सरकार और विभिन्न धर्म ‘लिविंग डेड’ के बारे में समान रूप से अनिश्चितताओं से घिरे हैं. इनके बीच एक समानता देख सकते हैं, वो ये है कि कैसे दोनों कुछ ‘विशेष’ लोगों को अपनी मृत्यु का अधिकार चुनने की आजादी दे रहे हैं. सरकार द्वारा जंग के मैदान में भेजे जाने वाले सैनिक और धर्म के पालन के नाम पर आहार छोड़कर मृत्यु के लिए उपवास कर रहे व्यक्ति दोनों अपनी परिणिति जानते हैं और ऐसे में कानून या धर्मों का इच्छा मृत्यु को वैध न मानना अस्वाभाविक है. देश के लिए जान देने वालों को शहीद कहते हैं और धर्म के लिए ये त्याग है. 42 साल तक अचेत रहते हुए भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ी बलात्कार पीडि़ता अरुणा भी साहस की प्रतिमूर्ति कही जा रही हैं.
कुंठा में आकर मरीज खुद को मार देने की बात कहते हैं पर जैसे ही वो अपने करीबियों के बीच होते हैं तो अपनी कही ऐसी बातें भूल जाते हैं
इच्छा मृत्यु को लेकर चल रही तमाम पेचीदा बहसों के बावजूद जो इसका समर्थन करते हैं वो अपने विश्वास को लेकर दृढ़ हैं. गोवा की बर्नाडाइन अपनी मां के साथ घटे अनुभवों को दोहराना नहीं चाहतीं, वो अभी से अपने बेटे को समझाती हंै, ‘मैं अब भी इच्छा मृत्यु को गलत नहीं मानती, कुछ भी हो जाए, पर उन्हें मुझे वेंटीलेटर पर मत रखने देना.’