कुछ समाज ने मारा, बाकी संरक्षण ने

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मनीषा यादव

संरक्षण गृहों तथा नारी निकेतनों में किशोरियां विशेष और विकट परिस्थितियों के कारण लाकर रखी जाती हैं. इन्हें मजिस्ट्रेट के आदेशों पर यहां लाया जाता है और उनके आदेशों से ही ये यहां से निकल सकती हैं. यहां की निवासिनियां गृह के दरवाजे से बाहर कदम नहीं निकाल सकतीं. उनका खाना पीना, पढ़ाई, इलाज सब इसी गृह की चारदीवारी के भीतर ही होने का कानून है. संरक्षणगृह परिस्थितियों के बीच फंसी किशोरी की शरणस्थली तो हैं पर दरवाजे़ पर ताला और पहरेदार भी हैं, बाहर जाना मना है, बाहरी लोगों का आना मना है, चिट्ठी भेजना, टेलीफोन करना मना है.

इसलिए यह बंदीगृह है या संरक्षणगृह इस बात का निर्णय करना कठिन है.

संरक्षणगृह में निरपराध किशोरियां रखी जाती हैं, केवल तीन या चार प्रतिशत बाल अपराधिनियां होती हंै, जिन्हें नये ज्युविनाइल जस्टिस एक्ट 2000 की दृष्टि से अपराधी कहना मना हो गया है क्योंकि बच्चे का अपराध अधिकतर वयस्क द्वारा प्रेरित होता है. अतः सुधार की दृष्टि से ये यहां रहती हैं. गृह में कुछ ऐसी किशोरियां भी हैं जो ‘मॉरल डेंजर’ नामक प्रावधान के अन्तर्गत यहां आईं क्योंकि वे ‘भटकती हुई पाई गईं’ थीं. इनके अतिरिक्त अधिकांश वे किशोरियां हैं जो किसी ‘लड़के के साथ पकड़ी गईं’. इनका कहना है कि ये बालिग हैं और इन्होंने विवाह किया है पर इनके पिता का कहना है कि ये नाबालिग हैं और लड़का इन्हें भगा ले गया. गृह में निरुद्ध 60 प्रतिशत लड़कियां पति और पिता के बीच विवाद की शिकार हैं और यहां फंसी हुई हैं.

यहां पर कुछ ऐसी ही लड़कियों के विषय में बात करते हैं और उनसे जुड़े गंभीर मुद्दों को समझने की कोशिश करते हैं.

नसीमा

लखनऊ के संरक्षण गृह में हमें एक लड़की मिली – नसीमा. कम उम्र, यही लगभग अट्ठारह उन्नीस साल. हमें बताया गया कि उसके घर वालों को बुलाया गया था, पर कोई उसे लेने ही नहीं आया.

मूलतः मोहनलालगंज की रहने वाली नसीमा ने हमें बताया कि उसके पिता के देहांत के बाद उसके चाचा ने उसकी मां से शादी कर ली. फिर एक दिन नसीमा को बाग़ में भेज दिया. अकेली. वहां पर उसके दोस्त फखरू ने नसीमा के साथ बलात्कार किया. थाने में रिपोर्ट लिखी गई. चाचा ने नसीमा पर दबाव डाला कि तुम कोर्ट में फखरू का नहीं जुम्मन का नाम लेना. चाचा अपने दुश्मन को फंसाना चाहता था. नसीमा ने कहा कि अपराध तो फखरू ने किया है मैं गलत नाम क्यों लिखवाऊं. नसीमा ने बयान नहीं बदला. चाचा नसीमा को घर नहीं ले गया. मजिस्ट्रेट ने नसीमा को संरक्षणगृह में रखने का आदेश कर दिया.

जाहिर था कि जब चाचा आता, तभी नसीमा छूट पाती. न वह आया- न वह छूटी. वैसे भी चाचा की इच्छा यही रही होगी कि जमीन की हकदारी वाली भतीजी होम में पड़ी रहे तो बेहतर. होम के अधिकारियों ने पत्र भेजकर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया और नसीमा के दिन यों ही कटने लगे.

