवाद के साथ उसने आर्थिक मदद लेने से इनकार कर दिया. बाद में पता चला कि इस पैसे की मांग कुछ समय पहले जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने सऊदी सरकार से की थी. उन्होंने वहां की सरकार से मदद करने की अपील करते हुए कहा था, ‘मसजिद की दीवारें टूट रही हैं, मीनारें में दरारें पड़ रही हैं. ऐसे में उसे रिपेयर करने में आप हमारी आर्थिक मदद करें.’
बुखारी से जब पूछा गया तो उन्होंने सउदी सरकार से ऐसी कोई मदद मांगने की बात से साफ इनकार कर दिया. हालांकि उस समय बुखारी बगलें झांकते नजर आए जब भारत में सऊदी अरब के राजदूत सालेह मोहम्मद अल घमडी ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने ही सऊदी सरकार से मस्जिद की मरम्मत के लिए आर्थिक सहायता का अनुरोध किया था. जानकार बताते हैं कि बुखारी ने पैसे के लिए सऊदी सरकार से संपर्क तो किया था लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि वह बिना भारत सरकार को बीच में लाए उन्हें मदद दे देगी.
कुछ अरसा पहले ही जामा मस्जिद इलाके की दीवारें कई ऐसी पोस्टर श्रृंखलाओं की गवाह बनीं जिसमें इमाम अहमद बुखारी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के साथ उनसे कुछ प्रश्नों के जवाब मांगे गए थे. मसलन-
- जामा मस्जिद की मीनार का टिकट, कैमरे का टैक्स, वीडियोग्राफी का टैक्स वगैरह जो तकरीबन बीस हजार रुपये रोज या 6 लाख रुपये माहवार होता है वह किस खाते में जाता है ? जामा मस्जिद वीआईपी गेट की पार्किंग से आमदनी जो कि तकरीबन 4,500 रुपये रोज या एक लाख 35 हजार की बताई जाती है, जिसका न कभी टेंडर पास होता है, न ही यह एमसीडी के जरिए चलती है. ये रकम कहां जाती है.
- ऐतिहासिक धरोहर जामा मस्जिद के अंदर मुकीम डीडीए पार्क जो की कौम की अमानत है, पर आप ने अपना जाती रिहाइशी मकान किस की इजाजत से बनवाया.
- आपने मीना बाजार की दो हजार दुकानें उजड़वाकर सात दुकानें (दुनं-225,226,227,228,229, 230,231) बतौर तोहफा हासिल कीं और इसे कौम की खिदमत का नाम दिया क्या सिर्फ अपने खासमखासों को फायदा पहुंचाना कौम की खिदमत होती है?
इन प्रश्नों के अलावा और भी ढेर सारे प्रश्न अहमद बुखारी को संबोधित करते हुए पूछे गए थे. इन पोस्टरों को लगाने के पीछे मकसद चाहे जो हो लेकिन इनसे अवैध कब्जे के साथ ही एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि आखिर मस्जिद से होने वाली आमदनी किसके खाते में जाती है. किसके ऊपर उसकी देखरेख का जिम्मा है और कौन उसकी व्यवस्था देखता है?
दिल्ली वक्फ बोर्ड जिसके क्षेत्राधिकार में यह मस्जिद आती है, उसके अध्यक्ष मतीन अहमद कहते हैं, ‘मस्जिद का पूरा काम इमाम साहब ही देखते हैं. जो भी वहां से आमदनी होती है वो उन्हीं के पास जाती है. जामा मस्जिद वक्फ की संपत्ति जरूर है लेकिन वक्फ का वहां कोई दखल नहीं है.’
हाल ही में जामा मस्जिद के बिजली बिल को लेकर विवाद सामने आया. जामा मस्जिद पर चार करोड़ रुपये के करीब का बिल था. इमाम ने कहा, ‘यह वक्फ की जिम्मेदारी है कि वह बिल भरे. हां, अगर वह चाहता है कि मैं बिल भरूं तो पहले उन्हें जामा मस्जिद मेरे नाम करनी होगी.’ वक्फ का कहना था कि चूंकि मस्जिद पर इमाम बुखारी का नियंत्रण है और उससे होने वाली पूरी आमदनी उनके पास जाती है इसलिए बिजली का बिल उन्हें ही भरना होगा.
