किशनगढ़, राजस्थान की रहने वाली 23 साल की अनु ने इसी साल बीएड का कोर्स खत्म किया है. उसका सपना है कि शिक्षा के जरिये वह समाज की इस सोच में बदलाव लाए जो बच्चों खासकर लड़कियों के सपनों को उभरने ही नहीं देता, उन्हें पूरे करने के अवसर देना या बनाना तो अलग ही बात है. अपनी तीन बहनों के साथ जब अनु का ब्याह हुआ तो वह सिर्फ तीन साल की थी. पढ़ाई को लेकर उसमें जिद थी और परिवार भी उसे पढ़ने से रोक नहीं पाए. इस बीच कई मौके आए जब उसके ससुरालवालों ने उसे ले जाने की जद्दोजहद की, समाज और पंचायत ने बहिष्कार कर दिया और परिवार पर एक लाख रुपये का जुर्माना दंड भी लगाया. मगर अनु जैसे-तैसे अपनी मन की करने में कामयाब रही. पर हजारों लड़कियां ऐसा चाहकर भी नहीं कर पातीं.
अनु की हमउम्र माया इस उम्र में तीन बच्चों की मां है. उसके पति दो-तीन साल पहले एक दुर्घटना में गुजर गए हैं, जबकि एक दूसरी हमउम्र धनेश्वरी 17 साल की उम्र में पति के जुल्मों और यौन हिंसा से गुजरकर वापस मायके लौट आई है. ये सभी पीड़िता नहीं हैं बल्कि समाज के तथाकथित ‘परंपरावादी’ चेहरे पर एक सवाल हैं. हमारी परंपराओं, मान्यताओं और संस्कारों ने आज के समाज को जितना पीछे धकेला हैं, शायद लोकतांत्रिक कही जाने वाली व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती भी वहीं से निकलती है.
इसका सबसे दुखद पहलू है, अपने ही घर समाज में बच्चों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया कहीं पर सीधे-सीधे दिखाई देता है और कहीं प्यार भरे वातावरण में जटिल पितृसत्ता के साथ गुंथा हुआ. इन युवा होते बच्चों के संबंधों और कमाई पर पूरी तरह नियंत्रण और उसका दोहन करने की परंपरा पर चुनौती कौन देगा?
अब जब भारत में लगभग 48% आबादी बाल और किशोर वर्ग से है, जो अगले सालों में उत्पादक वर्ग में आने वाले में हैं, यह चिंता का विषय है कि कैसे इन बच्चों को सुरक्षा और विकास के अवसर मुहैया कराए जाएं ताकि उनकी सारी क्षमताओं को उभरने का अवसर मिल सके. जिसका पूरा उपयोग विकास के तत्कालीन मॉडल में किया जा सके. विकास की राह में बाल विवाह एक बड़ी बाधा है. बाल विवाह पर कई नजरिये हैं. हाल ही में आर्थिक तरक्की पर हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में वर्ष 2030 तक के लिए ‘सतत विकास के लक्ष्य’ निर्धारित किए गए हैं. लड़कियों के लिए शिक्षा, किशोर वय में मातृत्व, जीवन कौशल और आजीविका से जुड़ी कुशलताएं बढ़ाने पर काफी जोर दिया गया है. इस प्रक्रिया में किशोर युवा लड़कों पर पहली बार ध्यान केंद्रित किया गया है. भारत और दुनिया के तमाम देशों में जारी बाल विवाह की परंपरा को लेकर चिंताएं जाहिर हुई हैं और इस पर काबू पाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम भी बनाए जा रहे हैं. आशंका है कि यह सब ऊपर ही ऊपर किया जा रहा है, समाज के साथ बैठकर एक गंभीर चिंतन नहीं हो रहा. इसमें खतरा इतना ही है कि विकास के इस मॉडल में एक बड़ा वर्ग लगातार हाशिये पर जा रहा है, सवाल ये है कि उसे कैसे मुख्यधारा में लाया जाए कि वह स्वयं इस बदलाव को लाने के लिए उत्सुक हो.
दरअसल बच्चों से जुड़ी नीतियों, कानूनों और कार्यक्रमों से कई तरह के भ्रम फैले हैं. किस उम्र का व्यक्ति बच्चा कहलाएगा? शिक्षा का अधिकार एक उम्र पर निर्धारित है तो श्रम कानून एक अलग उम्र पर
वर्तमान समय में बाल विवाह के बने रहने का एक बड़ा कारण समाज का पिछड़ापन तो है ही, मगर इस पिछड़ेपन के बने रहने में हमारे विकास के मॉडल का भी बड़ा हाथ है. जिसके चलते सामाजिक-आर्थिक-वर्गीय विषमताएं बढ़ रही हैं, वहीं न्याय की परिभाषा सिकुड़ती जा रही है. आखिर अनु या माया या धनेश्वरी जैसी लड़कियां अपने लिए न्याय के मायने कहां खोजें, कैसे उसे प्राप्त करें? अनु जब 18 वर्ष की होकर अपनी शादी रद्द करवाने की अर्जी पारिवारिक न्यायालय में लगाती है तो उसका केस काउंसलिंग में चला जाता है और उसे समझाया जाता है कि शादी को जोड़कर रखना औरत की खूबी होती है. दरअसल यहीं से अपना बाल विवाह निरस्त करवाने के उसके कानूनी अधिकार की धज्जियां उड़ जाती हैं. देखा जाए तो इस तरह बाल विवाह को कानूनी दर्जा मिलता है और अनु को तलाक लेने में डेढ़ बरस का समय. मजदूर परिवार की होने के कारण केस के लिए आर्थिक भार भी पड़ता है यानी जब वे खुद निर्णय लें और न्याय मांगें तो उन्हें कानूनी सहायता के लिए काफी ठोकरें खानी पड़ती हैं.
