दिल्ली | अप्रैल 2013
‘शीला दीक्षित बोलीं कि मेरे पास रोज 500 बलात्कार के मामले आते हैं. मैं किस-किस को देखूंगी’
गुड़िया के लिए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित तमाम नेता बड़े-बड़े वादे कर गए थे, लेकिन हुआ कुछ नहीं. पांच साल की गुड़िया अब अपने हाल पर है
दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम में बसा इलाका द्वारका. यहां की एक बस्ती में कुछ देर के इंतजार के बाद ही हमें गुड़िया के पिता मिल जाते हैं. वे बस्ती में बने एक मंदिर के पास से हमें लेने आए हैं. बस्ती में मौजूद अनगिनत गलियों में से एक से होकर गुजरते हुए हम गुड़िया के घर पहुंचते हैं. सिर पर दो छोटी-छोटी चोटियों और हाथों में स्लेट पकड़े हुए गुड़िया अपने छोटे भाई और मां के साथ खेल रही है. लगभग चार महीने अस्पताल में रहने के दौरान उसके छह बड़े ऑपरेशन हुए. अब वह स्वस्थ है. उसके पिता गोद में खेल रहे दोनों बच्चों को संभालते हुए कहते हैं, ‘डाक्टरों ने कहा है कि अब यह स्कूल जा सकती है. बिल्कुल ठीक है. अब हमारी सबसे बड़ी चिंता अपने बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने की है. जब मामला मीडिया में जोर-शोर से उठा था तब सभी ने बहुत लंबे-लंबे वादे किए थे. सोनिया गांधी खुद गुड़िया से मिलने आई थीं, उन्होंने हम दोनों से कहा था कि लड़की के स्वास्थ्य, शिक्षा और देखभाल का पूरा ध्यान रखा जाएगा. फिर गांधीनगर के हमारे नेता अरविंदर सिंह ने भी कहा था कि बच्चों के रहने और पढ़ने का पूरा इंतजाम किया जाएगा. लेकिन गुड़िया के इलाज और ऑपरेशन के सिवा अभी तक हमें सरकार से कोई मदद नहीं मिली है.’
दिल्ली गैंगरेप पर देश में मचा बवाल अभी शांत भी नहीं हुआ था कि 15 अप्रैल, 2013 को दिल्ली के गांधीनगर इलाके में दो लोगों ने पांच साल की गुड़िया का सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसे एक बंद कमरे में मरने के लिए छोड़ दिया. डॉक्टरी जांच के दौरान यह पता चला कि अपराधियों ने बच्ची के शरीर में प्लास्टिक की बोतलें और मोमबत्तियां डाल दी थीं. अपने बच्चों के चेहरे को अपने पल्लू से साफ करते हुए गुड़िया की मां कहती हैं, ‘15 तारीख को जब गुड़िया खो गई तो हम लोगों ने पुलिस में शिकायत की, लेकिन पुलिस ने हमारी एक नहीं सुनी. अगर सिर्फ हमारी बिल्डिंग में ही खोजा होता तो शायद उसकी हालत इतनी खराब नहीं होती. उल्टा हम लोगों से ही पैसे मांगने लगे.’
एक ओर जहां गुड़िया के बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार हुए मनोज शाह और प्रदीप कुमार के खिलाफ अदालती कार्यवाही शुरू हो चुकी है वहीं दूसरी ओर गुड़िया के स्वस्थ होने के बाद से उसका परिवार कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहा है. अपनी बच्ची के बलात्कार के पांच महीने बाद मीडिया और अनगिनत सामाजिक कार्यकर्ताओं की भीड़ से दूर, अपने एक कमरे के छोटे से घर में बैठे गुड़िया के पिता कहते हैं, ‘सोनिया गांधी तो गुड़िया से मिलकर चली गईं. उन्होंने पूरा आश्वासन भी दिया, लेकिन कुछ हुआ नहीं. फिर हम लोग शीला दीक्षित से मिलने पहुंचे. उन्होंने हमें यह कहकर भगा दिया कि मेरेे पास तो रोज 500 बलात्कार के मामले आते हैं. मैं किस-किस को देखूंगी? उन्होंने कहा कि हम अपने बच्चों को और उनके साथ हुए दुष्कर्म के मामलों को खुद संभालें. इस पूरे समय में हमें सिर्फ आम आदमी पार्टी और मीडिया का ही सहारा रहा है. मीडिया भी लगा रहा. इंडिया टुडे वाले पिछले पांच महीनों से हमारे कमरे का किराया दे रहे हैं, एक पत्रकार मैडम हमारी लड़की को पढ़ाने के लिए भी तैयार हो गई हैं. लेकिन मैं हैरान हूं कि सरकार हमारी मदद क्यों नहीं कर रही. हम गांव भी नहीं जा सकते क्योंकि वहां भी लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं. दिल्ली में भी अभी तक हमने चार मकान बदल लिए हैं.’
थोड़ा रुककर वे आगे कहते हैं, ‘अब जो हमारी लड़की के साथ यह सब हो चुका है तो हमारे लिए उसे पढ़ाना बहुत जरूरी है. अगर नहीं पढ़ेगी तो आगे कौन उसे सहारा देगा? उसे अपने पैरों पर खड़ा होना होगा वर्ना यह समाज रेप की शिकार लड़कियों के साथ कैसा सलूक करता है, यह तो आप जानती ही हैं. इसलिए मैं अपना सबकुछ लगाकर अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता हूं.’
……………………………………..
गोहाना, हरियाणा | सितंबर 2012
‘मन तो मर जाने का करता है, दीदी…’
गैंग रेप के बाद बिरादरी के दबाव में रागिनी को अदालत में अपने बयान से मुकरना पड़ा जिसके बाद उल्टे उसे ही सजा हो गई और आरोपित रिहा हो गए
‘दरवज्जा खुलवा दो री, जनानी आई है.’
10-12 साल का एक लड़का घर का दरवाजा खटखटाते हुए यह कहता है. हम हरियाणा के सोनीपत जिले की गोहाना तहसील के अटैल-इदाना गांव में हैं. इससे पहले हमने गांव के बीचों-बीच बने एक मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों से ‘धानुकों’ की गली में रहने वाले सुनील का पता पूछा था. पहले तो सब एक-दूसरे की ओर देखते हुए मुस्कराने लगे और फिर उन्होंने मैदान के सामने बने एक पक्के घर की ओर इशारा किया. हम चले ही थे कि एक लड़के ने अपना बल्ला जमीन पर फेंकते हुए कहा, ‘सुनील और उसके मां-बाप घर पर नहीं हैं. इसलिए दरवाजा तभी खुलेगा जब हममें से कोई बाहर से आवाज लगाएगा.’ सुनील की ही रिश्तेदारी में आने वाला यह लड़का अब हमारे साथ है और घर का दरवाजा खटखटा रहा है.
कुछ ही देर में दस-बारह साल की दो छोटी-छोटी लड़कियां आकर दरवाजा खोलती हैं. दरवाजे के ठीक सामने आंगन में भैस का तबेला है. तबेले के पीछे हैंडपंप पर घूंघट में ढकी एक लड़की कपड़े धो रही है. यह सुनील की पत्नी रागिनी है. दरवाजा जिन छोटी-छोटी लड़कियों ने खोला था वे रागिनी की ‘वर्तमान पारिवारिक पहरेदार’ हैं. 28 सितंबर, 2012 के बाद रागिनी चौबीसों घंटे अपने ही घरवालों और रिश्तेदारों की सख्त पहरेदारी में रहती है. वह अपने घर का दरवाजा खुद नहीं खोल सकती, किसी से बात नहीं कर सकती, घंटी बजने पर मोबाइल फोन नहीं उठा सकती, गर्मी से बेहाल होने पर भी अपने ही घर के आंगन तक में नहीं बैठ सकती. यहां तक कि शौचालय भी अकेले नहीं जा सकती. उसकी ससुराल में अब किसी को उस पर भरोसा नहीं है और कोई उसका चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता.
