कश्मीर घाटी की मुख्यधारा के नेता, जिन्हें कई बार अलगाववादियों से अलग करने के लिए प्रो-इंडिया यानी भारत समर्थक नेताओं के नाम से जाना जाता है, उनके बीच मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपनी एक अलग छवि बनाई है. उन्हें एक ऐसी नेता के तौर पर जाना जाता रहा है जो चुनावी प्रक्रिया में शामिल हाेकर भारत समर्थक भी हैं और आक्रामक रहकर अलगाववादियाें के करीब भी. लेकिन बीते 8 जुलाई को एक एनकाउंटर में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद उठ खड़े हुए जनाक्रोश पर उनकी प्रतिक्रिया से उनकी यह छवि धूमिल हो रही है.
एक महीने से ज्यादा समय से जारी इस उपद्रव में अब तक 60 लोगों की जान जा चुकी है और 5000 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं, जिनमें से कुछ की हालत गंभीर हैं. पेलेट गन की चपेट में आकर तकरीबन सौ लोगों की आंख की रोशनी या तो पूरी तरह जा चुकी है या एक आंख खराब हो गई है. वहीं लगभग 50 लोग गोली या पेलेट लगने से अपंग हो चुके हैं. इसके परिणामस्वरूप जनता में उपजी नफरत और गुस्से ने महबूबा मुफ्ती की मेहनत से बनाई गई अलगाववादियों के प्रति उस उदार, कश्मीर समर्थक राजनेता की छवि को तोड़ा है, जिसने कभी आतंकियों के मरने पर उनके घर जाकर शोक मनाया था.
गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ उनकी हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार ने सवाल किया, ‘2010 में भी ऐसा ही सूरते-हाल था. तब आपका स्टैंड एकदम अलग था. लेकिन 2016 में जब आप सरकार में आईं, आपका स्टैंड पूरी तरह अलग है. ऐसा लग रहा है कि पहले जो उमर अब्दुल्ला बोल रहे थे, वही अब आप बोल रही हैं.’ इस पर महबूबा ने कहा, ‘यह आपका गलत विश्लेषण है. 2010 में जो हुआ उसका कारण था. माछिल में फर्जी एनकाउंटर हुआ था जिसमें तीन आम नागरिक मारे गए थे. उसके बाद शोपियां में बलात्कार और हत्या का आरोप लगा था. तब लोगों के गुस्से का कारण था. आज तीन आतंकवादी मारे गए, इसमें सरकार का क्या कसूर था? लोग सड़कों पर आए तो सरकार ने कर्फ्यू लगाया. बच्चा क्या आर्मी कैंप टॉफी लेने गया? 15 साल का लड़का जिसने पुलिस स्टेशन पर हमला किया, क्या वह दूध लेने गया? आप दो चीजों को एक में मत मिलाइए…95 प्रतिशत लोग शांति से कश्मीर मसले का हल चाहते हैं. कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते. उनके साथ कानून निपटेगा.’ महबूबा पिछली सरकार की ऐसी अपीलों और बयानों का मजाक उड़ाती थीं. उनका यह बयान सुनकर महबूबा को सराहने वाले और उनके आलोचक दोनों अवाक रह गए. जब तक वे विपक्ष में थीं, उनका रुख इसके ठीक उलट होता था.
जनता में उपजी नफरत और गुस्से ने महबूबा की मेहनत से बनाई गई उस छवि को तोड़ा जिसमें वे अलगाववादियों के प्रति उदार और ऐसी कश्मीर समर्थक नेता नजर आती थीं, जिसने कभी आतंकियों के मरने पर उनके घर जाकर शोक मनाया था
अब तक महबूबा की छवि अलगाववादियों से हमदर्दी रखने की रही है. बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद जारी हिंसा के 48वें दिन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनका तेवर उनके समर्थकों की उम्मीद से ज्यादा सख्त था. उन्होंने हिंसा फैलाने वालों पर कार्रवाई को जायज ठहराते हुए कहा कि ‘इस तरह पथराव और सेना के कैंप पर हमला करने से मसला हल नहीं होगा.’ पत्रकारों के सवालों पर वे बार-बार भड़कती रहीं, गृहमंत्री राजनाथ सिंह उन्हें बार-बार शांत कराने की कोशिश करते रहे. अब कश्मीरी मीडिया उनसे सवाल कर रहा है कि कश्मीर घाटी में बल प्रयोग को लेकर उनका जो स्टैंड रहता आया है उसे उन्होंने अचानक क्यों बदल लिया. महबूबा का कहना था, ‘पांच प्रतिशत लोग हमारे बच्चों को ढाल बनाते हैं. उन्हें अंधा बनाना चाहते हैं, मारना चाहते हैं. ये बात आपको समझ नहीं आती… ये जो बच्चे हैं मैंने इनको चाकू की नोंक के नीचे से निकाला है. तब ये टास्क फोर्स की जिप्सी देखकर भागते थे. इनको वहां बेगार के लिए ले जाते थे. घास काटने के लिए ले जाते थे साउथ कश्मीर के बच्चों को. आज इन्हें कुछ लोगों ने हिंसा में डाल दिया है अपने नाजायज मकसद के लिए.’
