परेशान, कुछ-कुछ डरे-से मरीज, बेखौफ अपराधी-से कई डॉक्टर और चिरंतन काल से गहरी नींद में सरकार… बात किसी असफल अफ्रीकी देश की नहीं बल्कि अपने देश के मध्य प्रदेश के अस्पतालों की हो रही है. यहां के कुछ डॉक्टर अपने दिन की शुरुआत ही महान यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स की उस शपथ की अवहेलना से करते हैं, जो कभी डॉक्टर बनने पर उन्होंने ली थी. यह शपथ बाकी और बातों के अलावा कहती है कि एक चिकित्सक मरीजों को कभी कोई ऐसी दवा नहीं देगा जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो और उसकी जिंदगी को खतरे में डाल दे. प्रदेश के कई डॉक्टर शायद पैसों की तुलना में मरीजों की जिंदगी को ज्यादा तरजीह देते हैं. दवा कंपनियों द्वारा दिए जा रहे अकूत धन के लालच में इन डॉक्टरों ने सभी नियम-कानूनों को दरकिनार करके क्लिनिकल या ड्रग ट्रायल (कच्ची दवाओं या उपकरणों का इंसानों पर परीक्षण) को एक व्यवसाय में तब्दील कर दिया है.
पिछले दिनों जब प्रदेश में मरीजों की अनुमति और उनकी जानकारी के बिना गैर कानूनी तरीके से किए जा रहे दवा परीक्षणों के कई गंभीर मामले सामने आए तो इसकी गूंज अखबारों के माध्यम से प्रदेश भर में घूमती हुई राज्य की विधानसभा तक भी पहुंच गई. मानसून सत्र में विभिन्न दलों के विधायकों द्वारा लाए गए एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि पिछले पांच वर्षों में राज्य के अलग-अलग अस्पतालों में 2,365 लोग क्लिनिकल ट्रायल से गुजर चुके हैं. इनमें से 1,644 बच्चे थे और कुल 51 लोग ‘गंभीर प्रतिकूल प्रभावों’ के शिकार हुए. ध्यान रहे कि मेडिकल शब्दावली के अनुसार मृत्यु भी ‘गंभीर प्रतिकूल प्रभावों’ के अंतर्गत आती है.
यह आंकड़ा सरकारी है और कुछ अस्पतालों से मिले आंकड़े ही इसे सीधे-सीधे झुठला देते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता रोली शिवहरे को आरटीआई के तहत मिली जानकारी बताती है कि 2003 से 2009 के बीच अकेले ग्वालियर मेडिकल कॉलेज में ही 3,000 से ऊपर मरीजों पर मेडीकल परीक्षण किए गए हैं. सूचना के अधिकार के तहत मिली एक दूसरी जानकारी से यह भी पता चलता है कि 2005 से प्रदेश के अस्पतालों में मुख्यतः ब्रोंकिअल अस्थमा, टीबी, गंभीर स्नायविक विकार, हृदय रोग, स्ट्रोक, पल्मोनरी हाइपर टेंशन आदि बीमारियों से संबंधित दवाओं के परीक्षण मरीजों पर किए जा रहे हैं. ज्यादातर ऐसे मामलों से जुड़ी सूचनाएं प्राप्त करने की राह में एक सबसे बड़ी बाधा यह है कि इनमें भाग लेने वाले मरीजों की जानकारी आरटीआई के सेक्शन 8(1)(जे) और 8(1)(डी) के अंतर्गत नहीं आती. हालांकि इंडियन मेडिकल काउंसिल (प्रोफेशनल कंडक्ट, एटिकेट ऐंड एथिक्स) रेगुलेशन, 2002 के अनुसार जनहित में यह जानकारी आसानी से दी जा सकती है. सूत्र बताते हैं कि दुनिया की कुछ मशहूर दवा कंपनियां जैसे मर्क ऐंड कॉरपोरेशन (यूएस), हॉफमैन ला रॉश (स्विट्जरलैंड) और डाइची सांक्यो फार्मा डेवलपमेंट (यूएस) आदि मध्य प्रदेश में जारी इन ड्रग ट्रायल में सक्रिय रूप से शामिल हैं.