लेकिन रागिनी की जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. पिछले साल की गर्मियों में ही उसका ब्याह धूमधाम से पास ही के गांव में रहने वाले सुनील के साथ हुआ था. सब ठीक चल रहा था. वह अपने पति से बहुत प्यार करती थी और उसकी आंखों में वे हजारों सपने झिलमिला रहे थे जो कोई भी 19 साल की लड़की अपनी नई जिंदगी और नई-नई शादी को लेकर अपने मन में संजोती है. तभी अचानक एक अप्रत्याशित हादसे ने रागिनी की जिंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया. अगर इस हादसे में उसके हाथ-पैर टूट जाते, उसका सामान चोरी हो जाता या कुछ बदमाश सड़क पर उसे लूटकर चाकू से जख्मी करके छोड़ देते, तब भी शायद वह इन सभी हादसों से उबर कर एक नई जिंदगी शुरू कर सकती थी. लेकिन 28 सितंबर, 2012 को रागिनी सामूहिक बलात्कार का शिकार हो गई. पांच दिन और चार रातों तक चार दरिंदों के कब्जे में रहने के बाद जब रागिनी दुर्दांत हिंसा की उस अंधेरी सुरंग से बाहर निकली तो उसकी जिंदगी भी जैसे खत्म हो चुकी थी. एक सामान्य नवविवाहिता से वह एक वेश्या, चोर और दोयम दर्जे की चरित्रहीन महिला में तब्दील हो चुकी थी. स्वयं पीड़ित होने के बावजूद लगातार पारिवारिक, और न्यायिक उपेक्षा से जूझती रागिनी की यह कहानी बलात्कार की शिकार महिलाओं के अंधेरे भविष्य की डरावनी तस्वीर हमारे सामने रखती है.
रागिनी का पति सुनील साइकिल पर बर्तन बेचने का काम करता है और उसके ससुर भी गांव में ही रेहड़ी लगाकर घरेलू सामान बेचते हैं. आज वे घर पर नहीं हैं. अपने एक कमरे के घर में हमें बिठाते हुए रागिनी घर में मौजूद ‘पहरेदार लड़कियों’ को बाहर भेजने की कोशिश करती है और धीरे से कहती है, ‘इनको कुछ लाने के बहाने से बाहर भेज दूं वर्ना मेरी सास को सब बता देंगी और फिर बहुत बुरा होगा. मेरे सासरे वाले जब भी बाहर जाते हैं, इन लड़कियों को मुझ पर नजर रखने के लिए छोड़ कर जाते हैं.’ लड़कियों को तबेले के कामों में उलझाने के बाद बात शुरू करते ही रागिनी सिसकने लगती है. मैं कहती हूं कि मन में जो भी है कह दो. वह कहती है, ‘मेरा मन? मन तो अब सिर्फ मर जाने का करता है, दीदी. कब से मरने की कोशिश कर रही हूं लेकिन ये लोग मरने के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते वर्ना कब की मर जाती. अब मेरे बस की कुछ ना रही है’.
सितंबर, 2012 में रागिनी शादी के बाद पहली बार मायके वापस आई थी. बनवास गांव के अंतिम छोर पर बना एक कमरे का छोटा-सा घर रागिनी का मायका है जहां वह अपनी तीन बहनों और दो भाइयों के साथ रहती थी. रागिनी का परिवार ‘धानुक’ जाति में आता है और इसलिए उसका घर गांव के दलितों और पिछड़ी जातियों के टोले की सबसे अंतिम कतार में है. हरियाणा की पारंपरिक पिछड़ी जातियों में आने वाले ‘धानुक’ मूलतः सवर्णों के घरों की मिट्टी साफ करने और घास काटने का काम करते रहे हैं. लेकिन रागिनी के माता-पिता बंधुआ मजदूरी के साथ साथ पट्टे पर गांव के सवर्णों की भैंसें भी पालते हैं. रागिनी की मां संतोष कहती हैं, ‘हमने अपनी सालों की बचत मिलाकर लड़की का ब्याह किया था. तब वो ब्याह के बाद पहली बार घर आई थी. लेकिन यहीं गांव के सामने बने फाटक से उसे चार लड़के उठा के ले गए. फिर पांच दिन बाद वापस आई और उसकी हालत बहुत खराब थी. हम तो चाहते थे कि सभी अपराधियों को सजा हो. पुलिस में रिपोर्ट भी लिखवाई थी. लेकिन फिर धीरे-धीरे गांववालों और बिरादरी का दबाव बढ़ने लगा. हमारे सामने रिपोर्ट वापस लेने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था.’
रागिनी के साथ यह हादसा सितंबर, 2012 के उस चर्चित समय में हुआ था जब अचानक एक महीने में हुई बलात्कार की 20 घटनाओं की वजह से हरियाणा राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया था. वह बताती है, ‘मायके में मैं अपने पड़ोस में रहने वाली माफी के घर जाया करती थी. वह गांव में ब्यूटी पार्लर चलाती थी और मुझे सिलाई भी सिखा देती थी. 28 सितंबर को उसी ने मुझसे कहा कि तेरे पति का फोन आ रहा है बार-बार. वो तुझे फाटक पर बुला रहा है. लेकिन फाटक पर मेरे पति नहीं थे.’
गोहाना फाटक नाम की उस जगह से सुनील और संजय नामक दो लोगों ने रागिनी का अपहरण कर लिया. ये दोनों पास ही के खिंदारी गांव के रहने वाले थे. वहां से एक सफेद कार में उसे गोहाना-खकरोही रोड पर मौजूद चावल के खेतों में बने एक सुनसान कमरे में ले जाया गया. वहां दो लोग और थे. अहमदपुर माजरा गांव का अनिल और हताडी गांव का श्रवण. रागिनी आगे बताती है, ‘उन्होंने मुझे कुछ सुंघाकर बेहोश कर दिया था. फिर जब होश आया तो मैं खेतों के बीच बने एक पानी के पंप वाले कमरे में थी. वो चारों मुझे नोच रहे थे. अपने मोबाइल पर गंदी फिल्में देखते, हंसते और फिर मुझे नोचते. चार दिनों तक मैं बिना कपड़ों के रही. फिर वे मुझे कुरुक्षेत्र और फिर पानीपत ले गए. मैंने अपनी शादी में मिले कुछ गहने पहने थे. एक जोड़ी बालियां, पाजेब और एक अंगूठी थी. सब बेच दिया और आखिर में मुझे एक फटा-पुराना सलवार कुर्ता पहनने के लिए दिया. में इतनी जख्मी थी कि बेहोश हो चुकी थी. मैंने उनसे मुझे छोड़ने की मिन्नतें कीं लेकिन वे हंसते और फिर मुझे नोचने लगते. तभी मुझे मौका मिला और मैंने चुपके से अपने पापा को फोन कर दिया. फिर पुलिस मुझे लेने आई. लेकिन तब तक पांच दिन गुजर चुके थे.’
