जो बनारसवाले हैं या जिनका बीएचयू से वास्ता है, सिर्फ उनके बीच ही नहीं, बल्कि गैरबनारसियों व गैरबीएचयूवालों के बीच भी इस विश्वविद्यालय को लेकर कई किस्म के किस्से-कहानियां बहुत मशहूर हैं. जैसे कोई कहता है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना जब महामना मदनमोहन मालवीय कर रहे थे, तो भिक्षा मांगते हुए हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे और निजाम ने जब जूती दान में दी, तो महामना ने उसकी बोली लगवाई. इसी तरह यह भी किस्सा मशहूर है कि महामना जब विश्वविद्यालय के लिए जमीन दान मांगने काशी के महाराज के पास गए, तो महाराज ने कहा कि जितनी जमीन आप पैदल चलकर नाप सकते हैं, वह सारी आप विश्वविद्यालय के लिए ले सकते हैं. और फिर मालवीय जी ने ऐसा किया. ये किस्से-कहानियां तो हैं ही, इनके अलावा बीएचयू की स्थापना से जुड़े कई ऐसे सच भी हैं, जो इतिहास के पन्नों में जगह पाए बिना ही दफन हो गए, लेकिन इस बार चार फरवरी को जब बीएचयू अपने स्थापना के 100वें साल में प्रवेश करेगा और उस मौके को लेकर जलसों-आयोजनों का दौर शुरू होगा, तो इतिहास में विस्मृत वे पन्ने भी खुलेंगे.
स्वतंत्र अनुसंधानकर्ता तेजकर झा कई वर्षों की मेहनत के बाद बीएचयू की स्थापना से जुड़े कई तथ्यों को समेटते हुए एक किताब लिख रहे हैं. यह किताब बताएगी कि यह विश्वविद्यालय सिर्फ मदनमोहन मालवीय की उद्यमिता, मेहनत और संकल्पों की वजह से वजूद में नहीं आया, बल्कि कई अन्य लोगों की इसमें अहम भूमिका थी, जिनके नाम की चर्चा इस विश्वविद्यालय के स्थापना के साथ कहीं नहीं होती. ऐसे दो अहम लोग हैं- एनी बेसेंट और दरभंगा के नरेश रामेश्वर सिंह. झा बताते हैं कि इस किताब के जरिए मैं मालवीय जी के महत्व को कम नहीं करना चाहता, बल्कि उन लोगों के बारे में बताना चाहता हूं, जो इतने बड़े संस्थान की स्थापना में अहम भूमिका निभाने के बावजूद अनाम-गुमनाम रह गए और जिनकी एक निशानी तक बीएचयू परिसर में नहीं है.
बकौल झा, बीएचयू की आधारशिला चार फरवरी 1916 को रखी गई थी. उसी दिन से सेंट्रल हिंदू कॉलेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई थी. झा बताते हैं कि 1902 से 1910 के बीच एक साथ तीन-तीन लोग हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की कोशिश में लगे हुए थे. एनी बेसेंट, जो पहले से बनारस में हिंदू कॉलेज चला रही थीं, चाहती थीं कि एक हिंदू विश्वविद्यालय हो. इसके लिए इंडिया यूनिवर्सिटी नाम से उन्होंने अंग्रेज सरकार के पास एक प्रस्ताव भी आगे बढ़ाया था, लेकिन उस पर सहमति नहीं बन सकी. मालवीय ने भी 1904 में इसी तरह की परिकल्पना की और बनारस में सनातन हिंदू महासभा नाम से एक संस्था गठित कर एक विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पारित करवाया. इस प्रस्ताव में विश्वविद्यालय का नाम भारतीय विश्वविद्यालय सोचा गया. उसी दौरान दरभंगा के तत्कालीन महाराज रामेश्वर सिंह ने भारत धर्म महामंडल के जरिए शारदा विश्वविद्यालय के नाम से एक विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पास करवाया.
