छात्र राजनीति के लगभग खात्मे की कोई एक वजह नहीं है. ऐसी बड़ी सामाजिक-राजनीतिक परिघटना के अनेक कारण होते हैं. 70 के दशक के बाद बदलाव का बड़ा बिंदु है आपातकाल. उस दौरान दो चीजें हुईं. एक तो आपातकाल के खिलाफ बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ. जिसमें समाजवादी छात्र संगठन, एबीवीपी, कुछ वामपंथी छात्र संगठन शामिल हुए. सीपीआई तो आपातकाल के समर्थन में थी. लेकिन कुछ वामपंथी इसके लिखाफ थे. उसी समय दूसरी घटना यह घटी कि आपातकाल के मुख्य खलनायक बनकर उभरे संजय गांधी, जिनके नेतृत्व में छात्र राजनीति का अपराधीकरण शुरू हुआ. छात्र राजनीति में गुंडे लाए गए और उनको जगह दिलाने की कोशिश की गई. संजय के नेतृत्व में एनएसयूआई के साथ विश्वविद्यालय परिसरों का अपराधीकरण शुरू किया गया और गुंडों को परिसरों में जगह दिलाने के प्रयत्न किए गए. इसके जवाब में समाजवादी और अन्य संगठनों ने भी वही तरीका अपनाया.
इस प्रयास के फलस्वरूप छात्र राजनीति में अराजकता का बोलबाला होता गया. समाजवादी छात्र सभा, हिंदूवादी और अन्य संगठनों ने इस अवसर का इस्तेमाल अपने-अपने हिसाब से किया. छात्र राजनीति में जातिवाद तो पहले से ही व्याप्त था. बीएचयू में तो मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि वहां पर ठाकुर, ब्राह्मणों और भूमिहारों की लड़ाई पहले से थी. कांग्रेस ने इन सब तत्वों का इस्तेमाल करते हुए छात्रसंघों का अपराधीकरण किया. परिसरों में अपराधियों का समाजीकरण किया गया.
आगे चलकर छात्र राजनीति को एक और बड़ा झटका लगा. एक तरफ देश भर में बाबरी आंदोलन चला, जिसमें विद्यार्थी परिषद शामिल थी. दूसरी तरफ आरक्षण विरोधी आंदोलन चला. इन दोनों घटनाओं के कारण बजरंग दल जैसे संगठनों का तेजी से उभार हुआ. मंडल विरोधी प्रतिकार की राजनीति ने छात्रसंघों को बहुत नुकसान पहुंचाया. 80 के दशक के इन दोनों तथाकथित आंदोलनों से छात्र आंदोलनों को मर्मांतक चोट पहुंची. रही सही कसर बाद में इस धारणा ने पूरी कर दी कि छात्र संगठन राजनीतिक दलों के जेबी संगठन हैं, उनकी रुचि ठेकेदारी में है, छात्रसंघ अपराधियों के अड्डे हैं आदि. यह आरोप एक हद तक सही भी है. छात्रसंघों में ऐसे लोगों का प्रवेश हो गया था, जिनका छात्र हितों से कोई लेना-देना नहीं है.
ऐसे माहौल में राज्यों को यह बेहतर लगा कि छात्रसंघों को बंद कर दिया जाए. उन्हें ऐसा करने में सुविधा भी हुई क्योंकि छात्र हमेशा सत्ताविरोधी होता है. छात्रसंघ प्रतिबंधित करने के बाद सरकारों की राह आसान हो गई क्योंकि प्रतिरोध के मंच खत्म कर दिए गए. बिहार में 1989 के बाद से छात्रसंघ है ही नहीं. उप्र में भी छात्रसंघ एक तरह से बंद हो गया. वह कभी बंद हुआ, कभी शुरू हुआ. मायावती ने प्रतिबंध लगा दिया था, मुलायम ने अभी शुरू किया है. नियमित छात्रसंघों का चुनाव हो, यह दलों की मनमानी पर निर्भर हो गया.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को 84 में ही जेलखाना बनाने का काम शुरू कर दिया गया था. परिसरों के अराजनीतिकरण की प्रक्रिया बीएचयू और अलीगढ़ से ही शुरू हुई. 85-87 के बीच बीएचयू के दर्जनों छात्रों को कैंपस से बाहर कर दिया गया. छात्रसंघ को बाधित करने की लगातार कोशिश की गई.
