23 अक्टूबर की सुबह मध्य कर्नाटक के देवनगर में स्थित अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के हॉस्टल में पत्रकारिता के विद्यार्थी हुचंगी प्रसाद से मिलने एक अनजान आदमी पहुंचा.
उस अनजान आदमी ने प्रसाद को बताया कि उसकी मां को दिल का दौरा पड़ा है और उसे अस्पताल में भर्ती किया गया है. अजनबी ने प्रसाद से कहा कि वह उसे मां के पास ले जाने के लिए आया है. लेकिन यह एक साजिश थी. उस आदमी के साथ जाने पर हुचंगी प्रसाद को 10-12 हुड़दंगियों की भीड़ ने रास्ते में रोका और धमकाया. प्रसाद का अपराध यह था कि उन्होंने एक वर्ष पहले जाति व्यवस्था के बारे में एक ‘विवादास्पद’ किताब लिखी थी जिस पर इन हिंदुत्ववादी हुड़दंगियों की नजर हाल ही में पड़ी.
प्रसाद बताते हैं, ‘हमला करने वाले मेरी किताब को हिंदू विरोधी कहते हुए मुझे धकिया रहे थे, क्योंकि मैंने किताब में देवनगर में जाति व्यवस्था के तहत हो रहे अन्याय के बारे में लिखा था. उन्होंने चाकू बाहर निकाल कर मुझे यह कहते हुए धमकाने लगे कि वे मेरी उंगलियां काट डालेंगे, ताकि मैं कभी न लिख सकूं.’ प्रसाद किसी तरह उन हमलावरों से बचकर जंगल की तरफ भाग निकले. बचते बचाते अपने हाॅस्टल पहुंचे और पुलिस में शिकायत दर्ज की.
यह घटना लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के तीन महीने बाद और उनके निवास स्थान से महज 100 किमी. की दूरी पर घटी. उत्तर भारत में दलितों पर लगातार बढ़ते हमलों की गूंज अब दक्षिण के कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी पहुंचने लगी है. कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे केंद्र में सत्ता बदलने के साथ राजनीतिक वातावरण बदलने के परिणाम के रूप में देखते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराध की संख्या 39,408 थी जो वर्ष 2014 में 47,064 हो गई. जबकि वर्ष 2012 में यह संख्या 33,655 थी और वर्ष 2011 में भी लगभग यही थी. इसके अलावा वर्ष 2013 में जहां 676 दलितों की हत्या हुई वहीं पिछले वर्ष दलितों की हत्या की संख्या बढ़कर 744 हो गई. आंकड़ों की इस राष्ट्रीय तस्वीर में दक्षिण भारत का योगदान बढ़ता ही जा रहा है. जातिगत भेदभाव से संबंधित प्रथाओं के संदर्भ में तमिलनाडु और कर्नाटक की स्थिति एक जैसी है. कहीं खुले और कहीं दबे रूप में हाेटलों और चाय की दुकानों में अलग गिलास रखने से लेकर मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी और आॅनर किलिंग तक जातिगत भेदभाव काफी गहरा है. इन ‘छुपी हुई अस्पृश्य प्रथाओं’ के कारण दलित खुद को मुख्यधारा के सार्वजनिक जीवन से काट कर रखते हैं ताकि उन्हें अपमानित न होना पड़े.
दलितों को जमीन और रोजगार की गारंटी के संबंध में सरकारों द्वारा किए गए वादे अक्सर अधूरे ही रह जाते हैं. दलितों द्वारा जमीन के लिए या फिर अपने अधिकारों के लिए किए गए दावे का अर्थ आज भी दबंग जातियों की ओर से मुसीबत को बुलावा ही होता है. दबंग जातियों से संबंधित अपराधियों को सजा देने में प्रशासन अक्सर नाकाम रहता है, परिणामस्वरूप दबंग जातियों के हौसले बढ़ते जाते हैं और दलितों पर हमले तेज हो जाते हैं.
