हिंदी कहानी के हालिया इतिहास को देखें तो लगभग हर दस साल पर कहानीकारों की एक नई पीढ़ी दस्तक देती रही है. हर पीढ़ी के रचनाकारों को उनके दशक या कहानी की किसी धारा के साथ जोड़कर पहचाना गया. ऐसा पहली बार हुआ कि सन 2000 के बाद बड़ी संख्या में सक्रिय हुए रचनाकारों को ‘नई पीढ़ी’ और उनकी कहानियों को ‘युवा कहानी’ जैसा बेतुका नाम दे दिया गया. इस नई पीढ़ी को कहानियां लिखते हुए लगभग डेढ़ दशक हो चुके हैं. बावजूद इसके वे अब भी युवा हैं. हिंदी कहानी के इतिहास में ‘युवा कहानी’ एक ऐसी परिघटना है जिसमें कोई भी युवा कभी भी शामिल होकर युवा परिदृश्य का विस्तार कर सकता है. भले ही प्रारंभिक युवा कहानीकार और शामिल नए युवा कहानीकार के बीच रचनाशीलता और उम्र की दृष्टि से दो दशक का ही फर्क क्यों न हो. ऐसा प्रतीत होता है कि ‘युवा कहानी’ के साथ ही हिंदी कहानी के इतिहास का अंत हो चुका है. यह हमारे संपादकों, समीक्षकों और आलोचकों की दृष्टिविहीनता का ज्वलंत उदाहरण है जो दो-दो दशक के अंतर के बावजूद सबको एक साथ समेटकर युवा परिदृश्य का निर्माण कर रहे हैं. सुशील सिद्धार्थ द्वारा तीन खंडों में संपादित ‘हिंदी कहानी का युवा परिदृश्य’ एक ऐसा ही दृष्टिविहीन आयोजन है. इसमें कुल सत्ताइस रचनाकारों की एक-एक कहानी और उनके वक्तव्य को शामिल किया गया है. प्रत्येक खंड में नौ-नौ रचनाकार हैं. इन रचनाकारों में सबसे वरिष्ठ युवा कहानीकार शरद सिंह (51) हैं तो सबसे कनिष्ठ युवा कहानीकार सोनाली सिंह (32) हैं. संपादक के इस युवा परिदृश्य में चौदह स्त्रियां हैं और तेरह पुरुष. सबसे आश्चर्य तो यह है कि यहां इतिहास बनाने वाले युवा कहानीकारों की श्रेणी में जयंती रंगनाथन, हुस्न तबस्सुम निहां, गीताश्री, सोनाली सिंह, ज्योति चावला आदि तो शामिल हैं लेकिन कुणाल सिंह, मो. आरिफ, गीत चतुर्वेदी, मनोज कुमार पांडेय, अनिल यादव, राजीव कुमार, सूर्यनाथ सिंह, प्रेम भारद्वाज आदि जैसे कहानीकार शामिल नहीं हैं. राजीव कुमार और मनोज कुमार पांडेय से तो वक्तव्य मंगवाकर भी इन्हें शामिल नहीं किया गया. उम्र, रचनाकाल का आरंभ, प्रकाशन, प्रतिनिधित्व, आदि जैसा एक भी वस्तुनिष्ठ आधार नहीं है जो इस संकलन में कहानीकारों के शामिल किए जाने और न किए जाने के औचित्य को सिद्ध कर सके. यह संकलन निजी रुचि-अरुचि और राग-द्वेष पर आधारित एक असफल प्रयास है.