क्लिनिकल ट्रायल्स को मोटे तौर पर ड्रग ट्रायल के नाम से भी जाना जाता है और ये किसी भी नयी दवा के आविष्कार के बाद उसके असर को परखने के लिए किए जाते हैं. चार चरणों की इस प्रक्रिया में पहले चरण में देखा जाता है कि दवा का सेवन सुरक्षित है या नहीं, दूसरे में उसकी प्रभावशीलता का अध्ययन होता है और तीसरे चरण के प्रयोग यह देखने के लिए होते हैं कि दवा पहले से मौजूद दवाओं से कितनी असरकारक है. आखिरी चरण में दवा के दीर्घकालीन प्रभावों का आकलन किया जाता है. सफल परीक्षण के बाद ही दवा के उत्पादन का लाइसेंस मिलता है. वैक्सीन (टीका) ट्रायल में भी इसी प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है जबकि मेडिकल उपकरणों के ट्रायल में पहला चरण नहीं होता. मध्य प्रदेश में ये तीनों के तरह के ट्रायल धड़ल्ले से चल रहे हैं. इनसे जुड़ी सबसे गंभीर बात यह है कि ज्यादातर परीक्षण कमजोर और निचले तबके से जुड़े लोगों पर हुए हैं. इनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं. पिछले साल इस मामले ने तब तूल पकड़ना शुरू किया जब पता चला कि भोपाल गैस पीड़ितों पर भी ड्रग ट्रायल किए गए हैं. पिछले साल जून में पांच गैस पीड़ितों ने दावा किया था कि गैस पीिड़तों के लिए बनाए गए अस्पताल भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में उन पर बिना उनकी जानकारी के दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है. ड्रग ट्रायल के दुष्प्रभावों को झेल रहे एक गैस पीड़ित रामाधार श्रीवास्तव हमें बताते हैं, ‘अब डॉक्टरों के प्रति हमारे मन में एक डर बैठ गया है.’ परीक्षण के चलते रामाधार के जबड़े गलने लगे हैं और उनके पास आगे का इलाज कराने का न तो साहस है न ही पैसे. (देखें व्यथा कथा-1)
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व्यथा कथा 1
‘जेहन में एक डर बैठ गया है, डॉक्टरों पर भरोसा नहीं रहा’
पुराने भोपाल में सालों पहले बंद हो चुकी पुट्ठा मिल की वीरान सी कर्मचारी क्वार्टर्स कॉलोनी के एक छोटे-से बदरंग मकान में रहने वाले रामाधार श्रीवास्तव उनपर किए क्लिनिकल ट्रायल्स के भयानक परिणामों को आज भी भुगत रहे हैं. बातचीत के दौरान उनके बड़े बेटे अजय श्रीवास्तव बताते हैं कि उनके पिता गैस पीड़ित हैं और उन्हें 2007 में सीने में तेज दर्द की शिकायत हुई थी, ‘मैं उन्हें भोपाल मेमोरिअल हॉस्पिटल एवं रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी.) ले गया जहां डॉक्टरों ने उन्हें भर्ती कर लिया. 20 नवंबर को उन्हें दवाइयां लिखकर डिस्चार्ज कर दिया गया. तब से हर 15 दिन में डॉक्टर उन्हें बुलाते और एक कागज पर दस्तखत लेकर वही दवाइयां फिर से वापस दे देते. कुछ दिन बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत भी शुरू हो गई. धीरे-धीरे उनके मुंह में छाले हो गए और अब उनके जबड़े गलने लगे हैं. हमें लग रहा था कि उनका अच्छा इलाज करने के लिए डॉक्टर उन्हें हर 15 दिन में बुलाते हैं.
पर बाद में हमें पता चला कि जो दवाई उन्हें दी जा रही थी उसका कोई नाम ही नहीं है.’ जांच करने पर पता चला कि उन्हें जो दवाइयां दी गई थीं उनके नाम पर्चों पर नहीं लिखे थे. वे एजेडटी 3443565 जैसी कोड में लिखी गयीं थी. बीएमएचआरसी द्वारा रामाधार जी को लिखी गई दवाइयों के पर्चे की एक प्रति तहलका के पास मौजूद है. रामाधार कहते हैं , ‘हमें तो पता ही नहीं था कि मुझ पर किसी दवा का ट्रायल हो रहा हैं. हमें किसी जांच कमेटी की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली है. जब हमने अस्पताल में पूछताछ की तो किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. हमारे जेहन में एक डर बैठ गया है और डॉक्टरों से विश्वास उठ गया है. हम कोई जानवर नहीं कि हमारे ऊपर बिना हमारी जानकारी के किसी भी दवा का टेस्ट कर दिया जाए.’ [/box]
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार तहलका से कहते हैं, ‘बीएमएचआरसी में लंबे समय से ड्रग ट्रायल चल रहे हैं. मेरे पास ऐसे कई लोगों की शिकायतें मौजूद हैं जिन पर कच्ची दवाइयों के परीक्षण बिना उनकी सहमति के किए गए. सूचना के अधिकार से भी जानकारियां नहीं मिल रहीं और अस्पताल का प्रशासन कोई जवाब नहीं देता.’ इस मामले की संवेदनशीलता देखते हुए राज्य सरकार ने तुरत-फुरत में स्वास्थ्य विभाग के संयुक्त संचालक डॉ. केएल साहू की अध्यक्षता में बीएमएचआरसी में हुए ड्रग ट्रायल्स की जांच समिति बना दी. लेकिन इस समिति पर काफी समय से तेजी से जांच न करने के आरोप लगते रहे हैं और अभी तक इसने अपनी रिपोर्ट नहीं दी है.