‘जरा सी कंघी कर लूं या गर्मी लगे और खाट आंगन में निकाल कर लेट जाऊं तो मेरा देवर और जरा-सी ननद पूछते हैं कि अब किसको बुलाएगी, दिल नहीं भरा?’
रागिनी और उसके परिवार का कहना है कि माफी इस साजिश में शामिल थी लेकिन उन्हें उसे पुलिस हिरासत से बाहर निकलवाना पड़ा. संतोष बताती हैं, ‘मामला पुलिस में जाने के बाद हमें पता चला कि चारों लड़के हमारी ही बिरादरी के हैं. पहले तीन महीने तो गांववालों ने साथ देते हुए कहा कि माफी को बाहर निकाल लो, बाकी लड़कों को अंदर ही रहने दो. सब कह रहे थे कि अब रागिनी इदान गांव की बहू है और माफी बनवास गांव की इज्जत. बहुत दबाव की वजह से हमें माफी के खिलाफ सारे आरोप वापस लेने पड़े. फिर यही चक्कर चारों लड़कों के लिए भी शुरू हो गया. बिरादरी के लोग दस दिन तक हमारे दरवाजे पर बैठे रहे. उन लड़कों के गांवों के बड़े-बूढ़े भी आ गए. रागिनी के सासरे वालों का भी दबाव था. वे कह रहे थे कि उनके लड़के की जान को खतरा है. लड़की की दूसरी शादी तो होती नहीं और ये लोग भी उसे ससुराल नहीं ले जाते. फिर हमें बयान बदलना ही पड़ा.’
रागिनी कहती है, ‘मेरे बस में कुछ नहीं था. ससुरालवालों को लगता था कि केस चला तो उनकी बदनामी होगी. फिर इनकी जान को भी खतरा था. सबने कहा कि अगर ससुराल में रहना है तो अदालत में बयान बदल दूं. अदालत को बता दूं कि मेरे साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ था, कि उन पांच दिनों में मैं अपने ससुराल में थी और अस्पताल की रिपोर्ट इसलिए ऐसी आई क्योंकि मैंने अपने पति के साथ संबंध बनाए थे. मैंने वही कह दिया. वहां बिरादरी के सारे लोग थे. मैं सच नहीं बोल सकती थी.’ 24 अप्रैल, 2013 को अत्तिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश मनीषा बत्रा ने झूठा बयान देने के आरोप में रागिनी को 10 दिन की कैद और 500 रु के जुर्माने की सजा सुना दी. रागिनी के मामले को बलात्कार पीड़ित महिलाओं पर पड़ने वाले सामाजिक दबाव और पुनर्वास नीतियों की नामौजूदगी का उदाहरण बताते हुए राष्ट्रीय जनवादी महिला समिति की उपाध्यक्ष जगमति सांगवान कहती हैं, ‘यह बलात्कार के सबसे वीभत्सतम मामलों में से है. न्यायपालिका भी लड़की पर पड़ रहे दबाव को महसूस नहीं कर पाई और उसी को सजा दी गई. और यह सब जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के लागू होने के बाद हो रहा है. साफ है कि नए कानून भी महिलाओं को न्याय दिलाने में असफल हो रहे हैं.’
इस बीच रागिनी की जिंदगी का नरक जारी है. पुलिस में शिकायत करने की बात करते ही वह कहती है, ‘सवाल ही पैदा नहीं होता. यहां सबको यही लगता है कि मैं ही दोषी हूं. सब कहते हैं कि मैं उन लड़कों को जानती थी और खुद उनके साथ मजे उड़ाने के लिए भाग गई थी. जरा सी कंघी कर लूं या गर्मी लगे और खाट आंगन में निकाल कर लेट जाऊं तो मेरा छोटा-सा देवर और जरा-सी ननद पूछते हैं कि अब किसको बुलाएगी, अभी तक दिल नहीं भरा. सब बदचलन और घटिया लड़की कहते हैं. मेरी सास कहती है कि मैं खराब हो गई हूं इसलिए मुझे अभी तक बच्चा नहीं हुआ. मेरा पति भी नहीं समझता. कहता है कि मैं अपनी मर्जी से ही भागी थी. मैं सांस नहीं ले पाती और आप पुलिस में शिकायत की बात कर रही हैं? इसमें मेरी क्या गलती थी? मेरी तो बहुत इच्छा है कि उन चारों को कड़ी से कड़ी सजा मिले. लेकिन मेरे चाहने से क्या होता है? मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है. सिर्फ चुप रहना है. इसलिए मैं चुप रहती हूं.’
……………………………………….
बांदा, उत्तर प्रदेश | दिसंबर 2010
‘बिरादरी नाराज है क्योंकि हमने अन्याय के खिलाफ कुछ ज्यादा ही जोर से आवाज उठा दी’
पहले तो सारी दुनिया ने पूछा, लेकिन अब परिवार तक साथ नहीं. फिर भी पिछले ढाई साल से नीलू एक स्थानीय विधायक के खिलाफ अकेले लड़ रही है
अपने काले ट्रैक सूट और बालों के कसे हुए जूड़े के साथ खेतों में घूमती नीलू निषाद के अपने व्यक्तित्व में भी उतना ही तीखा विरोधाभास है जितना खांटी बुंदेलखंडी इलाके में बनी उसकी एक कमरे की झोपड़ी और उसके पहनावे में. हम उत्तर प्रदेश में बांदा जिले के शाहबाजपुर गांव में हैं. नीलू से हमारा परिचय बुंदेलखंड के एक पिछड़े इलाके में रहने वाली निचली जाति की एक ऐसी लड़की के तौर पर होता है जो पिछले ढाई साल से राजनीतिक रूप से मजबूत, एक स्थानीय सवर्ण विधायक के खिलाफ एक खतरनाक कानूनी लड़ाई अकेले लड़ रही है. नीलू के मुताबिक बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के स्थानीय विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी ने उसके साथ दो बार बलात्कार किया, उसे भयानक शारीरिक प्रताड़ना दी गई और फिर द्विवेदी ने अपने गुर्गों की मदद से उसी पर चोरी का आरोप लगाकर उसे जेल भिजवा दिया. तब वह सिर्फ 17 साल की थी.
शारीरिक हिंसा के मामलों में पीड़ित की पहचान गोपनीय रखे जाने से संबंधित कई लिखित और अलिखित कानून मौजूद हैं. इसके बावजूद बांदा का नीलू कांड भारत में बलात्कार का एक ऐसा दुर्लभ मामला है जिसे पहचाना ही पीड़िता के नाम से जाता है. भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र में रहकर सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय विधायक के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई लड़ने की पूरी प्रक्रिया ने नीलू को भावनात्मक तौर पर एक मजबूत इंसान में तब्दील किया है. लेकिन थोड़ी-सी बातचीत के बाद जब उसकी हिचक खुलती है तो पता चलता है कि वह अपना यही नाम बदल कर कहीं दूर चले जाना चाहती है. एक सामान्य जीवन जीना चाहती है. नीलू कहती है, ‘मोहे कुछ नहीं करना इन पार्टी और राजनीति से. एक बार फैसला आ जाए फिर मैं कहीं दूर चली जाऊंगी. जहां कोई मेरा नाम ‘नीलू’ नहीं जानता हो. इतने सारे लोग मिट्टी-मजूरी करके जी रहे हैं शहरन में, मैं भी गारा-मिट्टी करके दो रोटी कमा लूंगी.’