सबसे हैरतअंगेज बात तो यह है कि इन तीनों खंडों के लिए एक ही भूमिका से काम चलाया गया है. संपादक का कहना है कि पूरी पुस्तक एक है, खंड विभाजन प्रकाशन की सुविधा के लिए किया गया है. इस संपादकीय उदारता का कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता जो पंकज मित्र और जयश्री रॉय की रचनाशीलता को एक ही परिप्रेक्ष्य से देखने की वकालत करती हो और वंदना राग की ‘यूटोपिया’ और गीताश्री की ‘बनाना नाइट’ को एक ही तराजू में तौलती है. सुशील सिद्धार्थ से यह स्वाभाविक उम्मीद थी कि वे अपने चयन के औचित्य को सही ठहराते हुए एक गंभीर भूमिका लिखते और देश की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में इन सत्ताइस कहानीकारों की समान प्रवृतियों के रेखांकन के साथ-साथ प्रत्येक की अपनी विशेषता को विस्तार से उजागर करते जिसके कारण वे उन्हें हिंदी कहानी में महत्वपूर्ण मानते हैं. इसके अभाव में इस संकलन का कोई महत्व नहीं है. ऐसे संकलन का महत्व तब होता जब इसमें शामिल कहानीकारों के संग्रह नहीं आए होते और उनकी शुरुआती तीन-चार कहानियों के आधार पर हिंदी की साहित्यिक दुनिया से उनका परिचय कराया जाता. स्थापित हो चुके कहानीकारों के साथ युवा परिदृश्य के नाम पर कुछ औसत दर्जे के कहानीकारों को शामिल कर उन पर ध्यान आकर्षित करवाने की जगह अगर सुशील सिद्धार्थ पिछले दो दशक की सर्वश्रेष्ठ कहानियों का चयन करके उन पर बेहतरीन आलोचना के साथ एक संकलन तैयार करते तो अधिक मूल्यवान काम होता. यह संकलन तो अच्छे के साथ खराब की मिलावट करके बाजार में बेचने का उपक्रम मात्र है. वैसे तो तीनों खंडों में मिलावट है, पर तुलनात्मक दृष्टि से पहला खंड सबसे बेहतर है और तीसरा खंड सबसे खराब.
संकलन में सभी कहानियां पुरानी है इसलिए उन पर अलग से बात करने का कोई मतलब नहीं है. इनके वक्तव्यों पर जरूर बात हो सकती है. इस अधूरे संकलन के बावजूद यह तो निष्कर्ष निकाला ही जा सकता है कि हिंदी कहानी के इतिहास में यह शायद पहली बार है जब इतनी अधिक स्त्रियां सक्रिय हुई हैं. यह आने वाले समय में हिंदी की साहित्यिक दुनिया में पुरुष वर्चस्व की समाप्ति का मजबूत संकेत है. इसके साथ-साथ एक और बात गौर करने लायक है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह आदि जैसी इस पीढ़ी की स्थापित और सशक्त स्त्री रचनाकारों ने हिंदी में प्रचलित स्त्री विमर्श से अपने को अलगाया है. इससे यह संकेत स्पष्ट है कि रचनाशीलता के संदर्भ में अब स्त्री विमर्श बहुत दूर तक जाने वाला नहीं है. निकट भविष्य में इसकी विदाई तय है. ऐसे कुछ सकारात्मक संकेतों के अतिरिक्त इन सत्ताइस रचनाकारों के वक्तव्यों को पढ़ने से कुछ बेचैन कर देने वाले तथ्य भी सामने आते हैं. कुछ को छोड़कर अधिकांश के लिखने के पीछे कोई सामाजिक-राजनीतिक कारण या प्रतिबद्धता नहीं है. अधिकांश रचनाकारों ने अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों के दाय को स्वीकार करने से इंकार किया है. इनके आत्ममुग्ध वक्तव्यों से लगता है कि हिंदी कहानी की परंपरा इन्हीं से शुरू हो रही है. एक ऐसे समय में जब बाजार निर्मम और क्रूर हो चुका है किसान आत्महत्या कर रहे हैं, आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं, भ्रष्टाचार चरम पर है, आम आदमी का जीना दूभर है, स्त्रियां असुरक्षित हैं, तब एक सरोकारविहीन, गैरप्रतिबद्ध और अराजनीतिक युवा परिदृश्य से कभी-कभी डर लगने लगता है.