प्रदेश में अलग-अलग जगह से निकाली जा रही हर जानकारी क्लिनिकल ट्रायल्स की इस पहेली की तसवीर को और साफ करती जा रही है. विधानसभा के मानसून सत्र में विधायक प्रताप ग्रेवाल द्वारा पूछे गए प्रश्न क्रमांक-540 के जवाब में मिली जानकारी से वैक्सीन ट्रायल से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण खुलासे हुए हैं. जानकारी बताती है कि चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (सीएनबीसी) में 30 वैक्सीनों के ट्रायल हुए हैं. और इसके लिए विभाग के दो प्रमुख डॉक्टरों- डॉ हेमंत जैन और शरद थोरा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने लगभग सवा दो करोड़ रुपये दिए हैं. इस अस्पताल में हुए वैक्सीन ट्रायल के शिकार बच्चे यथार्थ के पिता अजय नाईक हमें बताते हैं, ‘मुझसे अंग्रेजी के एक फार्म पर बिना यह बताए कि उसमें क्या लिखा है, दस्तखत कराए गए थे. उसके बाद मेरे बच्चे को कई टीके लगाए गए.’ इन टीकों के लगने के कुछ ही दिन बाद यथार्थ की त्वचा में तरह-तरह की समस्याएं होना शुरू हो गईं. अस्पताल के रवैये से हताश अजय हमें बताते हैं, ‘कोई डॉक्टर मेरी बात सुनने को तैयार नहीं है. अब मुझे आए दिन बच्चे को लेकर अस्पताल जाना पड़ता है.’ गौरतलब है कि जिन टीकों का यहां ट्रायल किया जाता था, आरटीआई से मिली जानकारी बताती है कि उनमें थिओमेरोसल, एल्यूमीनियम फॉस्फेट जेल, फिनोल रेड, ट्विन 80, फेनोजायएथेनोल, स्कुआलेने और फॉर्मलडिहायड जैसे हानिकारक एडजुविंट्स (वे एजेंट जो दवाओं के असर को बढ़ा देते हैं) भी पाए गए. इनमें से कई एडजुविंट्स अमेरिका में प्रतिबंधित हैं.
‘दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए सस्ते और घातक एडजुविंट्स इस्तेमाल करती हैं और इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों बच्चों की जान को दांव पर लगाया जाता है’
क्लिनिकल ट्रायल से जुड़े मामलों में अपनी ही बिरादरी के खिलाफ सबसे पहले जोरशोर से आवाज उठाने वाले महात्मा गांधी मेमोरिअल मेडिकल कॉलेज इंदौर (एमजीएमएमसी) से जुड़े वरिष्ठ नेत्र चिकित्सक डॉ आनंद राय बताते हैं कि दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए बेहतर एडजुविंट्स को छोड़कर इन सस्ते और घातक एडजुविंट्स इस्तेमाल करती हैं और इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों बच्चों की जान को दांव पर लगाया जाता है. डॉ. आनंद को पिछले साल अस्पताल में जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से जुड़े होने के आरोप में एमजीएमसी काउंसिल से निलंबित कर दिया गया था. उनका कहना है कि ड्रग ट्रायल मामले को उजागर करने के एवज में उन्हें यह सजा दी गई थी.
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व्यथा कथा 2
‘डॉक्टर कहते हैं साबुन का असर है’
साइकिल का पैडल हर बार आगे बढ़ाने के साथ ही इंदौर शहर में टाटा टेली सर्विसेस के बिल घर-घर जाकर बांटने वाले अजय नाईक अपने 10 महीने के बीमार बच्चे की गंभीर स्थिति के बारे में सोचते रहते हैं. 8 मार्च, 2010 को उनके बेटे यथार्थ का जन्म इंदौर के महाराजा यशवंत राव (एमवाय) अस्पताल में हुआ था. डॉक्टरों के कहने पर 10 मार्च को वे उसे टीके लगवाने के लिए चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (सीएनबीसी) ले गए. यहां डॉक्टर हेमंत जैन और अभिषेक दुबे ने उनके बेटे को टीके लगाए और कहा कि अब परेशानी की कोई बात नहीं. अजय की असली परेशानी इसके बाद ही शुरू हुई क्योंकि टीके लगने के कुछ ही दिन बाद उनके बेटे के शरीर पर मवाद भरी फुंसियां हो गईं और बुखार आ गया. ये फुंसियां कुछ दिनों बाद सफेद दाग में बदल गईं और अजय की जिंदगी भी बदल गईं. अब वे सारा दिन बिल बांटने के बाद अपने बेटे को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगाते रहते हैं. शिशु के शरीर से दाग नहीं जा पा रहे हैं. इस नयी बीमारी पर शिशु विभाग के प्रमुख, अजय से बच्चों जैसी मासूमियत के साथ कहते हैं कि गलत साबुन की वजह से दाग हो गए हैं. एक बात अजय को लगातार कचोटती है कि आखिर यह जानते हुए भी कि उसे अंग्रेजी ठीक से नहीं आती, उसने 10 मार्च को डॉक्टरों द्वारा दिए गए एक फार्म पर दस्तखत क्यों किए? अजय का कहना है कि उनकी जानकारी और अनुमति के बिना डॉ हेमंत जैन और और डॉ अभिषेक दुबे ने उनके नवजात शिशु पर एक कच्चे टीके का परीक्षण किया. अजय ने पुलिस में शिकायत भी की, सरकार को कई पत्र भी लिखे पर अभी तक मामले का कोई नतीजा नहीं निकला, उल्टा पुलिस ने मामले को अस्पताल के ही मेडिको-लीगल के सुपुर्द कर दिया है. [/box]
