भारतीय जनता पार्टी इन दिनों अपने सुनहरे दौर से गुजर रही है. एक ऐसा दौर जो किसी भी राजनीतिक दल का ख्वाब होता है. पहले उसने लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल किया और फिर दो राज्यों में भी विरोधियों को करारी शिकस्त देकर सरकार बना ली. इस शानदार प्रदर्शन के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जुगलबंदी को सबसे बड़ा फैक्टर बताया जा रहा है. मौजूदा हालात पर नजर रखने वाले किसी व्यक्ति को शायद ही इससे गुरेज होगा. लेकिन वर्तमान का अध्ययन अगर अतीत को ध्यान में रखकर किया जाए तो उसे समझना बहुत आसान हो जाता है. तीन दशक पुरानी पार्टी की इस बेहद सफल यात्रा को रिवर्स गियर लगाकर देखा जाए तो दूसरे छोर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के रूप में एक ऐसी जोड़ी नजर आती है, जिसने बुलंदियों पर सवार भाजपा की बुनियाद ऐसे वक्त में खड़ी की, जब देश भर में कांग्रेस का एकछत्र राज था. अंग्रेजों के देश छोड़ने के बाद कांग्रेस ही देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी.
उसके पास महात्मा गांधी के सानिध्य में बड़े हुए नेहरू और सरदार पटेल जैसे मंझे हुए नेताओं की विरासत थी, उसकी जड़ें गांव-गांव और कस्बे-कस्बे तक फैली हुई थीं. ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने अपने अथक परिश्रम से देश के सामने एक ऐसा राजनीतिक विकल्प रखा जिसका परिणाम आज सबके सामने है. 1951 में संघ की शाखा से होकर भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हुए इन दो नेताओं की राजनीतिक यात्रा एक दूसरे के सहयोग से ही आगे बढ़ी. इस जोड़ी ने 1975 में आपातकाल विरोधी आंधी के बाद अपनी सांगठनिक क्षमता का शानदार उपयोग किया और 80 के दशक में जनसंघ को भाजपा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तक भाजपा मात्र दो सांसदों की पार्टी थी. लेकिन जैसे ही पार्टी की कमान लालकृष्ण आडवाणी के पास आई वैसे ही भगवा झंडा देश के गांवों में लहराने लगा. वाजपेयी गजब के वक्ता थे, और आडवाणी संगठनकर्ता थे. उनकी भाषण शैली लोगों को भाजपा के प्रति आकर्षित करने में खूब कारगर रही और पार्टी का सांगठनिक ढांचा परवान चढ़ने लगा. अटल-आडवाणी की इस जोड़ी ने उदार और कट्टर हिंदुत्व का ऐसा तालमेल स्थापित किया कि अगले आम चुनाव में भाजपा ‘अटल-आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’ के नारे के साथ दो सीटों से 89 सीटों तक पहुंच गया. इसी दौरान राम मंदिर निर्माण को लेकर आडवाणी ने रथयात्रा करके भाजपा के प्रति देशव्यापी लहर पैदा की और यह जोड़ी भारतीय राजनीति में बेहद प्रभावशाली मानी जानी लगी. यह राम लहर का वह दौर था जब आडवाणी की छवि हार्डलाइनर और हिन्दू पुरोधा के रूप में विकसित हुई, और अटल बिहारी वाजपेयी को निर्विवाद तौर पर भाजपा का उदारवादी नेता मान लिया गया. अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री, माइ लाइफ’ में खुद आडवाणी उस दौर को अपने जीवन का सबसे आनंददायक दौर बताते हैं. इस संतुलित जोड़ी का ही करिश्मा था कि 1996 में पहली बार भाजपा ने एनडीए की अगुआई करके दिल्ली की सत्ता पाने में कामयाबी हासिल की. इस तरह पहले तेरह दिन, फिर तेरह महीने और आखिरकार 1999 से 2004 तक पूरे पांच साल तक पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार ने केंद्र पर राज किया. यह इस जोड़ी का ही करिश्मा था कि दो दर्जन से भी अधिक दल एनडीए की सरकार में शामिल थे और इन सभी को अटल-आडवाणी पूरी तरह स्वीकार्य रहे. इस बीच दोनों की आपसी होड़ का कोई मामला शायद ही कभी सामने आया हो. भारतीय राजनीति के जानकार मानते हैं कि वाजपेयी और आड़वाणी की जोड़ी ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में जिस समन्वय और सहयोग के साथ भाजपा को आगे बढ़ाया वह अपने आप में एक ऐसी मिसाल है जिसे बहुत लंबे समय तक याद किया जाएगा. अपनी महत्ता को प्रासंगिक तथा प्रभावशाली बनाए रखने के साथ ही इस जोड़ी ने दूसरी पीढ़ी का नेतृत्व तैयार करने में भी अपनी बेशुमार ऊर्जा लगाई. यही वजह है कि आज जहां लालू प्रसाद यादव, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी की पार्टी के सामने विरासत का संकट खड़ा है, वहीं भाजपा में नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे नेता पार्टी को लंबे समय तक चलाने के लिए तैयार हो चुके हैं.
हालांकि गिरते स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी के एक दशक पहले रिटायर हो जाने और अब आडवाणी के भी मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाने के बाद यह जोड़ी राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं है लेकिन बावजूद इसके इस जोड़ी की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. हालिया लोकसभा चुनाव जीत कर भाजपा ने दस साल के बाद सत्ता में वापसी की है. निस्संदेह भाजपा के इस शानदार प्रदर्शन का श्रेय मोदी, अमित शाह और वर्तमान भाजपा संगठन की रणनीति को दिया जा चुका है, लेकिन इस बात से भी शायद ही किसी को ऐतराज होगा कि अटल आडवाणी की जुगलबंदी का भी इस जीत में बहुत बड़ा योगदान है. इस योगदान को ठीक वैसे ही देखा जा सकता है जैसे ताजमहल का जिक्र आने पर शाहजहां का नाम तो जेहन में आता है लेकिन उन बेनाम कारीगरों का खयाल किसी को नहीं रहता जिन्होंने उस खूबसूरत इमारत की तामीर में अपनी पूरी ऊर्जा खपा दी थी.