लगातार अपने चौथे संबोधन में महबूबा ने अपना वही स्टैंड दोहराया, ‘छात्रों को कॉलेज, यूनिवर्सिटी और आईआईटी में होना चाहिए. तालीम से ही राज्य के युवाओं का भला होगा. बच्चों को पत्थर फेंककर नहीं, बल्कि स्कूल और कॉलेज में रहकर अपना करियर शुरू करना चाहिए.’
अपने करियर में कभी भी कोई मंत्री पद भी न संभालने वाली महबूबा कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं तो उनके सामने तमाम चुनौतियां आ खड़ी हुईं. एक संवेदनशील राज्य में मौजूद तमाम समस्याओं के साथ कुछ तो महबूबा ने खुद ही खड़ी कर ली हैं. बीजेपी-पीडीपी गठबंधन पर भी उन्हें बार-बार सफाई देनी पड़ रही है. विधानसभा सत्र के दौरान गठबंधन पर सवाल उठाने वालों के लिए उन्होंने कहा, ‘जनता के हित के लिए मैं एक बार नहीं, बल्कि 100 बार बीजेपी से गठबंधन करूंगी. मैंने ये फैसला अपने घर के लिए नहीं लिया. और न ही मुझे इस पर सफाई देने की कुछ जरूरत है.’ कभी अलगाववादियों से खुले तौर पर सहानुभूति रखने वाली महबूबा को अब यह भी कहना पड़ रहा है, ‘कुछ लोग कह रहे हैं कि मैंने अलगाववादियों को जेल में बंद करा दिया. उन सब लोगों से मैं कहना चाहती हूं कि हम अपना टूरिज्म सीजन बर्बाद नहीं करना चाहते हैं.’
उनके हालिया भाषणों और अपीलों से साफ है कि कश्मीर मसले पर उनके पास भी वही समाधान है जो केंद्र सरकार या फिर उनके पहले की राज्य सरकार कहती आई है. हिंसा छोड़कर सभी पक्षों का मिलकर बातचीत करना ही उन्हें भी अंतिम रास्ता सूझ रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि विपक्ष में रहते हुए मारे गए आतंकवादियों और अलगाववादी नेताओं के पक्ष में खड़े होकर महबूबा क्या हासिल करना चाहती थीं? अब उन पर सत्ता के लिए अपना स्टैंड बदलने के आरोप लग रहे हैं. जानकार मानते हैं कि उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत के बाद उनकी पार्टी पीडीपी कमजोर पड़ी है. उनके नए रुख से उनकी सरकार के दो बड़े मंत्री नईम अख्तर और हसीब द्राबू के असहमत होने की भी खबरें हैं. बताते हैं कि भाजपा के साथ गठबंधन करने पर भी उनके समर्थक उनसे नाराज हुए हैं क्योंकि अब तक की उनकी राजनीति भाजपा के वैचारिक विरोधी के रूप में रही है.
