हुर्रियत: प्रासंगिकता पर प्रश्न

syed geelani(Left) with Umar Farooq at a protest. Photo by Javed Dar/Tehelkaपिछले साल नवंबर में जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के समय अलगाववादियों ने हमेशा की तरह चुनाव का बहिष्कार करने का फरमान जारी किया था. लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा और भाजपा अपने आक्रामक चुनाव प्रचार के कारण एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभरकर सामने आई वैसे ही कुछ अलगाववादी धड़ों ने अपनी प्राथमिकता बदल दी. इतना ही नहीं इन्हें शह देने वाला पड़ोसी मुल्क भी घाटी में बदले माहौल से हैरत में है. इन धड़ों के कुछ नेताओं को पाकिस्तान की तरफ से हमेशा से ही उकसाया जाता रहा है. जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव पर हर बार पाकिस्तान की पैनी नजर बनी रहती है. बहरहाल अलगाववादी किसी भी सूरत में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा को राज्य में नहीं आने देना चाहते थे. सूत्रों ने दावा किया है कि यही वजह है जिससे घाटी में अलगाववादियों के सबसे बड़े संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने चुनाव बहिष्कार करने के साथ राज्य के एक बड़े समुदाय को वोट न देने के लिए षडयंत्रपूर्ण तरीके से अभियान चलाया.

हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के एक शीर्ष नेता कहते हैं, ‘इस बात की निहित समझ बनी हुई थी कि अगर चुनाव में मतदाताओं की भागीदारी कुछ प्रतिशत बढ़ती भी है तो हमें परेशान होने की जरूरत नहीं है. माना गया था कि मतों में बढ़ोतरी भाजपा को सत्ता से दूर ले जाएगी.’ कुछ हद तक ऐसा हुआ भी. घाटी में भाजपा के एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका. इसके उलट जम्मू संभाग में भगवा परचम लहराते हुए भाजपा को 25 सीटें मिल गईं. यह राज्य में भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. इसके बाद राज्य में 28 सीटें जीतने वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) से गठबंधन कर भाजपा जम्मू कश्मीर की सत्ता में जगह पाने में कामयाब हो गई. इसके अलावा भाजपा को राज्य में पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के रूप में एक नया और महत्वपूर्ण साथी मिल गया. अलगाववादी से राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हुए सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली इस पार्टी ने दो सीटों पर जीत दर्ज की है.

विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन को लेकर भाजपा और पीडीपी में कई दौर की बातचीत चली. कुछ मुद्दों पर सहमति बनती थी तो कुछ मुद्दों पर नाराजगी. आखिरकार तमाम मुद्दों पर दोनों दल एक हुए और मुफ्ती मोहम्मद सईद ने राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. तब गठबंधन को लेकर हो रही बातचीत के बीच मुफ्ती मोहम्मद सईद की दिग्गज हुर्रियत नेता अब्दुल गनी भट्ट से मुलाकात ने सबको हैरत में डाल दिया था. 1989 में अलगाववादी आंदोलन शुरू होने के बाद यह पहली बार था जब हुर्रियत का कोई नेता मुख्यधारा के किसी राजनीतिज्ञ को चुनाव में मिली सफलता पर बधाई देने के लिए उसके घर पहुंचा था.

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वर्षों से राज्य के राजनीतिक धरातल पर हाशिये पर रहे अलगाववादी परेशान हैं कि पल-पल बदलते परिदृश्य में कहीं वे दर्शक मात्र न बनकर रह जाएं

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वास्तव में इस बार के विधानसभा चुनाव में लोगों की अभूतपूर्व भागीदारी और मुख्यधारा की राजनीति में विस्तार के चलते राज्य में भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई थी, जिसके चलते अलगाववादियों के हौसले पस्त हो गए. वर्षों से राज्य के राजनीतिक धरातल पर हाशिये पर रहे अलगाववादी इस बात से परेशान नजर आ रहे हैं कि पल-पल बदलते परिदृश्य में कहीं वे दर्शक मात्र न बनकर रह जाएं. इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि इन स्थितियों ने अलगाववादियों को अपनी कार्यप्रणाली को लेकर फिर से सोचने और आत्मावलोकन करने पर मजबूर कर दिया है. यह आत्मावलोकन इसलिए ताकि राज्य में न सिर्फ उनका अस्तित्व बचा रहे बल्कि वे राजनीति में अपनी खोई हुई जमीन वापस पा सकें.