यह कहते-कहते वह खामोश हो जाती है. और यहीं साफ दिखता है कि पत्थर की सी इच्छाशक्ति रखने वाली यह लड़की भावनात्मक रूप से कितना टूट चुकी है. नीलू से आगे बात करते हुए उसके विरोधाभासी व्यक्तित्व की परतें भी सामने आने लगती हैं जो एक लंबी सामाजिक और कानूनी लड़ाई से उपजी हैं.
बांदा की नरैनी तहसील में पड़ने वाले शाहबाजपुर गांव में पहुंचने पर नीलू का पता पूछिए तो स्थानीय लोग लगभग एक ही बात कहते हैं-जिस झोपड़ी के सामने पुलिस के पांच सिपाहियों और एक दरोगा का काफिला बैठा दिखाई दे जाए वही घर है. नीलू अपने एक कमरे के झोपड़े में अकेले रहती है. हमारे पहुंचने पर अपने फोन में बजते पुराने फिल्मी गाने बंद करते हुए वह कहती है, ‘मेरा सर बहुत दुखता रहता है. इसलिए केस से थोड़ी देर के लिए दिमाग हटाने के लिए गाने सुनती रहती हूं.’ बातचीत की शुरुआत में ही सबसे पहले अपनी उम्र स्पष्ट करते हुए वह कहती है, ‘आज मैं 18 साल और सात महीने की हूं. घटना के समय मेरी उम्र 17 साल और दो महीना थी. असल में, जब मैं बहुत छोटी थी, तभी मेरी मां गुजर गईं. पिताजी बसपा में पिछले 17 सालों से सक्रिय थे…वो स्थानीय पंचायत स्तर पर काम संभालते थे. द्विवेदी भी यहीं नरैनी से सांसद थे. एक बार दौरे पर आए थे और घर भी आए. मुझे देखते ही मेरे पिता से बोले कि अपनी लड़की से कहो जरा पानी तो पिलाए. मैं पानी लेकर गई तो पूछने लगा कौन क्लास में पढ़ती हो. मैंने कह दिया हमें नहीं पता है, पानी पी लो. तो हमारे पिता से जा के बोला कि तुम्हारी बेटी तो कितनी सुंदर है और कुछ बोलती नहीं है. इसे हमारे यहां भेज दो. वहीं पढ़ाएंगे, काम सिखाएंगे और ब्याह करवा देंगे. मेरे पिता मुझे उसके घर ले भी गए लेकिन मैंने जिद करके मना कर दिया कि मुझे नहीं रहना विधायक के घर. बस तभी से पीछे पड़ गया था ये मेरे.’
दरअसल गरीब पृष्ठभूमि की वजह से अपनी मां की मौत के बाद नीलू मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसे हमीरपुर कस्बे में अपनी नानी के गांव चली गई थी. लेकिन वहां भी गरीबी के कारण उसे कुछ ही दिनों में लच्छीपुर में रहने वाली अपनी मौसी के घर भेज दिया गया. सबसे पहले 2010 की सर्दियों में लच्छीपुर से उसका अपहरण किया गया. वह कहती है, ‘सोते हुए मेरे हाथ-पैर-मुंह बांधकर उठवा लिया था. रज्जू पटेल, रावण…सब विधायक के आदमी थे. वो लोग मुझे महुयी के जंगल में ले गए और वहां तीन दिन रखा. वो मुझे भूखा रखते और रात को नदी के ठंडे पानी में डुबो-डुबो कर पूछते कि मैंने विधायक को मना क्यों किया. पीछे मेरे पिता जी ने परेशान होकर पहले नरैनी कोतवाली में शिकायत की और बाद में अतर्रा थाने में. लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई. इधर विधायक ने अपनी चाल के अनुसार उन्हें भड़काया कि तुम्हारी लड़की को गुंडे उठा ले गए हैं, हम छुड़वा तो दें पर उसके बाद वो हमारी कोठी पर ही रहेगी. उसका ब्याह भी हम ही करवा देंगे, तुम चिंता मत करो. इस पर मेरे पिता तो विधायक के पैरों में गिर गए और कहा कि बस कैसे भी मेरी बेटी को बचा लो. फिर विधायक के आदमी मुझे उसके यहां ले आए. तब तक मैं बहुत बीमार हो चुकी थी. मेरे पिता के सामने ही विधायक बोला, अब रोना गाना नहीं. यहीं खाना बनाओ, काम करो. हम तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ़ कर तुम्हारी शादी करवा देंगे यहीं. तुम उसका भी काम करना और हमारा भी. तब हम लोग समझ ही नहीं पाए कि वो किस काम की बात कर रहा है.’
‘मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि साहेब मैं तुम्हारी मार खा लूंगी, कूड़ा खा लूंगी, मुझे माफ करो, मैं तुम्हारी लड़की हूं. लेकिन वो जानवरों की तरह मुझ पर टूट पड़ा’
आठ दिसंबर, 2010 को नीलू अतर्रा थाना क्षेत्र में आने वाले पथरा गांव से बरामद हुई और बसपा विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी के निवास पर एक घरेलू सहायक की तरह काम करने लगी. पिता अच्छेलाल निषाद के बसपा कार्यकर्ता होने की वजह से परिवार को पुरुषोत्तम पर पूरा विश्वास था. लेकिन नौ और 10 दिसंबर के बीच की रात नीलू के लिए एक और बुरा सपना बनकर आई. अपने साथ हुई हिंसा को याद करते हुए वह बताती है, ‘हम रात को काम करके सोए थे. वह अचानक आया और हमारी चद्दर हटाते हुए बोला कि हमने जो कहा था, कुछ समझी तुम? कहते हुए हमें कपड़े उतारने के लिए कहने लगा. मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि साहेब मैं तुम्हारी मार खा लूंगी, तुम्हारा कूड़ा खा लूंगी, मुझे माफ करो, मैं तुम्हारी लड़की हूं. मैं रोती रही और उसने ब्लेड से मेरे सारे कपड़े फाड़ दिए. फिर वो मुझे जानवरों की तरह चबाने और नोचने लगा. पूरे नाक-कान कट-छिल गए थे. शरीर सूज गया था. पूरे पैरों से खून बह रहा था. फिर मुझे मां की गाली देते हुए बोला कि चुप रहना, अगर किसी को बताया तो गोली मार दूंगा. मैं पूरा दिन चुप-चाप रोती रही और खून बहता रहा. फिर शाम को आया और वही किया. एक रात निकल गई. तीसरी शाम मैंने अपने पिता को फोन किया तो उन्होंने कहा वो सुबह मुझे लेने पहुंचगे. लेकिन रात को वह मुझ पर फिर टूट पड़ा और मैं किसी तरह पीछे के दरवाजे से भाग आई. सर्दी की रात में रास्ता भी दिखाई नहीं देता था. वहीं तुर्रा पुलिया के नीचे नीचे बने नाले में छिपी पड़ी रही रात भर. फिर सुबह विधायक अपने आदमी और पुलिस के साथ आया और मुझे ढूंढ लिया. मेरे मिलते ही उन्होंने पुलिस को वापस भेज दिया और उसके आदमी मुझे जानवरों की तरह पीटने लगे. लात-घूंसों के साथ-साथ रावण ने मेरे कपड़े फाड़ कर पेशाब के रास्ते में बंदूक की नाल डाल दी. मेरा पूरा शरीर खून से लथपथ हो गया और मैं बेहोश हो गई. फिर दोपहर 12 बजे विधायक मुझे पुलिस थाने ले गया. वहां पता चला मुझ पर चोरी का झूठा मुकदमा दर्ज किया है. शाम आठ बजे तक ये लोग मुझे जेल ले गए. विधायक ने मुझसे कहा कि मैं अदालत में कह दूं कि मैंने चोरी की है वर्ना वो मुझे गोली मार देगा. मैं चुप रही, लेकिन अदालत में मैंने जज को सब कुछ बताया. और फिर मीडिया को भी मालूम चल गया.’
