पाकिस्तान के पश्चिमी शहर पेशावर में 16 दिसंबर को सेना के एक स्कूल पर हमलाकर आतंकवादियों ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया और साथ ही पाकिस्तानी सेना के उन दावों को मटियामेट कर दिया कि उन्होंने अशांत कबायली इलाकों में व्यापक स्तर पर अभियान चलाकर आतंकवाद और चरमपंथ की कमर तोड़ दी है. उनका सैंकड़ों चरमपंथियों को गिरफ्तार करने का दावा भी हवा हो गया.
2013 के आम चुनावों में कामयाबी के बाद नवाज शरीफ ने जब सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने आतंकवाद और चरमपंथ को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प सबसे पहले लिया था. उनकी इसी नीति के मद्देनजर फैसला लिया गया था कि तालिबान और दूसरे चरमपंथियों के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू की जाय. बातचीत शुरु हुई, लेकिन कुछ महीने चलने के बाद नाकाम हो गई, इसकी उम्मीद भी की जा रही थी. बातचीत में नाकामी के बाद जून 2014 में पाकिस्तानी सेना ने कबायली इलाकों, उत्तर वजीरिस्तान और दक्षिण वजीरिस्तान में व्यापक स्तर पर सैन्य अभियान शुरू कर दिया जो आज तक चल रहा है. सेना के तमाम बड़े अभियानों के बावजूद आतंकवाद अपने चरम पर है और बीच-बीच में पेशावर जैसे खतरनाक हमले भी जारी हैं.
इन हमलों से पाकिस्तानी सेना की खूब बदनामी भी हुई और हर बार उसने आतकंवाद को समूल खत्म करने का दावा भी किया. इस तरह के संकल्प पाकिस्तानी सेना ने कई बार लिए हैं, लेकिन आतंकवाद कम होने की बजाय दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. आतंकवाद और चरमपंथ को लेकर जो पाकिस्तानी सेना की नीति है उसमें कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन उस नीति को लागू करने के तरीके जरूर बदलते रहे हैं. अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने कुछ दिन पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि पाकिस्तान चरमपंथ को हथियार के तौर पर इस्लेमाल करना बंद कर दे और जब यह बंद होगा तो इस क्षेत्र में हालात खुद ब खुद बेहतर हों जाएंगे. हामिद करजई का इशारा पाकिस्तानी सेना की उस नीति की तरफ है जिससे अफगनिस्तान को काफी नुकसान हो रहा है. यही वजह है कि पेशावर से पेरिस तक आतकंवाद फैला हुआ है और पाकिस्तान इसका केंद्र न होते हुए भी किसी न किसी तरह से इसका हिस्सा हमेशा बना हुआ है.
दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में मारा गया, अल कायदा के सबसे खतरनाक आतंकवादी पाकिस्तान से गिरफ्तार हुए और दुनिया में जहां कहीं भी आतंकवादी हमले हुए उसकी कड़ियां कहीं न कहीं पाकिस्तान से जरूर जुड़ीं. हाल ही में पाकिस्तान सरकार ने तालिबान से बातचीत शुरू की थी, हालांकि वह बातचीत नाकाम हो गई, लेकिन उस दौरान तालिबान के करीब 30 अहम कमांडरों को रिहा किया गया था. बाद में खबरें आईं कि वही तालिबानी कमांडर सीरिया भेजे गए और उसी दौरान पाकिस्तान को चार सौ करोड़ रुपये सऊदी अरब से मिले. सरकार ने बताया कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सऊदी अरब के बादशाह ने देश चलाने के लिए यह तोहफा दिया है. बात बिल्कुल स्पष्ट है कि चार सौ करोड़ रुपये करीब 30 कमांडरों के बदले में मिले थे. ये कालीन के नीचे छिपाई गई वो स्थितियां है जिन्हें आम जनता जानती-समझती नहीं है. लेकिन इसका नतीजा हम सबके सामने हैं. पेशावर से पेरिस तक टकराव के हालात दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं.