अब सवाल ये है कि जम्मू कश्मीर में बढ़ती हुई अप्रासंगिकता के खिलाफ खुद को बचाने के लिए अलगाववादियों को कौन सी राह पकड़नी होगी? अभी इस सवाल का जवाब दे पाना थोड़ा मुश्किल है. हालांकि इसके इतर इस सवाल का जवाब ढूंढना उनके लिए अब कुछ ज्यादा ही जरूरी हो गया है. बीते कुछ हफ्तों में विभिन्न अलगाववादी धड़ों के नेताओं ने नई रणनीतियों पर विचार-विमर्श किया है. वहीं इनमें से कुछ समाज के दूसरे प्रतिनिधियों से सलाह लेने से भी नहीं चूक रहे हैं. सलाह के लिए इन्हें बाकायदा अपने यहां खाने पर भी बुलाया गया था. कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये दिख रहा है कि हुर्रियत को राज्य में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए मुख्यधारा की चुनावी राजनीति में उतरना चाहिए जिसका अलगाववादी लंबे समय से बहिष्कार करते रहे हैं. अलगाववादी आंदोलन की शुरुआत होने के बाद से ही हुर्रियत के सभी धड़ों ने चुनावी प्रक्रिया का बहिष्कार किया है. चुनावी प्रक्रिया को लेकर इन धड़ों की सोच में आया बदलाव भारत सरकार में विश्वास प्रकट करने के समान है.

लंबे समय से आतंकवादियों के जरिए जब तक सशस्त्र अभियान चलाए जाते रहे तब तक अलगाववादियों का राजनीतिक प्रभाव घाटी में मजबूत रहा है. हाल के समय में आतंकी गतिविधियों में आई कमी से वहां अलगाववादियों की स्थिति कमजोर हुई है. इन स्थितियों की वजह से तमाम अलगाववादी नेता यह सोचने को मजबूर हुए हैं कि आतंकी गतिविधियों की बजाय उन्हें खुद के राजनीतिक और वैचारिक ताकत के दम पर अपनी प्रासंगिकता फिर से कायम करनी होगी और खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का यह लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता है जब तक हुर्रियत को वह राह न मिल जाए जिसकी बदौलत वो कश्मीरियों के हर दिन की समस्या को उठा सके.

अब चुनाव में भागीदारी के सवाल पर एक बड़ा मुद्दा ये है कि क्या अलगाववादी धड़ों को अपने उम्मीदवार उतारने चाहिए या फिर छद्म उम्मीदवारों के जरिए चुनाव में हिस्सा लेना चाहिए. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक वरिष्ठ अलगाववादी नेता की ओर से सलाह आई थी कि पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों के खिलाफ छद्म उम्मीदवार उतारे जाने चाहिए, लेकिन उनकी इस सलाह को खारिज कर दिया गया. ‘तहलका’ से बातचीत में एक नरमपंथी हुर्रियत नेता कहते हैं, ‘अगर उस प्रस्ताव को मान लिया गया होता तो मैं मुझे पूरा भरोसा है कि मुफ्ती सईद और उमर अब्दुल्ला की जमानत जब्त हो जाती. और भारत और विश्व के लिए यह हमारी तरफ से एक राजनीतिक संदेश भी होता.’

अब सवाल उठता है कि क्यों इस प्रस्ताव को नहीं माना गया? इसका कारण इस तथ्य में निहित है कि कश्मीर विवाद का समाधान एक ऐसा मुद्दा है जिसकी वजह से पिछले कई दशकों में चुनाव में हिस्सा लेना बहुत ही जटिल बना हुआ है. ऐसे में कश्मीरी लोगों को मनाने जैसे कठिन काम पर बात करने को लेकर हुर्रियत काफी चौकन्नी नजर आ रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि ये चुनाव का बहिष्कार काफी लंबे समय से करते चले आ रहे हैं. ऐसे में चुनाव में अपना या छद्म उम्मीदवार उतारने से अलगाववादियों के एजेंडे को झटका लगने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. इसके अलावा यह एक तरह से घाटी में हुए सैन्य कब्जे को भी वैधता देने के समान होगा और चुनाव बहिष्कार की उनकी रणनीति को झटना देने वाला भी साबित होगा.  साथ ही इस मुद्दे की तरफ बढ़ाया गया कोई भी कदम नरमपंथी और चरमपंथी धड़े के बीच की असहमति को और बढ़ा देगा. आखिर में हमेशा यह सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान इस मामले के बीच आएगा?

