आम्बेडकर की डगर पर दलित राजनीति का सफर

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Photo- Pramod Singh

‘राजनीतिक सत्ता सभी समस्याओं के समाधान की चाबी है’

-डॉ. भीमराव आम्बेडकर

बदलाव राजनीति की सबसे बड़ी खूबी है. वोट बैंक के लिए यहां समय-समय पर नायक भी बदले जाते हैं. राजनीतिक दल अपनी सुविधा के हिसाब से देश के नायकों पर अपनी दावेदारी जताते रहते हैं. संविधान दिवस के मौके पर सदन में हुई बहस को देखकर लगता है भीमराव आम्बेडकर सभी राजनीतिक दलों की जरूरत बन गए हैं. वैसे ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. आम्बेडकर ने खुद भी राजनीतिक दल बनाए थे और बहुत सारे राजनीतिक दलों ने उनके नाम पर अपनी रोटियां भी सेंकी हैं. भारत में आम्बेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं. उन्होंने ही सबसे पहले वर्ष 1936 में स्वतंत्र मजदूर पार्टी बनाई. वर्ष 1942 में उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की.

उन्होंने 1956 में फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की घोषणा की जो तीन अक्टूबर, 1957 को अस्तित्व में आई. इस पार्टी ने 1957 में चुनाव लड़ा और इसे सफलता मिली. लेकिन 1970 तक आते आते यह पार्टी कई गुटों में बंट गई. वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते है, ‘आम्बेडकर अपने जीवन में राजनीतिक रूप से बेहद असफल रहे. राजनीति में वे कांग्रेस के सामने कभी चल नहीं पाए लेकिन एक समय के बाद जब कांग्रेस से दलितों का मोहभंग हुआ, तब से उनके अनुयायियों ने उनके नाम पर बड़ी राजनीतिक सफलता हासिल की. वह वैचारिक रूप से बहुत ही ज्यादा सफल रहे और आज देश के सबसे बडे़ हिस्से के मसीहा के रूप में हमारे सामने हैं. अब वोटबैंक के इर्द-गिर्द घूमने वाली चुनावी राजनीति ने धीरे-धीरे आम्बेडकर को एक प्रतीक बना दिया.’

आम्बेडकर के नाम पर राजनीति की शुरुआत

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के पतन के बाद महाराष्ट्र में दलित पैंथर और उत्तर भारत के कई इलाकों में अपने सम्मान के लिए दलित संगठनों का उग्र आंदोलन शुरू हुआ. इसी दौर में दलित राजनीति में कांशीराम ने काम शुरू किया. उन्होंने सबसे पहले बामसेफ, बाद में डीएस फोर तथा अंत में 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से एक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की और आम्बेडकर के नाम पर राजनीति करनी शुरू की. आज जितनी भी दलित राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं, उनमें बहुजन समाज पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है. कांशीराम को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी और दलित पैंथर के बाद मृतप्राय दलित राजनीति में प्रेरणा शक्ति का संचार किया. बसपा के अलावा बिहार में रामविलास पासवान के नेतृत्व में दलित एकजुट हुए. इसी दौरान और भी कई दलित पार्टियां जैसे बाल कृष्ण सेवक की यूनाइटेड सिटीजन और उदित राज की जस्टिस पार्टी आदि के अलावा दक्षिण की कई पार्टियों ने आम्बेडकर के नाम पर जमकर राजनीति की.

इन सारे नेताओं ने अपनी राजनीति का आधार ही डॉक्टर आम्बेडकर  को बनाया. मायावती ने आम्बेडकर के नाम पर स्मारकों की लाइन लगा दी. देश में आम्बेडकर जयंती को जश्न की तरह मनाने की परंपरा शुरू हो गई. इन नेताओं ने आम्बेडकर के नाम पर खुद को दलितों का शुभचिंतक बताने की कोशिश की गई और उन्हें इसका फायदा भी मिला. हालांकि इन सारे दलों द्वारा की राजनीति से दलितों का भला होने की बात पर लेखक और जेएनयू में प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं, ‘आम्बेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले दलों ने दलितों को उतना फायदा नहीं पहुंचाया है, जितने के वे हकदार थे.’ वैसे डॉ. आम्बेडकर  ने 1952 में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की मीटिंग में राजनीतिक पार्टी की भूमिका की व्याख्या करते हुए कहा था, ‘राजनीतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता, बल्कि यह लोगों को शिक्षित करने, उद्वेलित करने और संगठित करने का होता है.’

