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सालों से हम इस बहस में उलझे थे कि क्या जेएनयू की दुनिया नॉर्थ गेट पर जाकर वाकई खत्म हो जाती है? इसका जवाब ‘हां’ भी था और ‘ना’ भी. तमाम बहस-मुबाहिसे जेएनयू की चौहद्दी पर पहुंचते ही दम तोड़ देते थे. हालांकि ‘राष्ट्रवाद’ और ‘राष्ट्रद्रोह’ के मुद्दे पर जेएनयू और सारा भारत एक साथ बहस में उलझ जाएगा. आज जेएनयू और सारा देश एक साथ सोच रहा है और उम्मीद हैं कुछ समय बाद एक जैसा सोचने लगेगा.
किसने सोचा था कि जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार का भाषण यू-ट्यूब पर लाखों लोग सुनेंगे. 30 लाख से ज्यादा लोग सोशल मीडिया पर शेयर करेंगे. वो ट्विटर से लेकर फेसबुक तक वर्ल्डवाइड ट्रेंड कर जाएगा. इतनी लोकप्रियता कि कन्हैया अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीद्वार डोनॉल्ड ट्रम्प को पीछे छोड़कर नंबर एक ट्रेंड हो जाएगा. यह तो विश्वास से परे था कि जब कन्हैया जेल से बाहर आकर जेएनयू में छात्रों को संबोधित करेगा तो तकरीबन दर्जन भर न्यूज चैनल उसके पूरे भाषण का एक घंटे तक सीधा प्रसारण करेंगे. शुरुआती दिनों में संघ के दुष्प्रचार से पैदा हुआ जेएनयू-विरोधी उन्माद शांत होने के बाद लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि भाई ऐसी ‘आजादी’ मांगने में देशद्रोह क्या है? हम सबने चैन की सांस ली कि चलो कन्हैया का ये वाक्य लोगों के जेहन में उतर गया कि ‘देश से नहीं मेरे भाई देश में आजादी चाहिए.’
गंगा ढाबा से लेकर साबरमती ढाबे तक चाय की चुस्कियों में समूचे ब्रह्मांड को मथ देने का बहसबाज हौसला आज औचक खड़ा है. उसे पता नहीं था कि उसकी दुनिया का इतना तीव्र विस्तार होने वाला है. जिन लोगों ने जेएनयू को सबक सिखाने की योजना बनाई थी, जेएनयू उनके अनुमान से कहीं ज्यादा बिगड़ा निकला. छद्म राष्ट्रवाद के घोड़े पर सवार संघ परिवार अभी फिलहाल उन्माद में चल रहा है. लेकिन उसे पता होना चाहिए कि उन्माद जितनी तेजी से चढ़ता है, उतर भी जाता है. जेएनयू ने जितने सवाल मोदी सरकार और संघ परिवार के खिलाफ हवा में उछाल दिए हैं, कुछ समय बाद यही सवाल जब जनता पूछने लगेगी तो सारा भारत जेएनयू हो जाएगा.
जेएनयू में एक जुमला बहुत लोकप्रिय है- ‘जो जेएनयू आज सोचता है, देश कल सोचता है.’ जेएनयू में अपनी बौद्धिकता को लेकर यह गुमान बहुत पुराना है. आखिरकार बौद्धिक होना जोखिम का काम है. आप उस चश्मे से दुनिया नहीं देख सकते जिससे आम इंसान देखता है. आपको लोगों के लिए न सिर्फ समस्याओं को बारीकी से समझना है बल्कि उनका समाधान भी सुझाना है. इस मामले में जेएनयू के छात्र-छात्राएं अपनी दुनिया-जहान को और बेहतर बनाने की राह तलाशते रहते हैं. इस लिहाज से वो बौद्धिक राजनीतिज्ञ हैं.