नसीमा का नसीब कि इस बीच उसकी मुलाकात हमारे स्वयंसेवी संगठन सुरक्षा की कांउसलर डॉ कविता उपाध्याय से हो गई. कविता ने उसकी फाइल देखी. नसीमा गर्भवती थी. 18 वर्ष की कम उम्र लड़की बलात्कार से गर्भवती – पारिवारिक रंजिश की निर्दोष शिकार होम से तभी छूटे जब घरवाले ले जाएं या किसी से शादी हो जाए. घरवाले ही अपराधी हैं, वे तो आएंगे नहीं, अब क्या होगा, सब पसोपेश में. उसके परिवार का पता लगाया गया. एक बहन भी थी और जीजा भी. उन्हें गर्भ की बात बताएं या नहीं-अपराध की शिकार, शर्मिंदगी का शिकार भी क्यों बने. खूब सोच-समझकर पहले केवल बहन को बुलाकर समझाया, फिर उसकी सहमति से नसीमा के जीजा को. वे लोग हमारी यह सलाह मान गए कि वे होने वाले बच्चे को गोद ले लेगें और नसीमा को अपने साथ रख भी लेगें.

नियमानुसार मजिस्ट्रेट अभिभावक के हाथ ही किशोरी को सौंपता है. वकील की मदद से हम लोगों ने बहन-जीजा से एफिडेविट बनवाया कि वे ही अभिभावक हैं. इस प्रकार यह गर्भवती किशोरी होम से निकाल कर बहन के संरक्षण में सौंप दी गई.

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मनीषा यादव

नसीमा का वृतान्त हमारे सामने कई प्रश्न खड़े करता है. सरकार ने ‘मॉरल डेन्जर’ यानी नैतिक खतरा नामक प्रावधान बनाया है. जो लड़कियां नाबालिग किशोरियां हंै, जो घर से भाग गईं, जो ‘भटकती पाई गईं’ उन पर नैतिक खतरा मंडरा रहा है, सो पहले उन्हें गृह में संरक्षण दो फिर उन्हें उनके घरवालों को सौंप दो. पर जिन किशोरियों के प्रति उनके घर वालों ने ही अपराध किया, जो घर से त्रस्त होकर भागीं और ‘भटकती पाई गईं’ उन्हें घरवालों के हाथों में ही सौंपकर हम उन्हें किस खतरे से बचाते हैं? बाहरी समाज से उन्हें बचाने के नाम पर हम फिर उन्हें शोषक परिवार को सौपते हैं. होम की नियमावली में इनके घरवालों को समझाने, जिम्मेदार ठहराने, और सजा दिलाने का शायद कोई प्रावधान ही नहीं है. परिवार की जिन शोषक परिस्थितियों से ये लड़कियां भागीं या निकाल फेंकी गईं, उन परिस्थितियों को बदलने का कोई भी प्रयास किए बगैर इन्हें उसमें वापस भेज दिया जाता है.

संविधान के अनुसार बालिग होने की उम्र है अट्ठारह वर्ष. किशोरी अट्ठारह की होने के बाद शादी तय करके ब्याह दी जाती है या पिता के हाथों सौंप दी जाती है. पति या पिता – इक्कीसवीं शताब्दी में मनुस्मृति के सूत्रों का अक्षरशः पालन हो रहा है. एक बेपरवाह उदासीनता के साथ.

सावित्री

मलीहाबाद की रहनेवाली सावित्री का नसीब नसीमा से बेहतर है. कम से कम वह गर्भवती तो नहीं है. उसका अपराध है प्रेम विवाह. वह चमार है, सुरेन्द्र पासी के साथ भाग गई. दोनों ने विवाह कर लिया. पिता ने थाने में एफआईआर. लिखवा दी. सुरेन्द्र फरार हो गया. मजिस्ट्रेट ने सावित्री को संरक्षणगृह भेज दिया क्योंकि सुक्खू चमार ने पिता के रूप में रिपोर्ट तो लिखा दी पर बेटी को ले नहीं गया. अपराधी फरार, शिकार कैद में.

जब हमें मिली, उस दिन सावित्री की खाना बनाने की ड्यूटी थी, दाल ,कद्दू, चावल और 120 रोटियां. चेहरा तमतमाया हुआ और पसीने से तर. होम में  गैस होते हुए भी, खाना लकड़ी के चूल्हे पर ही बनवाया जाता है. हमने उससे पूछा तुम सुरेन्द्र के साथ जाओगी या पिता के साथ. वह बोली सुरेन्द्र के साथ, उसे बस एक बार बुलवा दें.

