अतीत बताता है कि व्यक्तिगत जीवन और राजनीतिक मोर्चे पर ममता बनर्जी और जयललिता में बहुत सारी समानताएं रही हैं. फिल्मी पर्दे से उतर कर राजनीति की पथरीली जमीन नापते हुए मुख्यमंत्री बनने तक का सफर जहां जयललिता के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा वहीं ममता को भी वामपंथ के तीन दशक पुराने अभेद्य किले को फतह करने में पहाड़ जैसी मुश्किलें पेश आईं. इन दोनों अविवाहित नेत्रियों के बारे में एक समानता यह भी है कि अपने-अपने राजनीतिक दलों का एकमात्र चेहरा ये खुद ही हैं. इसके अलावा कई दूसरी बातें और भी हैं जो समानता की कसौटी पर इन दोनों को एकरूपता देती हैं. इन बातों से आगे बढ़कर इस बार के चुनावी नतीजों की बात करें तो मोदी के पक्ष में बही देशव्यापी बयार को अपने-अपने राज्यों में बेअसर करके इन दोनों ने एक बार फिर से समानता की इस एकरूपता को बरकरार रखा है.
नरेंद्र मोदी की जिस सुनामी ने कांग्रेस के साथ ही सपा, बसपा, और जेडीयू जैसी क्षेत्रीय ताकतों को इस बार के चुनाव में ठिकाने लगा दिया वही सुनामी पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में हल्की-फुल्की बूंदा-बांदी ही कर सकी. भारत विजय के अभियान पर निकले मोदी के अश्वमेध रथ को इन दोनों राज्यों में ममता बनर्जी और जयललिता ने अपने बूते थाम लिया. इतना ही नहीं बल्कि चुनाव परिणामों के बाद सामने आई तस्वीर ने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और आल इंडिया अन्ना द्रमुक कड़गम (एआईएडीएमके) को बंगाल और तमिलनाडु का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भी बना दिया है. 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 34 और 39 सीटों वाले तमिलनाडु में जयललिता ने 37 सीटों पर फतह हासिल करके 2009 के अपने प्रदर्शन के सूचकांक को इतना ऊपर पहुंचा दिया है कि वहां से उनके विपक्षी दल नजर ही नहीं आ रहे. तमिलनाडु में द्रमुक (डीएमके) का सूपड़ा साफ हो गया तो पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे का. पांच साल पहले 2009 में टीएमसी और एआईएडीएमके के सांसदों की संख्या क्रमश: 18 और नौ थी. इस लिहाज से देखा जाए तो इस बार दोनों ही दलों ने पिछली बार के मुकाबले बहुत अधिक संख्या में सीटें जीत कर अपने-अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों (वाम मोर्चे और डीएमके) को हाशिये पर धकेल दिया है. कांग्रेस पार्टी तो देश के कई दूसरे राज्यों की भांति इन दोनों राज्यों में भी हाशिए से बाहर चली गई है. बहुत संभावना है कि पस्त पड़ चुकी कांग्रेस के मुकाबले ये दोनों दल लोकसभा के अंदर खुद को बेहतर विपक्ष साबित करने में शायद ही कोई कसर बाकी छोड़ें.
कहा जा सकता है कि अम्मा और दीदी भारतीय राजनीति के इस नए दौर की सबसे ताकतवर महिलाएं बन गई हैं. जानकारों की मानें तो इन चुनाव के नतीजे सिर्फ इस बात की मजबूती से पुष्टि करते हैं. गौरतलब है कि देश की प्रभावशाली महिला नेत्रियों की जमात में इन दोनों के अलावा सोनिया गांधी और मायावती का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता रहा है. लेकिन मायावती की बसपा का इस बार पूरी तरह से पत्ता साफ हो चुका है और सोनिया गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को जो भयानक झटका लगा है उससे उबरने में उसे अभी लंबा वक्त लगेगा. ऐसे में ममता बनर्जी और जयललिता के लिए पूरा मैदान खाली है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘बंगाल और तमिलनाडु में पहले से ही मजबूत रही ममता और जयललिता इस बार दुगनी ताकत के साथ सामने आई हैं. ऐसे में केंद्र की राजनीति में खुद को और भी मजबूती के साथ स्थापित करने का उनके पास यह सुनहरा मौका है. वैसे भी कांग्रेस के मुकाबले इनके सांसदों की संख्या कुछ ही कम है.’ कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी समझ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘जनता द्वारा बुरी तरह नकार दिए जाने के बाद फिर से उसका विश्वास हासिल करना अब कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती होगी. कांग्रेस हरसंभव कोशिश करेगी कि विपक्ष में रह कर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहे. इसके लिए उसे तमाम सहयोगियों की जरूरत होगी लिहाजा तृणमूल कांग्रेस और एआईएडीएमके की भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है. हालांकि इस बात पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा कि लोकसभा के अंदर उनके सांसद क्षेत्रीय मुद्दों के मुकाबले राष्ट्रीय मुद्दों को कितनी तवज्जो देते हैं.’