किस ठौर पहुंची दलित राजनीति

अपने उदय के साथ ही दलित राजनीतिक दलों ने दूसरे दलों के साथ गठजोड़ करने से कभी गुरेज नहीं किया. बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी के अलावा भाजपा से तीन बार गठजोड़ किया. आज पार्टी उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी है तो लोकसभा में उसका कोई भी सांसद नहीं है. एक दूसरे दलित नेता रामविलास पासवान ने भाजपा के साथ गठबंधन किया है. इसके अलावा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (ए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदास अठावले हैं जिन्होंने भीमशक्ति और शिवशक्ति को मिलाने की चाह में पहले तो शिवसेना से गठजोड़ किया और अब शिवसेना-भाजपा के सहारे अपने लिए राज्यसभा में सीट पा ली है. वहीं दलित नेता उदित राज भाजपा में शामिल हो गए हैं. इन दलों की आलोचना करने वालों का कहना है कि भारत में दलित राजनीति जातिवाद, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार और दिशाहीनता का शिकार हो गई है.

लेखक और विचारक कंवल भारती कहते है, ‘इन दलों और नेताओं के लिए आम्बेडकर ऐसे चेक बन गए हैं, जिसे वे जब चाहें भुना सकते हैं. इन दलों को आम्बेडकर के विचारों से कुछ लेना-देना नहीं है या यूं कहें इन्हें आम्बेडकर की विचारधारा की एबीसी भी नहीं पता है. यह किसी भी तरह से आंबडेकर और दलितों के हित में नहीं है. उन्होंने हमेशा दलित वर्ग की बात की, लेकिन आज के दौर में सारे राजनीतिक दल जातियों की बात कर रहे हैं और हर दल किसी जाति का प्रतिनिधित्व कर रहा है. आम्बेडकर ने खुद ही कहा था जाति के नाम पर आप कोई भी निर्माण अखंड नहीं रख पाएंगे. देश को हिंदू राष्ट्र बनाने से आम्बेडकर ने आपत्ति जताई थी, ये दल उसी हिंदू राष्ट्र की वकालत करने वाली विचारधारा से गठजोड़ कर रहे हैं, यह आम्बेडकर के विचारों की हत्या है. इन दलों के नेता अपने निजी स्वार्थ के चलते ऐसा कर रहे हैं.’

‘आम्बेडकर सत्ता से तो जुड़े, लेकिन एक बड़े मकसद के लिए. वे सत्ता में रहे, तो पूरे दलित समुदाय को मजबूत किया. कांशीराम भी सत्ता से जुड़े, लेकिन दलाली के लिए’