मजिस्ट्रेट के सामने अनेक पेशियां हुई, हर बार सावित्री ने सुरेन्द्र के साथ जाने की बात कही. सुरेन्द्र का हमने पता लगवाया. पता चला वह दो बच्चों का पिता था. सुक्खू ने उस पर बलात्कार और नाबालिग के अपहरण का इल्जाम लगाया था, सो कैद के डर से वह दूसरी जगह रहने लगा था. वह नहीं आया. गांव जाकर हमने वहां के लोगों से बातचीत की. गांव की टीचर बोली सावित्री चमार हो कर पासी के साथ क्यों भागी, आखिर 14 साल की है, उसे पता होना चाहिए था कि सुरेन्द्र का पासी बाप चमार की लड़की कभी नहीं आने देगा.’ हमने कहा गलती सुरेन्द्र की है, जो दो बच्चों का पिता था, सावित्री तो नादान है. पर गांववालों का मत था कि चौदह साल की लड़की नादान नहीं होती.

जो घर से त्रस्त होकर भागीं और ‘भटकती पाई गईं’ उन्हें घरवालों के हाथों में ही सौंपकर हम उन्हें किस खतरे से बचाते हैं?

आखिरकार निराश होकर सावित्री ने पिता के ही घर वापस जाने के लिये हामी भर दी. पुलिस अपनी जीप में सावित्री को उसके पिता के घर ले गई. पिता ने कहा नाक कटानेवाली बेटी नहीं चाहिए. प्रेमी तो खैर अपने घर से भाग ही चुका था. सावित्री उल्टे पैरों फिर संरक्षण गृह वापस आ गई.

नियमानुसार होम के अधिकारियों ने ‘भले लड़के’ देखकर आठ बालिग लड़कियों की शादी तय कर दी, उनमें एक सावित्री भी थी. एक दिन जब हम लोग होम पहुंचे  तो उसने खिड़की के सींखचों के पीछे से आवाज लगाकर कहा, ‘हमें शादी से डर लग रहा है.’ हम लोगों ने अधीक्षिका से अनुरोध किया कि वे जल्दी न करें. मगर दो महीने बाद विवाह की तैयारियां होने लगी. हमने सावित्री से पूछा, ‘अब तुम तैयार कैसे हो गई, हमने तुम्हारे पिता से बात की है वह तुम्हें वापस लेने को तैयार है.’ सावित्री ने मुंह फुलाकर कहा, ‘अब हम नहीं जाएगें, उन्होंने पहले हमें क्यों नहीं वापस आने दिया?’

बाद में हमें सूचना दी गई है, कि सावित्री की शादी  शिवलाल से हो गई है, वह कुर्मी है, बरेली में टेम्पो चलाता है, उसकी पहली पत्नी शादी के दो महीने बाद ही उसे छोड़ गई थी. मामला क्या था और इस बारे में अधिक क्या जानकारी जुटाई गई है, हमारे यह पूछने पर होम की अधीक्षिका ने कहा, ‘बाल तो मैडम देखिये आजकल सभी काले कर लेते हैं सो उसकी असली उम्र क्या है यह तो पता नहीं चल सकता पर वह सुमित्रा के लिए जो सलवार सूट और शॉल लाया है उससे पता चलता है कि उसकी चॉयस अच्छी है.’

शायद सावित्री सुखी हो.

सावित्री के प्रकरण में दोष किसका है? पिता ने बेटी के प्रेमी के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवा दी – अपहरण और बलात्कार की – पर स्वयं बेटी को लेने नहीं आया, बल्कि जब पुलिस उसके घर उसकी बेटी को पहुंचाने गई तो दरवाजे से उसे लौटा दिया. पितृसत्ता को पूरी कुरूपता और नृशंसता से लागू करने में पिता की भूमिका प्रेमी से भी भयानक है. इस तथ्य को इसलिए भी रेखांकित करना जरूरी है क्योंकि दहेज हत्या के प्रकरणों में भी अधिकतर यही पाया जाता है कि जिनके पिता ने उन्हें वापस घर नहीं लौटने दिया, वे ही लड़कियां  मारी गईं.