बहरहाल, अभी इस मुद्दे पर चर्चा बंद दरवाजों के भीतर और हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के बहुत ही छोटे से हिस्से में हो रही है, जो चुनावी हस्तक्षेप के कुछ रूपों के पक्ष में हैं. यह धड़ा इस बात को लेकर आशावादी है कि ‘इस्लामाबाद’ इस मामले में उनका साथ देगा. इसी साल 23 मार्च को पाकिस्तान दिवस मनाने के आधिकारिक कार्यक्रम में पाक के उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक से दो घंटे की मीटिंग की थी. वह सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल से भी मिले. साथ ही नरमपंथी धड़े के प्रमुख नेता अब्दुल गनी भट्ट से भी मुलाकात कर चुके हैं. भट्ट एक निष्ठावान नरमपंथी रहे हैं और लीक से हटकर कश्मीर समस्या का समाधान करने के समर्थक हैं. भट्ट उनमें से रहे हैं जिन्होंने चुनावी भागीदारी का हमेशा से विरोध किया है. उनका मानना है कि यह हुर्रियत के लिए ठीक रास्ता नहीं है. वह इस बात पर जोर देते हैं कि चुनाव मैदान में उतरे बिना भी राज्य में प्रासंगिक रहा जा सकता है. वह कहते हैं, ‘हम लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. मुफ्ती को उनका काम करने दीजिए, हम अपना काम करते रहेंगे.’

Jn Kबहुत से अलगाववादियों ने मुफ्ती सईद के ‘विचारों के युद्घ’ का समर्थन किया था, जिसमें उन्होंने वादा किया था कि चुनाव बाद सत्ता में आने पर वे घाटी में उनकी गतिविधियों को संचालित करने की अनुमति देंगे. राज्य में नई सरकार के कमान संभालने के ठीक बाद कट्टर अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने के फैसले से इस नीति की शुरुआत हुई. लेकिन अपनी ही रैली में पाकिस्तान के झंडे लहराने के बाद मसर्रत के फिर से गिरफ्तार हो जाने के बाद उनकी गतिविधियों पर एक तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया. तब गिलानी अधिकांश समय अपने घर तक सीमित रहा करते थे. इसके अलावा दूसरे नेताओं की गतिविधियों को भी कड़ाई से नियंत्रित किया गया था.

वहीं कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत भाजपा और पीडीपी के बीच एक महत्वपूर्ण सहमति ये बनी थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार कश्मीर मुद्दे पर बातचीत के लिए हुर्रियत से संपर्क करेगी, लेकिन उसके बाद से केंद्र सरकार की ओर से उठाए गए कदमों से अलगाववादियों को यह विश्वास होता चला गया कि वह सिर्फ एक चुनावी वादा था, जो तोड़ने के लिए किया गया था. इस संबंध में एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र से की गई बातचीत में एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, ‘अलगाववादियों से बातचीत की किसी भी प्रक्रिया में केंद्र सरकार शामिल नहीं होगी. मुख्यमंत्री को खुद विकल्पों का मूल्यांकन करना है और अगर वे चाहते हैं तो उन्हें इसी आधार पर राज्य स्तर पर आगे बढ़ना होगा.’

इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ बातचीत भी अनिश्चित है, जिसने कश्मीर विवाद के समाधान की तरफ हो रही किसी भी प्रगति को रोका है. ऐसे में अलगाववादी धड़े निकट भविष्य में राजनीतिक तौर पर कोई भी प्रगति होते नहीं देख रहे. इन स्थितियों ने राज्य में हुर्रियत के विभिन्न धड़ों में अस्तित्व का खतरा पैदा कर दिया है. वे नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए. लगातार बदलते भू-राजनीतिक और राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में अपना अस्तित्व बचाते हुए स्थानीय राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनने में ये धड़े खुद को असमर्थ पा रहे हैं. इस दुविधा का नतीजा ये हुआ कि हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के आठ घटक चरमपंथी गिलानी के नेतृत्व में एक हो गए. भट्ट कहते हैं, ‘निश्चित रूप से इस बात की जरूरत महसूस होने लगी है कि हम अपनी रणनीतियों में फिर से संशोधन करें और ऐसा कदम उठाएंगे जो हमारे आंदोलन को मजबूत करने के लिए सबसे बेहतर साबित होगा.’