व्यक्तिवाद-परिवारवाद
नीतीश कुमार के बारे में एक बात कही जाती है कि वे औरों से बहुत अलग हैं. ऐसा है भी. लालू प्रसाद, रामविलास पासवान या उनके पहले के भी बहुतेरे नेताओं की तुलना में नीतीश एक मामले में अलग छवि रखते हैं. इनके सत्ता में आने के बाद भी इनके निकटवर्ती या दूरदराज के रिश्तेदारों की फौज राजनीति में खड़ी नहीं हुई. नीतीश के बड़े भाई सतीश बाबू आज भी नीतीश के प्रभाव का कभी कोई इस्तेमाल नहीं करते. नीतीश के बेटे भी प्रभाव का फायदा उठाने से बहुत दूर रहते हैं. अन्य रिश्तेदारों की तो बात ही दूर. इस आधार पर नीतीश के जरिये एक संभावना जगी थी कि परिवारवाद का खात्मा करने में नीतीश ही सक्षम होंगे. हालांकि शुरू में इस मुद्दे पर कुछ देर ही टिके रहने के बाद नीतीश लगातार समर्पण की मुद्रा में नजर आए.
समान स्कूल शिक्षा प्रणाली में नीतीश ने एक आयोग गठित की. आयोग ने रिपोर्ट दी, वह ठंडे बस्ते में चली गई. किसान आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन कर बेहतर पहल की लेकिन वहां भी पेंच फंसता रहा
व्यक्तिगत तौर पर यदि अपनी छवि बचाए रखने की बात हो तो सिर्फ नीतीश ही क्या, इसी बिहार में कई नेता पहले भी हुए, जिन्होंने अपने परिजनों को अपने जीते-जी राजनीति से दूर रखा. लेकिन नीतीश कुमार अपने ही दल में परिवारवाद और वंशवाद को नहीं रोक सके. महेंद्र सहानी के बेटे अनिल सहानी को राज्यसभा भेजकर, जगदीश शर्मा की पत्नी का टिकट काटने के बाद उनके बेटे राहुल शर्मा को देकर, मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नु शुक्ला को टिकट देकर, अश्वमेघ देवी, मीना सिंह, कौशल्या देवी आदि को चुनावी राजनीति में मुकाम दिलाकर नीतीश ने खुद को भी ‘औरों’ की श्रेणी में शामिल कर लिया.
बात सिर्फ परिवारवाद पर ही खत्म होती तो और बात होती, राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ बयान और फास्ट ट्रैक ट्रायल के जरिये अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने की प्रक्रिया नीतीश को बहुत हद तक वाहवाही तो दिलवाती है लेकिन अनंत सिंह, तसलीमुद्दीन, उनके बेटे सरफराज, सुनील पांडेय, उनके भाई हुलास पांडेय आदि के साथ कई नामचीन बाहुबलियों की पत्नियों को राजनीतिक संरक्षण देना उनकी मजबूरी को दर्शाता रहा. खगड़िया में शिक्षकों की सभा में, नीतीश के अंगरक्षकों के रहते जदयू नेता रणधीर यादव द्वारा सरेआम फायरिंग करना तो एक उदाहरण बन गया. दरौंदा विधानसभा की घटना भी नजीर बनी तो उसमें नीतीश की ही भूमिका थी, जिसे आज भी लोग चटखारे लेकर सुनाते हैं. दरौंदा में एक सीट को बचाने के लिए नीतीश ने बाहुबली अजय सिंह की शादी आननफानन में शादी करवा दी और उनकी पत्नी कविता सिंह को टिकट देने का फैसला कर विधायक बनवा दिया.नीतीश उस वक्त इस एक सीट को हार भी जाते तो यह हार कई जीतों से बड़ी होती. लेकिन नीतीश ने ऐसा नहीं किया.
इन दस सालों में कई मौके ऐसे भी आए, जब नीतीश कुमार घोर व्यक्तिवादी राजनीति करते नजर आए और खुद को उभारने के लिए, खुद को स्थापित करने के लिए अपने लोगों को लगातार दरकिनार करते रहे. इसका एक बड़ा उदाहरण तब नजर आया जब राजगीर शिविर में उनके दल के सांसद शिवानंद तिवारी ने नीतीश कुमार को नसीहत देने की कोशिश की. नीतीश उस समय मौन साधे रहे बाद में शरद यादव से शिवानंद तिवारी, एनके सिंह और साबिर अली को बाहर का रास्ता दिखा दिया. तब पहले यह बताया गया कि नीतीश एक बार ही किसी को राज्यसभा भेजते हैं, इसलिए ऐसा किया लेकिन अली अनवर जैसे चुप रहनेवाले नेताओं को उन्होंने दोबारा राज्यसभा भेजा तो यह भ्रम टूट गया.