पिता ऐसा क्यों करते हंै, शायद इसलिए कि समाज यही सोचता है. गांववालों ने कहा कि 14 साल की लड़की नादान नहीं होती, दूसरी बिरादरी के लड़के के साथ भागी क्यों? पर होम की ही नौ अन्य लड़कियों का प्रश्न है कि हमने तो अपनी ही बिरादरी वाले के साथ ब्याह रचाया था, फिर भी बाप ने क्यों पकड़वा दिया?

प्रश्न है लड़की भागी क्यों? सावित्री वगैरह पांच बहने हैं. मां के मरने के बाद सारा दिन घर का काम करना और मवेशी चराना, न स्कूल, न पढ़ाई, न खेल. हमने गांव में सामूहिक चर्चा करके बात उठाई कि बच्ची को प्यार नहीं मिला होगा, तभी प्यार की तलाश में भागी. गांव के लोगों ने कहा – प्यार क्या होता है? बाप चाहता तो खुद दूसरी शादी कर लेता, सौतेली मां नहीं लाया यही क्या कम है? बेटी ही हरामखोर हैं.

किसी भी बच्ची को बाप द्वारा कहे गए प्यार के कोई शब्द याद नहीं. ऐसे में सावित्री सुरेंद्र के साथ भाग जाए तो उसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए?

हमारे काम के दौरान ही छह नई किशोरियां लखनऊ के होम में लाई गईं जो मुर्शिदाबाद से ‘बरामद’ की गई थीं. लड़कों  के साथ  पकड़े जाने की वजह से. पिताओं ने सावित्री के पिता की तरह रपट तो लिखा दी पर बेटी को ले नहीं गए. अपने घरों में ही यह किशोरियां क्या पाती थीं, कैसा था इनका जीवन, ये अपने जीवन के किन क्षणों को याद करती हैं यह जानने की उत्कंठा में इनसे लंबी बातचीत की गई. वे पढ़ने नहीं भेजी जाती थी, मवेशी चराती थीं और सारा दिन खाना बनाती थीं. उनकी कोई सहेलियां-मित्र नहीं थे और उन्होंने कोई खेल नहीं खेला. सैंतीस में से केवल एक लड़की ने यह बताया कि वह खूब पहिया चलाती थी, डंडी से पहिया चलाने में मजा आता था और कभी-कभी माचिस की तीलियों से भी खेलती थी. यह लड़की गांव से नहीं शहर की ही मलिन बस्ती से यहां आई थी. ऐसा बेरंग नीरस जीवन जीने वाली किशोरियां थोड़े भी प्रेम या सहानुभूति से फुसलाई जा सकती हैं यह बात समझने के लिए किसी बड़ी भारी स्टडी की जरूरत नहीं है. परिवार किशोरी को बाल श्रमिक के रूप में घर में इस्तेमाल का रहा है. किसी भी बच्ची को बाप द्वारा कहे गए प्यार के कोई शब्द, स्नेह का कोई स्पर्श याद नहीं. ऐसे में सावित्री सुरेंद्र के साथ भाग जाए तो उसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए?

सुमित्रा का प्रेमी सुरेन्द्र पासी विवाहित था, आयु में उससे काफी बड़ा और दो बच्चों का पिता. हमारे बुलवाने के बावजूद वह सुमित्रा को लेने नहीं आया. यह बात और है कि इस व्यवस्था में पिता की शिकायत पर, प्रेम विवाह करनेवाली लड़की तो तुरन्त पकड़कर होम भेज दी गई पर एक साल गुजर जाने के बाद भी पुलिस, न्यायालय, और सरकारी अफसर उस पुरुष को गिरफ्तार न कर सके.

सुमित्रा का पिता जो उसे न पढ़ा सका, न लिखा सका, न प्यार कर सका, न देखभाल कर सका, अपने अभिभावकीय अधिकार का प्रयोग करके उसके जीवन को अंधेरा बना गया और जीवन जीने की किसी भी तैयारी के बगैर यह निर्दोष लड़की एक अजनबी पुरुष के हाथ सौंप दी गई.