इन परिस्थितियों के मद्देनजर सबके मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इस्लाम धर्म में ही इतना चरमपंथ क्यों है. क्या यह सिर्फ मिथ है या इसमें कोई सच्चाई भी है? और क्या इस्लाम का लोकतंत्र से तालमेल नहीं बैठता? बात यह है कि इस्लाम ताकत के जोर पर फैला, इसके लिए खतरनाक युद्ध हुए, बहुत सारा नुकसान हुआ और काफी लोग मारे भी गए, तब जाकर इसकी बुनियाद पड़ी और यह फैलता गया. इस्लाम का इतिहास लड़ाई और युद्ध से शुरू होता है. अब दो विचारधाराएं हैं, एक का मानना है कि इस्लाम को और फैलाने की जरूरत है और इसके लिए ताकत यानी जेहाद ही एकमात्र जरिया है. जैसा इस्लाम का इतिहास हमें बताता है. दूसरी विचारधारा के माननेवाले कहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म है और इसको प्यार, मोहब्बत और हुसुन-ओ-इखलाक से फैलाया जाना चाहिए. बदकिस्मती से इस विचार को माननेवालों की संख्या बहुत ही कम है. इसकी वजह से पूरी दुनिया में इस्लामी अतिवाद के मसले बढ़ते जा रहे हैं.
इस्लाम में दो धाराएं टकरा रही हैं. एक का मानना है कि इस्लाम को और फैलाने की जरूरत है और जेहाद ही एकमात्र जरिया है. दूसरी धारा का मानना है कि इस्लाम शांति का धर्म है
जहां तक इस सवाल का संबंध है कि क्या इस्लाम का लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन पद्धति से तालमेल बैठ सकता है. इसका यही जवाब है कि इस्लाम का लोकतंत्र से साथ अच्छा तालमेल बैठ सकता है लेकिन बिठाया नहीं जाता है. इसकी वहज यह है, कि दुनिया में सुन्नी इस्लाम का असर बहुत ज्यादा है और इसके माननेवाले भी ज्यादा हैं. इसका प्रचार करनेवाले और प्रचार में मदद करनेवाले अरब देश हैं जहां आज भी लोकतंत्र नहीं, बल्कि बादशाहत कायम है. इसमें सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमरात की बड़ी भूमिका है और यही देश इस्लाम में सुधार की सबसे बड़ी रुकावट हैं. हालांकि इस समय इस्लाम में सुधार की बहुत जरूरत है, लेकिन इस्लाम में सुधार इन अरब देशों की बादशाहतों के लिए बड़ा खतरा है. इस डर की वजह से इन अरब देशों ने धर्म को हिंसक रूप दे रखा है. खबरों और खुफिया सूचनाओं में यह बात बार-बार सामने आती है कि पाकिस्तानी चरमपंथी संगठनों को सऊदी अरब और अन्य देशों से भारी पैसा मिलता है और उसी के दम पर वो जेहाद करते हैं.
मौजूदा समय में यही अरब देश भारत में हिंसक इस्लाम के लिए मोटा निवेश कर रहे हैं क्योंकि मुसलमानों की संख्या के लिहाज से भारत बहुत बड़ा देश है. हालांकि उन्हें इस काम में कोई खास कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है. हाल-फिलहाल में ऐसी खबरें भी आईं कि सीरिया, इराक और अन्य मुस्लिम देशों में हुई घटनाओं से भारत के युवा अपने आपको जोड़ रहे हैं. इसको रोकने के लिए भारत सरकार को समय रहते चेतना होगा और साथ ही दुनिया को इस मुसीबत से बचाने के लिए अहम भूमिका निभानी पड़ेगी. इसका सबसे बढ़िया तरीका है देश में धर्म निरपेक्ष बुनियादों को मजबूत किया जाए, उन उसूलों पर आगे बढ़ा जाय. भारत शायद दुनिया का एकमात्र देश है जहां सभी धर्मों और जातियों के लोग सदियों से आबाद है, और साथ मिलकर रहते हैं. इसलिए किसी भी धर्म में चरमपंथ भारत के लिए नुकसानदेह साबित होगा. देश के कामकाज में अगर धर्म का सहारा लिया जाएगा तो उसे नुकसान होगा और पाकिस्तान इस समय भारत के सामने इसका सबसे बड़ा उदहारण है. अगर भारत में रामराज्य के स्वर उठेंगे तो सबसे पहले इसका असर मुसलिम युवाओं पर पड़ेगा. इसकी प्रतिक्रिया भारत जैसे देश के लिए नुकसानदेह होगी. अगर यहां भी इस्लाम का वह हिंसक रूप घर कर गया तो कई दूसरे देश लुके-छिपे इनकी मदद को आतुर हो जाएंगे. इसलिए भारत सरकार को सतर्क रहना होगा, इस्लामी मदरसों में सुधार करना होगा और धर्म निरपेक्ष मूल्यों पर टिके रहना होगा. यह सिर्फ भारत का मसला नहीं है, बल्कि भारत के जरिए पूरे दक्षिण एशिया को बचाना है.