नीलू बलात्कार कांड के सुर्खियां बटोरने के साथ ही मामले ने सियासी रंग लेना शुरू कर दिया. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के राज्य स्तरीय नेताओं के वक्तव्यों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पहले तो पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी को पार्टी से निष्कासित किया और फिर लगभग एक महीने बाद नीलू की रिहाई के आदेश भी जारी कर दिए. साथ ही पड़ताल के लिए मामला राज्य की क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया. जांच के बाद पुरुषोत्तम नरेश, रावण, वीरेंदर गर्ग, सुरेश मेहता उर्फ रघुवंशी द्विवेदी और राजेंद्र शुक्ला सहित पांचों आरोपितों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किये गए. इसी बीच सन 2012 में हरीश साल्वे की जनहित याचिका के आधार पर जांच के लिए यह मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई को सौंप दिया गया. सीबीआई ने अपने नए आरोप-पत्र में पुरानी धाराओं के साथ-साथ द्विवेदी पर धारा 376 के तहत बलात्कार का आरोप भी तय किया. तीन बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत की अर्जी खारिज किए जाने के बाद द्विवेदी और रावण अब लखनऊ जेल में बंद हैं. मामले की सुनवाई लखनऊ स्थित सीबीआई की विशेष अदालत में चल रही है.
इस बीच नीलू से मिलने राहुल गांधी से लेकर जया प्रदा, स्मृति ईरानी, रीता जोशी बहुगुणा और विवेक सिंह जैसे भाजपा, सपा और कांग्रेस के कई बड़े नेता पहुंचे. कई पार्टियों ने उसे आर्थिक मदद भी दी. लेकिन इस पूरी लड़ाई के दौरान नीलू ने बहुत कुछ खोया भी. हादसे की शुरुआत में उसके साथ खड़े उसके परिवार के लोग अब उससे बात तक नहीं करना चाहते. अपने साथ हुए न्याय के बारे में पूछने पर वह रोआंसी होकर कहती है, ‘बस फैसले का इंतजार है दीदी. फिर हम चले जाएंगे यहां से कहीं. हमारे पिता, भाई, रिश्तेदार, गांव-वाले…कोई हमसे नहीं बोलता. सबने हमारा साथ छोड़ दिया है. सबको बुरा लगता है कि हमारी झोपड़ी के सामने पुलिस वाले रहते हैं, हमसे मिलने नेता और पत्रकार आते हैं. सबको लगता है कि हमने अपने अन्याय के खिलाफ कुछ ज्यादा ही जोर से आवाज उठा दी. लेकिन जो हमारे साथ हुआ, उसके बाद धीरे से कैसे आवाज उठाई जाती है, हमें नहीं पता. हमारा बस चलता तो ऐसा करने वालों को पटक के मारते. और हमने न्याय के लिए कितना कुछ सहा है. पचास बार बयान मांगा, पचासों बार दिया. अब गांववाले और हमारी बिरादरी के लोग इस बात से नाराज हैं कि हमने अपने लिए इतनी लड़ाई ही क्यों लड़ी. लेकिन हम अपने साथ हुए को कैसे माफ कर दें? अभी भी हमारा पूरा शरीर दर्द करता है. जेल में 20 दिन खून बहता रहा था और 15 दिन भूखी रही थी. इलाज भी नहीं करवाया था. पेशाब के रास्ते में आज भी टांकों के निशान हैं. पूरा शरीर फाड़ दिया था हमारा. कैसे भूल जाएं हम? अब हम अकेले हैं तो अकेले ही सही, लेकिन आखिर तक लड़ेंगे.’
……………………………………
सिवनी, मध्य प्रदेश | जुलाई 2004
‘ये चपरासिन की नौकरी रोज मुझे याद दिलाती है कि मेरा बलात्कार हुआ था’
गांव का प्रभावशाली समुदाय उनके परिवार को सबक सिखाना चाहता था. यह मकसद परिवार की महिलाओं के साथ बलात्कार करके पूरा किया गया. भोमाटोला कांड के नाम से मशहूर इस कांड की तीन पीड़ित एक दशक बाद आज भी जिंदा लाश की तरह दिन काट रही हैं
दिल्ली से लगभग 900 किलोमीटर दूर, हम मध्य प्रदेश में सिवनी जिले के निरझर गांव में हैं. गांव के पिछले हिस्से में बसी दलित बस्ती में रहने वाले गोवर्धन कोसरे बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे हैं. कोसरे के पांच कमरों के पक्के मकान में पहुंचते ही हमें घर के सबसे आखिर में बने एक छोटे से कमरे में भेज दिया जाता है. हम यहां 50 वर्षीया राधा बाई कोसरे, 50 वर्षीया कौशल्या बाई कोसरे और 30 वर्षीया माया बाई कोसरे से मिलने आए हैं.
लेकिन कोसरे परिवार हमेशा से निरझर गांव में नहीं रहता था. उनका मूल निवास भोम नामक स्थानीय कस्बे के पास बसे भोमाटोला गांव में था. लेकिन करीब नौ साल पहले भोमटोला के गोवली परिवारों के लगभग 150 पुरुषों ने अचानक एक रात मिलकर कोसरे परिवार पर हमला बोल दिया. आठ जुलाई, 2004 की उस रात घर में सिर्फ कोसरे परिवार की स्त्रियां मौजूद थीं. 40 वर्षीया राधा बाई कोसरे, उनकी जेठानी कौशल्या बाई कोसरे और तब सिर्फ 20 साल की माया बाई कोसरे. 150 लोगों ने पहले कोसरे परिवार के घर का दरवाजा तोड़ा, उसके बाद इन महिलाओं को घसीटकर बाहर निकाला गया और फिर कुल 16 लोगों ने इन तीन महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया.
गोवली मूलतः दूध, दही और जमीन का काम करने वाली यादव जाति में आते हैं. उस समय भोमाटोला गांव में 125 परिवार गोवलियों के थे तो 12 दलितों के. इस भयावह कांड की पृष्ठभूमि में एक घटना थी. दरअसल चार जुलाई, 2004 को संतोषी चंद्रवंशी नामक एक नाबालिग लड़की गुमशुदा हो गई. वह गोवली समुदाय की थी. कुछ ही देर में गोवलियों को यह मालूम चला कि गोवर्धन कोसरे का भतीजा नितेश कोसरे भी गायब है. संतोषी और नितेश एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे और संतोषी कई बार कोसरे परिवार के घर भी आ जाया करती थी. देखते ही देखते पूरे गांव में यह बात फैल गई कि दलितों का लड़का नितेश कोसरे गोवलियों की लड़की संतोषी चंद्रवंशी को लेकर भाग गया. गोवली समुदाय ने इसे अपनी इज्जत के खिलाफ मानकर कोसरे परिवार को सबक सिखाने की ठानी. गोवर्धन कोसरे कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने एक योजना के तहत कोसरे परिवार की तीन महिलाओं का सामूहिक बलात्कार करके अपना तथाकथित बदला पूरा किया. इस घटना के बाद भोमाटोला गांव में लगातार बढ़ रही जातीय रंजिश के मद्देनजर कोसरे परिवार की सुरक्षा की दृष्टि से उसे नरझर गांव में पुनर्वासित किया गया.