सुशीला

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मनीषा यादव

सुशीला करीम के साथ सूरत जाकर रहने लगी थी. उसके पिता ने लखनऊ के एक ब्लॉक के थाने में रिपोर्ट लिखा दी. पुलिसवाले नौ-दस महीने में सूरत से लड़की को ‘बरामद करा लाए.’ लड़की होम में, लड़का जेल में, फिर बेल पर. बात करने पर लड़की ने पति का साथ चुना. लड़के के पिता ने हेबियस कॉर्पस का केस करके लड़की को अदालत में हाजिर करवा लिया. उसने वहां भी यही बात कही. लड़की हिन्दू थी, लड़का मुसलमान. उन्हें बाकायदा शादी करके रहने का परामर्श दिया गया. लड़की का धर्म परिवर्तन हुआ फिर निकाह. पिछले छह-सात साल से वे लोग सूरत में रह रहे हैं और हम लोगों को फोन करते रहते हैं.

किशोरियों के साथ बातचीत करते हुए हमने पाया कि किसी लड़के के साथ दोस्ती करके घर से भाग जानेवाली किसी भी किशोरी को यह नहीं मालूम था कि विवाह की कानूनी उम्र अठारह वर्ष है और मंदिर में चुपचाप माला बदल लेने को विवाह नहीं माना जाता. वे अपने प्रेमी के साथ घर बसाना चाहतीं थीं इसीलिए अब मजिस्ट्रेट के सामने अपनी उम्र बीस वर्ष बताती हैं ताकि नाबालिग कहकर उन्हें पिता के पास न भेज दिया जाय. होम का दायित्व है कि वे इनके घर वालों को बुलवाएं मगर केवल एक अन्तर्देशीय पत्र डालकर खानापूरी करने से तो काम नहीं चलता. इसलिए बच्चियां यहां पर दसियों साल पड़ी रह जाती हैं. ज्यादातर मामलों में स्वयंसेवी संगठनों के लगातार प्रयासों से ही इन्हें पुनर्स्थापित करना संभव हो पाता है. इनमें से अस्सी प्रतिशत लड़कियां अपने द्वारा चुने गए लड़कों के साथ गईं. सुशीला इन्हीं में से एक है.

होम से छूटने की तीन ही विधियां हैं – किशोरी को उसके माता-पिता ले जाएं, उसकी शादी कर दी जाए या वह अपने पांव पर खड़ी होने लायक हो

परन्तु क्या इन सारी परिस्थितियों के लिए शासन ही उत्तरदायी है? पत्रकार तथा स्वयंसेवी संगठन भी अक्सर चटखारेदार सनसनीखेज खबर छापने और यश कमाने के लोभ में, सरकारी प्रयासों की बखिया उधेड़ते हैं. वे इन्सेस्ट तथा बलात्कार की शिकार किशोरी को जनसुनवाइयों में सरेआम पेश करके अपने संगठन के लिए धन व ख्याति बटोरते हैं. सशक्तीकरण के उद्देश्य से काम करनेवाली संस्थाओं और व्यक्तियों को न केवल ऐसा करने से बचना है बल्कि होम के भीतर मानसिक सशक्तीकरण के लिए काम करने के साथ-साथ उससे बाहर भी समाज में चेतना जगानी होगी. उन सिद्धातों को देखना और उनसे निपटना होगा जिनकी रक्षा के लिए मां-बाप ने बच्चियों को घर से निकाला – जाति? तयशुदा विवाह? या केवल पिता का ही कहना मानना?  ये भी देखना होगा कि वे कौन से कष्ट है जिन्हें न सह सकने के कारण किशोरी ने घर छोड़ा – इन्सेस्ट? डांट-फटकार? नीचा दिखाना? सारे दिन का बेगार श्रम?

मुझे याद है कि हमारे पास एक प्रकरण आया था जिसमें पति ने पत्नी के ऊपर तेल छिड़क कर आग लगा दी थी. वह मरी नहीं बच गई. पति ने बेहयाई से मुझसे कहा ‘दीदी, वह लूज कैरेक्टर थी. एक बार मुझसे लड़कर संस्था में भी रह चुकी है. आप तो जानती ही हैं, संस्था में कैसे चरित्र की लड़कियां रहती  हैं.’ पत्नी को जिन्दा जला कर मारने की चेष्टा करने वाला खूंखार अपराधी पत्नी को लूज कैटेक्टर बता रहा था क्योंकि उसके अत्याचार से त्रस्त होकर वह एक बार संस्था की पनाह ले चुकी थी. इस प्रकरण से एक और बात का संकेत मिलता है कि वे पुरुष, जो यहां की संवासिनियों से विवाह कर रहे हैं, वे उन्हें, उनके अतीत का ताना भी दे सकते हैं. परिस्थिति की शिकार किशोरी अपराधी के कटघरे में खड़ी रहेंगी,  ‘तुमने कुछ न कुछ तो किया ही होगा जो तुम्हें संस्था में रख गया.’

