बीते लोकसभा चुनाव की बात है. प्रचार के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात के दाहोद लोकसभा क्षेत्र में पहुंचे थे. देवगढ़ बरिया नाम की एक जगह पर उनकी रैली थी. आयोजन शुरू हुआ. राहुल गांधी मंच पर बैठे थे. इससे थोड़ी ही दूर एक महिला एसपीजी से गुहार लगा रही थी कि उसे मंच पर जाने दिया जाए. वह सुरक्षाकर्मियों को बता रही थी कि उसका नाम डॉ. प्रभा किशोर ताविआड़ है और वह दाहोद से कांग्रेस की लोकसभा प्रत्याशी है जिसके पक्ष में राहुल चुनाव प्रचार करने आए हैं. लेकिन एसपीजी ने महिला को मंच पर जाने नहीं दिया. रैली खत्म हुई. उसके बाद जब राहुल गांधी अपने हेलिकॉप्टर की तरफ बढ़ रहे थे तो प्रभा राहुल से मिलने के लिए दौड़ती हुईं उनकी ओर बढ़ीं. वे राहुल तक पहुंचतीं तब तक राहुल अपने उड़नखटोले में बैठ गए. प्रभा न राहुल से मिल पाईं और न राहुल यह जान पाए कि वे यहां दाहोद में किस प्रत्याशी के चुनाव प्रचार में आए थे.
यह एक छोटा-सा उदाहरण है, जो कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ बताता है. इससे पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को जो फैसला सुनाया है, वह उसकी सच्ची हकदार थी.
कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास की यह सबसे बड़ी हार है. 12 राज्यों में उसका खाता तक नहीं खुला. उसके 16 में से 13 कैबिनेट मंत्री चुनाव हार गए. किसी भी राज्य में पार्टी दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाई. इस बार का 19.3 फीसदी उसे अब तक मिला सबसे कम मत प्रतिशत है. 1999 में 114 सीटों के साथ अपना तब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली पार्टी इस बार 44 सीटों पर सिमट गई.
चुनाव परिणाम आने के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के भीतर घमासान मचा हुआ है. हर नेता के पास पार्टी की हार का अपना ‘सॉलिड’ कारण मौजूद है. हार के कारणों के लिए शुरू हुए निर्मम पोस्टमॉर्टम से गांधी परिवार भी बच नहीं पाया है. पार्टी के भीतर ही तमाम ऐसे लोग हैं जो गंभीरता के साथ कहते हैं कि इस बार की हार पहले गांधी परिवार की हार है, फिर पार्टी की. हार के लिए परिवार को जिम्मेदार मानने वालों का तर्क है कि पार्टी और सरकार, दोनों की कमान परिवार के हाथ में ही थी, उन छिटपुट मौकों के अलावा जब मनमोहन सिंह ने यह जताने की कोशिश की कि इस देश में प्रधानमंत्री है और वह 10 जनपथ के रिमोट से संचालित नहीं होता. यानी कुछेक अपवादों के इतर सरकार की पिछले 10 सालों की छवि ऐसी ही रही है कि वह गांधी परिवार की इच्छाओं से संचालित होती है. लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान पूरी तरह से परिवार के हाथ में ही रही. प्रचार के दौरान जो भी पोस्टर लगे उसमें राहुल ही यह कहते दिखाई दिए कि ‘मैं नहीं हम’, लेकिन पोस्टर का भाव मैं और सिर्फ मैं वाला ही था. जिस सरकार के काम पर जनादेश मांगने कांग्रेस पार्टी चुनावों में जा रही थी उस सरकार के किसी भी मंत्री की तस्वीर चुनावी इश्तहारों में नहीं थी. सबकुछ राहुलमय ही था. जो प्रधानमंत्री पिछले 10 सालों से शासन कर रहा था उसने इस चुनाव में कहां-कहां प्रचार किया, यह पता करने के लिए पहले माथा खपाना पड़ेगा और उसके बाद रैलियों और सभाओं की संख्याओं को उंगलियों पर गिना जा सकेगा.
तो ऐसी स्थिति में जो चुनाव परिणाम आया है उसे अगर पार्टी के भीतर लोग तेरा तुझको अर्पण की तर्ज पर गांधी परिवार को समर्पित कर रहे हैं तो इसमें कुछ गलत दिखाई नहीं देता. लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाने वाली ताकतों ने भी तेजी से सर उठाया है. इसे साहस कहें या बहुत लंबे समय से मन में पल रहा गुस्सा कि पार्टी के नेता यह बताने लगे हैं कि कमी कहां रह गई, किसने गलती की आदि. मिलिंद देवड़ा ने राहुल के सलाहकारों पर प्रश्न उठाकर एक तरह से राहुल पर ही सवाल खड़ा कर दिया तो दूसरी तरफ प्रिया दत्त ने भी पार्टी के प्रचार अभियान में नुक्स निकालने में कमी नहीं रखी. असम में पार्टी की करारी हार के बाद तरूण गोगोई ने सोनिया गांधी को इस्तीफा सौंपा जिसे सोनिया ने खारिज कर दिया. सोनिया के इस्तीफा खारिज करने संबंधी निर्णय का असम में पार्टी के कई विधायकों ने सरेआम विरोध किया. चुनाव के बाद से शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा हो जिस दिन कांग्रेस के किसी नेता ने सार्वजनिक रूप से पार्टी की चुनावी रणनीति की आलोचना न की हो.
