हाल ही में केंद्र सरकार ने विधि आयोग को पत्र लिखकर समान नागरिक संहिता (यूनीफाॅर्म/कॉमन सिविल कोड) यानी सभी के लिए एक जैसे कानून पर सुझाव मांगा है. अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार से अपना रुख साफ करने को कहा था. इसके बाद सरकार ने पहली बार विधि आयोग को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर रिपोर्ट देने को कहा था. कुछ दिन पहले सरकार ने विधि आयोग को दोबारा पत्र लिखकर इस मसले की याद दिलाई जिसके बाद यह मसला चर्चा में है.
भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री का पद संभालने के बाद कहा, ‘समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाने से पूर्व व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत है. इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया जाएगा. इस मसले पर विधि आयोग विचार कर रहा है. संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता का आदेश देता है.’
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि सरकार पूरे देश में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगी. हालांकि, यह अब तक लागू नहीं हो पाया है. समान नागरिक संहिता का मसला धार्मिक पेचीदगियों की वजह से हमेशा संवेदनशील रहा है, इसलिए सरकारों ने इस पर कभी कोई ठोस पहलकदमी नहीं की, हालांकि इस पर गाहे-बगाहे चर्चाएं जरूर होती रही हैं. समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी था. केंद्र में सत्ता मिलने के कुछ समय बाद भाजपा के ही सांसद योगी आदित्यनाथ ने सरकार से समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग की थी.
हाल ही में इस मुद्दे को उठाने के बाद भाजपा पर यह आरोप भी लगा कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के मद्देनजर उसने इस मुद्दे को छेड़ा है क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विचारधारा से जुड़े जो मुद्दे हैं उनमें राम मंदिर, कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता प्रमुख हैं. हालांकि भाजपा ने इस आरोप से इनकार किया और इस शुरुआत को समान नागरिक संहिता को वजूद में लाने की सामान्य प्रक्रिया बताया.
‘समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल किया है. यह नहीं लाया गया, इसका कारण वोटबैंक की राजनीति है कि जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं वे कहीं नाराज न हो जाएं’
बीते अक्टूबर में ईसाई समुदाय के एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाए. याचिका में कहा गया था कि ईसाई दंपति को तलाक लेने के लिए दो वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिंदू व अन्य कानूनों में स्थिति अलग है. इसी सिलसिले में समान नागरिक संहिता की बात उठी थी जिस पर कोर्ट ने केंद्र से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था. दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी समान नागरिक संहिता को लेकर याचिका दायर की थी. इसमें कहा गया था, ‘समान नागरिक संहिता आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक है. इसे लागू करने का मतलब होगा कि देश धर्म-जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करता. देश में आर्थिक प्रगति जरूर हुई है लेकिन सामाजिक रूप से कोई तरक्की नहीं हुई है.’ समान नागरिक संहिता के पक्षधर तबके की दलील है, ‘एक धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए.’
इस तरह की ज्यादातर याचिकाएं खारिज करते हुए कोर्ट का बार-बार यह तर्क रहा है कि चूंकि कानून बनाना सरकार का काम है इसलिए कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती, न ही वह सरकार को कानून बनाने का आदेश दे सकती है. लेकिन यदि कोई पीड़ित सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है. पिछले एक साल में ईसाई तलाक कानून और मुस्लिम तीन तलाक कानून के खिलाफ कई मसले सुप्रीम कोर्ट में आए हैं.
सरकार की तरफ से विधि आयोग को पत्र लिखे जाने के बाद कई मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर विचार करना शुरू कर दिया है. इस मसले से जुड़े फैसलों में कोर्ट की टिप्पणियां, दस्तावेज वगैरह जुटाए जा रहे हैं. इस मसले पर आयोग वेबसाइट के जरिए व अन्य माध्यमों से जनता से राय लेकर व्यापक विचार-विमर्श के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा.
समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों की राय है कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, भले ही वे किसी भी धर्म से संबंध रखते हों. लेकिन धर्मावलंबी व धर्मगुरु इससे सहमत नहीं हैं. समाज का एक तबका ऐसा भी है जो विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मसलों को भी धर्म से जोड़कर देखता है. दूसरी ओर, समान नागरिक संहिता न होने की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. राजनीतिक दल समान कानून बनाने या समान नागरिक संहिता के पक्षधर तो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की.
सवाल यह है कि क्या सरकार इस मसले पर आगे बढ़ेगी या हमेशा की तरह यह मुद्दा सिर्फ चुनावी चाल की तरह बार-बार चला जाता रहेगा? इसके साथ और भी कई अहम सवाल इस मसले से जुड़े हैं. दरअसल, कुछ समुदायों के अपने पर्सनल कानून हैं जिन्हें वे न सिर्फ धार्मिक आस्था से जोड़कर देखते हैं, बल्कि वे इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं. इसके चलते समान नागरिक संहिता का कड़ा विरोध भी हो सकता है.