ऐसा नहीं है कि इमाम और वक्फ के बीच संघर्ष का यह कोई पहला मौका था. वर्तमान इमाम अहमद बुखारी के पिता अब्दुल्ला बुखारी से भी वक्फ का छत्तीस का आंकड़ा रहा था. अब्दुल्ला बुखारी ने जब अपने बेटे अहमद बुखारी को इमाम बनाया तो वक्फ ने उसे मान्यता देने से इनकार कर दिया. मान्यता संबंधी अब्दुल्ला बुखारी का आवेदन लगभग पांच साल तक वक्फ के ऑफिस में पड़ा रहा था.
2005 में दिल्ली हाई कोर्ट ने जामा मस्जिद पर दावेदारी को लेकर वक्फ और बुखारी के बीच चल रही लड़ाई पर फैसला सुनाते हुए मस्जिद को न सिर्फ वक्फ की संपत्ति बताया था बल्कि बुखारी को कहा कि वे वक्फ के कर्मचारी मात्र हैं. इसके साथ ही बिना वक्फ की अनुमति के मस्जिद के स्वरूप के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न करने की हिदायत भी कोर्ट ने बुखारी को दी थी. उसी समय वक्फ द्वारा जामा मस्जिद की आय-व्यय का प्रश्न छेड़ने पर कोर्ट ने बुखारी से पिछले 30 साल की आमदनी और खर्च का ब्यौरा बोर्ड के पास जमा कराने के लिए कहा था.
सुहैल कहते हैं, ‘आज अहमद बुखारी और उनके परिवार ने अथाह चल-अचल संपत्ति अर्जित कर ली है. ये सब कुछ पिछले 30 से 35 सालों में ही हुआ है. इसी परिवार के मुखिया अब्दुल्ला बुखारी ने 1976 में वक्फ बोर्ड के खिलाफ अपने महीने की पगार 130 से बढ़ाकर 840 रुपये करने के लिए प्रदर्शन किया था. आज जो अहमद बुखारी करोड़ों-अरबों के मालिक हैं. वो उस दौरान एक कमरे में प्रेस बनाने की एक छोटी दुकान चलाया करते थे. वही परिवार और आदमी आज पैसों से अटा पड़ा है.
सैयद शहाबुद्दीन भी सुहैल की बातों से इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं, ‘ये समझने वाली बात है कि जो परिवार कुछ साल पहले तक अपनी तनख्वाह बढ़वाने की लड़ाई लड़ रहा था, जिससे ये स्थापित होता है कि वो वक्फ के मुलाजिम थे, वह आज कैसे मस्जिद का मालिक बन बैठा है ?’
जामा मस्जिद क्षेत्र में सक्रिय अपराधियों और वहां होने वाली अवैध गतिविधियों को भी इमाम अहमद बुखारी का संरक्षण प्राप्त होने का आरोप लगाया जाता रहा है. सुहैल कहते हैं, ‘उस क्षेत्र में जितनी अवैध गतिविधियां चल रही हैं उन सभी को बुखारी साहब का वरदहस्त प्राप्त है.’ इसका उदाहरण देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता शीबा असलम फहमी कहती हैं, ‘करीब चार महीने पहले जामा मस्जिद के चूड़ीवालान इलाके में सात कारखानों पर छापा मार कर पुलिस ने लगभग 33 बाल मजदूरों को रिहा कराया था. इधर पुलिस ने कारखानों को सील और उनके मालिकों को गिरफ्तार किया ही था कि इमाम बुखारी ने जामा मस्जिद के लाउड स्पीकरों से पुलिस को ललकारते हुए इसे मुसलमानों पर जुल्म ठहरा दिया. बुखारी ने बच्चों को छुड़ाने की इस कार्यवाही को मुसलमानों के खिलाफ षड्यंत्र बताते हुए कहा कि ‘हमारे इलाके में घुस कर ये जालिमाना हरकत करने की जुर्रत कैसे की गई? ‘ बचपन बचाओ आंदोलन, जो इस बचाव अभियान में शामिल था, के सदस्य राकेश सेंगर कहते हैं, ‘इमाम बुखारी सील कर दिए गए उन कारखानों पर गए और वहां जाकर अपने हाथों से कारखानों पर लगाई सीलें तोड़ दीं.’