उसी दौरान यह चलन शुरू हुआ कि कानून व्यवस्था का तर्क देकर कैंपस का सैन्यीकरण शुरू कर दिया गया. अलीगढ़ में फिलहाल रिटायर्ड जनरल को वाइस चांसलर बनाया गया है. इसके पहले भी इसी तरह के अधिकारियों को वहां वीसी बनाया जाता रहा है. बिहार में 80 के दशक के आखिरी में एक झटके में सभी वाइस चांसलरों को हटाकर अधिकारियों को बिठा दिया गया. जामिया में भी यही हालत है. वहां पर या तो कोई रिटायर्ड अधिकारी वीसी बनता है, या फिर रिटायर्ड सेना अधिकारी. प्राक्टर को लगातार मजबूत करते जाना, छात्र आंदोलनों को कानून व्यवस्था के रूप में देखने की प्रवृत्ति ने छात्र संगठनों की जगह खत्म कर दी.
छात्रसंघ चुनावों को लेकर बनी लिंगदोह कमेटी ने भी मनमाने सुझाव दिए. उसने इस बात को ध्यान में नहीं रखा कि छात्र संगठनों का क्षरण सामाजिक राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का नतीजा था. उसका संवैधानिक निदान नहीं हो सकता.
मुझे लगता है कि यह सब जानबूझ किया गया कि पहले छात्रों को मिलाकर उन्हें खूब खिलाओ पिलाओ, संरक्षण दो, छात्रसंघों में गुंडे भर दो, फिर अराजकता का तर्क देकर उन्हें खत्म कर दो. लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें जो भी थीं, लेकिन उसकी रिपोर्ट आने के बाद तो देश भर में छात्रसंघ चुनाव होने चाहिए थे, लेकिन नहीं हो रहे हैं. जहां चुनाव हो भी रहे हैं, वहां इस लिंगदोह कमेटी का कोई मतलब नहीं. देश की राजधानी दिल्ली में ही डीयू के छात्रसंघ चुनाव में लिंगदोह कमेटी की धज्जियां उड़ाई जाती हैं. इस पर न सुप्रीम कोर्ट ध्यान देता है, न ही सरकार. लिंगदोह भी यह देखते ही होंगे. अगर लिंगदोह कमेटी ने कोई बेहतर सुझाव दिए थे तो उसे लागू किया जाना चाहिए था. बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालयों में चुनाव क्यों नहीं होते? जामिया में चुनाव क्यों नहीं होता? जहां पर छात्र राजनीति की कोई परंपरा है, वहां पर छात्र लड़-भिड़ कर चुनाव करवा लेते हैं, बाकी जगहों पर प्रतिबंध है. सुप्रीम कोर्ट को यह सब क्यों नहीं दिखता? लिंगदोह कमेटी ने और तो कुछ नहीं किया, लेकिन जेएनयू में छात्र राजनीति की बेहतर संस्कृति थी, उसे नुकसान जरूर पहुंचाया.
हालांकि, मुझे एक चीज दिख रही है कि दुनिया भर में छात्रों का आंदोलन फिर से उभर रहा है. दिल्ली में अॉक्यूपाई यूजीसी चल रहा है. इलाहाबाद और हैदराबाद में छात्र आंदोलित रहते हैं. साउथ अफ्रीका में हाल में शिक्षा के मुद्दों को लेकर बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ. अमेरिका में भी उथल-पुथल का माहौल है. कई मसलों पर लैटिन अमेरिका में भी अस्थिरता दिखाई दे रही है. यह सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है. जब सब आवाजें दब जाएंगी तो छात्र आंदोलन उठ खड़ा होगा. बिहार में एक विश्वविद्यालय में मेस के खिलाफ और गुजरात में फीस वृद्धि के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन आपातकाल तक पहुंच गया था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)