उपद्रव में अब तक 60 लोगों की जान जा चुकी है, 5000 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं, जिनमें से कुछ की हालत गंभीर है, तकरीबन सौ लोगों की दृष्टि आधी या पूरी तरह से जा चुकी है, वहीं लगभग 50 लोग गोली या पेलेट लगने से अपंग हो चुके हैं
हालांकि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उमर अब्दुल्ला की तरह महबूबा भी एक समृद्ध राजनीतिक पृष्ठभूमि से आती हैं- वे कांग्रेस के निष्ठावान समर्थक, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी हैं पर उनका सत्ता तक आने का यह सफर आसान नहीं रहा. उन्होंने अपनी राह खुद बनाई है. उन्होंने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत 1996 में की थी और कांग्रेस के टिकट पर अनंतनाग के बिजबिहाड़ा से विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. फिर 1999 में घाटी में भ्रष्टाचार और मानवाधिकार हनन के आरोपों से जूझ रही नेशनल कॉन्फ्रेंस के दशकों पुराने वर्चस्व को तोड़ने के लिए उन्होंने अपने पिता के साथ मिलकर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) बनाई.
यह वही समय था जब अलगाववादियों की घाटी में व्यापक पकड़ हो चुकी थी. उस समय अविभाजित हुर्रियत ही घाटी की खबरें तय करती थी, वही वहां का राजनीतिक एजेंडा तय करती थी. दिल्ली से लेकर दुनिया भर के राजनयिक घाटी की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के लिए हुर्रियत नेताओं के पास ही पहुंचते थे. तब फारुख अब्दुल्ला की सरकार ने अपना राजनीतिक रुख इसके बिल्कुल उलट रखा था. हालांकि जून 2000 में उनकी सरकार ने विधानसभा में जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को लेकर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया था. अब्दुल्ला अक्सर भारतीयता का आह्वान करते थे आैैर कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा बताते हुए पाकिस्तान के आतंकियों को समर्थन देने के बदले सख्त कार्रवाई का दबाव बनाते थे. इस बात ने उन्हें और उनकी पार्टी को जमीनी तौर पर घाटी की जन-भावनाओं से अलग खड़ा किया और जनता व सत्ता के बीच की खाई को गहरा कर दिया. यहीं से महबूबा और उनके पिता ने अपनी पार्टी के लिए समर्थन जुटाकर घाटी में अपने लिए एक जगह बनाई. जहां मुफ्ती घर से ही रणनीति तय करते थे, वहीं महबूबा घाटी की खतरे से भरी राहों पर निकलती थीं.
पीडीपी ने अपने भारत के प्रति समर्थन को जाहिर रखा लेकिन अलगाववादियों से बातचीत और कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी रवैये के प्रति भी उदारता बरती. कुछ ही समय में पार्टी ने कश्मीर पर एक विस्तृत सेटलमेंट प्रस्ताव बनाया और पूरे गर्व के साथ इसे ‘सेल्फ रूल’ का नाम दिया. नेशनल कॉन्फ्रेंस के स्वायत्तता प्रस्ताव के विपरीत इसमें कश्मीर रेजोल्यूशन के आंतरिक और बाहरी पहलुओं को मिलाते हुए पाकिस्तान की भागीदारी की वकालत की गई है. इसके साथ ही इस प्रस्ताव में जम्मू कश्मीर और केंद्र के रिश्तों के पुनर्गठन, दोहरी मुद्रा, राज्य में लगे केंद्रीय नियमों को हटाने और एक राज्यपाल होने की बात भी कही गई थी. साथ ही यह भी कहा गया कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री पद को बदलकर क्रमशःसदर-ए-रियासत और वजीर-ए-आजम किया जाए.
महबूबा के सत्ता में आने के बाद घाटी की राजनीति के कई स्थापित नियम बदल गए. 1989 में अलगाववादियों के विद्रोह के बाद मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ जनता से एक उचित दूरी बनाए रखने के सिद्धांत को मानते आए थे पर महबूबा ने उसे मानने से मना कर दिया. वे जमीन पर उतरीं, उन्होंने रैलियां निकालीं, विरोध प्रदर्शन किए. उन्होंने आतंकियों की मौत पर शोक भी मनाया, जिसके लिए वे कई बार उन आतंकियों के परिवारों से मिलने खतरनाक इलाकों में भी गईं. इसी क्रम में वे एक बार हिजबुल मुजाहिदीन के ऑपरेशन प्रमुख आमिर खान के परिवार से भी मिली थीं, जब आमिर के किशोर बेटे अब्दुल हमीद को सुरक्षाबलों की कस्टडी में कथित तौर पर मार दिया गया था.