इसी से कुछ स्वाभाविक सवाल पैदा होते हैं. जब परिवार के कारण पार्टी की यह फजीहत हुई है तो फिर हार का ठीकरा परिवार के सिर क्यों न फोड़ा जाए? अगर पार्टी को इस चुनावी त्रासदी तक परिवार ने पहुंचाया है तो फिर पार्टी परिवार से खुद को अलग क्यों न कर ले? क्यों न वह एक ऐसी पार्टी बन जाए जो गांधी परिवार के रिमोट से संचालित नहीं होती? क्या समय आ गया है जब पार्टी को परिवार से कह देना चाहिए कि अब बस, वह किसी गांधी के इशारे पर नहीं चलेगी? लोकतंत्र में नेता वही होता है जिसके साथ जनता हो. चुनाव नतीजों ने साफ किया है कि जनता कांग्रेस नेतृत्व के साथ नहीं है. तो क्या अब नेतृत्व के लिए कांग्रेस गांधी परिवार से बाहर देखने की कोशिश या हिम्मत करेगी?
इन सारे सवालों का जवाब एक सवाल में ही छिपा है. सवाल यह कि क्या गांधी परिवार से अलग कांग्रेस पार्टी का का कोई वजूद संभव है?
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अजय बोस इससे इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की घरेलू कंपनी की तरह है. यह इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस पार्टी है. परिवार के बिना कांग्रेस का अपना कोई अस्तित्व नहीं बचेगा. अगर कभी गांधी परिवार पार्टी से दूर हुआ तो पार्टी बचेगी ही नहीं. सारे नेता एक दूसरे से लड़कर खत्म हो जाएंगे.’ अपनी बात को विस्तार देते हुए बोस वर्तमान कांग्रेस की तुलना कुछ अन्य पार्टियों से करते हुए कहते हैं, ‘ वर्तमान कांग्रेस सपा, डीएमके और टीएमसी जैसी पार्टियों की तरह ही है जिनका अपने सुप्रीमो के इतर कोई अस्तित्व नहीं है. पार्टी एक पल के लिए परिवार से बाहर नहीं सोच सकती.’
जानकारों का मानना है कि आज कांग्रेस पार्टी का जो ढांचा है उसे देखते हुए पार्टी को परिवार से अलग करना असंभव है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘पार्टी से अगर आप सोनिया जी, राहुल जी को अलग करेंगे तो फिर उसके पास बचेगा क्या. वह बिखर जाएगी. यह प्रयोग पहले हो चुका है जब 1996 और 1998 के बीच पार्टी ने दो अध्यक्षों को हड़बड़ी में बदल दिया. उसका क्या नतीजा निकला सभी को पता है. पार्टी के लिए परिवार ऑक्सीजन की तरह है. ’
‘पार्टी अपने अस्तित्व के लिए परिवार पर निर्भर है. तो दूसरी तरफ परिवार भी अपने अस्तित्व के लिए पार्टी पर आश्रित है. साथ रहना दोनों की मजबूरी है’
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘अब पार्टी से परिवार या परिवार से पार्टी के अलग होने की संभावना नहीं है. एक दौर में परिवार पार्टी से अलग हो चुका है. सीताराम केसरी के उस दौर में पार्टी खत्म होने की स्थिति में आ गई थी.’ राजनीतिक टिप्पणीकार नीरजा चौधरी गिरिजाशंकर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, ‘परिवार के हटते ही पार्टी अनगिनत गुटों में बंट जाएगी. पार्टी के लिए परिवार का सबसे बड़ा महत्व यह है कि उसने उसे इकट्ठा रखा है.’ कांग्रेस पार्टी को बेहद करीब से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई पार्टी और परिवार के संबंधों की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘पार्टी नीचे से लेकर ऊपर तक पूरी तरह से परिवार पर आश्रित है. यह संबंध दोतरफा है. पार्टी अपने अस्तित्व के लिए परिवार पर निर्भर है तो दूसरी तरफ परिवार भी अपने अस्तित्व के लिए पार्टी पर आश्रित है. साथ रहना दोनों की मजबूरी है.’
कांग्रेस का इतिहास बताता है कि जब कभी वह कमजोर हुई, उसके नेताओं ने उसका साथ छोड़ने में देर नहीं की. 1988 में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले वीपी सिंह पार्टी से बाहर निकल गए और उन्होंने जनता दल का गठन किया. 1991 से 96 के बीच जब नरसिम्हा राव कांग्रेस सरकार के मुखिया थे तो अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, माधवराव सिंधिया, चिदंबरम और ममता बनर्जी ने पार्टी से बाहर निकलकर अपनी अलग राजनीति की शुरुआत की. 1998 में सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद संभालने के बाद 1999 में उनके विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा जैसे नेताओं ने पार्टी से बाहर निकलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. पार्टी पर नजर रखने वाले इस बात की संभावना जरूर जताते हैं कि आने वाले समय में कुछ लोग कांग्रेस का दामन छोड़ सकते हैं. लेकिन पार्टी में अब ऐसे कद्दावर नेता न के बराबर बचे हैं जो बाहर निकलकर अपनी अलग राजनीतिक शुरुआत कर सकें. ऐसे में ये नेता दूसरे दलों का रुख जरूर कर सकते हैं.
सोनिया गांधी ने अपने बाद राहुल गांधी के लिए नेतृत्व का रास्ता तैयार करने की कोशिश की, लेकिन राहुल राजनीति में पूरी तरह से नाकामयाब होते दिखते हैं
पार्टी के नेता पार्टी के लिए परिवार के महत्व की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जब-जब कांग्रेस परिवार से दूर हुई है, वह खत्म होने के करीब होती गई है. वे उदाहरण देते हैं कि कैसे सीताराम केसरी के जमाने में पार्टी बिखराव की स्थिति में पहुंच गई थी और कैसे सोनिया ने आकर पार्टी को संभाला था. नहीं तो पार्टी खत्म हो गई होती. खैर, इस तरह पार्टी और परिवार के संबंधों पर पार्टी के अंदर और बाहर लोगों से चर्चा करने पर यह बात निकल कर आती है कि कैसे परिवार के साथ बने रहना ही कांग्रेस के हित में है. तो सवाल उठता है कि जब पार्टी के पास परिवार से दूर जाने का कोई विकल्प नहीं है तो फिर भविष्य में खुद को स्थापित करने के लिए उसके पास विकल्प क्या बचता है.