घर के पिछवाड़े बने इस कमरे में राधा बाई, कौशल्या बाई और उनकी बहू माया बाई खामोश बैठी हैं. बातचीत के शुरुआती एक घंटे के दौरान ये महिलाएं लगभग खामोश रहती हैं और सिर्फ इतना कहती हैं कि अब वे इस हादसे को भूल जाना चाहती हैं और इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहतीं. लेकिन यह समझाने पर कि उनकी कहानी भारत में जातीय हिंसा के लिए स्त्रियों के इस्तेमाल के खिलाफ एक मजबूत उदाहरण पेश करती है, वे धीरे-धीरे हमसे बातचीत करना शुरू करती हैं. अपने गांव को याद करते हुए राधा बाई कहती हैं, ‘हमारा परिवार आम दलित परिवारों की तरह नहीं था. हमारी अपनी खेती-बाड़ी थी. हमारे खेतों में सीधे नहर का पानी आता था और हमारे घर में ताजे पानी के कुएं भी थे. हमारे घर की औरतें या आदमी गोवलियों की जमीनों पर खेती और मजदूरी करने नहीं जाते थे. मेरे पति ग्राम पंचायत में कोटवार (सचिव) के पद पर काम करते थे. हम अपने घर के बच्चों को कंप्यूटर पढ़ने भेजना चाहते थे. मुझे लगता है यही बातें गांव के गोवलियों को खटकती थीं. वे कभी नहीं चाहते थे कि हमारे पास अपने कुएं हों, हम अपनी जमीनों पर खेती करें और उनकी गुलामी करना छोड़ दें. गोवली कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके टुकड़ों पर पलने वाले हम दलित अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचें या यह कि हमारे परिवार से कोई पंचायत में सचिव बन जाए. उनकी लड़की तो हमेशा हमारे यहां आती-जाती थी. दोनों बच्चों के गायब होने के बाद हमारे आदमियों ने कितना कहा था कि वे लोग बच्चों को ढूंढ़ने में जुटे हैं. हमारे पारिवार के सभी मर्द उस रात भी इनकी लड़की को ही ढूंढ़ने नागपुर तरफ गए हुए थे. लेकिन ये लोग सुनने को तैयार ही नहीं थे. असल में बात लड़की की तो थी ही नहीं .गांव के सभी गोवली हमेशा से ही हमसे चिढ़ते थे. हमें साफ-साफ महसूस होता था यह.’
‘हम आज तक इस ख्याल से उबर नहीं पाए हैं कि हमारा सामूहिक बलात्कार हुआ था. और यह भी कि पूरे गांव ने हमें फटे कपड़ों में धूल-मिट्टी में घिसटते हुए देखा था’
वे आगे कहती हैं, ‘फिर जैसे ही उनकी लड़की और हमारा लड़का लापता हुए, उन्हें वह मौका मिल गया जिसकी तलाश में वे थे. यह लड़की-लड़के के भाग जाने से ज्यादा गोवलियों के गांव में रह रहे एक सबल और खुशहाल दलित परिवार को सबक सिखा कर अपनी ‘सही’ जगह दिखाने का मामला था.’
बातचीत के दौरान तीनों महिलाएं धीरे-धीरे सिसकने लगती हैं. अपनी मटमैली साड़ी से अपनी आंखों के कोर पोंछते हुए कोसरे परिवार की बहू माया जोड़ती हैं, ‘मेरी शादी को तब सिर्फ दो महीने ही हुए थे. आठ जुलाई की रात हम तीनों घर में बेचैनी से आदमियों के आने का इंतजार कर रहे थे. गोवलियों ने हमारे परिवार को धमकी दी थी कि अगर हमने आठ तारीख तक उन्हें उनकी लड़की वापस नहीं की तो वे हमें बर्बाद कर देंगे. उस दिन, शाम से ही गांव में यह बात फैली हुई थी कि कुछ होने वाला है. लेकिन जो हुआ, उसका हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था.’ माया गोवलियों के हाथों सामूहिक बलात्कार का शिकार होने वाली कोसरे परिवार की सबसे कम उम्र की महिला थीं. राधा के साथ पांच लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया तो कौशल्या के साथ दो ने. माया के साथ नौ लोगों ने बलात्कार किया था. उस रात का घटनाक्रम याद करते हुए माया जोड़ती हैं, ‘रात के करीब 11 बजे के आस-पास अचानक दरवाजे पर भड़-भड़ की आवाज हुई. लगातार दरवाजा पीटा जा रहा था. हम घबरा गए. थोड़ी ही देर में दरवाजा अपने आप टूट गया. उन लोगों ने पहले इन्हें (राधा बाई की ओर इशारा करते हुए) उठाया और घसीटते हुए बाहर ले गए. फिर मुझे और कौशल्या ताई को भी घसीटते हुए खींच लिया गया. उसके बाद बहुत सारे आदमी सबके सामने हम तीनों को गांव की सड़कों पर घसीटने लगे. हम लोग रोते, चिल्लाते और चीखते रहे लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी. पूरे कपड़े फाड़ दिए गए थे. हमें गांव के रास्तों पर सबके सामने घसीट रहे थे और हमें पीटते हुए गंदी-गंदी गालियां दे रहे थे. फिर मेरी सासों को अलग-अलग कोनों में ले गए और मुझे गांव के दूसरे छोर पर बने एक अलग कोने में. और फिर सबने बारी-बारी से मिलकर हमारे साथ गलत काम किया.’
आज भोमाटोला सामूहिक जातीय बलात्कार कांड को लगभग नौ साल हो चुके हैं लेकिन इन तीनों के मन के जख्म अब भी बिल्कुल ताजा हैं. अपना छूटा हुआ गांव याद करते हुए कौशल्या बाई कहती हैं, ‘अब तो हम सब जैसे-तैसेे जिंदा हैं. भले ही उस बात को इतने साल हो गए हों, लेकिन हम आज तक इस ख्याल से उबर नहीं पाए हैं कि हमारा सामूहिक बलात्कार हुआ था. और यह भी कि पूरे गांव ने हमें फटे कपड़ों में धूल-मिट्टी में घिसटते हुए देखा था. हम कभी भूल नहीं पाते उस रात को. बस जिंदा लाशों की तरह जिए जा रहे हैं.’