हालांकि वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे इससे इतर राय रखते हैं, ‘जो आम्बेडकर की राजनीति और विचारों में अपनी जरूरत के हिसाब से संशोधन करने में सफल रहा वह दलित राजनीति में आगे गया. वहीं जो आम्बेडकर के किताबी ज्ञान में उलझा रहा वह असफल हो गया. कांशीराम जो मायावती के गुरु थे, उन्होंने आम्बेडकर के विचारों में अपने हिसाब से बदलाव किया. आम्बेडकर ने कहा था जाति को तोड़ देना चाहिए, तो कांशीराम ने कहा कि जातियों को मजबूत किया जाना चाहिए, क्योंकि हमें जातियों के जरिये ही नुमाइंदगी मिलती है. इस वजह से ही बहुजन समाज पार्टी आगे बढ़ी. जहां तक सवाल दलित दलों द्वारा सत्ता के लिए किए जाने वाले गठजोड़ का है तो आम्बेडकर ने खुद ही कहा था कि राजसत्ता मास्टर चाबी है, उसे प्राप्त करना है. इसी को कांशीराम ने कहा कि राजसत्ता मास्टर चाबी है. उन्होंने उसी को ध्यान में रखा. बहुजन समाज पार्टी ने इसी को ध्यान में रखा. वह हमेशा चुनाव के समय सक्रिय होती है. आम्बेडकर खुद हमेशा सत्ता के साथ रहे. जब अंग्रेजों की सत्ता थी तो वह उनके साथ रहे और जब कांग्रेस की सत्ता आई तो वह उसके कैबिनेट में शामिल हो गए. वे जानते थे कि राजसत्ता के साथ ही रहकर वे दलितों का उद्धार कर सकते हैं. वर्तमान दौर में भी दलित राजनीति बहुत ही कामयाब है. इसने भारतीय राजनीति में अपनी स्वीकार्यता सिद्ध कर दी है. आज दलित राजनीतिक दलों से दूसरे बड़े दलों को गठबंधन करना पड़ रहा है. उन्हें पूरी भागीदारी देनी पड़ रही है.’

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वहीं बद्री नारायण कहते हैं, ‘भीमराव आम्बेडकर सत्ता के साथ तो जुड़े, लेकिन वह एक बड़े मकसद के लिए था. वह सत्ता में रहे, तो पूरे दलित समुदाय को मजबूत बनाया. कांशीराम भी सत्ता के साथ जुड़े, लेकिन वह दलाली के लिए था.’

कुछ ऐसी ही राय कंवल भारती की भी है. वे कहते हैं, ‘जब आम्बेडकर ने राजनीति की, उस समय दलित चेतना-शून्य थे, उनकी कोई राजनीतिक समझ नहीं थी और हिंदू समाज उन्हें कोई भी अधिकार देने को तैयार नहीं था. ऐसे समय में जब आम्बेडकर अंग्रेजों से मिले, तो वह मंत्रिपद या अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं गए थे, वे पूरे समुदाय के हित के लिए गए थे. लेकिन आज के हालात दूसरे हैं. आज के नेता अपने हितों के चलते दलितों के हितों को ताक पर रख देते हैं.’

हालांकि अरुण कुमार त्रिपाठी दलित राजनीतिक दलों की सत्ता में हिस्सेदारी को गलत नहीं मानते हैं. उनका कहना है, ‘जब तक आप सत्ता में नहीं आएंगे, तब तक आप सामाजिक बदलाव नहीं ला पाएंगे. दलितों के लिए स्थितियां देश में आज भी बहुत ही अच्छी नहीं है. उत्तर प्रदेश को छोड़कर दलित राजनीतिक दल अपने दम से सत्ता में आने की स्थिति में कहीं नहीं आए हैं. ऐसे में उन्हें गठबंधन का सहारा लेना पड़ता है. गठबंधन बनाने पर दूसरे दल भी फायदा ले जाते हैं. दलित दलों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है. वैसे भी सत्ता में आने से दलितों में स्वाभिमान का विकास होता है, मुझे नहीं लगता कि सत्ता के लिए गठबंधन करने वाले दलित दलों को गलत कहना सही होगा.’

गठबंधन और दलित राजनीति से जुड़े सवाल पर भाजपा के सांसद उदित राज कहते हैं, ‘आम्बेडकर के नाम पर की गई दलित राजनीति अभी अधूरी है. अभी हमें लंबी लड़ाई लड़नी है. वैसे भी जातिवादी समाज में अपनी पार्टी खड़ी करना मुश्किल काम है. ऐसी परिस्थिति में यदि हम लोकसभा में जाने और अपने लोगों की आवाज उठाने के लिए दूसरी पार्टियों का सहारा ले रहे हैं, तो कोई बुराई नहीं है. मैंने भाजपा का दामन अपने लोगों की भलाई के लिए ही थामा है.’