राजनीतिक जानकार कहते हैं कि यही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. हार तो अस्थाई है, लेकिन पार्टी के सामने नेतृत्व की जो समस्या खड़ी है उसे उसका कोई स्थायी समाधान दिखाई नहीं देता. दिक्कत इसलिए भी है क्योंकि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार के दायरे में ही निर्धारित होना है.
यह प्रश्न गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि सोनिया गांधी ने अपने बाद राहुल गांधी के लिए नेतृत्व का रास्ता तैयार करने की कोशिश की, लेकिन वे चुनावी राजनीति में पूरी तरह से नाकामयाब होते दिखाई देते हैं. हाल के लोकसभा चुनाव परिणामों के अलावा पूर्व में कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में हुई पार्टी की हार ने राहुल के नेतृत्व और उनकी क्षमताओं पर गंभीर प्रश्न खड़ा किया है. राहुल के बारे में कहा जाने लगा है कि उन्हें राजनीति में रुचि नहीं है. वे एक अनिच्छुक राजनेता हैं. नीरजा कहती हैं, ‘राहुल के राजनीतिक करियर को देखने से पता चलता है जैसे उनसे कोई जबर्दस्ती राजनीति करा रहा है. वे बेमन से काम करते हुए दिखाई देते हैं.’
बीते चुनाव में ही राहुल की सक्रियता को लेकर तमाम सवाल उठाए गए. पार्टी के अंदर के नेताओं का यह कहना था कि उन्हें खुद नहीं पता होता था कि राहुल कब देश में हंै और कब विदेश में. चुनाव प्रचार के दौरान भी उनकी विदेश यात्राएं जारी रहीं. राहुल के संसदीय रिकॉर्ड पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछली लोकसभा में सदन में उनकी उपस्थिति सांसदों के औसत 70 फीसदी की तुलना में 43 फीसदी थी. पूरे कार्यकाल में राहुल ने कोई प्रश्न नहीं पूछा था.
राहुल की सीमाओं की चर्चा करते हुए रशीद कहते हैं, ‘राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर और अपने बाद पार्टी की बागडोर संभालने वाले का संदेश देकर सोनिया गांधी ने भी गलती की. राहुल क्या हैं? उनकी क्षमताएं क्या हैं ? यह किसी को पता नहीं था. सोनिया को उन्हें यूपीए 2 में मंत्री बनाना चाहिए था. लेकिन दिक्कत यह रही कि पार्टी में सत्ता को लेकर सभी सोनिया की तरह ही त्यागी हो गए. जिम्मेदारी के बगैर सत्ता का स्वाद चखने की बीमारी फैल गई. 2009 में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल को मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया था जिसे राहुल ने नकार दिया.’
पार्टी के एक राज्य सभा सदस्य कहते हैं, ‘ मंत्री बनकर अगर राहुल ने प्रशासनिक और नेतृत्व क्षमता हासिल कर ली होती और तब वे कुछ कहते तो लोगों को उनकी बातों पर भरोसा होता. लेकिन वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाई दिए जिसका अनुभव धेले के बराबर नहीं है, लेकिन बातें वह बड़ी-बड़ी करता है’.
ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी में कई नेता हैं जो कुछ यही बात कहते हैं. उत्तर प्रदेश के हरदोई में पार्टी के शहर अध्यक्ष शशिभूषण शुक्ला उर्फ शोले कहते हैं, ‘दिक्क्त अब यह है कि कि पार्टी कार्यकर्ता भी राहुल जी को परिपक्व नहीं मानता. पार्टी में सक्रिय होने के बाद से उन्होंने जो भी फैसले लिए हैं उनमें से किसी एक भी फैसले से पार्टी का भला नहीं हुआ. एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में उन्होंने ऐसा परिवर्तन किया कि दोनों संगठन अखाड़ा बन गए. लोग वहां एक दूसरे से सिरफुटौव्वल कर रहे हैं.’ मई, 2011 में भट्टा परसौल में किसान आंदोलन, 2012 के यूपी विधानसभा चुनावों में सक्रियता के साथ प्रचार, दलितों के घर खाना खाने जाना, ओडिशा के नियामगिरी में जाकर आदिवासियों से यह कहना कि मैं आपका सिपाही हूं, ये कुछ ऐसे गिने चुने तारे हैं जिनसे राहुल के 10 साल के राजनीतिक करियर का अंधकार में डूबा आकाश कुछ चमक देख पाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि भले ही 10 साल के अपने कार्यकाल में राहुल कुछ उल्लेखनीय न कर पाए हों लेकिन पार्टी में उनका कद बढ़ता चला गया.
‘राहुल को नुकसान पहुंचाने में प्रियंका की भी भूमिका रही है. बाहर आकर प्रियंका ने अपने भाई को मजबूत करने की जगह और कमजोर किया है’
हालांकि पार्टी के कुछ नेता याद दिलाते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जो 21 सीटें मिलीं थीं उसमें राहुल गांधी का भी बड़ा योगदान है. उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री कहते हैं, ‘राहुल के बारे में बात करते समय लोग इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उन्होंने यूपी के चुनावों में कितना पसीना बहाया. कितनी कड़ी मेहनत की थी. परिणाम उसके अनुरूप नहीं आए, लेकिन आप उनकी मेहनत पर प्रश्न नहीं उठा सकते’
कुछ समय पहले दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कांग्रेस का एक सम्मेलन था. उसमें राहुल गांधी के भाषण की काफी चर्चा हुई थी. लेकिन राहुल अपने बारे मंे उस तरह की चर्चा को आगे नहीं बढ़ा सके. हां, वे अपने अजीबोगरीब बयानों के कारण जरूर चर्चा में रहे. चाहे गरीबी को मानसिक अवस्था बताने वाली बात हो या फिर यूपी चुनावों में सैम पित्रौदा को बढ़ई बताने वाला बयान हो या भारत को मधुमक्खी का छत्ता बताने संबंधी उनका कथन, उनकी ज्यादातर बातों पर विरोधी चुटकी लेते देखे गए.