क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्टरी-इंडिया (सीटीआरआई, इस संस्था में क्लिनिकल ट्रायल्स को पंजीकृत करवाना अनिवार्य होता है ) के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में सबसे अधिक ट्रायल्स इंदौर में किए गए. इंदौर के ही कई निजी अस्पतालों में डायबिटीज से लेकर दिल के ऑपरेशन और एंजियोप्लास्टी के वक्त इस्तेमाल होने वाले ‘कोरोनरी स्टेंट’ (एक पतली ट्यूब जिसे हृदय के बाहर स्थित रक्त वािहनियों में लगाया जाता है) के भी ट्रायल्स हो रहे हैं. सीटीआरआई में दर्ज जानकारी के अनुसार इंदौर के टोटल अस्पताल के डॉक्टर सुनील एम. जैन डायबिटिक मरीजों में ग्लायकेमिक की जांच कर रहे हैं तो सीएचएल अपोलो के डॉ. गिरीश कवठेकर गुजरात की एक कंपनी द्वारा बनवाए जा रहे एक खास प्रकार के स्टेंट के परीक्षण कर रहे हैं. लेकिन इन क्लिनिकल ट्रायल्स से जुड़ी गोपनीयता और सतर्कता का आलम यह है कि ज्यादातर डॉक्टर इस तरह के परीक्षणों से अपने जुड़ाव तक को स्वीकार नहीं करते. तहलका ने डॉ. सुनील एम जैन से प्रतिक्रिया के लिए कई बार संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन वे इसके लिए उपलब्ध नहीं थे. डॉ. गिरीश कवठेकर ने किसी भी तरह के मेडिकल उपकरण के परीक्षण की जानकारी तक होने से मना कर दिया. सीटीआरआई में कोरोनरी स्टेंट के ट्रायल से जुडे सीएचएल अपोलो के तीन दूसरे डॉक्टरों के नाम भी दर्ज हैं. लेकिन पूछताछ करने पर अस्पताल के कार्यकारी निदेशक राजेश जैन तहलका को बताते हैं कि उनके अस्पताल में कोई मेडिकल डिवाइस ट्रायल नहीं हुआ. जबकि सीटीआरआई में दर्ज जानकारी के अनुसार अस्पताल में ‘इन्फिनियम’ ब्रांड के एक खास कोरोनरी स्टेंट का चौथे चरण का ट्रायल चल रहा है. डॉ राय कहते हैं कि सीटीआरआई में दर्ज होने का ही सीधा-सीधा मतलब है क्लिनिकल ट्रायल्स का मौजूद होना. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘सरकार का ध्यान अभी तक निजी अस्पतालों की तरफ तो गया ही नहीं है. जबकि सरकारी अस्पतालों के जैसे ही प्रदेश के कई निजी अस्पतालों में मरीजों को गुमराह करके उनकी जानकारी के बिना उन पर कई तरह के परीक्षण किए जा रहे हैं.’
जहां अलग-अलग प्रकार के क्लिनिकल ट्रायल्स के ये मामले पूरे प्रदेश में मकड़जाल की तरह फैलते जा रहे हैं वहीं प्रशासन की जांच अपनी सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ रही है. बीएमएचआरसी से जुड़े मामलों की जांच कर रहे डॉ केएल साहू अपनी जांच की धीमी गति की वजह बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने समिति में दो और लोगों को शामिल करने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था लेकिन सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया इसलिए उन्हें अकेले ही सारे काम करने पड़े हैं. वहीं प्रमुख सचिव स्वास्थ्य शिक्षा आईएस दाणी की अध्यक्षता में बनी सबसे महत्वपूर्ण छह सदस्यीय समिति भी सुस्ती से काम कर रही है. छह महीने पहले बनी समिति को अपनी रिपोर्ट देने में अभी कुछ समय और लग सकता है. तहलका से बातचीत में दाणी कहते हैं कि उनकी कमेटी अपने पॉलिसी ड्राफ्ट की तरफ बढ़ रही है. उनका कहना है, ‘स्वास्थ्य शिक्षा विभाग के तहत गठित ये कमेटी इस बात की पड़ताल कर रही है कि ड्रग ट्रायल को नियमानुसार संचालित करने के लिए एक राज्य केंद्रित नियम बनाने की जरूरत है भी या नहीं. हम कुछ बुनियादी सवालों के जरिए नियम के संदर्भ में आधार तैयार कर रहे हैं. जनसुनवाई भी कर रहे हैं पर रिपोर्ट आने से पहले मैं और कुछ नहीं बता सकता.’