‘किसी भी कश्मीरी नेता के लिए उपद्रव का समय सबसे बड़ा इम्तिहान होता है. जैसे 2010 में 120 से ज्यादा मौतें होने के बावजूद उमर एक दर्शक से ज्यादा कोई भूमिका नहीं निभा पाए थे, वैसा ही महबूबा भी कर रही हैं’
महबूबा इन शोक सभाओं में ऐसे रोती थीं कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उन्हें ‘रुदाली’ की उपाधि से नवाजने लगे थे. वे भावपूर्ण प्रदर्शन आयोजित करतीं, जहां अपने जोशीले भाषणों में वे कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन और दुरुपयोग पर सरकार और केंद्र पर जमकर बरसतीं. कुछ दिनों पहले वर्तमान परिस्थितियों में उनके बदले हुए रवैये को चिह्नित करने के उद्देश्य से, 2013 में अफजल गुरु की फांसी के समय दिए गए उनके ऐसे ही भाषण के वीडियो का एक अंश फेसबुक पर अपलोड किया गया था. यह खूब शेयर किया गया. वीडियो में अफजल गुरु के अवशेष उनके परिवार को न देने की बात पर महबूबा भावुक होकर कहती हैं, ‘आज गांधी का हिंदुस्तान कश्मीरियों को उनके घुटनों पर ले आया है. आपको किस बात का इतना घमंड है? बताइए, किस बात पर आपको इतना गुरूर है?’ तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की ओर इशारा करते हुए वे गरजती हुई कहती हैं, ‘और कश्मीरियों को इस हाल में ले आने के लिए आप भी जिम्मेदार हैं. पर आप कहते हैं कि आपके हाथ में कुछ नहीं है, आप बेबस हैं.’
महबूबा के रास्ते में खलल तब पड़ने लगा जब 2002-05 तक के दौर में उनके पिता कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर रोटेशनल व्यवस्था में मुख्यमंत्री बने. तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के सहयोग से मुफ्ती मोहम्मद सईद ने न केवल सुरक्षा के मसले पर ढील देते हुए स्थानीय स्तर पर बड़े प्रशासनिक बदलाव किए बल्कि उस समय भारत-पाकिस्तान के बीच शांति प्रकिया बहाल करने के लिए पहले अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ, फिर मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ के बीच कश्मीर मसले का समाधान निकालने की कोशिश भी की.
भारत-पाकिस्तान के बीच पनपी इस गर्माहट ने महबूबा की अगुआई में पीडीपी के अलगाववादियों के प्रति उदार रवैये को साफ कर दिया. अप्रैल 2006 में श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा की पहली सालगिरह पर महबूबा ने हरा रुमाल दिखाकर जनता का अभिवादन किया था, जो जल्द ही एक विवाद में बदल गया. कश्मीर में स्थानीय तौर पर हरे रंग को पाकिस्तान से जोड़कर देखा जाता है. फिर भी किसी तरह महबूबा अपनी इस नाटकीयता और अतिरेकपूर्ण बयानबाजियों के बाद भी विश्वसनीय लगती रहीं. उनकी राजनीति भावनाओं और घाटी के लोगों की अलगाववादियों के प्रति उदारता बरतने की अपील का मिश्रण है. वे ऐसा इसलिए भी कर पाईं कि इस साल अप्रैल से पहले वे कभी भी प्रशासन के लिए जिम्मेदार नहीं थीं. यहां तक कि जब उनकी पार्टी सत्ता में थी, वे अपने मुख्यमंत्री पिता से दूरी बनाकर रखती थीं, साथ ही पार्टी अध्यक्ष के बतौर अगर कुछ गलत होता, तब अपनी पार्टी की विचारधारा की रखवाली करते हुए सरकार के कामकाज की आलोचना भी करती थीं.
पिछली जनवरी में अपने पिता के असमय निधन के तीन महीने बाद अपने वैचारिक विरोधी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए राजी होने तक उनकी यह छवि बनी हुई थी. जब से वे अपनी मांगें न मानने पर भी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए सहमत हुईं, उनसे जुड़े मिथक टूटने लगे. और वर्तमान संकट से उनकी सरकार का न निपट पाना शायद उसी का नतीजा है. इस समय घाटी के हालात को नियंत्रित न कर पाना दिखाता है कि वे अपने समकक्ष नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला से अलग नहीं हैं, अलबत्ता यह भी कह सकते हैं कि कई जगह महबूबा उनसे कम प्रभावी भी हैं.
