मनोरंजन हर तबके के लोगों के जीवन का एक खास हिस्सा होता है और हिंदुस्तान में फिल्में मनोरंजन का पसंदीदा साधन हैं. सिनेमा का हिंदुस्तान में वही महत्व है जो यूरोपीय देशों में किताबों का, हर वर्ग का व्यक्ति कमोबेश फिल्मों का शौकीन है. फिल्में आम आदमी की जिंदगी का अहम हिस्सा हैं पर मल्टीप्लेक्सों की चमक देश के सबसे निचले तबके तक नहीं पहुंच पाती और सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल लगातार बंद हो रहे हैं, जहां जाना भी उनकी सीमित आय के चलते मुमकिन नहीं है. पर औद्योगिक विकास का प्रतीक बने नोएडा की कई गलियों में चल रहे सिनेमा पार्लर बॉलीवुड फिल्मों को समाज के आखिरी सिरे तक पहुंचा रहे हैं. टिनशेड में चल रहे ये सिनेमा पार्लर दिन भर की मेहनत-मजदूरी के बाद आए मुफलिसों के लिए खुशी का जरिया हैं. ‘तहलका’ एक ऐसे ही सिनेमा पार्लर तक पहुंचा और जाना कि कैसे 150 रुपये के पॉपकॉर्न युग में 15 रुपये में ‘सलमान भाई’ की फिल्म का लुत्फ उठाया जा सकता है.
नोएडा के सेक्टर 63 से सटे ममूरा गांव के आखिरी छोर पर बना है सत्यम पैलेस. यहां तक पहुंचने का रास्ता टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और गंदगी से अटी पड़ी नालियों के बीच से होकर गुजरता है. जाहिर सी बात है कि ‘पैलेस’ बस इसके नाम में ही है. लगभग सौ गज में टिनशेड के बने सत्यम पैलेस की हालत यहां आने वाले दर्शकों की माली हालत जैसी ही है. अंदर घुसते ही टूटी-फूटी बेंच और उखड़ा हुआ फर्श आपका स्वागत करेंगे. लंबाई में बने इस कमरे के शुरू में ही एक प्रोजेक्टर रूम है, जिसमें इस पैलेस के मालिक ने अपने रहने की व्यवस्था की हुई है. यहीं से लोगों को फिल्म का टिकट दिया जाता है और अगर खुले पैसे नहीं हैं तो बाकी बचे पैसों के बदले गुटखा थमा दिया जाता है.
पैलेस के मालिक हैं तीस साल के हरिंदर बैंसला, जो उत्तर प्रदेश के बागपत के एक निर्धन परिवार से ताल्लुक रखते हैं. बचपन में ही उनके पिता की असमय मृत्यु हो गई, जिसके बाद परिवार की जिम्मेदारी मां पर आ गई. चूंकि वे घर में बड़े थे तो 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़कर मां की जिम्मेदारी कम करने की सोची. पढ़ाई छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ साल नोएडा के दादरी में कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम किया. उसमें अनुमानित सफलता नहीं मिली न ही काम में मन लगा. दादरी में उन्होंने ऐसे कई सिनेमा पार्लर देखे थे, वहीं से ये सिनेमा पार्लर बनाने का विचार आया और ममूरा आकर हरिंदर ने साल 2011 में सत्यम पैलेस की शुरुआत की. इसके संचालन में हरिंदर की मदद करते हैं 22 साल के दिनेश पांडेय. पांडेय इटावा के रहने वाले हैं और जैसे-तैसे 12वीं पास कर पाए हैं. पिता पंडिताई का काम करने के साथ-साथ 20 बीघा खेती की देखभाल भी करते हैं. एक छोटा भाई है जो अभी पढ़ाई कर रहा है. मालिक हरिंदर के मुकाबले उनके सहायक पांडेय के घर की स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने की चाहत उन्हें नोएडा खींच लाई. मालिक और सहायक का एक-दूसरे पर अटूट विश्वास है और दोनों का आपसी व्यवहार बहुत दोस्ताना है. पांडेय यहां पर काम को नौकरी की तरह न लेकर सह-मालिक के रूप में जिम्मेदारी संभालते हैं.