ममता और जया द्वारा किए गए इस शानदार प्रदर्शन के बीच यह जानना भी बेहद दिलचस्प है कि देश भर में चली मोदी लहर के बावजूद ऐसा क्या था कि ममता बनर्जी और जयललिता की पार्टियां इसकी जद में आने से न केवल बच गई, बल्कि अपने-अपने राज्यों में सबसे बड़ी पार्टियां भी बनने में कामयाब रहीं. यह जानना इस लिए भी दिलचस्प हो जाता है कि मायावती, मुलायम और नीतीश जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों की भाजपा के सामने दुर्गति हो चुकी है. ऐसे माहौल में बंगाल और तमिलनाडु में दोनों नेत्रियों ने अपने विरोधियों की यह हालत कैसे कर दी, इसे समझने के लिए दोनों के राजनीतिक अतीत के साथ उनकी चुनावी रणनीति को समझना होगा.
पहली वजह तो यही है कि इन दोनों राज्यों में भाजपा का कोई मजबूत आधार नहीं है. जानकारों की मानें तो ममता बनर्जी और जयललिता हमेशा से दिल्ली के सियासी फलक की नायिका बनने की हसरत रखती आई हंै, लेकिन इनका क्षेत्र विशेष तक सीमित रहना इनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है. देश के दूसरे राज्यों में इन दोनों नेत्रियों के नाम की चर्चा तो खूब होती है लेकिन इलके दलों का अस्तित्व बंगाल और तमिलनाडु की सीमा से बाहर नहीं जा सका है. ऐसे में दिल्ली तक पहुंचने के लिए कांग्रेस और भाजपा से अलग राह चुनना ही इन दोनों के लिए एक मात्र रास्ता था. इन दोनों की रणनीति पर नीरजा कहती हैं, ‘इनके निशाने पर मुख्य रूप से वही वोटर था जो कांग्रेस से नाराज होने के अलावा नरेंद्र मोदी से भी इत्तेफाक नहीं रखता था. यही वजह थी कि मोदी के गुजरात मॉडल के मुकाबले ममता बनर्जी हर रैली में बंगाल मॉडल की बात करती रहीं. इसी तर्ज पर जयललिता भी तमिलनाडु को गुजरात से बेहतर राज्य बताकर खुद को उनके मुकाबले बेहतर प्रशासक साबित करने की कोशिश करती रहीं.’ एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मोदी के प्रचार अभियान की तरह ही जयललिता का चुनावी अभियान भी काफी हद तक व्यक्ति केंद्रित रहा. तमिलनाडु की सड़कों पर अन्ना द्रमुक के पोस्टरों में उन्हें साफ तौर पर भावी प्रधानमंत्री बताया गया था. यहां तक कि फोटोशॉप की मदद से तैयार किए गए इन पोस्टरों में बराक ओबामा से लेकर श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे तक को जयललिता के आगे दंडवत होते दिखाया गया था. इसके अलावा उनके प्रचार अभियान की एक और खासियत यह थी कि अपने हर मंत्री को एक-एक सीट का जिम्मा देकर उन्होंने हार-जीत को लेकर उनकी जिम्मेदारी भी तय कर दी थी. ममता बनर्जी के बारे में भी कमोबेश इसी तरह की बातें कही जा सकती हैं. रशीद किदवई कहते हैं, ‘ममता और जयललिता की पूरी चुनावी रणनीति इस बात पर आधारित थी कि बिना उनके कोई भी सरकार न बन पाए. हालांकि ऐसा नहीं हो सका.’