22 मार्च 1915 को इंपिरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बीएचयू बिल पेश किया गया. इस बिल को बटलर ने पेश किया. इसके बाद बहस हुई. रामेश्वर सिंह और मालवीय समेत कई लोगों ने भाषण दिए. बहस हुई और विधेयक पारित होकर अधिनियम बन गया
ये तीनों ही लोग बनारस में ही विश्वविद्यालय स्थापित करना चाह रहे थे. तीनों लोग अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित हो रही भारतीय शिक्षा प्रणाली से चिंतित होकर इस दिशा में कदम बढ़ा रहे थे, लेकिन अलग-अलग प्रयासों से तीनों में से किसी को सफलता नहीं मिल रही थी. अंग्रेज सरकार ने तीनों के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. बात आगे नहीं बढ़ सकी, तो अप्रैल 1911 में मालवीय और बेसेंट के बीच बैठक हुई. बात हुई कि जब मकसद एक ही है, तो फिर क्यों न एक ही साथ काम किया जाए? बात तय तो हो गई, लेकिन बेसेंट उसके बाद इंग्लैंड चली गईं. हालांकि जब उसी साल सितंबर-अक्टूबर में इंग्लैंड से बेसेंट वापस लौटीं, तो रामेश्वर सिंह के साथ बैठक हुई और फिर तीनों ने साथ मिलकर अंग्रेज सरकार के पास प्रस्ताव आगे बढ़ाया. सवाल उठा, अंग्रेज सरकार से बात कौन करेगा? इसके लिए दरभंगा महाराज के नाम पर सहमति बनी.
सिंह ने 10 अक्टूबर को उस समय के शिक्षा विभाग के सदस्य या यूं कहें कि शिक्षा विभाग के सर्वेसर्वा हारकोर्ट बटलर को पत्र लिखा कि हम लोग आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ भारतीय शिक्षा प्रणाली को भी आगे बढ़ाने के लिए इस तरह के एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते हैं. 12 अक्टूबर को बटलर ने जवाबी चिट्ठी लिखी और चार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए हिदायत दी कि ऐसा प्रस्ताव तैयार कीजिए, जो सरकार के तय मानदंडों पर खरा उतरे. यही हुआ. विश्वविद्यालय के लिए सेंट्रल हिंदू कॉलेज को दिखाने की बात तय की गई. 17 अक्टूबर को मेरठ में एक सभा हुई, जिसमें सिंह ने यह घोषणा की कि वे तीनों मिलकर एक विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए जनता का समर्थन चाहिए. जनता ने उत्साह दिखाया.
उसके बाद 15 दिसंबर 1911 को सोसाइटी फॉर हिंदू यूनिवर्सिटी के नाम से एक संस्था का निबंधन हुआ, जिसके अध्यक्ष रामेश्वर सिंह बनाए गए. उपाध्यक्ष के तौर पर एनी बेसेंट और भगवान दास का नाम रखा गया और सुंदरलाल सचिव बने. एक जनवरी को सिंह ने पहले दानदाता के रूप में पांच लाख रुपये देने की घोषणा की और तीन लाख रुपये उन्होंने तुरंत दिए. खजूरगांव के राजा ने सवा लाख रुपये दान में दिए. इस तरह से चंदा एकत्र करने और दान लेने का अभियान शुरू हुआ. बिहार और बंगाल के जमींदारों और राजाओं से दरभंगा महाराज ने पैसा एकत्र करना आरंभ किया. 17 जनवरी 1912 को कोलकाता के टाउन हॉल में उन्होंने बताया कि इतनी कम अवधि के भीतर ही 38 लाख रुपये एकत्र हो गए हैं.
महाराजा बीकानेर और बीएचयू के सीनेट मेंबर रहे वीए सुंदरम ने साल 1936 में बीएचयू के वास्तविक इतिहास को बदलने की कोशिश की और तब से ही कई नाम विस्मृति के गर्भ में चले गए.
इस काम के लिए 40 अलग-अलग समितियां बनाई गईं कि दान लेने का अभियान आगे बढ़ता रहे. राजे-रजवाड़ों से चंदा लेने के लिए अलग समिति बनी, जिसका जिम्मा खुद रामेश्वर सिंह ने लिया और इसके लिए वह तीन बार देश भ्रमण पर निकले, जिसकी चर्चा उस समय की कई पत्रिकाओं में भी हुई. विश्वविद्यालय के लिए जमीन की बात आई, तो काशी नरेश से कहा गया. काशी नरेश ने तीन अलग-अलग क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए कहा कि जो उचित हो, ले लिया जाए. जमीन के चयन के लिए पांच लोगों की समिति बनी. इसके बाद जमीन का चयन हुआ.