राहुल की सीमाओं की चर्चा करते हुए बोस कहते हैं, ‘राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि उनकी राजनीतिक शुरुआत ही पार्टी के सत्ता में रहने के दौर में हुई. दूसरी बात यह कि वे लगातार सत्ता में रहे, लेकिन हमेशा कहते रहे कि पूरी व्यवस्था खराब है, सब बदलना होगा जबकि उनकी अपनी पार्टी की सरकार थी. बहुत से ऐसे मौके आए जब वे आम जनता और युवाओं से जुड़ सकते थे, लेकिन वे पीछे रहे. जैसे अन्ना आंदोलन और निर्भया बलात्कार प्रकरण के समय जब युवा सड़कों पर थे तो राहुल गांधी कहीं दिखाई नहीं दिए. निर्भया के समय यह नारा भी चला था कि सारे युवा यहां हैं, राहुल गांधी कहां है.’ कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘आम कांग्रेसी राहुल के नेतृत्व में भरोसा खो चुका है. लेकिन सोनिया जी अगर पुत्रमोह में उन्हें मौका देना चाहती हैं तो फिर कांग्रेस का भगवान ही मालिक है. राहुल ईमानदार हैं. उनकी स्वच्छ छवि है, लेकिन बुद्धि, विवेक और नेतृत्व क्षमता भी तो कोई चीज होती है. इसके बिना आदमी घर का नेतृत्व नहीं कर सकता देश का क्या करेगा. स्थिति यह है कि फोर्ब्स पत्रिका ने लिखा है कि राहुल गांधी भारत के पूर्व भविष्य के प्रधानमंत्री हैं.’
हालांकि गिरिजाशंकर राहुल गांधी को खारिज करने की सोच पर प्रश्न उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘राहुल को कांग्रेस ने आधे अधूरे मन से आगे किया. पार्टी ने खुद भ्रम की स्थिति पैदा की. जनता भी इससे भ्रमित हुई.’ वे भाजपा का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘मान लीजिए भाजपा ने मोदी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर छोड़ दिया होता तो क्या वे उतना ही असर डालते जितना उन्होंने पीएम प्रत्याशी बनने के बाद डाला. जनता को पता था कि वह किसे किस पद के लिए चुन रही है. लेकिन इधर राहुल को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने छोड़ दिया. पार्टी खुद अनिर्णय की स्थिति में थी कि राहुल को पीएम पद के लिए प्रोजेक्ट करे या नहीं. राहुल पर खुद उसे ही भरोसा नहीं था तो फिर वह जनता से कैसे निर्णय की उम्मीद कर सकती थी. राहुल पर फैसला तब दिया जा सकता था जब राहुल के नाम पर चुनाव लड़ा गया होता ’
कांग्रेस के भीतर ही राहुल की कोर टीम को लेकर किस तरह का गुस्सा उबल रहा था यह चुनाव के बाद नेताओं के बयानों से सामने आ गया. इन नेताओं के बयानों को अगर ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि उनकी नाराजगी का असली निशाना राहुल गांधी ही हैं. मिलिंद ने कहा कि सलाह देने वाले पार्टी की बुरी गत के लिए जिम्मेदार हैं ही, साथ में वे भी उतना ही इस हार के लिए जिम्मेदार हैं जो इनसे सलाह ले रहे थे.’ पार्टी के तमाम नेता आज पार्टी के उन तमाम गैरराजनीतिक लोगों को कोस रहे हैं जो राहुल गांधी को सलाह देने का काम किया करते थे. कार्यकर्ता राहुल और उनकी टीम को कैसे देखता है उसकी एक बानगी देखिए, शशिभूषण कहते हैं, ‘राहुल जी को जनता अपरिपक्व मानती है. उनके सलाहकार भी वैसे ही हैं. जिन लोगों को राजनीतिक का क, ख, ग, घ नहीं आता उन्होंने फैसला लेना शुरु कर दिया. ’ पार्टी के एक वरिष्ठ नेता राहुल गांधी पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आने के बाद राहुल ने कहा था कि वे पार्टी को कुछ ऐसे बदलेंगे कि जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते. उन्होंने लोकसभा में यह करके दिखा दिया.’
रशीद कहते हैं, ‘दिक्कत यह भी रही कि राहुल जयराम रमेश और अपनी टीम के साथ मिलकर चुनाव लड़ने और जीतने की जगह संस्थाएं मजबूत करने के कार्य में लग गए थे. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘राहुल जी एक्सपेरिमेंट करने लगे. वे ऐसे सलाहकारों से घिर गए जिनका जमीनी राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था. मोहन गोपाल, जयराम रमेश, मधुसूदन मिस्त्री, कनिष्क सिंह, दीप पॉल जैसे लोगों ने उन्हें गुमराह करने का काम किया. राहुल को हरा चश्मा पहनाकर वे कहते रहे कि देखिए, चारों तरफ हरा ही हरा है. जिस प्राइमरी चुनाव की शुरुआत राहुल ने की उसके माध्यम से चुने गए सारे प्रत्याशी चुनाव हार गए. स्थिति यह थी कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को राहुल से मिलने के लिए टीम के नए लड़कों से समय लेना पड़ता था. उन्होंने पार्टी को एक ट्रेनिंग ग्राउंड बना दिया.’