ऐसा नहीं है कि इमाम बुखारी ने इस तरह का हस्तक्षेप पहली बार किया था. राकेश कहते हैं, ‘2010 में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. तहलका में मदरसों के माध्यम से हो रही बाल तस्करी पर छपी एक रिपोर्ट के बाद प्रशासन ने बचपन बचाओ आंदोलन के साथ मिलकर गीता कॉलोनी स्थित कुछ कारखानों पर छापा मारने का निर्णय किया.’ राकेश के मुताबिक वहां से उन्होंने लगभग 22 बच्चों को छुड़ाया. बच्चों को छुड़ाने के बाद जैसे ही ये लोग उन्हें लेकर बाहर आ रहे थे कि कुछ लोगों ने पूरी टीम पर हमला कर दिया. इस घटना के कुछ घंटे बाद ही अहमद बुखारी का बयान आया कि बाल मजदूरों को छुड़ाने के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है. यह मुसलमानों के खिलाफ षड़यंत्र है. इस तरह की कार्रवाई का सख्ती से जवाब दिया जाएगा. आइंदा ऐसी कार्रवाई भविष्य में इधर ना की जाए.
[box]2004 में तब हड़कंप मच गया जब लोकसभा चुनावों में इमाम साहब ने मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील कर डाली[/box]
बाल अधिकारों पर काम करने वाले लोग बताते हैं कि सबसे ज्यादा अगर बाल मजदूरी या बाल तस्करी दिल्ली के किसी क्षेत्र में है तो वह जामा मस्जिद के आस-पास के इलाके में ही है. राकेश कहते हैं, ‘जैसे ही उस इलाके में कोई रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू होता है कि इमाम साहब की तरफ से उसे बंद करने का फरमान आ जाता है.’
इमाम अहमद बुखारी के अब तक के ट्रैक रिकॉर्ड को हम देखें तो पाएंगे कि उन्होंने कानून और पुलिस को हमेशा ठेंगे पर ही रखा है. वे जब जो चाहते हैं वही करते और कहते हैं लेकिन कानून और व्यवस्था का जिम्मा संभालने वालों के अंदर इतना साहस नहीं कि उन पर कोई कार्रवाई कर सकें. पुलिस ने बुखारी के खिलाफ उनके भाषणों की वजह से देशद्रोह जैसे गंभीर मामले तक दर्ज किए. लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. कई बार न्यायालयों ने उनके खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया, पुलिस को उन्हें गिरफ्तार करके कोर्ट में पेश करने के लिए कहा गया लेकिन कभी पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं कर पाई. बुखारी का दबदबा इसी बात से समझा जा सकता है कि हाई कोर्ट से लेकर लोअर कोर्ट तक ने कई बार यह कमेंट किया है कि पुलिस के अधिकारियों में बुखारी को गिरफ्तार करने का साहस नहीं है.
ऐसे ही एक मामले में कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि यह बहुत चौंकाने और स्तब्ध करने वाली बात है कि पुलिस बुखारी के खिलाफ गैरजमानती वारंट की तामील कर पाने में सक्षम नहीं है. यह मामला तीन सितंबर, 2001 का है जब पुलिस और निगम के कर्मचारी लोधी कॉलोनी में अतिक्रमण हटाने गए थे. बुखारी पर आरोप लगा कि उनके नेतृत्व में भीड़ ने अतिक्रमण हटाने गए कर्मचारियों पर हमला कर दिया. इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार किया गया लेकिन बुखारी को यह कहते हुए पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया कि उनकी गिरफ्तारी से हालात खराब हो सकते थे. बाद में जब मामले में चार्जशीट दाखिल हुई तो उसमें बुखारी को भी अभियुक्त बनाया गया. जनवरी, 2004 में कोर्ट ने मामले की दोबारा जांच करने के लिए कहा. इस पर पुलिस का कहना था कि वह बुखारी को गिरफ्तार नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने से सांप्रदायिक दंगा भड़क सकता है. इसी मामले में जुलाई, 2012 में कोर्ट का यह बयान आया, ‘रिकॉर्ड को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दिल्ली में कमिश्नर रैंक तक के अधिकारी के पास बुखारी के खिलाफ वारंट तामील करने की हिम्मत नहीं है.’