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व्यथा कथा 3
‘सारा काम सरकार के नाम की आड़ में हो रहा था’
250 रुपये अगर आज आपके हाथों में थमा दिए जाएं तो आज आप बाजार में क्या-क्या खरीद सकते हैं ? पर इंदौर के चाचा नेहरु बाल चिकित्सालय के कुछ डॉक्टर सिर्फ 250 रुपये में जिंदगी खरीदने के प्रयास कर रहे हैं. पिछले अक्टूबर जब इंदौर के एक हिंदी अखबार में काम करने वाले पत्रकार लवीन ओव्हाल अपने एक माह के बेटे को टीका लगवाने सीएनबीसी ले गए तो डॉ हेमंत जैन के दिशा-निर्देशन में काम कर रहे कुछ डॉक्टरों ने दिल्ली की एक दवा कंपनी के पोलियो वैक्सीन परीक्षण के लिए उन्हें 250 रुपए देकर एक सूचित-सहमति फार्म (मरीज से ड्रग ट्रायल का अनुमति पत्र) पर दस्तखत करने के लिए कहा. ‘जब उन्होंने मुझे 250 रुपए, देकर कहा कि सरकार टीका लगवाने के लिए ये पैसा दे रही है तो मुझे शक हुआ. फॉर्म पढ़ने पर पता चला कि वह सूचित सहमति फार्म हैं. मैंने कागज फोटोकॉपी कराए और अपनी बेटी को लेकर वहां से भाग आया. वे झूठ बोल रहे थे और बिना मुझे बताए मेरे बेटे पर परीक्षण करना चाहते थे’, लवीन ने तहलका को बताया. वह एक नयी प्रकार की ‘बाईवेलेंट ओरल वैक्सीन’ थी और उसके परीक्षण के लिए दो बार बच्चों के रक्त के नमूने भी लिए जाते थे. लवलीन का कहना है कि खतरनाक बात यह है कि यह सारा काम सरकार के नाम की आड़ में हो रहा था. वे बताते हैं, ‘वहां और भी बहुत से गरीब अशिक्षित लोग थे जो उन कागजों का मतलब नहीं जानते थे और सोचते रहे थे कि सरकार ने उन्हें टीका लगवाने के लिए 250 रुपये दिए हैं. उन्हें धोखा देकर बच्चों को लैब रैट्स की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था.’ [/box]
इन मामलों से जुड़ी आर्थिक अनियमितताओं की जांच कर रहे आर्थिक अपराध शाखा के पुलिस महानिरीक्षक अजय शर्मा का कुछ समय पहले तहलका से बातचीत में कहना था कि उनके द्वारा की जाने वाली जांच लगभग 70 फीसदी पूरी हो चुकी है. मामले से जुड़े करीबी सूत्रों के मुताबिक आर्थिक अपराध शाखा इस बहुचर्चित मुद्दे को लेकर कई तरह के दबाव में है. मामले को विधानसभा के मानसून सत्र में जोर-शोर से उठाने वाले विधायक पारस सकलेचा कहते हैं कि जांच के लिए बनाई गई समितियां जनता को गुमराह करने के लिए छोड़ा गया सिर्फ एक शगूफा हैं. वे कहते हैं, ‘प्रशासनिक स्तर पर इस प्रकरण को दबाने के और जिम्मेदारियों से बचने के गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं. मुझे आश्वासन दिया गया था कि परीक्षण में शामिल मरीजों की सूची उपलब्ध कराई जाएगी, पर अभी तक कोई सूची शासन की तरफ से नहीं दी गई हैं. जांच कमेटी के पास कोई प्रारूप नहीं है. डॉक्टरों का एक वर्ग सरकार और जांच को प्रभावित करने का लगातार प्रयास कर रहा है.’
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होने के बाद की त्रासदी : बीएमएचआरसी
भोपाल का जिक्र आते ही 3 दिसंबर, 1984 की तसवीर एक टीस की तरह सभी के जेहन में उतर आती है. दिसंबर की ठंड में डूबी रात और कोहरे में घुली मिथाइल आइसो-साइनाइड नामक जहरीली गैस. शहर की सड़कों, गलियों, चौराहों और घरों में फैली लाशें जो सुबह के सूरज को खुली आखों और खुले मुंह से ताक रही थीं. बाद में गैस पीड़ितों के इलाज के लिए भोपाल में भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) बनाया गया. सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से मिली जानकारी के मुताबिक 2004 से 2008 के बीच इस अस्पताल में सात बड़े क्लिनिकल ट्रायल हुए. आश्चर्य की बात यह है कि इन सातों ट्रायल में से सिर्फ एक का निरीक्षण ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) द्वारा किया गया. सूत्रों के अनुसार डीजीसीआई ने बंगलुरु की एक बड़ी फार्मा कंपनी को नोटिस जारी कर इन क्लिनिकल ट्रायल की जांच भी शुरू कर दी है. संभावना ट्रस्ट से जुडे़ सामाजिक कार्यकर्ता सतीनाथ सारंगी तहलका से बातचीत में बताते हैं कि बीएमएचआरसी में हुए परीक्षणों में अब तक दस लोगों की मौत हो चुकी हैं.
वे बताते हैं, ‘मीडिया की छपी खबरों में भी आया है कि 3 गैस पीड़ितों की जान टेलेवानसिन नामक ड्रग के ट्रायल की वजह से गई, पांच लोगों की मौत ‘फोंडापारिनक्स’ नामक दवा के परीक्षण से और दो लोगों की मौत टिगीसाइक्लीन नामक दवा के ट्रायल की वजह से हुई. हमने कानूनों को ताक पर रख कर किए गए इन ड्रग ट्रायल में लिप्त 3 प्रमुख डाक्टरों के निलंबन की मांग की है.’ आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार बीएमएचआरसी को 10 दवाओं के परीक्षण के लिए फाईजर, अस्ट्रा जेनेका और कुइनटाइल्स जैसी बड़ी फार्मा कंपनियों से 1 करोड़ 85 हजार रुपये मिले हैं. इन सभी परीक्षणों को बीएमएचआरसी द्वारा गठित ‘संस्थागत समीक्षा बोर्ड’ द्वारा पारित किया जाता था. शहर में काम कर रहे सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना है कि इन सभी परीक्षणों की स्वीकृति डॉ प्रभा देसिकन ने दी थी जो ‘संस्थागत समीक्षा बोर्ड’ की सचिव हैं. सूत्रों के मुताबिक डॉ देसिकन के पति डॉ एसके त्रिवेदी भी कई ट्रायलों में शामिल थे.
