मोहित सूरी हमेशा से ही कोरियन फिल्मों के मुरीद रहे हैं. हम भी. लेकिन करण जौहर या यश चोपड़ा के प्रेम को समर्पित तीव्र संगीतमय चलचित्रों पर हिंसा पर इतराते कोरियाई सिनेमा के पैरहन को चढ़ा दो तो ऊब ही होगी. या कहें कोरियन ‘आई सॉ द डेविल’ (जिस पर ‘एक विलेन’ आधारित है, बिना आभार-साभार) में अगर आशिकी 2 जैसी कोई प्रेम कहानी मिला दें, उसी तरह के ट्रीटमेंट और गीतों के साथ, तो फिर हम आखिर तक तने तो रहेंगे, जागरुक सिनेमा प्रेमी की तरह, लेकिन अंतहीन ऊब की छाया छटेगी नहीं. वो आशिकी 3 नाम के डर से हमें बारम्बार रूबरू कराएगी, अपने कुछ हिस्सों में यह कोरियाई फिल्म जैसा साहस जरूर दिखाएगी लेकिन फिर शार्ट-कट मार वापस अनेकों बार हमें हमारी भारतीय नाटकीयता के दर्शन ही कराएगी और धमकाएगी, थोड़ा और करीब जाकर दर्शन करा दूं, पूछ कर.
अति नाटकीयता, अति मानवीयता, गीतों की अति, प्रेम की अति, गति की अति और कुछ ऐसी अतियां जिनके शब्द अभी बने नहीं, मिलकर ‘एक विलेन’ को अच्छी बन सकने वाली फिल्म से साधारण फिल्म बना देते हैं. पागलखाने में ‘शहंशाह’ दिखाए जाते वक्त सिद्धार्थ की एंट्री का दृश्य हो या ‘जरूरत’ गीत पर बढ़िया दो मिनिट के सिंगल शाट में सिद्धार्थ का फाइटिंग सीक्वेंस, सूरी को फिल्म बनाने के क्राफ्ट की बेहद अच्छी जानकारी है. उन्हें गानों को दृश्यों के साथ चलाना सलीके से आता है, हीरो-हीरोइन से अच्छा काम करवाना भी, अपने विलेन से भी, लेकिन उनकी ‘एक विलेन’ का विलेन उसकी कहानी है जो भारतीय होने के गुरूर में हमारा सर झुका देती है. हीरो को विलेन को पकड़ने का ‘क्लू’ जिस चीज से मिलता है वो इतना हास्यास्पद है कि हास्यास्पद शब्द का इतनी कम तीव्रता का होना अखरता है. एक कमतर विलेन श्रद्धा कपूर भी हैं, जिनको लंबी भूमिका देने की मजबूरी ने कहानी को और ज्यादा कमजोर किया है. वे उन दृश्यों में रोशनी फैलाने आती हैं, जिनकी फिल्म को जरूरत नहीं है.
फिल्म के पास कुछ अच्छे हिस्से हैं, और इनमें रितेश देशमुख को देखकर सुख मिलता है. जानते तो हम ‘नाच’ और ‘ब्लफ मास्टर’ के वक्त से थे, लेकिन खराब फिल्मों में वे ऐसे सने कि उनके अच्छा अभिनेता होने के निशान कम ही मिले. यहां वे बर्फ चेहरे पर कभी क्रूरता और कभी बेचारगी के भाव देते वक्त उन्मुक्त हैं, लेकिन हावी नहीं, और ऐसा अच्छा अभिनय आखिर तक उनके लिए हमारी उत्सुकता बनाए रखता है. सिद्धार्थ मल्होत्रा के किरदार की तीव्रता भी आकर्षक है और उनका अभिनय भी, लेकिन निर्देशक उनकी उस रेंज को ज्यादा दूर नहीं ले जाते, गर ले जाते तो वे उस कोरियाई फिल्म के नायक की तरह का काम कर सकते थे. श्रद्धा कपूर खूबसूरत लगी हैं, उतनी ही जितना फिल्म उनसे चाहती है, लेकिन अभिनय अभी भी वे अच्छा नहीं करतीं, कत्थई आंखों वाली खूबसूरत काठ की गुड़िया से अधिक कुछ नहीं हो पातीं.
एक विलेन के नायक और खलनायक की पकड़म-पकड़ाई में उस तरह का थ्रिल नहीं है जिस तरह के रोमांच का वादा फिल्म करती है. ‘एक विलेन’ खुद को ऊन का वह गोला बना लेती है, जिसे बेहद जल्दी में आधे से ज्यादा खोल दिया जाता है, और फिर जब फिल्म बेतरतीब उलझती है तो सुलझाते वक्त हैरत में पड़ती है क्योंकि जिसे वे सुलझा रही है उसे वह और उलझा रही है, व्यर्थ में, और शायद इसलिए वापस लपेटते वक्त ऊन के गोले को गोल नहीं बना पा रही है.