संरक्षणगृहों में रह रहीं लड़कियों से जुड़ी एक जटिलता यह भी है कि इनकी पहचान गोपनीय रखने के नाम पर शासन, अखबार या टीवी के विज्ञापनों आदि में इनका नाम नहीं आने देता.  ऐसी अनेक लड़कियां यहां बंद हैं जिन्हें केवल अपने पिता का नाम मालूम है, अपने घर का पता नहीं. हम ऐसी अनेक बच्चियों से मिले जो बचपन में यहां आई थीं और यहीं किशोरी हो गईं. संवासिनियों की पहचान की गोपनीयता बनाए रखकर उनकी पहचान कैसे उनके परिजनों तक पहुंचाई जाए इसके प्रभावी तरीके ढूंढ़ने होंगे.

किसी भी होम से छूटने की तीन विधियां हैं – किशोरी को उसके माता-पिता ले जाएं, उसकी शादी कर दी जाए या किशोरी यह सिद्ध कर सके कि वह आर्थिक सामाजिक नैतिक दृष्टि से अपने पांव पर खड़ी हो जाएगी. बातचीत के दौरान संरक्षणगृह की एक अधीक्षिका हमें बताती हैं कि मजिस्ट्रेट यदि स्वतन्त्र मुक्ति का आदेश दे भी दे तो वे किशोरी को आखिर किस पते पर भेज दें. आखिर उन्हें फॉलोअप भी तो करना पड़ता है. इसलिए 99 प्रतिशत प्रकरणों में किशोरी को पिता या पति के हाथों ही सौंपा जाता है. यदि लड़कियां पिता के घर न जाना चाहें या पिता उन्हें घर न बुलाना चाहें या उनका पता नहीं चल पा रहा हो तो ऐसी हालत में उनके सामने दो ही विकल्प होते हैं या तो वे शादी कर लें या आजीवन होम में रहें. इसलिए न चाहते हुए भी कई मामलों में संवासिनियां शादी के लिए अक्सर हामी भर देती हैं.

गर्भपात की सहमति देने के लिये इनके मां-बाप मौजूद नहीं. लेडी डॉक्टर्स इन नाबालिग बच्चियों को मां बनने देने के लिए मजबूर हैं

होम में रहकर किशोरियां शिक्षा की मुख्य धारा से कट जाती हैं क्योंकि बाहर  निकलकर वे स्कूल नहीं जा सकतीं. जिस देश में प्रशिक्षित युवावर्ग विश्वविद्यालय तथा तकनीकी संस्थानों से डिग्री लेकर नौकरी के लिए भटक रहा है वहां क्या ये किशोरियां होम में निरुद्ध रह कर स्वावलंबी बन पाएंगी? जाहिर है तीसरा विकल्प दिखावटी है, और उनकी शादी ही की जानी है.

संरक्षण गृह में कुछ बच्चियां बाल अपराध के कानून में भी बंद हैं. एक बच्ची ने बताया कि वह चाचा-चाची के साथ बस में जा रही थी. एक पर्स सीट के नीचे पड़ा था, चाचा ने कहा इसे उठा कर दे दो . तीनों गिरहकटी के जुर्म में पकड़े गए. चाचा-चाची छूट गए, बच्ची यहीं रह गई. आज बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के आरोपी सबसे पहले स्वयं को नाबालिग साबित करने पर इसीलिए तुल जाते हैं ताकि सज़ा से बच जाएं लेकिन जो असल में नाबालिग हैं उनके साथ सरकार क्या कर रही है?

मनोवैज्ञानिक मैस्लो ने हाइरारकी ऑफ नीड्स का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था. इसके अनुसार चलें तो संरक्षणगृह किशोरियों की बेसिक आवश्यकताओं को तो पूरा कर रहे हैं जैसे कि छत, खाना और सुरक्षित महसूस करना लेकिन स्नेह, अपनापन, आत्मसम्मान और आत्मसाक्षात्कार की दिशा में यह कुछ भी नहीं करता. उदारमना लोग अक्सर अपने माता-पिता की पुण्यतिथि पर होम में पूड़ी, परांठे, हलुआ और कभी पुराने कपड़े भिजवा देते है,. पर क्या किशोरियों को यही चाहिए?