यूनियन कार्बाइड की भारत में जब्त संपत्ति से प्राप्त धन से स्थापित बीएमएचआरसी के दो प्रमुख उद्देश्य थे. पहला मिथाइल आइसो-साइनाइड (मिक) गैस की वजह से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित मरीजों का इलाज और दूसरा मिक गैस के मानव शरीर पर प्रभावों पर शोध. दुनिया के किसी भी दूसरे अस्पताल में मिक गैस से प्रभावित मरीजों का विशेष इलाज संभव नहीं है. साथ ही यह दुनिया का एकमात्र अस्पताल है जहां मिक गैस के प्रभावों पर शोध के लिए हर प्रकार के संसाधनों का निवेश किया गया है. इस लिहाज से गैस पीड़ितों के हितों को लेकर इस अस्पताल की जिम्मेदारी सबसे अधिक है और उन पर किसी भी दवा का परीक्षण नहीं किया जा सकता. प्रसिद्ध चिकित्सीय शोध पत्रिका ‘मंथली इंडेक्स आफ मेडिकल स्पेशियालिटीज’ के संपादक सीएम गुलाटी ने बीएमएचआरसी में चल रहे दवा परीक्षणों के मुद्दे को हाल ही में अपने संपादकीय में उठाया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1991 में दिए गए एक फैसले के अनुसार इस संस्थान में गैस पीड़ितों के अलावा अन्य लोगों के इलाज का प्रावधान नहीं है. लेकिन सूत्र बताते हैं कि बीएमएचआरसी में कई ‘प्राइवेट पेइंग पेशेंट’ अपना इलाज करवा रहे हैं. [/box]
क्लिनिकल ट्रायल्स की इस आपराधिक गोपनीयता के पीछे कई कारण मौजूद हैं. इसमें प्रमुख है अंतर्राष्ट्रीय फार्मा कंपनियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता. इन कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा दवाइयां बनाकर उसे सबसे पहले पेटेंट करवाने और बाजार में उतारने की होड़ लगी रहती है. कम से कम लागत में ट्रायल की प्रक्रिया पूरी करने और उसकी गोपनीयता बरकरार रखने को दवा कंपनियां बहुत महत्व देती हैं. इस होड़ में फार्मा कंपनियां, उनके कुछ विशेष डॉक्टर और प्रशासन के कुछ लोग आपस में मिलकर नियमों को ताक पर रख देते हैं. नतीजा यह होता है कि जिंदगी बचाने के लिए बनाई जाने वाली दवाइयों, मेडिकल उपकरणों और टीकों की शुरुआत ही लोगों को अपंग बनाने और जिंदगियों को खत्म करने से होती है.
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परीक्षण बनाम ग्लोबल धोखा
ड्रग ट्रायल को एक बड़े घपले के तौर पर पेश किया जा रहा है पर असल में इसके कई दूसरे पक्ष भी हैं. ड्रग ट्रायल आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक हिस्सा है. आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक जैसी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में ड्रग ट्रायल की कोई खास परंपरा नहीं है. इसलिए सालों से इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में लोगों का पुराने तरीकों से इलाज किया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में नयी दवाओं को खोजने और उन्हें लगातार बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया जाता है. यहां हम ‘एविडेंस बेस्ड मेडिसिन’ या ‘साक्ष्य आधारित’ नयी दवाइयों को बनाने का लगातार प्रयास करते हैं. इस प्रक्रिया में हम पहले दवा की कार्य क्षमता की जांच करते हैं और फिर साक्ष्यों के आधार पर ही उस दवा को आम लोगों के लिए जारी किया जाता है. ड्रग ट्रायल इस वैज्ञानिक प्रक्रिया का एक हिस्सा है. ‘एविडेंस बेस्ड मेडिसिन’ की लगातार खोज आज के चिकित्सा विज्ञान की रीढ़ है. बशर्ते , इसे सही तरीके से किया जाए.
भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में ड्रग ट्रायल के बहुत कड़े नियम कानून हैं. ड्रग ट्रायल से जुड़े सभी कानूनों में मानव अधिकारों का खास तौर पर ध्यान रखा गया है. किसी भी ट्रायल के वक़्त सभी कानूनों और प्रक्रियाओं का ठीक-ठीक पालन बहुत ज़रूरी है. मसलन मरीज को अपने ऊपर किये जा रहे परीक्षण की पूरी और सही जानकारी देना डॉक्टर का काम है. उसे उस दवा के सभी संभावित फायदे और नुकसान पता होने चाहिए. मरीज को ट्रायल से जुडे खतरे भी पता होने चाहिए और मरीज की सही जानकारी पर आधारित सहमति के बिना उस पर कोई ट्रायल नहीं किया जा सकता. ट्रायल के दौरान सारी कानूनी प्रक्रिया सही तरह से पूरी की जानी चाहिए. गौरतलब है कि किसी भी दवा का ट्रायल सीधे इंसानों पर नहीं किया जाता. किसी भी नयी दवा का परीक्षण पहले चूहों और जानवरों पर होता है. इन जीवों पर दवा के सूक्ष्म प्रभावों की जांच करने के बाद दवा की जांच ‘पेड वोलनटियर्स’ के एक छोटे समूह पर की जाती है. इसके बाद ही बड़े स्तर पर दवा के प्रभावों को जांचने के लिए उसे एक बड़े समूह पर टेस्ट किया जाता है. इस वजह से जान का खतरा लगभग न के बराबर हो जाता है. पर हां , इन सभी ट्रायल्स में एक निहित जोखिम तो होता ही है. इस खतरे के बारे में मरीज को बताया जाना चाहिए.
इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि आजकल बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां अपनी दवाइयों पर चल रहे ट्रायल्स के नतीजों को प्रभावित करने के लिए हर स्तर तक जाने को तैयार हैं. प्रसिद्ध डाक्टर और साहित्यकार डॉ राबिन कुक ने अपनी किताब ‘माइंड बेन्ड’ में इस खतरे को बहुत पहले महसूस कर लिया था. डाक्टरों को ट्रायल्स के लिए जरुरत से अधिक भुगतान करके, प्रायोजित सपरिवार विदेश यात्राएं करवा के और तमाम दूसरी तरह की सुविधाएं देकर फार्मा कंपनियां परीक्षणों के नतीजों को प्रभावित करने का प्रयास करती हैं. पिछले 10-15 वर्षों में ऐसे मामले बढ़े हैं. कई डॉक्टर जाने -अनजाने और अपनी नासमझी या लापरवाही के चलते फार्मा कंपनियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि हमारे यहां शोध का माहौल बहुत खराब है. लोग डाटा कलेक्शन और नियम कायदों को लेकर लापरवाह रहते हैं और फिर इस तरह के मामले सामने आते हैं .
इसलिए ड्रग ट्रायल के दौरान सतर्कता और सुपरविजन को बढ़ाना बहुत जरूरी है. सारे नियमों का पालन होना चाहिए. कानूनों का पूरा पालन, सही तरह से कई गयी रिसर्च, ठीक डाटा कलेक्शन और निष्पक्ष डाटा विश्लेषण एक ईमानदार ड्रग ट्रायल की आत्मा है. अगर ये सभी मापदंड पूरे नहीं किये जाते तो ड्रग ट्रायल सिर्फ फार्मा कंपनियों का एक ग्लोबल धोखा है.
डॉ चतुर्वेदी भोपाल के कस्तूरबा अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं, यह लेख उनसे बातचीत पर आधारित है [/box]
नियमों के अनुसार उस हर अस्पताल में जहां ड्रग ट्रायल संचालित होते हैं, एक एथिकल और साइंटिफिक समिति का गठन आवश्यक है. यह समिति परीक्षण की निगरानी के लिए बनाई जाती है. नियम कहते हैं कि मरीज पर दवा का परीक्षण करने से पहले उसकी लिखित अनुमति आवश्यक है. अनुमति पत्र मरीज की अपनी भाषा में होना चाहिए और उसकी सहमति के बिना उस पर किसी दवा का परीक्षण नहीं किया जा सकता. इसके अलावा मरीज को एक निश्चित बीमा रकम तथा किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचने की स्थिति में निश्चित मुआवजा मिलना भी तय होता है. दवा के सफल परीक्षण की स्थिति में मुनाफे का एक हिस्सा मरीज को जाता है और डॉक्टर जनहित में परीक्षण के परिणाम प्रकाशित करवा सकते हैं.
इस लिहाज से क्लिनिकल ट्रायल के दौरान एथिकल कमेटी के गठन का नियम किसी भी ट्रायल प्रक्रिया का आधार है. लेकिन प्रदेश में चल रहे ट्रायल्स में इसी एक नियम का सबसे ज्यादा मखौल उड़ाया गया है. प्रदेश में जनस्वास्थ्य से जुड़ी विडंबना यह है कि क्लिनिकल ट्रायल्स की निगरानी के लिए बनने वाली एथिकल कमेटी के गठन, पंजीकरण एवं नियंत्रण के लिए कोई दिशानिर्देश मौजूद नहीं है. डॉ राय इस बारे में कहते हैं, ‘जो कमेटियां इस वक्त मध्य प्रदेश के अस्पतालों में गठित की गईं है उनमें भी मरीजों का पक्ष रखने वाला कोई नहीं है. जो डॉक्टर मरीजों के हितों की रक्षा के लिए बनी कमेटी के सदस्य हैं वही खुद अस्पतालों में ड्रग ट्रायल कर रहे हैं.’ दरअसल प्रदेश के जिन अस्पतालों में गैरकानूनी क्लिनिकल ट्रायल के मामले सामने आए हैं और जिनमें एथिकल कमेटियां हैं वहां ड्रग ट्रायल में शामिल डॉक्टर भी उसके सदस्य होते हैं. अब ऐसे में कमेटियों की निष्पक्षता पर उंगली उठना जायज ही है. हालांकि इसके विरोध में कुछ डॉक्टर हास्यास्पद तर्क भी देते हैं. इंदौर के मशहूर महाराजा यशवंत राव (एमवाय) अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं, ‘आरटीआई के तहत हम गोपनीय जानकारी नहीं दे सकते. हमने सारे नियमों का पालन किया है और एथिक्स कमेटी में भी हितों के संघर्ष जैसी कोई बात नहीं है. जो भी डॉक्टर ट्रायल में शामिल होता है वह मीटिंग के वक्त कमरे से उठकर बाहर चला जाता है.’