महबूबा की यह छवि इस साल जनवरी में अपने वैचारिक विरोधी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए राजी होने तक बनी रही. जब से वे उनकी मांगें न मानने पर भी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए सहमत हुईं, उनसे जुड़े मिथक टूटने लगे
बुरहान वानी के एनकाउंटर के अगले तीन दिन जब स्थानीय जनता में सबसे ज्यादा आक्रोश था, सबसे ज्यादा मौतें हुईं, पेलेट गन से सबसे ज्यादा लोग घायल हुए, तब महबूबा गायब थीं. उनके प्रवक्ता वही पुराना राग अलाप रहे थे कि प्रदर्शनकारियों की हिंसा के सामने सुरक्षा बलों के पास फायरिंग के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था. इसके कुछ दिन बाद जब महबूबा ने अपना पक्ष रखते हुए एक वीडियो जारी किया, उसमें भी यही कहा गया था. लोगों की मौतों पर दुख जताते हुए महबूबा ने कहा, ‘मैं अभिभावकों से उनके बच्चों को रोकने की अपील करती हूं.’ ‘बाहर से आने वाले तत्वों’ को घाटी में सुरक्षा बलों पर हुए हमलों का जिम्मेदार बताते हुए वे बोलीं, ‘ये लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे ऐसा (हमला) करेंगे तो दूसरी तरफ से जो प्रतिक्रिया आएगी उससे आम जनता को नुकसान पहुंचेगा.’
लेकिन जो नेता खुद ऐसी बातों पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों का मजाक उड़ा चुका हो उसकी यह प्रतिक्रिया लोगों को कायराना और बेईमानी भरी लगी. 2010 में लगातार हो रही मौतों के बावजूद सत्ता के लिए अपनी कुर्सी न छोड़ने पर महबूबा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को आड़े हाथों लेते हुए उनके इस्तीफे की मांग की थी. और आज वे खुद भी वही कर रही हैं, जबकि उमर के कार्यकाल में दो महीने में हुई मौतों से ज्यादा जानें अभी महबूबा के कार्यकाल में महज एक हफ्ते में जा चुकी हैं. साथ ही सैकड़ों लोगों ने आंखों की रोशनी भी खोई है.
एक स्थानीय अखबार के संपादकीय के अनुसार यह कश्मीर में फिर एक मुख्यधारा के होनहार, उम्मीद बंधाने वाले नेता के सत्ता में आने पर बाकियों जैसा निकलना है. एक स्थानीय स्तंभकार नसीर अहमद कहते हैं, ‘किसी भी कश्मीरी नेता के लिए उपद्रव का समय सबसे बड़ा इम्तिहान होता है. और उमर अब्दुल्ला की तरह महबूबा भी इसमें नाकामयाब होंगी. जैसे 2010 में 120 से ज्यादा मौतें होने के बावजूद उमर एक दर्शक से ज्यादा कोई भूमिका नहीं निभा पाए थे, वैसा ही महबूबा भी कर रही हैं. जब तक महबूबा इन मौतों पर कोई हमदर्दी नही दिखातीं, इनका सही कारण स्पष्ट नहीं करतीं, ये मौतें और जनता के मन में बैठी इनकी यादें महबूबा को हमेशा परेशान करेंगी, बिल्कुल वैसे ही जैसे उमर अब्दुल्ला के साथ हुआ है.’
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महबूबा मुफ्ती का सफरनामा
- 22 मई, 1959 को जन्मी महबूबा को राजनीति पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद से विरासत में मिली.
- कश्मीर विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की है.
- 1980 में पिता के कहने पर राजनीति में सक्रिय हुईं.
- 1996 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर बिजबिहाड़ा से पहली बार चुनाव जीतीं.
- 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार बने अपने पिता की जीत में एक अहम भूमिका निभाई.
- 1999 में कांग्रेस से असहमतियों के चलते अलग होकर नई पार्टी का गठन किया और खुद पार्टी की उपाध्यक्ष बनीं.
- 1999 में श्रीनगर सीट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला से चुनाव हारीं.
- 2002 में पहलगाम विधानसभा सीट से जीत हासिल की.
- 2004 में पहली बार सांसद बनीं.
- 2014 में अनंतनाग सीट से लोकसभा चुनाव जीता.