प्रेम कुमार मणि, शंभू शरण प्रसाद जैसे नेता जो नीतीश के काफी करीबी रहे लेकिन एक-एक करके या तो निकाले जाते रहे या निकलने को मजबूर किए जाते रहे. इसका असर नीतीश की छवि पर पड़ता रहा
दरअसल नीतीश कुमार के लिए यह कोई पहला मौका नहीं था कि उन्होंने अपने खिलाफ बोलने वाले अपने लोगों को दरकिनार किया बल्कि उनकी राजनीतिक शैली में यह उनकी खास अदा भी मानी जाती है कि जो भी उनकी थोड़ी आलोचना करता है, उसे वे मौन साधकर किसी दूसरे नेता से किनारे करवाते हैं. सबसे बड़ा आरोप तो जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को दरकिनार कर देने का है, जिस पर न तो नीतीश और न ही उनके करीबी आज तक जवाब दे पाते हैं. प्रेम कुमार मणि, शंभू शरण प्रसाद जैसे नेताओं की तो फौज ही है, जो नीतीश के काफी करीबी रहे लेकिन एक-एक करके या तो नीतीश द्वारा निकाले जाते रहे या निकलने को मजबूर किए जाते रहे. इसका सीधा असर भले न हुआ हो लेकिन इससे नीतीश की छवि पर लगातार असर पड़ता रहा.
बात अगर प्रशासनिक कार्यकलाप की करें तो कई और चीजें दिखाई पड़ेंगी, जिससे साफ हो जाता है कि नीतीश खुद को केंद्र में रखकर ही काम करने में भरोसा करते हैं. वे समानांतर रूप से किसी को भी सत्ता शासन का श्रेय नहीं लेने देना चाहते. इसका एक बड़ा उदाहरण उनके आवास में लगने वाला जनता दरबार है. जनता दरबार नीतीश कुमार जब घंटों लोगों की फरियाद सुनते हैं तब कुछ देर के लिए लगता है कि चाहे इसका नतीजा जो होता हो, नीतीश इतनी देर बैठते तो हैं. लोगों की बात तो सुनते हैं. एक आम आदमी उनसे मिलकर अपनी बात तो रख सकता है. लेकिन यह सब एक हद के बाद गिरावट की स्थिति में आने लगता है. जब एक फरियादी के चार-चार बार पहुंचने के बाद भी समस्याओं का समाधान नहीं पाता या फरियाद सुनाने के एवज में अधिकारियों की धौंस का सामना करता है तो वह टूट जाता है. नीतीश अपनी धुन में नियमित तौर पर तो दरबार में आते हैं, समस्याएं सुनते हैं लेकिन शायद बाद में यह जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके पास दूरदराज से किसी तरह पहुंचने वाले लोगों के आवेदन पर अधिकारी गंभीरता से कार्रवाई कर भी रहे हैं या नहीं. अगर नीतीश बीच-बीच में इसकी खबर भी लेते तो शायद आरटीआई से सूचना मांगने पर लंबित मामलों की इतनी सूची इस तरह की नहीं होती.
इसी तरह नीतीश यात्राओं पर भी जमकर निकलते हैं. सेवा यात्रा, विकास यात्रा, न्याय यात्रा वगैरह-वगैरह. यात्राओं के दौरान जो भी आवेदन उन्हें मिलते हैं, उसे भी अधिकारी ठंडे बस्ते में रखते हैं. इसके बजाय नीतीश कुमार के पास शासन का दूसरा मॉडल भी था. वे अधिकारियों को ज्यादा जवाबदेह बना सकते थे. सिस्टम को ठीक कर सकते थे. दस सालों के शासन में सिस्टम को ही इतना चुस्त-दुरुस्त कर सकते थे कि लोगों को छोटी-छोटी फरियाद लेकर उनके पास नहीं आना पड़ता. लेकिन वह खुद को ही केंद्र में रखकर शासन करने की उनकी प्रक्रिया में लगे रहे, जिससे उनका नुकसान ही हुआ.