समाज ने किशोरियों की उपेक्षा की है, सरकार ने उपेक्षित किशोरियों को निरुद्ध किया है. किसी ने उन्हंे समाज में पुनर्स्थापित करने की चेष्टा नहीं की.

नारी निकेतनों में निरुद्ध किशोरियों का जीवन समाज के एक घर में निरुद्ध किशोरी के जीवन का आईना है. पारदर्शिता और समाज के साथ सहयोग करके काम करने के तमाम दावों के बावजूद सरकार अपनी इन संस्थाओं को गोपनीयता के आवरण में रखना चाहती है. न जाने क्यों सरकार समाज के लोगों को निकेतनों में जाने से किसी न किसी बहाने से रोकती रही है. यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि निरपराध किशोरियों को, जिन्हें केवल गवाही के लिए यहां रखा गया है, समाज से काटकर आखिर किस नियम के तहत रखा जा सकता है?

अंजू

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मनीषा यादव

अंजू की कहानी सुनाए बगैर बात पूरी नहीं हो सकती. अंजू नाम की किशोरी लखनऊ के पास के गांव की थी. 2001 में जब वह हमें मिली, गर्भवती थी. तेरह साल की लड़की के चेहरे पर बचपना था. होमवालों ने तो उसके घर के पते पर पोस्ट कार्ड भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, हम लोगों ने उसके घर का पता लगा लिया. मुहल्ले का नाम था चमरही. जिस देश के संविधान में जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव करने की सख्त मनाही है उस देश में आज भी मुहल्लों के नाम चमरटोला और चमरही आदि हैं. अंजू का बाप शराबी था, मां मर चुकी थी और उसे नानी पाल रही थी. जिस करीम के कारण वह गर्भवती थी वह उसे लेने होम नहीं आया. हम लोगों ने उसे सुरक्षा के परामर्श केन्द्र में बुलवा लिया. लड़की 13 साल की, करीम 34-35 साल का. करीम बोला ‘उसकी नानी हमारे खेत में काम करती थी मैं लड़की को वहीं बुला लिया करता था जहां पर हमारी गाय भैसें बांधी जाती हैं.’ मैंने सख्ती से कहा ‘खुद से बीस साल छोटी बच्ची को इस तरह इस्तेमाल करते आपको शर्म नहीं आई?’ ‘मैं नहीं करता तो उसका बाप उसे धंधे मेंे लगा देता, उनकी बिरादरी ही ऐसी है, ‘निर्लज्जता से इतनी गिरी हुई बात कहते करीम को संकोच नहीं हुआ.

अपने विषय में हो रही इन तमाम बातों से अनभिज्ञ अंजू को गर्भधारण से जुड़ी जटिलता का अहसास ही न था. फुसलाकर इस्तेमाल करनेवाले की हरकतों के बारे में वह सोचती थी कि यही प्यार है. हमारी आंखों के सामने ही चौदह साल की लड़की सरकार के संरक्षणगृह में मां बन गईं.

संवासिनी गृह में लेडी डॉक्टर रेनू वर्मा अंजू को विजिट करती थीं जो बड़ी निष्ठा से लड़कियों की सेहत का ध्यान रखती थीं. नेक नर्स जयश्री की देखरेख में गर्भवती लड़कियों को रोज एक उबला अंडा और एक केला दिया जाता था. गरीब घर की बेटियों के लिये एक बहुत बड़ी नेमत. मगर अनचाहे गर्भ का गर्भपात कराना कानूनी जटिलता से भरा है. नये ज्युविनाइल जस्टिस एक्ट के अनुसार किशोरावस्था नाम की कोई अवस्था नहीं होती.अठारह वर्ष की उम्र से छोटा व्यक्ति बच्चा है, और अठारह वर्ष की उम्र से बड़ा व्यक्ति वयस्क. नाबालिग़ की सहमति को सहमति नहीं माना जाता. गर्भपात की सहमति देने के लिये इनके मां-बाप मौजूद नहीं. लेडी डॉक्टर्स इन नाबालिग बच्चियों को मां बनने देने के लिए मजबूर हैं.