भोमाटोला बलात्कार कांड में 12 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई जा चुकी है. लेकिन दोषियों को सजा होने से भी कोसरे परिवार की तकलीफें ख़त्म नहीं हुई हैं. जाति आधारित सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई तीनों महिलाओं की वर्तमान स्थिति का हवाला देते हुए गोवर्धन कोसरे राज्य और केंद्रीय सरकारों के उदासीन रवैये का जिक्र करते हैं. अधूरे वादों की लंबी फेहरिस्त के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘हमें हमारे घर से उजाड़ कर यहां नरझर गांव के बिल्कुल बाहर जमीन दी गई थी. गांव के बाहर हम कैसे रहते? इसलिए हमें अपना पैसा लगाकर यहां दलित बस्ती में घर बनाना पड़ा. हमारी खेती-बाड़ी, नहर और कुएं सब चले गए. और बदले में हमें जो जमीन दी गई है वह बंजर है . मुआवजे के जिन पैसों का सरकार ने वादा किया था, वे भी नहीं मिले. हमने कहा था कि हमें सुरक्षा के लिए बंदूकें दी जाएं लेकिन मिले सिर्फ लाइसेंस. हमारी तीनों महिलाओं को नौकरी का वादा किया था, लेकिन सिर्फ बहू माया को पास के स्कूल में चपरासी बनाया गया.’ वे आगे कहते हैं, ‘अब मुझे लगता है कि मीडिया की वजह से कांड के समय तो सभी ने बड़े बड़े वादे कर दिए थे लेकिन असल में हमारी सरकार और प्रशासन बलात्कार पीड़ित महिलाओं को लेकर बिल्कुल संवेदनशील नहीं है. और खासकर अगर मामला दलित पीड़ितों का हो तो पुलिस और प्रशासन का बहरापन और भी ज्यादा बढ़ जाता है.’
बातचीत के दौरान ही माया स्कूल में जारी अपनी नौकरी पर जाने के लिए तैयार होने लगती हैं. निकलते-निकलते सिर्फ वे कहती हैं, ‘स्कूल में सबको पता है कि मुझे चपरासिन की यह नौकरी क्यों मिली है. यहां कोई आदमी मेरे जैसी औरत को स्वीकार नहीं करता लेकिन शुक्र है कि मेरे पति ने मुझे अपने घर में रहने दिया. और यह नौकरी? इस नौकरी पर जाना अपने आप में एक युद्ध है, लेकिन परिवार का पेट पालने के लिए जाना ही पड़ता है. लेकिन इससे बदला कुछ नहीं है, उल्टा नौकरी पर जाने से हमेशा मुझे यह बात याद आती रहती है कि मुझे यह नौकरी इसलिए मिली है क्योंकि मेरा बलात्कार हुआ था.’
……………………………………
लखनऊ, उत्तर प्रदेश | मई 2005
‘हम पढ़ाई करके जज बनना चाहते हैं. फिर हम ऐसी लड़कियों का फैसला जल्दी किया करेंगे’
न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा के बावजूद जाहिरा ने खुद को सामान्य बनाए रखने की भरसक कोशिश की है. उसके मामले का मुख्य आरोपी आज भी आजाद है
हरे रंग का सलवार कुर्ता पहने, सलीके से गूंथी गई चोटी और पुरानी पॉलिथीन में लिपटी किताबें संभालती जाहिरा हमें लखनऊ विधानसभा के सामने एक व्यस्त चौराहे पर हमसे मिलती है. उसके चेहरे पर उत्साह से लबरेज मुस्कान है. उसमें आठ साल पहले की उस भयानक शाम का कोई निशान नहीं दिखता जब अचानक कार में सवार चार लड़के शहर की एक पॉश कॉलोनी की सुनसान राह से उसे उठाकर ले गए थे. जब उसे कार में घसीट कर धकेला जा रहा था तब किसी को भी अंदाजा नहीं था कि यह स्वतंत्र भारत में सामूहिक बलात्कार की सबसे भीषण घटनाओं में से एक की पृष्ठभूमि है. जाहिरा उस वक्त महज 13 साल की थी जब उसके बदन को दरिंदों ने न केवल सिगरेट से दागा था बल्कि बंदूक की नाल से भी भयानक जख्म दिए थे.
खैर, हम वर्तमान में लौटते हैं. यह देखकर सुकून मिलता है कि जाहिरा के समूचे बाहरी व्यक्तित्व में आठ साल पुराने उस हादसे का कोई निशान बाकी नहीं है. उसमें न्याय की उम्मीद दिखती है. हालांकि न्याय उसकी कड़ी परीक्षा ले रहा है.
लखनऊ की इस उमस भरी दोपहर में हमें अपने घर ले जाने के लिए जब वह खुरदुरी आवाज और ठेठ यूपी वाले लहजे में चौराहे पर मौजूद रिक्शा चालकों से मोल-भाव करती है तब इस बात का रत्ती भर भी आभास नहीं होता कि वह रोजगार के लिए दशकों पहले असम से पलायन करके आए एक ऐसे गरीब परिवार से आती है जिसके ज्यादातर सदस्य आज भी ठीक से हिंदी नहीं बोल पाते. विधानसभा चौराहे से जाहिरा का घर लगभग 30 मिनट की दूरी पर है. इस बीच वह ज्यादातर खामोश रहती है. और फिर शून्य में ताकते हुए सिर्फ यही कहती है, ‘हम आगे पढ़ाई करके जज बनना चाहते हैं. फिर हम ऐसी लड़कियों का फैसला जल्दी किया करेंगे. क्योंकि हम अक्सर सोचते हैं कि इतने साल हो गए, हमें अभी तक न्याय क्यों नहीं मिला?’ भर्राई आवाज को संभालते हुए जाहिरा आंखों के कोर से बहते आंसू पोंछती है और फिर खामोश बैठी रहती है. किसी पीड़ित की तरह वह न चीखती है और न सुबकियों के बीच तुरंत हमें अपनी आपबीती बताना शुरू करती है. हालांकि सामूहिक बलात्कार के बाद शुरू हुई पुलिसिया, अदालती, आर्थिक, सामाजिक और आत्मिक लड़ाई की क्रूरता ने उसे हमेशा के लिए स्तब्ध कर दिया है. 13 साल की उम्र में छह दरिंदों की वहशत के बाद राजनीतिक रूप से सबल अपराधियों के खिलाफ जारी इस लंबी कानूनी लड़ाई ने उसे काफी मजबूत बना दिया है.
लगभग दो घंटे की कोशिशों और सामान्य बातचीत के बाद जाहिरा कुछ-कुछ सहज होने लगती है. हम उसके माता-पिता के साथ उसके घर की बैठक में हैं और मुख्य दरवाजे के सामने लगे तंबू में तीन सुरक्षा पुलिसकर्मी सुस्ता रहे हैं.
जाहिरा के पिता पेशे से कबाड़ी हैं. परिवार का हाथ बंटाने के लिए जाहिरा भी शहर की आशियाना कालोनी के कुछ घरों में घरेलू सहायक की तरह काम करती थी. दो मई, 2005 की शाम भी वह रोज की तरह अपना काम खत्म करके घर जा रही थी. उसके साथ पांच साल का उसका छोटा भाई भी था. भाई-बहन कालोनी की मुख्य सड़क पर पहुंचे ही कि एक सेंट्रो कार में सवार चार लड़के आए और जाहिरा को जबरन गाड़ी में खींच लिया.