यहां एक नियम है. अगर आप किसी शो के शुरू होने के बाद पहुंचते हैं तो आप अगले शो में दिखाई जाने वाली फिल्म भी उसी टिकट पर देख सकते हैं यानी एक टिकट में दो फिल्मों का मजा
हम जब वहां पहुंचे तो फिल्म ‘अंजाम’ का 3 से 6 का शो खत्म होने को था. उस शो में कुल 12 दर्शक मौजूद थे. यहां सामान्य सिनेमा हालों से उलट हर शो में अलग-अलग फिल्में दिखाई जाती हैं. किसी एक फिल्म को पूरे दिन दोहराया नहीं जाता. यहां आने वाले दर्शक शहर में कुछ छोटी लेकिन जरूरी सेवाएं देते हैं, जैसे- रिक्शा चलाना, बेलदारी, जमादारी, पंचर लगाना, ढाबों पर काम करने वाले नाबालिग, सिक्योरिटी गार्ड आदि. शो देखने आने वाले लोगों का उम्र वर्ग 14 साल से लेकर 55 साल तक है. हालांकि नौजवानों की संख्या अधिक रहती है.
बहरहाल, 6 से 9 के शो में मात्र 20 दर्शक मौजूद हैं. इस शो में संजय दत्त और सलमान खान की फिल्म ‘चल मेरे भाई’ दिखाई जाने वाली है. सत्यम पैलेस में चलने वाली फिल्में पुरानी होती हैं लेकिन यहां आने वाले दर्शक उन्हें इस उत्साह और चाव से देखते हैं जैसे कि वे आज ही रिलीज हुईं हों. पूरे दिन की थकान उतारने का शायद ये उनका सबसे बेहतर जरिया होता है. यहां फिल्म का टिकट मात्र 15 रुपये है लेकिन दर्शकों को ये भी ज्यादा लगता है. मगर एकाकीपन दूर करने और दूसरे साथियों के साथ फिल्म देखने की चाहत इन्हें यहां खींच ही लाती है. शहर में अलग-थलग पड़े ये लोग जब साथ इकट्ठा होते हैं तो नजारा देखते ही बनता है. सभी अपनी परेशानियों को भूल फिल्म देखने में मशगूल हो जाते हैं.
यहां एक और नियम है. अगर आप किसी शो के शुरू होने के बाद पहुंचते हैं तो आप अगले शो में दिखाई जाने वाली फिल्म भी उसी टिकट पर देख सकते हैं यानी एक टिकट में दो फिल्मों का मजा. किसी दिन 8 से 10 लोग अगर किसी फिल्म की मांग कर दें तो उनकी फरमाइश हरिंदर खुश होकर स्वीकार कर लेते हैं. दिन में दिखाई जाने वाली फिल्मों की सूची सुबह ही पैलेस के बाहर चस्पा कर दी जाती है ताकि दर्शक अपनी पसंद के हिसाब से शो का चुनाव कर सकें. आमतौर पर पूरे दिन में तकरीबन 100 से 125 लोग यहां फिल्म देखने पहुंचते हैं. शनिवार और रविवार को दर्शकों की संख्या बढ़ जाती है. वैसे यहां हर रविवार 6 से 9 के शो में भोजपुरी फिल्में ही चलती हैं.
फिल्मों के प्रदर्शन की तकनीक के बारे में हरिंदर बताते हैं, ‘सीडी और प्रोजेक्टर के माध्यम से हम फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं. पुरानी फिल्मों की सीडी खरीदते हैं और फिर उन्हें प्रोजेक्टर के जरिए पर्दे पर दिखाते हैं.’ जगह की कमी के चलते पर्दे के आस-पास ही टूटी-फूटी बेंचों को दर्शकों के बैठने के लिए जमाया गया है मगर इससे कोई समस्या नहीं. सबको बस फिल्म देखने से मतलब होता है, इसलिए शिकायत का तो कोई सवाल ही नहीं. हां, बीच-बीच में गाना आने पर आवाज घटाने या बढ़ाने की मांग जरूर उठती रहती है. तालियों और सीटियों के बीच गाने का पूरा आनंद लिया जाता है.