राहुल पर कांग्रेस के नेता ही कथनी और करनी में भेद करने का आरोप लगाते हैं. पार्टी के एक पूर्व सांसद कहते हैं, ‘आप राहुल जी के कामों को ध्यान से देखेंगे तो आपको कथनी और करनी का भेद पता चल जाएगा. जैसे पहले उन्होंने कहा कि दूसरी पार्टी से आने वालों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर तवज्जो नहीं दी जाएगी. लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनाव से 10 दिन पहले पार्टी में आई करुणा शुक्ला को पार्टी ने टिकट दे दिया. मध्य प्रदेश में भाजपा मंत्री विजय शाह के भाई अजय शाह प्रत्याशी नामित होने के बाद पार्टी में आए. राहुल ने भ्रष्ट नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश फाड़कर पहले प्रधानमंत्री को अपमानित किया और फिर लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. भ्रष्टों का विरोध करते रहे लेकिन अशोक च्वहाण को टिकट देने से नहीं चूके.’
रशीद कहते हैं, ‘स्थिति यह हो गई कि पार्टी बीच में कहीं फंसी दिखाई देने लगी. न राहुल के कारण पार्टी में कोई बदलाव आया. न कोई नयापन महसूस हुआ और न ही पार्टी पारंपरिक राजनीति के रास्ते पर ही आगे बढ़ सकी.’ जानकार बताते हैं कि नेतृत्व के दो केंद्रों के कारण भी पार्टी का कबाड़ा हुआ. एक तरफ सोनिया गांधी की कांग्रेस थी तो दूसरी तरफ हर चीज में बदलाव को आतुर राहुल गांधी थे.
‘न राहुल के कारण पार्टी में कोई बदलाव आया. न कोई नयापन महसूस हुआ और न ही पार्टी पारंपरिक राजनीति के रास्ते पर ही आगे बढ़ सकी’
रशीद कहते हैं, ‘सोनिया कांग्रेस और राहुल कांग्रेस के बीच का अंतर ही वर्तमान में कांग्रेस की असल समस्या है. दोनों के काम करने में बहुत अंतर है. दोनों समूहों में रस्साकशी जारी है. उन्हें तय करना होगा कि आगे की राह सोनिया कांग्रेस के नेतृत्व में तय करनी है या राहुल कांग्रेस के. दोनों मां-बेटे के बीच वैसे तो सब ठीक है लेकिन दोनों के बीच कार्यात्मक संबंध ठीक नहीं है. ठीक ऐसा ही यूपी में अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव और पंजाब में बड़े बादल और छोटे बादल के बीच है.’ पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘राहुल जी को सोनिया जी से राजनीति सीखनी होगी. वे कोई भी निर्णय लेने से पहले पार्टी के सभी बुजुर्ग से लेकर युवा नेताओं तक का ख्याल रखती थीं. यह नहीं कि आप सीनियर हैं तो अब आपकी पार्टी में कोई जरूरत नहीं है. खाली युवा जोश से कुछ नहीं होगा. होश भी चाहिए तभी काम बनेगा.’
कांग्रेस की आंतरिक राजनीति को करीब से जानने वाले बताते हैं कि कैसे जबसे राहुल गांधी ने पार्टी में आमूलचूल बदलाव लाने संबंधी अपने प्रयोग शुरु किए तभी से वे पार्टी के पुराने नेताओं के निशाने पर हैं. यूथ कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘पुराने नेताओं के भीतर राहुल जी के प्रयोग से हमेशा डर समाया रहता है. उन्हें लगता है कि यह आदमी कोई ऐसा प्रयोग न कर दे कि वही लोग बाहर हो जाएं.’ गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘राहुल पार्टी में सालों से बने यथास्थितिवाद को बदलना चाहते हैं. यही कारण है कि पुराने नेता उनसे खार खाए बैठे हैं.’
जानकारों का एक वर्ग मानता है कि राहुल के खिलाफ कुछ उसी तरह का सिंडिकेट काम कर रहा है जो इंदिरा गांधी के समय में उनके खिलाफ पार्टी में रहते हुए षड़यंत्र रचता था. यह तबका नहीं चाहता कि राहुल सफल हों. लेकिन वे सिंडिकेट है कौन? गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘यह सिंडिकेट वही हैं जो सोनिया के साथ वाले हैं. सोनिया यथास्थितिवाद को बदलना नहीं चाहती हैं इसलिए वे इनसे खुश हंै लेकिन राहुल से असहज हैं.’
तो सवाल उठता है कि अगर राहुल गांधी का नेतृत्व पार्टी को कहीं आगे ले जाता नहीं दिखता तो फिर पार्टी के पास विकल्प क्या बचता है?
पिछले कुछ सालों में जितनी तेजी से राहुल गांधी की सीमाएं सामने आती गई हैं उतनी ही तेजी से पार्टी और कार्यकर्ताओं के एक धड़े के बीच से प्रियंका गांधी का नाम उछलता रहा है. अपनी राजनीति को भाई और मां की लोकसभा सीटों तक सीमित रखने वाली प्रियंका को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी देने की मांग बहुत पहले से उठ रही है. हाल ही में पूर्व मंत्री और वरिष्ठ नेता केवी थॉमस ने प्रियंका को पार्टी में बड़ी भूमिका देने की वकालत की. बड़ी तादात में कांग्रेसियों का ऐसा मानना है कि पार्टी के पास अब आखिरी पत्ता प्रियंका गांधी ही हैं. ऐसे में अस्तित्व के संकट से गुजर रही पार्टी को संजीवनी देने के लिए सोनिया गांधी को प्रियंका को आगे लाना चाहिए. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘ पार्टी को स्पष्ट रूप से तय करना होगा कि उसका नेतृत्व कौन करेगा. सोनिया, राहुल और प्रियंका के कॉकटेल ने ही तो पार्टी का सारा खेल खराब किया है. राहुल को नुकसान पहुंचाने में प्रियंका की भी भूमिका रही है. बाहर आकर प्रियंका ने अपने भाई को मजबूत करने की जगह और कमजोर किया है.’