आज सन 2014 में यह रिपोर्ट आपसे साझा करते समय लगता है कि यदि ये किशोरियां संवासिनीगृह में निरुद्ध न होतीं तो शायद बदायूं के उस ऊंचे पेड़ पर लाल और हरी चुन्नियों से लटके शव बन चुकी होतीं. हमारे प्रदेश के धर्मनिरपेक्ष नेता जी का कहना है, ‘लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है,क्या उन्हें फांसी दे दोगे?’ लड़कों को फांसी नहीं दी जा सकती, मगर तेरह साल की लड़कियों को तो सरेआम फांसी दे ही दी गई है.

दिल्ली में घटे निर्भया कांड के बाद जब स्वयं को अति प्रगतिशील बतानेवाले लिबरल लेफ़्ट नारीवादी समूह सेक्स के लिए सहमति की उम्र 18 वर्ष से घटा कर 16 करने का ईमेल अभियान चला रहे थे तब मेरा दिल कांप रहा था. उस समय आंखों के सामने इन किशोरियों के चेहरे थे जो मां बनने को मजबूर हो गईं. लिबरल लेफ़्ट नारीवादी समूह शायद उन किशोर-किशोरियों की बात कह रहे थे जिनके लिए सेक्स एक नया खेल हो सकता है. वे लोग कह रहे थे कि शारीरिक रूप से बच्चे आजकल जल्दी मेच्योर हो रहे हैं इसलिए सहमति की उम्र घटा कर 16 कर दी जाए.

इन नारीवादियों और उन अनपढ़ बड़ी-बूढ़ियों की राय में क्या फर्क है जो कहा करती थीं कि ‘बिटिया सयानी हो गई है इसके हाथ पीले कर दो’

मेरी जिज्ञासा है कि इन नारीवादियों की राय और उन अनपढ़ बड़ी-बूढ़ियों की राय में क्या फर्क है जो कहा करती थीं कि‘बिटिया सयानी लगने लगी है अब इसके हाथ पीले कर दो’ क्या सेक्स और प्रजनन को प्रेम और जिम्मेदारी से पूरी तरह अलग करके देखा जाना सही होगा?

‘मैरी स्टोप्स क्लिनिक’ के कार्यकर्ताओं के मुताबिक उनके क्लीनिक में एमटीपी के लिए आने वाली अविवाहित किशोरियों और युवतियों के साथ कभी भी उनके पुरुष साथी नहीं आते. वे अपनी किसी सहेली के साथ आती हैं, अक्सर छिपकर. मुझे लगा कि इससे यही पता लग रहा है कि हमारे समाज में आई आधी-अधूरी आधुनिकता का इस्तेमाल पुरुष, स्त्री के शारीरिक शोषण के लिए ही कर रहे हैं. विवाहपूर्व या विवाहेतर सेक्स उनके लिए मनोरंजन है, जिम्मेदारी नहीं और न ही कोई लंबा रिश्ता.

मनुष्य ने सामाजिक व्यवस्था इसलिए बनाई होगी ताकि मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ चैन से जी सके. परन्तु सामाजिक नियम, मूल्य-मान्यताएं, उम्र का लिहाज, जाति की परंपरा, नैतिकता के मानदंड इतने कठोर, जटिल और इतने महत्वपूर्ण मान लिए गए कि जिन्दगी जीना दूभर हो गया. इतने बड़े समाज और इतनी बड़ी व्यवस्था के बीच एक इंसान के नाजुक से दिल और छोटी सी चाहतों का क्या हो?

इन जीवनों की जटिलता को नजदीक से देखने पर लगता है कि परामर्श की जरूरत किशोरी को नहीं, उसके परिवार को है. अध्यापक, डॉक्टर, इंजीनियर, मिस्त्री, सिपाही कुछ भी  बनने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है लेकिन माता-पिता बनने  का कोई  प्रशिक्षण नहीं. प्रेमविहीन, संवेदनाशून्य, क्रूर सभी लोग माता-पिता बनने को स्वतन्त्र हंै. स्नेह-प्यार-दुलार-प्रशंसा के दो शब्द सुनने की किशोरी में उत्कट चाहत है, परन्तु उपेक्षा, अवहेलना, उदासीनता और घर के निरानंद कामकाज के बोझ के अतिरिक्त इनमें से ज्यादातर को यह समाज दे क्या रहा है?

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