इसके संचालन के बारे में हरिंदर बताते हैं, ‘2011 में जब मैंने इस पैलेस की शुरुआत की तो दर्शकों की संख्या अच्छी-खासी रहती थी. एक-एक शो में दर्शकों की संख्या 80 से 100 के आस-पास रहती थी लेकिन अब ये बंद होने के कगार पर पहुंच गया है. कमाई तो छोडि़ए अब इसे चलाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से निकल पा रहा है.’ खर्च के बारे में उन्होंने बताया, ‘इसको चलाने में महीने का कुल खर्च 48 से 50 हजार रुपये पड़ता है और कमाई मात्र 60 से 65 हजार के आस-पास हो पाती है. यानी महीने के अंत में हमारे पास कमाई के नाम पर 10-15 हजार रुपये बचते हैं. इतने पैसों में हम क्या करें! इसी से मुझे अपने सहायक को भी तनख्वाह देनी होती है. पोस्टर लगाने वाले लड़के का खर्च भी इसी से निकालना पड़ता है.’ हरिंदर बाकायदा हर हफ्ते 3,000 रुपये मनोरंजन कर का भुगतान भी करते हैं, साथ ही 5 हजार रुपये के करीब बिजली का बिल आता है. इस जगह का किराया भी 5 हजार रुपये प्रतिमाह है. जेनरेटर के लिए डीजल, फिल्मों के पोस्टर, रख-रखाव, मशीनों की खराबी आदि का बिल जोड़कर कुल खर्चा पचास हजार के करीब बैठता है. हर साल लाइसेंस का नवीनीकरण भी कराना होता है. हरिंदर बताते हैं, ‘जब तक चल रहा है चल रहा है. वरना हम इसे बंद करके कुछ और काम करेंगे.’ प्राइवेट सेक्टर में नौकरी के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘पढ़ाई हमने इतनी की नहीं कि कोई अच्छी नौकरी मिल जाए. बाकी फिर दूसरे लोगों के अनुभव से पता चलता है कि प्राइवेट सेक्टर में कितना काम लिया जाता है. इसीलिए जैसे-तैसे गाड़ी खींच रहे हैं.’ हरिंदर की तरह ही बाकी लोग भी घटती कमाई के चलते परेशान हैं और कई तो अपने सिनेमा पार्लरों पर ताला जड़कर किसी दूसरे धंधे में लग गए हैं.
इस बातचीत के दौरान नशे में धुत एक व्यक्ति आया और हरिंदर से पैसे व मुफ्त टिकट मांगने लगा. काफी मना करने के बाद भी वह शख्स आधा घंटे तक वहीं हंगामा करता रहा जिसे जबरदस्ती बाहर निकाला गया. हरिंदर इस पर कहते हैं, ‘ये यहां रोज का काम है.’ ये पूछने पर कि टिकट का किराया क्यों नहीं बढ़ाते, उनका जवाब था, ‘एक बार किराया बढ़ाकर 20 रुपये किया था लेकिन फिर लोगों ने आना ही बंद कर दिया. इसलिए मजबूरन हमें फिर से टिकट 15 रुपये का करना पड़ा. दरअसल मल्टीमीडिया फोन इतने सस्ते हो गए हैं कि लोग उन पर ही आसानी से फिल्में देख लेते हैं तो हमारे पास क्यों आएं?’
बहरहाल, 6 से 9 वाला शो साढ़े आठ से कुछ पहले खत्म हुआ. 9 बजे तक के खाली समय में हरिंदर पुराने गाने दिखाते हैं. अगर आम मध्यमवर्गीय लोग फिल्म देखने जाते हैं तो सबसे पीछे की सीट चुनते हैं लेकिन यहां स्थिति अलग है. जो पहले आता है वह सबसे आगे की बेंच पर बैठने की कोशिश करता है ताकि स्क्रीन और बड़ी नजर आए.
यहां आने वाले दर्शक भी अनूठे हैं. हॉल में करीब 25-30 लोग मौजूद हैं. इसमें आरा, बिहार के रहने वाले विजय भी हैं. 38 साल के विजय बेलदारी का काम करके महीने में 9 हजार रुपये तक कमा लेते हैं और ममूरा में ही किराये पर चार लोगों के साथ कमरा साझा करते हैं. कुल मिलाकर 500 रुपये कमरे का किराया पड़ता है. खाने का खर्च निकालकर बाकी बचे पैसे घर भेज देते हैं. आज 9 से 12 के शो में फिल्म ‘नो एंट्री’ देखने पहुंचे हैं. विजय बताते हैं, ‘कमरे पर टीवी नहीं है. दूसरा यहां कई लोगों के साथ बड़े पर्दे पर फिल्म देखने में मजा आता है. फिर 15 रुपये में आजकल मिलता ही क्या है! यही देखकर खुश हो लेते हैं. आपकी तरह महंगी जगहों पर तो जा नहीं सकते.’
अगली बेंच पर मुलाकात होती है उत्तर प्रदेश के कासगंज के सतवीर से. पूरे दिन की थकान और तनाव सतवीर के चेहरे पर साफ-साफ दिखाई देते हैं. 25 साल के सतवीर पिछले साल दीवाली के ही वक्त बेलदारी का काम करने नोएडा आए थे. सतवीर की माली हालत बेहद खराब है. मुश्किल से बात करने को तैयार हुए सतवीर कहते हैं, ‘घर में 6 भाई हैं और कुल 4 बीघा जमीन है. ऐसे में बेलदारी नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे! जैसे-तैसे खाना-पीना चल रहा है बस.’ वह रहते कहां हैं, यह पूछने पर मायूसी के साथ बताते हैं, ‘रहने का कोई ठिकाना नहीं है. कभी पार्क में सो जाते हैं तो कभी फुटपाथ पर.’ किसी के साथ कमरा साझा करने की सलाह पर वे कोई जवाब नहीं देते.