गिरिजाशंकर अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैंैं, ‘चुनाव में अगर पार्टी एक साथ कई चेहरों को लेकर उतरती है तो मामला प्रभावशील नहीं रह पाता. इस चुनाव में कांग्रेस ने यही किया है. एक तरफ उसने राहुल को उतारा तो दूसरी तरफ प्रियंका भी मोदी से दो-दो हाथ करने लगीं. पता चला कि कार्यकर्ता राहुल को छोड़कर चुनाव के बीच में प्रियंका को नेतृत्व सौंपने की मांग करने लगा. इस कारण से भी पार्टी की बुरी गत हुई.’ रशीद भी मानते हैं कि राहुल के रहते हुए अगर पार्टी ने प्रियंका को आगे किया तो पार्टी की समस्या और बढ़ेगी. बकौल गिरिजाशंकर, ‘कांग्रेस का रिवाइवल परिवार के माध्यम से ही होगा. हां, उन्हें यह तय करना होगा कि उन तीनों में से पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा.’
‘बिलकुल नहीं. किसी और को अगर आगे लाया गया तो पार्टी उसे स्वीकार नहीं करेगी. राहुल गांधी पहले विकल्प हैं और प्रियंका गांधी आखिरी’
एक तरफ जहां प्रियंका को जिम्मेदारी देने की बात की जा रही है वहीं यह तथ्य भी रेखांकित करना जरूरी है कि जिन प्रियंका से पार्टी के दुर्दिनों को दूर करने की उम्मीद की जा रही है उन्हीं प्रियंका के रायबरेली और अमेठी की सीटों पर किए गए आक्रामक चुनाव प्रचार के बावजूद दोनों सीटों पर 2009 के मुकाबले कांग्रेस की जीत का अंतर इस बार काफी घटा है. अमेठी में तो राहुल की जीत का अंतर पिछली बार के तीन लाख वोटों के आंकड़े से गिरकर एक लाख पर आ गया. जानकार मानते हैं कि यह सही है कि प्रियंका राहुल की तुलना में न सिर्फ एक अच्छी वक्ता हैं बल्कि लोगों से जुड़ते हुए भी दिखाई देती हैं, लेकिन वे कितनी अच्छी नेता हैं इसकी परीक्षा होना अभी बाकी है.
लेकिन क्या पार्टी का नेतृत्व गांधी परिवार के बाहर किसी और के संभालने की संभावना है ? नीरजा कहती हैं, ‘बिलकुल नहीं. किसी और को अगर आगे लाया गया तो पार्टी उसे स्वीकार नहीं करेगी. राहुल पहले विकल्प हैं और प्रियंका आखिरी.’
कांग्रेस के लिए चुनौती इसलिए भी और गंभीर हो जाती है कि देश में चुनावों की शैली कुछ वैसी ही होती जा रही है जैसी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की होती है. यानी राष्ट्रीय स्तर पर आपको एक ऐसा नेता चाहिए जो आम जनता से जुड़ सके. अपनी बात लोगों तक पहुंचा सके. पूरी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर सके. बोस कहते हैं, ‘पार्टी बहुत लंबे समय तक अनिश्चितता की स्थिति में नहीं रह सकती है. उसे चुनना होगा. राहुल या प्रियंका.’ वे एक और बात की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘अगर पार्टी ने इन दोनों में से किसी को चुन भी लिया तब भी उसकी समस्या खत्म नहीं होगी क्योंकि चाहे राहुल हों या प्रियंका, दोनों ही फुल टाइम राजनेता नहीं हंै. उन्हें थोड़ा राजनीति करनी है, फिर विदेश भी घूमना है. परिवार को भी देखना है. और भी कई शौक हैं. ऐसे में वे कैसे मोदी जैसे राजनेता का मुकाबला कर पाएंगे जो 24 घंटे राजनीति में ही डूबा रहता है. इन दोनों को यह भी फैसला करना होगा कि क्या वे पूरी तरह से खुद को राजनीति में झोंकने के लिए तैयार हैं या नहीं.
कांग्रेस के सामने नेतृत्व के सवाल के साथ ही उसके संगठन के ढांचे के कमजोर होने का सवाल भी मुंह बाए खड़ा है. लोकसभा चुनाव में भयानक हार के बाद से ही पार्टी की सेहत सुधारने को लेकर पार्टी के अंदर से लेकर बाहर तक तमाम सुझाव सामने आने लगे हैं. पार्टी में सुधार के लिए जरूरी कदमों की मीडिया से चर्चा करते हुए मणिशंकर अय्यर कहते हैं, ‘पार्टी में सुधार के लिए हमें विशेष रूप से दो दस्तावेजों पर ध्यान देना सबसे जरूरी है. पहला- 1990 में पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने के लिए उमाशंकर दीक्षित द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट जिसे उस साल पार्टी ने स्वीकार किया था. वह रिपोर्ट आज तक लागू नहीं हुई. उस रिपोर्ट को लागू करने की जरूरत है. दूसरा- 1999 में तैयार हुई आत्मनिरीक्षण संबंधी रिपोर्ट जिसे 2000 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) ने स्वीकार किया था. उसे भी आज तक लागू नहीं किया गया. उसके सुझावों को पार्टी में लागू करने की आवश्यकता है.’ सीडब्ल्यूसी में विशेष आमंत्रित सदस्य अनिल शास्त्री ने भी हाल ही में कहा कि पार्टी को ‘गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है लेकिन निश्चित तौर पर पहले की तरह नहीं जिसमें आत्ममंथन से निकले सुझावों को कभी लागू नहीं किया गया.’