तमिलनाडु में दलित जब-तब उच्च जातियों के कोप का भाजन बनते रहते हैं. यह राज्य उन शीर्ष पांच राज्यों में शामिल है, जहां बीते पांच वर्ष में ज्यादा जातीय हिंसा हुई
बंगलुरु के सामाजिक चिंतक मोहम्मद तहसिन बताते हैं, ‘दक्षिण कन्नड़, उडुपि, हासन, मंड्या और चित्रदुर्गा में ब्राह्मणवादी वर्चस्व ज्यादा है, परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था की जकड़न भी मजबूत है. सारे राज्य में आप देखेंगे कि दलित गांव से अलग एक बस्ती में बसे हैं.’
तमिलनाडु में दलित कुल जनसंख्या का 21 प्रतिशत हैं और जब तब उच्च जातियों के कोप का भाजन बनते रहते हैं. यह राज्य उन शीर्ष पांच राज्यों में शामिल है, जहां बीते पांच वर्ष में सबसे ज्यादा जातीय हिंसा हुई है. द्रविड़ राजनीति न केवल दलितों के हितों की रक्षा करने में नाकाम रही है बल्कि इसने अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के बीच भी गहरी खाई बना दी है. अतीत की ब्राह्मण विरोधी चेतना ने धीरे-धीरे दलित विरोधी चेतना को भी हवा दी है. वोट पर नजर गड़ाए द्रविड़ पार्टियों के जातिगत मुद्दों पर अपनी आवाज नर्म करने के साथ ही अनेक जातीय समूह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए जिनका उद्देश्य ऊंची जातियों की तथाकथित ‘शुद्धता’ को बचाए रखना है.
दलितों के राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘एविडेंस’ के प्रबंधन निदेशक ने ‘तहलका’ को बताया, ‘तमिलनाडु में कम से कम 230 प्रकार की अस्पृश्यता प्रचलन में है. हैरानी की बात है कि सरकार इसे स्वीकार नहीं करती, जबकि पिछले तीन वर्ष में आॅनर किलिंग के 73 मामले दर्ज किए जा चुके हैं.’ तमिलनाडु अनटचेबिलिटी इरेडिकेशन फ्रंट के महासचिव सैमुअल राज कहते हैं, ‘राज्य में भाजपा जातिगत भेदभाव को बढ़ावा न देने को लेकर सावधान रहती है. लेकिन केंद्र में सत्ता में आते ही तस्वीर बदलने लगती है.’ हाल ही में मदुरै में एक सार्वजनिक सम्मेलन में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और स्वदेशी जागरण मंच के अध्यक्ष एस. गुरुमुर्ति ने खुल्लमखुल्ला जाति व्यवस्था को महिमामंडित किया. इस तरह प्रोत्साहन कट्टर जातीय समूहों के हौसले बढ़ाता है और उन्हें संरक्षण भी प्रदान करता है.
जाति व्यवस्था की लोकप्रियता पढ़े-लिखे मोबाइल इस्तेमाल करने वाले नौजवानों में भी अच्छी खासी है, जैसा कि जातिवादी समूहों की सदस्यता से से साफ जाहिर होता है. ऑनर किलिंग के आरोपी युवराज नाम के एक ऐसे ही युवक को पुलिस से घिरे होने के बावजूद भीड़ का जोरदार
स्वागत मिलता है. युवराज पर ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करने वाले दलित गोकुल राज की हत्या करने का आरोप है. सैमुअल कहते हैं, ‘पहले सभी पार्टियां जातीय हिंसा की निंदा करती थी. पेरियार, सिंगारवेलार और जीवननांदम जैसे दिग्गज लोग जाति व्यवस्था के सामने चट्टान की तरह खड़े थे. लेकिन अब केवल वामपंथी और दलित आंदोलनों में ही ये मामले उठाए जाते हैं.’
मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपमेंटल स्टडीज में कार्यरत एसोसिएट प्रोफेसर सी. लक्ष्मणन का कहना है कि चुनावी लाभ के लिए दबंग जातियों द्वारा दलित आंदोलन में पैदा कर दिए गए मतभेद के कारण भी दलित आंदोलन कमजोर पड़ा. ‘यह भी एक कमजोर कड़ी रही. गैर सरकारी संगठनों ने मुद्दों का वि-राजनीतिकरण किया और लोगों के रोष को ठंडा करने का काम किया. इस तरह जनता के मुद्दों का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया.’ लक्ष्मणन शिक्षित ‘असंवेदनशील’ मध्यवर्गीय दलित वर्ग की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘मुफ्त चीजें बांटने की राजनीतिक संस्कृति ने मतदाताओं के सोचने के तरीके को बदला और उन्हें अदूरदर्शी जनता में तब्दील कर दिया.’
मई माह में चित्रलेखा नाम की दलित आॅटो रिक्शा ड्राइवर ने केरल में कन्नूर जिला कलेक्ट्रेट के सामने अपने धरने के 122 दिन पूरे किए. चित्रलेखा को एदत कस्बे में ऑटो स्टैंड को इस्तेमाल करने से रोका गया. चित्रलेखा कहती हैं, ‘उन्हें यह बात स्वीकार नहीं थी कि एक महिला, वो भी एक दलित महिला वही काम करे जो वे करते हैं. इसलिए वे मुझे तंग करते हैं.’
चित्रलेखा के साथ जहां अन्याय हुआ, ठीक वैसे ही एक अन्य दलित महिला उद्यमी सौम्या देवी को केरल के कोची गांव में उद्योग के लिए जगह देने से इंकार कर दिया गया. ऐसा तब है जब सामाजिक परिदृश्य के हिसाब से केरल में अपेक्षाकृत सकारात्मक तस्वीर दिखाई देती है, और जातिगत हिंसा गाहेबगाहे होती है. इसके बावजूद इस तरह की घटनाएं दिखाती हैं कि केरल भी जातिगत भेदभाव से आजाद नहीं है. सामाजिक कार्यकर्ताओं और कुछ विद्वानों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में राज्य में दलितों के विरुद्ध हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी हुई है.
जाने-माने लेखक और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर रूपेश कुमार बताते हैं कि हालांकि केरल को अन्य दक्षिण राज्यों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता लेकिन राज्य के सामाजिक ढांचे में जातीय भेदभाव और हिंसा काफी स्पष्ट तौर पर देखने को मिलती है. कालीकट के पेरामब्रा गांव में गवर्नमेंट वेलफेयर लोअर प्राइमरी स्कूल नाम का एक स्कूल ‘केवल दलितों के लिए’ स्कूल में तब्दील हो चुका है, क्योंकि ऊंची जातियों ने अपने बच्चों को इस स्कूल में दाखिला दिलाना बंद कर दिया है. जब ‘तहलका’ ने इस बारे में खोजबीन की तो पाया कि पिछले 10 वर्ष से परया समुदाय के अलावा किसी अन्य समुदाय के एक भी विद्यार्थी ने इस स्कूल में दाखिला नहीं लिया है.
वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक टिप्पणीकार बीआरपी भास्कर के अनुसार, ‘केरल में वर्तमान में अस्पृश्यता के मामले की शायद ही कोई शिकायत आती हो लेकिन अन्य राज्यों के मुकाबले जातीय भेदभाव अत्यंत परिष्कृत रूप में यहां प्रचलित है. दलित जनसंख्या अनेक संगठनों और नेताओं की अनुयायी है और विभाजित है. इस तरह वह मुख्यधारा के दलों की पिछलग्गू बनी हुई है. दलित ये महसूस तो करते हैं कि वामपंथी पार्टियों ने उनके हितों की रक्षा नहीं की है, इसके बावजूद अधिकांश अब भी उन्हें ही वोट देते हैं. मुस्लिम नेतृत्व में चल रहीं वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया दलितों को अपनी ओर खींचने की पुरजोर कोशिश में हैं.’ बहरहाल, राज्य के सत्ता ढांचे में दलितों का प्रतिनिधित्व काफी कम है. वाम तथा अन्य प्रगतिशील संगठनों पर दलित अस्मिता के मुद्दे पर चुप्पी साधने का आरोप जाता है जिसे अंततः वे एक खतरे के रूप में देखते हैं.