चुनाव के नतीजों में इस बार बहुत पहले ही भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का अनुमान लगाया जा रहा था. लेकिन इस बात की अटकलें भी उतनी ही थीं कि सरकार बनाने के लिए उसे अन्य दलों की जरूरत पड़ेगी. यह भी एक बड़ी वजह थी कि तमाम अटकलों के बाद भी ममता बनर्जी और जयललिता ने चुनाव से पहले किसी भी राष्ट्रीय दल से गठबंधन नहीं किया और खंडित जनादेश की स्थिति में तीसरे मोर्चे के जरिए सात रेसकोर्स रोड पहुंचने के मौके का इंतजार करती रहीं. यह बात दीगर है कि अपने दम पर बहुमत हासिल कर चुकी भाजपा को अब इन दोनों में से किसी की भी जरूरत नहीं पड़ने वाली.
इसके बावजूद क्या तृणमूल कांग्रेस और एआईएडीएमके को नजरअंदाज किया जा सकता है?
इस सवाल का जवाब आसानी से राजनाथ सिंह की उन बातों में तलाशा जा सकता है जो उन्होंने 16 मई को बहुमत हासिल करने के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए कही हैं. दरअसल राजनाथ सिंह से तब पत्रकारों ने ममता बनर्जी, जयललिता और नवीन पटनायक के समर्थन को लेकर सवाल पूछा था. राजनाथ सिंह का कहना था कि बेशक उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल चुका है, फिर भी वे अपनी सरकार का समर्थन करने वाले किसी भी दल का स्वागत करने को तैयार है. जानकारों की मानें तो राजनाथ इस बयान के जरिए एनडीए के कुनबे को तो बढ़ाना चाहते हैं साथ ही विपक्ष की ताकत को भी कमजोर करना चाहते हैं, ताकि संसद में मनमुताबिक काम करने में उनकी सरकार को कोई दिक्कत न हो. इस लिहाज से देखा जाए तो जयललिता और ममता बनर्जी दो अहम फैक्टर हैं. लेकिन इस बात की संभावना बेहद कम है कि ये दोनों एनडीए में शामिल होंगी. इतना अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद सरकार का हिस्सा नहीं बन पाने का मलाल दोनों ही पार्टियों को हो सकता है, लेकिन यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि विपक्ष में रहते हुए वे इन पांच सालों में बहुत कुछ ऐसा कर सकते हैं जिसके जरिए इनकी स्वीकार्यता का दायरा बढ़ सकता है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘विपक्ष में रहने का विकल्प ममता बनर्जी और जयललिता के लिए वाकई में एक बड़ा अवसर हो सकता है.’
ममता बनर्जी और जयललिता को देश की राजनीति में प्रभावशाली आंकने वाली इन संभावनाओं के बीच एक वर्ग ऐसा भी है जिसके मुताबिक अभी केंद्रीय राजनीति में जया और ममता के लिए इतना स्पेस नहीं है कि उन्हें बहुत प्रभावशाली माना जा सके. सीनियर पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘बेशक लोकसभा में विपक्ष की बेंचों पर कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा सदस्य इन्हीं दोनों दलों के होंगे. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस के मुकाबले ये ज्यादा प्रभाव छोड़ पाएंगे. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन दलों की अगुआई करने वाली ममता बनर्जी और जयललिता खुद मुख्यमंत्री के पद पर हैं, और इस नाते राज्य की राजनीति पर ही उनका अधिक ध्यान रहेगा.’ नीरजा चौधरी का अलग मत है. वे कहती हैं, ‘भले ही ममता और जयललिता राज्य की राजनीति को ही संभालेंगी, लेकिन लोकसभा के लिए चुने गए उनके सभी सिपहसालार पूरी तरह उनके प्रति निष्ठावान हैं. इसके अलावा यह नहीं भूलना चाहिए कि कोलकाता और चेन्नई के बीच वाया भुवनेश्वर वाली ‘हॉटलाइन’ बहुत पहले से ही चालू है.’