आखिर इन जैसी कितनी लड़कियां हैं जो ऐसी जबरन की शादी नहीं चाहती या उससे निकलना चाहती हैं. किंतु राजनीतिक प्रतिबद्धता न होने के चलते जिस संख्या में बाल विवाह हो रहे हैं, उसके मुकाबले ‘बाल विवाह निषेध अधिनियम’ में दर्ज प्रकरणों की संख्या बहुत ही कम है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के बरक्स तमाम राज्यों को मिलाकर 2013 में 222 और 2014 में 280 बाल विवाह प्रकरण दर्ज हुए हैं. वहीं भारतीय दंड संहिता की धारा 366 में लड़कियों के अपहरण के 12,243 मामले दर्ज हुए हैं. इनमें से कई मामले लड़के-लड़कियों की आपसी पसंद की शादियों से संबंधित हैं, जिसमें परिवार की रजामंदी नहीं थी. बलात्कार से जुड़े मामलों में कई आपसी रजामंदी से यौन संबंध से हैं किंतु जहां कम उम्र की शादियों में लड़कियों पर परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बलात्कार, यौन हिंसा आदि हैं, वे मामले परिवार के ‘सम्मान’ की रक्षा में कहीं दर्ज नहीं होते.
दरअसल बच्चों से जुड़ी नीतियों, कानूनों और कार्यक्रमों से कई तरह के भ्रम फैले हैं. किस उम्र का व्यक्ति बच्चा कहलाएगा? शिक्षा का अधिकार एक उम्र पर निर्धारित है तो श्रम कानून एक अलग उम्र पर. यह शादी के लिए 18:21 (लड़की और लड़के की उम्र) का मसला क्या है? और यदि इसे मान भी लें तो इससे कम उम्र की शादी और शादी में यौन संबंधों को वैधता क्यों? कई बार यह तस्वीर स्थानीय दायरे में सिमटी दिखाई देती है और उससे जुड़ी समस्याओं का हल उसी दायरे में ढूंढा जाता हैं. या फिर कभी बाल विवाह को ही हम मूल समस्या और उसके कारण के रूप में देखकर कार्रवाई करने लगते हैं.
बाल विवाह कहें या जल्द और जबरन शादियां, यह एक जटिल विषय है जिस पर सभी अपने तरीकों और अपनी समझ से जूझ रहे हैं. यह परंपरागत समाजों के अपने जीवन दर्शन और जिंदगी की समझ पर आधारित है जो अपनी तत्कालीन अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ी रही है. आधुनिक समाज और बदलती अर्थव्यवस्था में अधिकारों के बढ़ते दायरे को जमीन पर लाने की जिम्मेदारी एक चुस्त राज्य को निभानी है. जिसमें सामाजिक न्याय और विकास को साथ-साथ चलाना जरूरी है. समय की मांग को देखते हुए इस विषय को समग्रता से देखने-समझने और उस पर एक नजरिया बनाने की जरूरत है. इसके लिए चिंतन और आपसी चर्चाओं के अवसर बढ़ाने की भी बेहद जरूरत है. यह भी बहुत जरूरी है कि किशोर किशोरियों, युवाओं को इन परिचर्चाओं में शामिल किया जाए, उनकी आवाज और विचारों को सुना जाए ताकि हम पूरी व्यवस्था को उनकी बातों के अंदर परख सकें; उनका परीक्षण कर सकें.
अनु जैसी लड़कियां शिक्षा के क्षेत्र को अपनाना चाहती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अनु मानती हैं, ‘एक शिक्षक चाहे तो बदलाव के लिए काफी कुछ कर सकता है, कम से कम वह हममें सोचने, प्रश्न और आलोचना करने के साथ सक्रिय बनने की समझ तो डाल ही सकता है.’
दुनिया को बच्चों के लिए दुरुस्त यानी फिट होना होगा और अगर हम सच्चे रूप में सतत विकास चाहते हैं तो पूरी प्रणाली को दुरुस्त करने पर ध्यान देने की जरूरत होगी. अपने में, अपने परिवार, कार्यस्थलों, सार्वजनिक स्थानों और राज्य के स्तर तक लोकतांत्रिकरण को अपनाना होगा. लैंगिक समानता और सशक्तिकरण भी तब ही टिक सकेगा.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)