‘साहब कमरे पर टीवी नहीं है. यहां कई लोगों के साथ बड़े पर्दे पर फिल्म देखने में मजा आता है. फिर 15 रुपये में आजकल मिलता ही क्या है! यही देखकर खुश हो लेते हैं
वहीं पास में बैठे हैं मुनिंदर. मुनिंदर 25 साल के हैं और सेक्टर 62 के एक अपार्टमेंट में जमादार का काम करते हैं. साढ़े सात हजार रुपये कमाने वाले मुनिंदर ममूरा में ही किराये के कमरे में अपने भाई के साथ रहते हैं. मुनिंदर काफी खुशमिजाज हैं, वे कहते हैं, ‘हमारा यही मनोरंजन है. इसी में खुश हैं हम. ज्यादा पैसा आपकी शांति छीन लेता है. और फिर घर में अकेले पड़े रहने से अच्छा है कि अपने भाई-बंधुओं के बीच थोड़ा टाइमपास कर लें. वरना कल से तो गाड़ी उसी पटरी पर दौड़नी है. लोगों के साथ सिनेमा देखने में मजा आता है. यहां लोग हंसते हैं सीटी, ताली बजाते हैं. इसी में मन हल्का हो जाता है. रविवार की छुट्टी के दिन तो यहां खड़े होने की भी जगह नहीं होती. गर्मियों में तो लोग यहां सिर्फ सोने के लिए आते हैं क्योंकि कूलर चलने से यहां बहुत ठंडा रहता है.’
इसके बाद बात हुई कोने में चुपचाप बैठे रामबाबू से. रामबाबू बिहार के मधुबनी के रहने वाले हैं और नोएडा में रिक्शा चलाते हैं. परेशान और थके हुए रामबाबू से जब उनकी उम्र के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘हमारी उम्र पूछकर आप क्या करोगे.’ काफी पूछने पर बोले, ‘मैं चालीस साल का हूं. बीवी खत्म हो गई, बच्चे थे ही नहीं. 10 साल पहले नोएडा आए थे तबसे बिहार वापस ही नहीं गए. आज तबियत खराब थी तो रिक्शा भी नहीं चला पाए.’ रहते कहां हैं? ‘यहीं पास की झुग्गियों में.’ रात के साढ़े ग्यारह बजे आखिरी शो खत्म होता है. सभी दर्शकों की पृष्ठभूमि लगभग विजय, सतवीर, मुनिंदर और रामबाबू जैसी ही है. कम उम्र के होने के बावजूद वे बेहद उम्रदराज नजर आते हैं. नींद के आगोश में डूबे दर्शक एक-एक कर बाहर निकलते हैं और अपने-अपने ठिकानों की ओर चल पड़ते हैं. सुबह से शाम तक की जी-तोड़ मेहनत के बाद अगले दिन इनमें से तमाम लोग फिर सत्यम पैलेस का रुख करेंगे.
एक आम आदमी के पास बेशक मनोरंजन के अनेक साधन हो सकते हैं लेकिन शहरों में छोटे-मोटे काम करने वाले इन लोगों के पास सीमित विकल्प हैं. इनमें भी इन्हें दस बार सोचना पड़ता है क्योंकि जेब हमेशा इसकी इजाजत बड़ी मुश्किल से देती है. फिर भी इन्हें कोई शिकायत नहीं, जहां दो पल चैन मिल जाए, ये वहीं खुश हैं. लेकिन दुख की बात है कि इनके मनोरंजन का इकलौता साधन भी बंद होने की कगार पर है. ममूरा से लगभग 10 किमी दूर सिनेमा पार्लर के गढ़ कहे जाने वाले भंगेल कस्बे के सभी सिनेमा पार्लर बंद हो चुके हैं. आस-पास के लोगों ने बताया कि उन्हें बंद हुए 2 साल हो गए. वहां अब या तो गोदाम हैं या फिर बाजार बन चुके हैं. बढ़ते खर्चों और दर्शकों की घटती संख्या के कारण शहर में मौजूद इक्का-दुक्का सिनेमा पार्लर भी आने वाले समय में नदारद हो जाएंगे. फिर ऐसे लोग अपने मनोरंजन का साधन कहां तलाशेंगे?