बुखारी के दबदबे को इस बात से भी समझा जा सकता है कि जामा मस्जिद के इलाके में पुलिस उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई तो दूर मामला तक दर्ज करने से परहेज करती है. अरशद कहते हैं, ‘मेरे घर पर बुखारी समर्थकों ने 2004 में पहली बार हमला किया था. लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया. जब मैंने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि इमाम साहब का नाम निकाल दो. हम केस दर्ज कर लेंगे.’ खैर, पुलिस ने उनके खिलाफ मामला दर्ज नहीं किया और अरशद को कोर्ट जाना पड़ा. उसी मामले में अदालत ने मई में बुखारी को गिरफ्तार कर पेश करने का आदेश जारी किया है. अरशद कहते हंै, ‘पता नहीं पुलिस उन्हें कैसे गिरफ्तार करेगी क्योंकि अपने पिता के जैसे ही ये भी कई बार इस बात को कह चुके हैं कि इस देश की किसी अदालत में हम पेश नहीं होंगे.’
अहमद बुखारी तमाम अन्य तरह के विवादों के अलावा समय-समय पर दिए अपने विवादास्पद बयानों के कारण भी काफी चर्चा में रहे. कभी उन्होंने अमेरिका पर नौ सितंबर के हमले को बिल्कुल जरूरी और उचित ठहराया तो कभी ओसामा बिन लादेन को आतंकी की जगह नायक करार दिया. कभी अन्ना आंदोलन को मुस्लिम विरोधी ठहराते हुए मुसलमानों को उससे दूर रहने की नसीहत दी तो कभी शबाना आजमी को नाचने-गाने वाली औरत कहा. कभी अपने पिता के साथ खुद को आईएसआई एजेंट ठहराते हुए सरकार को चुनौती दी कि अगर हिम्मत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ. अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद भारत के सारे मुसलमानों को अफगानिस्तान जाकर जेहाद में भाग लेने का आह्वान किया तो कभी तालिबान को मुसलमानों के लिए आदर्श ठहराया.
पिछले कुछ सालों में बुखारी अपनी तुनकमिजाजी के कारण भी चर्चा में रहे. 2007 में लखनऊ की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार के सवाल पर इमाम बुखारी इतने नाराज हुए कि उन्होंने अपने लोगों के साथ मिलकर सरेआम उस पत्रकार को पीट डाला. कुछ इसी तरह की घटना 2006 में भी हुई थी. इमाम बुखारी प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन सौंपने जा रहे थे. जी न्यूज़ के पत्रकार युसूफ अंसारी के एक सवाल पर वे इतना बिफर गए कि साथ के लोगों के साथ मिलकर अंसारी के साथ मारपीट करने लगे. अंसारी कहते हैं, ‘ मैंने बुखारी से सिर्फ इतना ही कहा था कि मंडल कमीशन के तहत मुस्लिमों को आरक्षण देने की मांग जो आप प्रधानमंत्री से करने जा रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है. मुस्लिमों को तो पहले से ही आरक्षण मिला हुआ है. बस फिर क्या था मेरा प्रश्न सुनते ही उन लोगों ने मुझ पर हमला कर दिया.’
जामा मस्जिद के इमाम की राजनीतिक हैसियत और मुस्लिम मतदाताओं पर उनके प्रभाव को लेकर बहुत पहले से ही बहस होती आ रही है. 2012 के उप्र विधानसभा चुनावों में मुस्लिम बहुल सीट पर दामाद की जमानत जब्त होना तो अभी हाल की बात है. अगर जामा मस्जिद के आसपास के इलाकों से जुड़े बुखारी के पुराने फतवों पर नजर डालें तो चिराग तले अंधेरा छाने वाली कहावत चरितार्थ होती लगती है. एक सामान्य सोच कहती है कि इमाम साहब का सबसे ज्यादा कहीं प्रभाव होगा तो वह जामा मस्जिद के इलाके में होगा. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में हुए चुनावों में उन्हें यहीं मुंह की खानी पड़ी है.
जामा मस्जिद दिल्ली की मुस्लिम बहुल मटिया महल विधानसभा क्षेत्र में स्थित है. यहां से शोएब इकबाल पिछले 20 साल से विधायक हैं. पिछले तीन चुनावों में इमाम बुखारी ने खुले तौर पर शोएब इकबाल का विरोध किया, उनके खिलाफ फतवा जारी किया. लेकिन हर बढ़ते चुनाव के साथ शोएब और अधिक मतों से जीतते चले गए.