डॉ राय बताते हैं कि सूचना के अधिकार के तहत अस्पतालों और फार्मा कंपनियों के बीच अनुबंध और ऐसी ही कई दूसरी जानकारियां मांगने पर बौद्धिक संपदा अधिकार (इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) का हवाला देकर जानकारियों को छिपाया जा रहा है. जबकि मेडिकल काउंसिल के नियमों के अनुसार ये सभी जानकारियां जनहित में सार्वजनिक की जा सकती हैं.
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व्यथा कथा 4
‘डॉक्टरों ने कहा कि दवा खाने के बाद खाली पत्ते वापस कर देना’
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के पास बसी एक उजड़ी-सी बस्ती है जेपी नगर. इस बस्ती की एक संकरी अंधेरी गली के आखिरी छोर पर एक छोटे-से मकान में 48 वर्षीया लक्ष्मी बाई अपने 3 बच्चों और 2 बकरियों के साथ रहती हैं. 20 अगस्त, 2010 को लक्ष्मी के पति शंकरलाल का लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया. वे गैस पीड़ित थे और बीएमएचआरसी में उनका इलाज चल रहा था. आखिरी वक्त में डॉक्टरों ने लक्ष्मी को बताया था कि शंकर को हड्डी का कैंसर है जबकि मेडिकल कागजों में उसकी बीमारी ‘कोरोनरी आर्टरी डिसीज’ के नाम से दर्ज है.
इन दोनों बीमारियों का अंतर लक्ष्मी की समझ से काफी परे है. और शायद यही वजह है कि ऐसे लोग ड्रग ट्रायल के लिए डॉक्टरों की पहली पसंद होते हैं. 19 सितंबर, 2007 को बीएचएमआरसी से मिली डिस्चार्ज शीट के मुताबिक शंकरलाल को पांच दवाइयां दी गई थीं. इनमें से एक दवा का नाम ‘ स्टडी ड्रग ‘ था. लक्ष्मी बताती हैं, ‘डाक्टरों ने इन्हें दवा के तीन बड़े-बड़े पत्ते दिए और कहा कि दवा खाने के बाद खाली पत्ते अस्पताल में वापस जमा कर जाना. क्योंकि दवा कंपनी वालों ने खाली पैकेट वापस मांगे हैं.’ दवाइयां खाने के बाद शंकर की तबीयत बिगड़ती गई. लक्ष्मी कहती हैं, ‘उसके बाद वे लगातार सूखते गए. बहुत कमज़ोर हो गए थे.’ लक्ष्मी आजतक नहीं समझ पाई हैं, कि उस दवा में ऐसा क्या था जो उनके पति के लिए जानलेवा साबित हुआ. [/box]
इस मसले से जुड़ा एक और स्याह पहलू यह है कि ड्रग ट्रायल के आरोपित डॉक्टर आज भी अपने पदों पर काम कर रहे हैं और ट्रायल से प्रभावित लोगों को प्रदेश सरकार की तरफ से कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई है. एशियाई मानवाधिकार आयोग (एएचआरसी) के तीन प्रतिनिधियों ने भी पिछले साल अक्टूबर में प्रदेश का दौरा किया था. आयोग के प्रतिनिधि बीजो फ्रांसिस ने क्लिनिकल ट्रायल पर हुई अपनी तफ्तीश के बारे तहलका को एक ईमेल के जरिए बताया कि प्रदेश में जारी क्लिनिकल ट्रायल्स बिलकुल भी पारदर्शी नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘हमने अपनी जांच के दौरान पाया कि प्रदेश में ट्रायल्स करवाने वाली सरकारी एजेंसियां लोगों की अज्ञानता का फायदा उठा रही हैं. उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि उन पर किसी दवा का प्रयोग हो रहा है. दुख की बात है कि ये ट्रायल ज्यादातर उन गरीब लोगों पर हुए जो अपने इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहते हैं. हमें ऐसे मामले भी सुनने को मिले हैं जहां मरीजों को ट्रायल्स के लिए पैसों का लालच दिया गया.’
इस पूरे मामले में एक सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी कैसे वही डॉक्टर जिन्होंने करोड़ों रुपयों के लालच में हजारों लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल दिया आज भी प्रतिदिन सैकड़ों मरीजों का इलाज कर रहे हैं ? वह पिता जिसका नवजात बच्चा अजीब-सी बीमारी की वजह से जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है, वह पति जिसने अपनी पत्नी को खो दिया और ऐसे ही न जाने कितने लोग यह सोचने पर विवश हैं कि डॉक्टरों के सफेद कोट के पीछे कितना स्याह कालापन छिपा हुआ है.