22 मार्च 1915 को इंपिरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बीएचयू बिल पेश किया गया. इस बिल को बटलर ने पेश किया. इसके बाद बहस हुई. रामेश्वर सिंह और मालवीय समेत कई लोगों ने भाषण दिए. बहस हुई और विधेयक पारित होकर अधिनियम बन गया. विश्वविद्यालय की शुरुआत के लिए कई तिथियों का निर्धारण हुआ, लेकिन आखिर में बात चार फरवरी 1916 को वसंत पंचमी का दिन निर्धारित हुआ. आधारशिला रखने लॉर्ड हार्डिंग्स बनारस आए थे. इस समारोह की अध्यक्षता दरभंगा के तत्कालीन महाराज रामेश्वर सिंह ने की थी. जोधपुर के राजा ने धन्यवाद ज्ञापन किया. सर सुंदरलाल पहले चांसलर (वीसी) बनाए गए. जब उनका निधन हुआ, तो स्वामी अय्यर वीसी बने. लेकिन अय्यर शीघ्र ही विश्वविद्यालय छोड़कर चले गए. फिर 1919 में मालवीय इसके वीसी बने और तकरीबन दो दशक तक वीसी रहे.
झा कहते हैं कि विश्वविद्यालय की स्थापना की इस कहानी को दफन कर दिया गया. अगर सिंह ने भूमिका निभाई, जिसके सारे दस्तावेज और साक्ष्य मौजूद हैं, तो उनके नाम को इस तरह क्यों मिटा दिया गया? क्यों विश्वविद्यालय में उनका नाम महज एक दानकर्ता के रूप में एक जगह दिखता है? सिंह की अहम भूमिका से जुड़े दस्तावेजों के बारे में पूछने पर झा कहते हैं, ‘आप यही देखिए न कि जब विश्वविद्यालय बनने की प्रक्रिया चल रही थी, तो अंग्रेज सरकार किसके साथ पत्राचार कर रही थी? जब विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ, तो बधाई के पत्र किसके नाम आए? झा बताते हैं कि 1914, 1915 और 1916 में लंदन टाइम्स, अमृत बाजार पत्रिका से लेकर स्टेट्समैन जैसे अखबारों में ऐसी रिपोर्ट की भरमार है, जिसमें महाराजा रामेश्वर सिंह के प्रयासों की चर्चा है और विश्वविद्यालय की स्थापना के संदर्भ में विस्तृत रिपोर्ट हैं.
झा कहते हैं कि महाराजा बीकानेर और बीएचयू के सीनेट मेंबर रहे वीए सुंदरम ने साल 1936 में बीएचयू के वास्तविक इतिहास को बदलने की कोशिश की और तब से ही कई नाम विस्मृति के गर्भ में चले गए. बकौल झा, 1936 में विश्वविद्यालय पर एक किताब आई- बीएचयू 1905-1935. इसे सुंदरम ने लिखा और इसकी प्रस्तावना महाराजा बीकानेर ने तैयार की, जो बीएचयू की स्थापना के समय बनी 58 सदस्यों की समिति में भी नहीं थे. इसी किताब ने इतिहास को बदल दिया और मालवीय को उभारकर सबके नामों को गायब कर दिया.
झा साफ करते हैं, ‘मैं यह बात मालवीयजी के प्रति किसी द्वेष से नहीं कह रहा हूं और न ही उनकी क्षमता को कम करके आंक रहा हूं, लेकिन जिस व्यक्ति (दरभंगा महाराज) ने इतनी बड़ी भूमिका निभाई, उसकी चर्चा तक न होना अखरता है.’ झा आगे कहते हैं, ‘बीएचयू के इतिहास में उनके नाम तक की चर्चा न होना या उनके नाम पर एक भवन तक का न होना अजीब लगता है.’ झा इस किताब को संस्थान के 100 साल पूरे होने पर ही लाने की तैयारी में हैं.