उस शाम को याद करते हुए जाहिरा बताती है, ‘इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते शीशे बंद करके चढ़ा दिए गए थे और गाड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी. शुरू में वो सिर्फ चार थे. फिर निशातगंज से दो लड़के और आ गए. अब वो कुल छह थे. उन्होंने मेरे सारे कपड़े फाड़ दिए थे. जोर-जोर से चिल्लाते हुए मुझे मां-बहन की गालियां दे रहे थे और हंस रहे थे. फिर उन्होंने मोबाइल फोन पर गंदी फिल्में देखना शुरू किया. मुझे भी दिखाते, फिर गालियां देते, मुझे मारते और सिगरेट से दागते. गाड़ी में मुझे पीछे की सीट के नीचे मौजूद फर्श जैसी जगह पर पटक दिया गया था. सब तेज आवाज में चिल्ला रहे थे. वे एक-एक करके मुझे नोचते. मैं जितना रोती, जितना गिड़गिड़ाती, जितनी विनती करती… वो मुझे उतना ही मारते. थप्पड़, घूंसे, लातों से. फिर सिगरेट से जलाते. बाल नोचते. फिर उन्होंने मेरे नाखून उखाड़े और मुझे पीटते हुए मेरा बलात्कार करने लगे. उनके पास बंदूक भी थी. गौरव शुक्ला और उसके साथी बंदूक की नाल से मुझे मारने लगे. फिर उन्होंने बंदूक की नाल पेशाब के रास्ते में धकेल दी और उसी हिस्से को सिगरेट से जलाने लगे. मेरे जिस्म से लगातार खून बह रहा था और मैं लगभग बेहोश जैसी हो गई थी. फिर मुझे याद है, एक फार्म हाउस जैसी जगह पर गाड़ी रुकी और वो मुझे बिना कपड़ों के ही गाड़ी से घसीटते हुए एक कमरे में लाए. वहां एक तख्त था और एक पीला बल्ब जल रहा था. मुझे उस तख्त पर पटक दिया गया और फिर सबने मुझे नोचा. शरीर के हर हिस्से को खोद-खोद कर चबा रहे थे. मारना-पीटना, गालियां, सिगरेटें… सब जारी था. फिर गौरव शुक्ला ने किसी से फोन पर बात की. मैंने सुना वो कह रहा था कि लड़की ले आए हो तो काम के बाद मार के फेंक दो. मुझे लगा अब मुझे मार डाला जाएगा. लेकिन फिर उन्होंने मुझे सड़क किनारे मरने के लिए छोड़ दिया.’
‘मुझे उस तख्त पर पटक दिया गया और फिर सबने मुझे नोचा. शरीर के हर हिस्से को खोद-खोद कर चबा रहे थे. मारना-पीटना, गालियां, सिगरेटें… सब जारी था’
आशियाना गैंग रेप कांड के नाम से पहचाने जाने वाले इस मामले में गौरव शुक्ला, फैजान, आसिफ सिद्दीकी, भारतेंदु मिश्रा, सौरभ जैन और अमन बख्शी नामक कुल छह लोगों की गिरफ्तारी हुई. एक तरफ जहां अदालत ने फैजान को उम्र कैद की सजा सुनाई वहीं भारतेंदु मिश्रा और अमन बख्शी को निचली अदालतों से दस-दस साल की कैद हुई है. आसिफ सिद्दीकी और सौरभ जैन की आयु 18 वर्ष से कम होने की वजह से अदालत ने उन्हें किशोर घोषित कर दिया. लेकिन इस मामले में अपराधी घोषित होने के तुरंत बाद दोनों की ही अलग-अलग सड़क हादसों में मौत हो गई. फैजान, भारतेंदु और अमन बख्शी फिलहाल जेल में हैं और निचली अदालत के फैसले के खिलाफ ऊंची अदालतों में अपील दायर कर चुके हैं. लेकिन आशियाना बलात्कार कांड का मुख्य आरोपित गौरव शुक्ला आज भी आजाद घूम रहा है. गौरव समाजवादी पार्टी (सपा) के नेता और 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए उन्नाव सीट से पार्टी के उम्मीदवार अरुण शंकर शुक्ला का रिश्तेदार है. आपराधिक छवि वाले बाहुबली से नेता बने अरुण शंकर शुक्ला सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के खास लोगों में शामिल हैं.
पिछले आठ साल से जाहिरा और उसके परिवार के साथ इस कानूनी लड़ाई में चट्टान की तरह खड़ी राष्ट्रीय जनवादी महिला संगठन की उत्तर प्रदेश प्रमुख मधु गर्ग कहती हैं, ‘यह सीधे-सीधे एक आम गरीब लड़की की उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माफियाओं के खिलाफ जारी एक लड़ाई है. वे लोग पैसे और ताकत के बल पर पिछले आठ सालों से मामले को खींच रहे हैं. पहले इन्होंने मुख्य आरोपी गौरव शुक्ला को किशोर साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. स्कूलों में रिकॉर्ड बदलवाए, छाया पब्लिक स्कूल का फर्जी सर्टिफिकेट बनवाया और यहां तक कि लखनऊ नगर निगम से जन्म प्रमाण पत्र तक गायब करवाने का प्रयास किया. फिर इनके वकीलों ने गौरव को एक झूठे मुकदमे में किशोर घोषित करवाकर उसी निर्णय के तहत इस केस में भी उसे रिहा कराने की कोशिश की.’
वे आगे जोड़ती हैं, ‘जाहिरा के परिवार पर लाखों-करोड़ों रुपयों से लेकर धमकियों तक हर तरह से दबाव बनाने की कोशिशें तो कब से चल रही हैं. हर बार ये लोग अदालत के हर निर्णय के खिलाफ हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट चले जाते हैं. पिछले आठ साल से गौरव के किशोर होने न होने पर ही लड़ाई चल रही है. उनका वकील 30-30 साल तक मामले लटकाने के लिए बदनाम है. वह अदालत में जाहिरा के पिता से खुले आम कहता है कि कब तक लड़ोगे. जाहिरा 26 बार आमने-सामने की पूछताछ के लिए गई है और पूछताछ हुई सिर्फ पांच बार. इस मामले से साफ होता है कि यहां आम बलात्कार पीड़ित के लिए न्याय पाना कितना कठिन है. वह तो जाहिरा और उसके पिता को सलाम करना चाहिए कि हजार तूफानों के बाद भी वे पिछले आठ सालों से डटे हैं. इस मामले में मीडिया और सिविल सोसाइटी का लगातार इतना दबाव रहा है, फिर भी न्याय मिलने में इतना वक्त लग रहा है. तो फिर उन सैकड़ों अनजान लड़कियों का क्या होता होगा जिनके साथ हुई हिंसा कभी सामने नहीं आ पाती है?’
हम गुलाबी रंग के कवर पेपर में लिपटी उसकी कापियों में पर्यावरण और गांधी से संबंधित लेख पढ़ते हैं. अपराधियों की सजा के बारे में पूछने पर जाहिरा खामोश रहती है. इसी बीच उसके पिता सबरूद्दीन अपनी टूटी हिंदी में कहते हैं, ‘देखिए, औरत के शरीर में पेशाब और मल के दो अलग रास्ते होते हैं. अगर कोई आपकी 13 साल की बेटी के शरीर में बंदूक की नोक घुसाकर उसे ऐसे फाड़ डाले कि वे रास्ते एक हो जाएं, उस पूरे हिस्से को सिगरेट से दाग दिया जाए तो आप क्या न्याय चाहेंगी? बताइए? अगर एक रात आपकी बेटी घर लौटे और उसका पूरा शरीर सिगरेट से जला हुआ हो, ब्लेड से कटा हुआ हो, नाखून उखड़े हुए हों और पूरे शरीर से खून बह रहा हो, तब आप क्या न्याय चाहेंगी? कोई भी न्याय कभी हमारे दुख को कम नहीं कर सकता. हम लोग हर रोज मरते हैं और गौरव शुक्ला आजाद है, शादीशुदा है. वो लोग चाहे मेरा घर सोने-चांदी से भर दें या मुझे गोली मार दें, मैं पीछे नहीं हटूंगा. अपना सब कुछ बेच दूंगा लेकिन आखिर तक लड़ूंगा.’