पॉपुलर पॉलीटिक्स बनाम कार्यकर्ताओं की उपेक्षा
नीतीश कुमार पॉपुलर पॉलीटिक्स करने के माहिर खिलाड़ी बनते रहे. कुछ साल पहले जब विधायक फंड खत्म करने की घोषणा की तो इसकी चौतरफा प्रशंसा हुई. जब आरटीएस को लागू करवाया तो प्रशंसा हुई. जब देश में अन्ना आंदोलन उफान मार रहा था, तो उन्होंने खुलकर समर्थन किया, राइट टू रिकाॅल पर अन्ना के पक्ष में बयान दिया. यह सब नीतीश को लोकप्रिय बनाते हैं. नीतीश वक्त की नजाकत समझने में माहिर हैं, इसलिए अन्ना आंदोलन के दिनों में उन्होंने एक भ्रष्ट अधिकारी का घर जब्त कर उसमें स्कूल खोल वाहवाही भी लूटी. किसी समाचार चैनल द्वारा सामान्य सम्मान मिलने पर भी सरकारी फंड से बड़े-बड़े होर्डिंग लगते रहे. अखबारों में विज्ञापन का बजट बढ़ाकर भी वह लोकप्रियता के सूत्र तलाशते रहे. यह सब अच्छा रहा लेकिन इस बीच नीतीश यह भूलते रहे कि वे सत्ताधारी पार्टी के नेता हैं और आगे की लड़ाई के लिए सिर्फ उनकी इकलौती लोकप्रियता काफी नहीं होगी बल्कि उन्हें एक टीम भी चाहिए. सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं संभाले रखना बहुत मुश्किल काम होता है.
‘नीतीश सब काम सरकारी तंत्र से करवाते रहे. सरकारी तंत्र तो किसी का होता नहीं. वह आज आपके साथ है, कल देखेगा कि दूसरा मजबूत है, अपना चरित्र बदल लेगा. नीतीश की यह सबसे बड़ी भूल रही’
उन्होंने अपनी छवि बनाने के लिए जिला प्रशासन और थानों तक परोक्ष तौर पर यह आदेश दिया कि किसी की बात न सुनी जाए. इसका असर यह हुआ कि प्रभावशाली लोगों की बात तो प्रशासन सुनती रही, पुलिस भी मानती रही लेकिन जदयू कार्यकर्ताओं को सत्ताधारी से जुड़ाव के बावजूद अपनी औकात में रहना पड़ा. वे अपने इलाके में छोटी पैरवी करने में भी असमर्थ हो गए. विधायक फंड खत्म होने से छोटे-छोटे ठेके-पट्टे के काम भी मिलने बंद हो गए. नीतीश कुमार सरकार को प्रशासन के जरिये चलाने में पूरी ऊर्जा लगाए रखे, उनकी तमाम योजनाएं सरकारी तंत्रों से संचालित होती रही और जदयू कार्यकर्ता हाशिये पर जाते रहे. नतीजा यह हुआ कि जिला स्तर पर भी कई जगहों पर जदयू का संगठन खड़ा नहीं हो सका. इतने सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद पार्टी का एक स्वरूप नीतीश कुमार खड़ा नहीं कर सके, इसका असर अब उनकी पार्टी पर दिख रहा है. कार्यकर्ताओं को उन्होंने पेड़ लगाकर सदस्यता अभियान चलाने के उपक्रम में लगाया. जाहिर सी बात है कि ऐसे अभियान की हवा निकलनी थी. लोगों की बात कौन करे, जदयू कार्यकर्ताओं ने नीतीश के इस अभियान में साथ नहीं दिया. शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘इसका गहरा असर होगा. जो भी क्षेत्र में कार्यकर्ता होता है, नेता होता है, वह दिन-रात मेहनत कर अपनी साख बनाता है. उसकी इतनी अपेक्षा रहती है कि वह भी जनता के बीच नेता की तरह माना जाए. वह भी किसी की मदद कर सके. उसकी बात भी कहीं न कहीं शासन में सुनी जाए, लेकिन नीतीश कुमार ने ऊपर से आदेश देकर किसी को भी मदद नहीं करने की बात कह दी तो कार्यकर्ता इनके पास रहेंगे कैसे?’ उनके अनुसार, ‘नीतीश ने अपनी योजनाएं चलाने के लिए भी कार्यकर्ताओं को पर्याप्त छूट नहीं दी. सब सरकारी तंत्र से करवाते रहे और सरकारी तंत्र तो किसी का होता नहीं. वह आज आपके साथ है, कल देखेगा कि दूसरा मजबूत है, अपना चरित्र बदल लेगा. नीतीश की यह सबसे बड़ी भूल रही.’