कांग्रेस संगठन में सुधार के लिए तमाम नेता सबसे पहले सीडब्ल्यूसी में सुधार की जरूरत पर बल देते हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद कमलनाथ ने भी हाल ही में सीडब्ल्यूसी में बड़ा परिवर्तन करने की वकालत की. सीडब्ल्यूसी पार्टी की सबसे शक्तिशाली इकाई है जहां से सारे बड़े निर्णय लिए जाते हैं. लेकिन उसके सदस्यों का एक तरफ सालों से चुनाव नहीं हुआ तो दूसरी तरफ वह पार्टी के राज्य सभा में नामित सदस्यों से भरी पड़ी है.
कमलनाथ के अनुसार कांग्रेस की स्थिति सुधारने के लिए सबसे पहले जरूरत है कि वर्किंग कमिटी का चुनाव किया जाए. वे कहते हैं, ‘पहले एक निर्वाचित वर्किंग कमिटी बनाई जानी चाहिए. लेकिन पार्टी में कई ऐसे नेता हंै जो इसका विरोध करते हैं. चुनाव होने लगे तो फिर ऐसे लोगों को संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा. देश की राजनीति पिछले पांच सालों में काफी बदल चुकी है. कांग्रेस को भी बदली परिस्थिति में खुद को बदलना होगा. हमें पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है.’
पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि संरक्षण की बीमारी ने ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी को जकड़ रखा है. अभी स्थिति यह है कि आप काबिल हों या न हों, मेहनती हों या नहीं, लेकिन अगर आपको चापलूसी आती है तो फिर आपको पार्टी में आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. शायद चापलूसी की उसी संस्कृति का उदाहरण था जब तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने सोनिया गांधी को पूरे देश की मां करार दे दिया. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘आप वर्किंग कमिटी को देख लीजिए उसमें से कितने लोग चुनाव जीते हैं या जीतने का दम रखते हैं. 22 में से 10 सदस्य नॉमिनेटेड हैं. मोहन प्रकाश जैसे लोग जिनके पास चार से अधिक राज्यों का प्रभार रहा है वे देश की किसी भी सीट से चुनाव नहीं जीत सकते. राज्य के मुख्यमंत्री इसके मेंबर नहीं हंै. कमलनाथ नौ बार लोकसभा जीते हैं, लेकिन वे इसके सदस्य नहीं हैं. यह तमाशा नहीं तो और क्या है.’
हालांकि पार्टी में ही कमलनाथ से इत्तफाक न रखने वाले लोग भी हैं कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य और वरिष्ठ नेता वीरेंद्र सिंह कहते हैं, ‘यह सुनने में जरूर अच्छा लग सकता है लेकिन क्या संरक्षण देने का काम कमलनाथ नहीं करते हैं? मैं जब मध्य प्रदेश का प्रभारी था तो उन्होंने खुद मुझसे लोगों को टिकट देने कि सिफारिश की थी. राजनीति में बिना संरक्षण के काम हो ही नहीं सकता. दिक्कत संरक्षण में नहीं है, दिक्कत इस बात से है कि जिसे आप संरक्षण देकर टिकट दिलवाते हो उसकी हार की जिम्मेदारी भी आपको लेनी होगी. हां, आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने की बात सही है. सही को सही और गलत को गलत कहने का अधिकार कार्यकर्ताओं को मिलना चाहिए.’ वीरेंद्र आगे कहते हैं, ‘पार्टी में ऊपर से नीचे तक सर्जरी की जरूरत है. इस चुनाव में हमारा कार्यकर्ता निरुत्साहित था. पार्टी से आम जनता का जुड़ाव न के बराबर हो गया है. यह तो 130 साल पुरानी पार्टी है इसलिए बच गई वरना तो कब की खत्म हो गई होती.’
जिस कार्यकर्ता के निरुत्साहित होने की बात वीरेंद्र कह रहे हैं उस कार्यकर्ता की स्थिति यह हो गई थी कि वह अपनी सरकार के खिलाफ गुस्से से भरा बैठा था. शशिभूषण कहते हैं, ‘ हमारी अपनी सरकार में ही कार्यकर्ताओं की कोई सुनवाई नहीं थी. मंत्री लोग हम लोगों को नौकर की तरह ट्रीट करते थे. जब कार्यकर्ता ही सरकार से प्रसन्न नहीं था तो वह आम लोगों से आपकी तारीफ क्या करेगा?’
एक तरफ जहां पार्टी केंद्रीय संगठन को दुरुस्त करने पर चर्चा कर रही है वहीं पार्टी के भीतर से ही इस बात को लेकर आवाज उठनी शुरु हो गई है कि कैसे पार्टी ने अपने कर्मों से सभी राज्यों में अपने संगठन को मरणासन्न अवस्था में पहुंचा दिया है. कांग्रेस पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह पिछले कई दशकों से राज्य में मजबूत नेतृत्व उभरने से रोकती आई है. इस सोच के साथ कि भविष्य में राज्यों में मजबूती से उभरता कोई नेता उसे चुनौती न दे सके. इंदिरा गांधी के बारे में यह बात मशहूर थी कि वे जब कोई पौधा लगाती हैं तो कुछ समय बाद उसे उखाड़कर देखती हैं कि कहीं पौधे की जड़ें बड़ी तो नहीं हो गईं.