ऐसा नहीं है कि इससे पहले जेएनयू ने देश को राजनेता नहीं दिए, लेकिन राजनीति हरगिज नहीं दी. जेएनयू हर कहीं-हर किसी के संघर्ष में बिन बुलाए साथ खड़ा रहा. जब निर्भया बलात्कार कांड हुआ, ये जेएनयू के छात्र-छात्राएं थे जिन्होंने सबसे पहले जाकर वसंत कुंज थाने का घेराव किया. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या की खबर आते ही जेएनयू अपने आप उद्वेलित हो गया. सोनी सोरी से लेकर इरोम शर्मिला तक जेएनयू के लिए रोज-रोज लड़े जाने वाले संघर्ष हैं.
यहां तो हर विश्वविद्यालय जेएनयू जैसा होना चाहिए. उसकी बौद्धिकता की धाक पूरी दुनिया में मानी जाती रही. जेएनयू ने अंतरराष्ट्रीय विमर्शों में खालिस भारतीय दृष्टिकोण से अपना पक्ष रखा. जेएनयू विभिन्न मत रखने वालों और कभी-कभी धुर विरोधी सोच रखने वाले तमाम लोगों का समुच्चय है. यहां तर्क दिए जाते हैं और उन तर्कों के खिलाफ भी तर्क रखे जाते हैं. हम जेएनयू वाले शायद तर्क और संशय की प्राचीन भारतीय परंपरा के सबसे बड़े वारिस हैं. जेएनयू में कथित तौर पर देशविरोधी नारे लगाने वाले कौन हैं? शायद इस बात का जवाब सिर्फ भारत का गृह मंत्रालय ही दे सकता है; अगर देना चाहे तो. एक बात तय है कि वे लोग जेएनयू के नहीं थे. तो फिर कौन थे? यह पता लगाना सिर्फ पुलिस के बूते की बात है. हम लोग बल्कि कहें जेएनयू में ज्यादातर लोग चाहते हैं कि सरकार उनको गिरफ्तार करे.
इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि जेएनयू में मुट्ठी भर ऐसे लोग भी हैं जो कि तमाम मसलों पर काफी अलग सोच रखते हैं. मसलन एक-डेढ़ दर्जन लोगों के एक समूह का मानना है कि कश्मीर को आजाद हो जाना चाहिए. यही लोग अफजल गुरु की फांसी पर सवाल खड़े करते हुए उसे शहीद का दर्जा भी देते हैं. सवाल उठता है कि ऐसे लोगों के साथ क्या सलूक होना चाहिए? खालिस भारतीय राष्ट्र की परंपरा की बात करें तो आजादी की लड़ाई से निकला राष्ट्रवाद बड़े दिल का राष्ट्रवाद है. आजादी के कुछ ही सालों के भीतर तमिलनाडु ने अलग राष्ट्र की मांग कर दी थी. जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री सरीखे प्रधानमंत्रियों ने अलगाव की मांग करने वाले नेताओं पर कोई राजद्रोह नहीं लगाया बल्कि उनके साथ हरसंभव तरीके से बातचीत की कोशिश की. कुछ ही सालों में उनके सबसे बड़े नेता सीएन अन्नादुरई ने 1967 में भारतीय संविधान के तहत तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. आज कोई कह सकता है कि ये वो ही तमिलनाडु है जो कभी अलग होने के नारे लगा रहा था.
अफजल गुरु और कश्मीर की आज़ादी के नारे लगाने वाले भले ही भटके हुए लोग हैं, लेकिन वो हमारे लोग हैं यानी उस भारतीय राष्ट्र का हिस्सा हैं जिस पर हमें नाज है. अगर हम उन राज्यों के लोगों के साथ दुश्मन जैसा बर्ताव करने लगे तो इसका मतलब कि हमें अपने राष्ट्र की ताकत पर खुद ही यकीन नहीं है. दरअसल जेएनयू पर हमला इसलिए नहीं है कि यहां के कुछ छात्र और शिक्षक ‘देशभक्त’ नहीं हैं बल्कि इसलिए है कि जेएनयू के अधिकांश छात्र और शिक्षक देश के सामने सांप्रदायिकता और फासीवाद के खतरे को बखूबी पहचानते हैं और इसीलिए बड़े देशभक्त हैं.
(लेखक ने जेएनयू से शोध किया है)