विधायकी से भी नीचे आते हैं. जिस क्षेत्र में जामा मस्जिद है, वह नगर निगम का जामा मस्जिद क्षेत्र कहलाता है. यहां से नगर निगम के चुनाव में पिछले दो बार से वही प्रत्याशी चुनाव जीत रहा है जिसका बुखारी विरोध कर रहे हैं. यहां के पार्षद खुर्रम इकबाल यहां के ही विधायक शोएब इकबाल के भतीजे हैं. शोएब कहते हैं, ‘आज अगर कोई सोचे कि उसके कहने पर मतदाता वोट करेगा तो ऐसा नहीं है. वोटर अब बहुत होशियार हो गया है. उसे पता है कि सुनना क्या है, चुनना क्या है.’
लंबे समय से मुसलमानों के लिए एक अलग पार्टी बनाने का मंसूबा पाले इमाम बुखारी ने अपनी यह इच्छा भी 2006 में पूरी कर ली. यह अलग बात है कि उन्हें मुस्लिमों से जिस तरह के समर्थन की उम्मीद थी उसका एक तिनका भी उन्हें नहीं मिला. जून, 2006 में जामा मस्जिद में एक प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए बुखारी ने उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूपीडीयूएफ) के गठन का एलान किया. पार्टी के अध्यक्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले हाजी याकूब कुरैशी बने और बुखारी संरक्षक. कुरैशी वही हैं जिन्होंने पैगंबर साहब का कार्टून बनाने के लिए डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के सर पर 51 करोड़ का इनाम रखा था. मगर 2007 के उप्र के विधानसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई. प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 54 पर चुनाव लड़ने वाली इस पार्टी के 51 सदस्यों की जमानत जब्त हो गई. सिर्फ एक सीट पर हाजी याकूब कुरैशी जीते.
खैर, मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि बनने का बुखारी का सपना तो पूरा नहीं हुआ उल्टे कुरैशी उन पर 20 करोड़ रुपये लेकर पार्टी को मुलायम के हाथों बेचने का आरोप लगाते जरुर नजर आए. फिरोज अहमद बख्त कहते हैं, ‘अहमद बुखारी की अब जो भी सत्ता है, वो जामा मस्जिद की चहारदीवारी के भीतर ही है. उसके बाहर उनका कोई प्रभाव नहीं हैं. यही कारण है कि वो तमाम तरह के विवादास्पद बयान देकर चर्चा में बने रहने की कोशिश करते हैं.’
बुखारी परिवार इस बात पर गर्व करता है कि उसके पुरखे को खुद शाहजहां ने इमामत के लिए उज्बेकिस्तान से बुलाया था. जब तक मुगल साम्राज्य कायम रहा था तब तक यही व्यवस्था थी कि पिता के बाद बेटा और फिर उसके बाद उसका बेटा मस्जिद का इमाम बनेगा. अंग्रेजों के शासनकाल में लंबे समय तक इस व्यवस्था पर रोक लगी रही. अंग्रेजी राज में जामा मस्जिद में अंग्रेज सैनिक और घोड़े रहा करते थे. बाद में जब समाज के लोगों की तरफ से विरोध किया गया तो अंग्रेजों ने मस्जिद को खाली किया और इमाम और इमामत की परंपरा को 1862 में बहाल किया. हालांकि उन्होंने यह शर्त भी लगा दी कि मस्जिद का प्रयोग किसी तरह के राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं किया जाएगा. इसके प्रशासन को भी एक एक्ट (धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1863) के तहत रेग्यूलेट किया गया और इमाम का शाही दर्जा खत्म कर दिया गया. हालांकि उस समय भी जामा मस्जिद के इमाम बुखारी परिवार से ही बनाए गए.
अब इसे अहमद बुखारी की कारगुजारियों का नतीजा मानें या इमाम के पद का निजी स्वार्थों के लिए दुरुपयोग या फिर दिनों-दिन मजबूत हो रही लोकतांत्रिक व्यवस्था कि ‘शाही’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं. जिस जामा मस्जिद के इमाम के पद पर बुखारी परिवार के कब्जे को लेकर कभी आवाज नहीं उठती थी उस पर भी अब धीरे-धीरे सवाल उठाए जाने लगे हैं.