इंदिरा गांधी के बारे में यह बात मशहूर थी कि वे जब कोई पौधा लगाती हैं तो कुछ समय बाद उसे उखाड़कर देखती हैं कि कहीं पौधे की जड़ें बड़ी तो नहीं हो गईं
राज्य संगठन के साथ कांग्रेस का क्या बर्ताव है, इसका एक उदाहरण 2012 में देखने को मिला. मौका हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों का था. चुनाव के दो महीने पहले तक कांग्रेस यह तय नहीं कर पा रही थी कि वह प्रदेश में किसके नेतृत्व में चुनाव लड़े. ऐसा नहीं था कि उसके पास कोई नेता नहीं था. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी (पांच बार मुख्यमंत्री ) वीरभद्र सिंह उसके पास थे जिनके बारे में किसी को शक नहीं था कि पूरे हिमाचल में सर्वाधिक लोकप्रिय कांग्रेसी नेता वही हैं. लेकिन जड़ नापकर नेता को नापने की अपनी मानसिकता के तहत पार्टी वीरभद्र के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से बचती रही. आखिर में जब वीरभद्र ने पार्टी छोड़ने की तैयारी कर ली और अगले दिन वे एनसीपी में जाने वाले थे कि सोनिया ने उन्हें पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनकर शिमला जाने को कहा. खैर, वीरभद्र मान गए. चुनाव में पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई.
हर राज्य में कांग्रेस की यही कहानी है. पार्टी ने हर जगह से मजबूत और लोकप्रिय नेताओं का एक तरफ सफाया किया तो दूसरी तरफ चापलूसों को लगातार बढ़ाती रही. जानकार उत्तराखंड का उदाहरण भी देते हैं कि कैसे प्रदेश मेंे पिछले विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद विधायकों की पसंद और स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय नेता हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाने की जगह पार्टी ने विजय बहुगुणा के हाथ कमान सौंप दी.
कांग्रेस के अंदर से ही नेतृत्व की इस रणनीति के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं. हाल ही में पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने कहा कि दिल्ली से बैठकर 10 लोग पूरे देश में पार्टी को संचालित नहीं कर सकते. हमें प्रदेश की राजनीति को राज्यों के ऊपर छोड़ना होगा. दिल्ली से बैठकर उसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.
रशीद किदवई आंध्र प्रदेश का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘2004 और 2009 में कांग्रेस को यहां 30 से ज्यादा सीटें मिली थीं. लेकिन राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद वह ऐसे फिसली कि फिर संभल नहीं पाई. कांग्रेस के पास अन्य राज्यों में भी ताकतवर नेताओं का अभाव है. ज्यादातर राज्यों में उसके पास बड़े कद का कोई नेता नहीं बचा है.’
पार्टी का भविष्य क्या रूप लेता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन जानकारों का एक तबका इस बात को मानता है कि जब तक पार्टी इस सोच के सहारे चलेगी कि चाहे जो हो जाए गांधी परिवार के किसी व्यक्ति से कोई प्रश्न नहीं पूछा जा सकता, वह हर तरह के मूल्यांकन के बाहर है और परिवार कभी गलत हो ही नहीं सकता तब तक पार्टी की स्थिति पूरी तरह से सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं.
उधर, पार्टी नेताओं के साथ ही राजनीतिक पंडितों के एक बड़े तबके का मानना है कि अभी कांग्रेस का मर्सिया नहीं लिखा जा सकता. बोस कहते हैं, ‘आपातकाल के बाद भी ऐसे ही हुआ था. 77 में इंदिरा गांधी की हार के बाद के बाद लोग कहने लगे थे कि अब तो कांग्रेस खत्म हो गई. कोई उस समय कांग्रेस की वापसी के बारे में सोच नहीं सकता था. लेकिन 80 में इंदिरा ने फिर से जोरदार वापसी की.’
जितनी जरूरत संगठन को मजबूत करने की है उतनी ही इस बात की भी कि गांधी परिवार खुद अपने राजनीतिक तौर-तरीकों में तब्दीली लाए
खैर, कांग्रेस को एक तरफ जहां नेतृत्व से लेकर संगठन के तमाम मसलों पर काम करने की जरूरत है वहीं उसे सहयोगियों को लेकर भी चिंतित होने की आवश्यकता है. चुनाव में पार्टी उस महामारी की तरह फैल गई थी जिसके संपर्क में जो दल आया उसका सफाया हो गया. मायावती ने अपनी पार्टी की बुरी गत के लिए भी कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया. मायावती का कहना था कि लोगों ने उन्हें यूपीए को समर्थन करने की सजा दी है. ऐसे में पार्टी को उस छवि को भी तोड़ना होगा जिससे यह संदेश जा रहा है कि कांग्रेस से जो जुड़ता दिखेगा उसका हश्र भी कांग्रेस जैसा ही होगा. पार्टी और परिवार के शुभचिंतक इस बात की तरफ भी इशारा करते हैं कि जितनी जरूरत नेतृत्व के प्रश्न को हल करने और संगठन को मजबूत करने की है उतनी ही इस बात की भी है कि गांधी परिवार खुद अपने राजनीतिक तौर तरीकों में तब्दीली लाए. पिछली सरकार में मंत्री रह चुके एक नेता कहते हैं, ‘परिवार को पार्टी को गुलाम समझने और और उसे रिमोट से संचालित करने की मानसिकता से बाहर आना होगा. इस चुनाव में जनता ने हमारे खिलाफ इसलिए भी वोट किया क्योंकि उसने देखा कि कैसे प्रधानमंत्री एक परिवार के आगे दीन-हीन बना हुआ था और पार्टी नेतृत्व राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के माध्यम से सरकार की नकेल कसता रहता था.’
पार्टी के ही एक अन्य नेता कहते हैं, ‘पिछले 10 सालों में ऐसा संदेश गया मानो प्रधानमंत्री कांग्रेस परिवार की नौकरी कर रहा हो. इससे जनता के बीच गलत मैसेज गया. गांधी परिवार उसे अंग्रेजों की तरह दिखाई देने लगा. प्रधानमंत्री के उस बयान ने भी कोढ़ में खाज का काम किया जिसमें उन्होंने कहा था ‘मैं राहुल जी के नेतृत्व में काम करने को तैयार हूं.’