- पिता की मौत के बाद अप्रैल 2016 में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री का पद संभाला.
- वे देश की दूसरी मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री हैं. इसके पहले सईदा अनवरा तैमूर असम की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं.
- मुख्यमंत्री पद के साथ पीडीपी के अध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभाली.
- महबूबा की छवि अलगाववादियों की समर्थक और एक जुझारू नेता की रही है.[/symple_box]
ऐसा कहा जा रहा है कि उमर से ज्यादा खामियाजा महबूबा को उठाना होगा क्योंकि 2008 में जब उमर मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी पहचान फारुख अब्दुल्ला के बेटे के रूप में ही थी, उनका मुद्दों को नए नजरिये से देखना, नए विचारों को कार्यरूप में लाने की बात करना भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा माना जाता था पर उनके कार्यकाल में हुए लगातार दो उपद्रवों के बाद वह पहचान जाती रही. वहीं महबूबा ने घाटी की सड़कों पर घूम-घूमकर, एक-एक ईंट चुनकर अपना रास्ता बनाया है. उनकी पहचान एक ऐसे नेता की रही जो मुख्यधारा की राजनीति में अपेक्षाकृत ज्यादा भरोसेमंद है और जो भारतीय संविधान के दायरे में रहते हुए कश्मीरी राष्ट्रवाद पर समझौते कर सकता है. पर सत्ता में आने पर महबूबा ने उमर की तुलना में खुद को बहुत पहले ही मुश्किल में डाल लिया. कार्यकाल के पहले ही तीन महीनों में उन्होंने खुद को वैचारिक और राजनीतिक रूप से केंद्र सरकार के ज्यादा करीब कर लिया, जिसकी कश्मीर की राजनीति में सख्त मनाही रहती है. और फिर, अब कश्मीर में विरोध प्रदर्शन के इतिहास में विरोध प्रदर्शनों से सुरक्षा बल के सबसे सख्त ढंग से निपटने के दौरान वे सत्ता की प्रमुख हैं और इस मामले को चालाकी से टाल रही हैं. नसीर कहते हैं, ‘इस बात ने यहां की जनता को इस दर्द भरे सच से रूबरू करवाया है कि एक और नेता और उसकी पार्टी ने वैसी ही लापरवाही दिखाई है जिसके कारण उनमें और पिछली सरकार में फर्क करना मुश्किल हो गया है.’
अपने पिछले कार्यकाल में पीडीपी केवल नाम भर की सरकार होने के तमगे से बचती थी. उनकी राजनीति बेखौफ, अप्रत्याशित और समझदारी भरी थी, जिसने घाटी की डरपोक, गैर-जुझारू राजनीति के बीच अपनी जगह बनाई थी. कुछ लोगों का मानना है कि घाटी की राजनीति के केंद्र में उन्हें प्रभावी बनाने के पीछे भी उनका यह बेखौफ रवैया था. अब जैसे-जैसे उपद्रव में मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, सैकड़ों परिवार उजड़ गए हैं, पूरी घाटी में आक्रोश सुलग रहा है, लोगों में यह धारणा बन रही है कि पीडीपी के पास अपनी साख बचाने का यही तरीका है कि वह सत्ता से हट जाए. इस बात की जबरदस्त पैरवी करने वालों में एक नाम राज्य के वित्त मंत्री हसीब द्राबू की पत्नी रूही नाज़की का है.
रूही ने सरकार को संबोधित करते हुए अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा है, ‘सरकार को चाहिए या तो जो गलत हो रहा है वह उसे रोके या इस्तीफा दे दे. मुझे लगता है उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए… इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत आने वाली पीढ़ियों के मन में अपने लिए यकीन बने रहने देने की है. उन्हें इसलिए भी सत्ता से हट जाना चाहिए जिससे कि हम ये यकीन कर सकें कि जनता द्वारा चुनी गई हर सरकार सत्ता में आते ही एक गैर-जवाबदेह पत्थर सरीखी नहीं हो जाती. इसलिए भी कि आने वाले समय में पिछली सरकार और वर्तमान सरकार के बीच का अंतर बचा रहे. इसलिए भी कि हमें यकीन रहे कि शासन करने के लिए हमारे नेताओं को डरावने, बिना चेहरों वाली मौन संस्थाओं में बदलने की जरूरत नहीं है.’