पूछा जा रहा है कि ऐसा क्यों है कि एक ही परिवार की 13 पीढि़यों ने पिछले सैकड़ों सालों से इमाम के पद पर अपना कब्जा जमा रखा है. जब वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे के तहत मस्जिद को वक्फ की संपत्ति बताया गया है और इमाम को उसका मुलाजिम तो फिर कैसे आजादी के इतने साल बाद भी बुखारी परिवार मस्जिद के मालिक जैसा बर्ताव कर रहा है? अरशद कहते हैं, ‘असल मुद्दा ये है कि ये सब कुछ तब होता था जब मुगलों या अंग्रेजों का शासन था. अब जब भारत स्वतंत्र राष्ट्र है, ऐसे में उस मुगलिया व्यवस्था को बनाए रखने का क्या तुक है.’
पूर्व राज्य सभा सदस्य सैयद शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘इस्लाम में आनुवंशिकता के आधार पर मस्जिद के इमाम के चयन की मनाही है. इमाम सिर्फ वही बन सकता है जिसे नमाज़ पढ़ाना आता हो और आम राय से नमाज पढ़ने वालों के बीच से उसका चुनाव किया जाए. जामा मस्जिद के संबंध में वक्फ बोर्ड नमाजियों से बात करके आम राय के आधार पर इमाम की नियुक्ति कर सकता है. लेकिन यहां बुखारी परिवार ने अपने लिए अलग नियम बना रखे हैं.’
उधर सेक्युलर कयादत के संपादक मजहरी कहते हैं, ‘75 के समय में भी ये मामला उठा था जब इंदिरा गांधी के दौर में वक्फ बोर्ड ने अब्दुल्ला बुखारी को इमाम के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. जबकि इस मामले में शाहजहां की विल स्पष्ट कहती है कि इमाम के परिवार का ही व्यक्ति जामा मस्जिद का अगला इमाम बनेगा.’ हालांकि वक्फ इससे इनकार करता है. मतीन अहमद कहते हैं, ‘हमारे पास न ऐसी कोई विल है और न ही कोई दस्तावेज जो कहता हो कि इस परिवार के ही लोग मस्जिद के इमाम बनेंगे. अगर भविष्य में परिवार में कोई इस लायक नहीं होगा जो इमाम बन सके तो बाहर का आदमी भी यहां का इमाम बन सकता है.’
बुखारी परिवार पर अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए मुस्लिम समाज के हितों से समझौता करने के आरोप लगते रहे हैं. फिरोज कहते हैं, ‘जिस ओहदे पर आज अहमद बुखारी बैठे हैं अगर वो चाहते तो मुस्लिम समाज के लिए बहुत कुछ कर सकते थे. लेकिन वो कौम को तरक्की की तरफ ले जाने के बजाय छोटे-छोटे स्वार्थों में बंधे रह गए.’ फिरोज की बात को विस्तार देते हुए वदूद साजिद कहते हैं, ‘ऐसा कोई उदाहरण हमारे पास नहीं है कि बुखारी परिवार ने कभी समुदाय के लिए कुछ किया हो, कराया हो. जब आप अपने समुदाय से पहले अपने और अपने पारिवारिक हितों को आगे रखेंगे, दामाद के लिए पेट्रोल पंप मांगेंगे तो फिर आप उन निर्दोष युवाओं के लिए क्या बोलेंगे जिन्हें व्यवस्था ने आतंकी ठहराकर जेल में डाल रखा है.’
इसके बावजूद इमाम बुखारी कहीं न कहीं मुस्लिम समाज और उसकी राजनीति करने वालों के लिए प्रासंगिक क्यों बने हुए हैं? वदूद साजिद कहते हैं, ‘आम मुसलमानों की पिछले 60 सालों में क्या हालत रही है ये बताने की जरूरत नहीं. जिस आम मुसलमान को ये पता है कि इस व्यवस्था में उसकी सुनवाई नहीं है उसे उस वक्त बहुत राहत महसूस होती है जब बुखारी के चीखने पर सरकार थरथराने लगती है. यही चीज बुखारी को उसकी नजरों में हीरो बना देती है.’
बुखारी परिवार पर लग रहे तमाम आरोपों पर बात करने के लिए तहलका ने करीब एक माह तक इमाम बुखारी से बात करने की कोशिश की. मगर अपनी सफाई के लिए कभी कोर्ट तक के सामने न जाने वाले बुखारी से तहलका की भी बातचीत संभव नहीं हो सकी.