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने इस मुद्दे पर सर्वे कराया था. इस सर्वे में 57 फीसदी लोगों ने विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों के लिए पृथक कानून के पक्ष में राय जाहिर की. केवल 23 फीसदी लोग समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे. 20 फीसदी लोगों ने कोई राय ही नहीं रखी. 55 फीसदी हिंदुओं ने संपत्ति और विवाह के मामले में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में राय दी, जबकि ऐसे मुस्लिम 65 फीसदी थे. अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन) ने सर्वे में इससे मिलती-जुलती या इससे थोड़ी ज्यादा संख्या में समान नागरिक संहिता का समर्थन किया. अल्पसंख्यक समुदायों का बहुमत मौजूदा व्यवस्था कायम रखने के पक्ष में है. सीएसडीएस का निष्कर्ष था कि शिक्षित वर्ग में भी समान नागरिक संहिता से असहमति रखने वालों का बहुमत है. शिक्षित तबके में समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में जोरदार दलीलें दी गईं, लेकिन झुकाव इस ओर रहा कि विभिन्न समुदायों के निजी मामले अपने-अपने कानूनों से ही संचालित होने चाहिए.
‘हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था. अगर यूनीफाॅर्म सिविल कोड नहीं लागू होता तो हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वालों का भी अपमान कर रहे हैं. अगर बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा’
सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता पर समय-समय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, बल्कि सरकार को इस दिशा में बढ़ने के निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए. 11 मई, 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इससे एक ओर जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा, ‘इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं ने द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.’ कोर्ट ने इस संबंध में कानून मंत्रालय को निर्देश दिया था कि वह जिम्मेदार अधिकारी द्वारा शपथ पत्र प्रस्तुत करके बताए कि समान नागरिक संहिता के लिए न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने क्या प्रयास किए. हालांकि, यह बात दीगर है कि आज तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई.
संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. लेकिन मेरा निजी विचार है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको लैंगिक न्याय के रूप में लिया जाना चाहिए. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप ही नहीं है.’
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘समान नागरिक संहिता तो चल ही रही है. लोगों को यह भ्रम है कि कॉमन सिविल कोड है ही नहीं. कॉमन सिविल कोड पहले से है और उससे 123 करोड़ लोग गवर्न हो रहे हैं. कुछ जो पुराने भ्रम बने हुए हैं उसमें से एक कॉमन सिविल कोड भी है. लेकिन दो-तीन बातें ऐसी हैं जिसको हमारी सरकारें या विभिन्न समुदाय हल नहीं कर पाए हैं. इसलिए कॉमन सिविल कोड की बात चलती रहती है. उनमें से एक मसला ये है कि विवाह का कानून कैसा हो. विवाह अगर टूटता है तो तीन तलाक के माध्यम से हो या कानून के माध्यम से. इसी तरह संपत्ति के वारिस का मामला है. ये दो-तीन बातें ऐसी हैं जिनके बारे में अभी कॉमन सिविल कोड लागू होना है और ये बहुत विवादास्पद है. कई बार सरकारें इस पर पहल नहीं करतीं. अब नई स्थिति यह है कि मामला विधि आयोग को भेजा गया है, लेकिन पहले भी विधि आयोग की रिपोर्ट आती रही है. अब फिर से मामला लॉ कमीशन के सुपुर्द किया गया है.
कमीशन की जो रिपोर्ट आएगी, उस पर बातचीत होगी और संसद में यह सवाल उठेगा.’
समान नागरिक संहिता लागू हो या न हो, इसके जवाब में पूर्व मंत्री व नेता आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘यह प्रश्न ही नामुनासिब है क्योंकि खुद हमारा संविधान अपने अनुच्छेद 44 के द्वारा राज्य के ऊपर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. असल में सवाल यह होना चाहिए कि संविधान लागू होने से लेकर आज तक हमारी सरकारों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं. वास्तविकता यह है कि समान सिविल संहिता तो छोड़िए, हमने तो क्रिमिनल संहिता को भी समान नहीं रहने दिया. शाह बानो केस में क्रिमिनल संहिता के सेक्शन 125 के तहत निर्णय हुआ था. हमने उसको भी संसद के एक कानून द्वारा निरस्त किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के एक वर्ग को उस अधिकार से वंचित कर दिया जो उन्हें क्रिमिनल संहिता के द्वारा मिला हुआ था.’
सुभाष कश्यप भी राजनीतिकरण की बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं, ‘इसे लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया गया, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोटबैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.’
कानून की समानता का महत्व बताते हुए राम बहादुर रायकहते हैं, ‘फिलहाल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी का अपना नियम-कानून है. सब अपनी-अपनी रीति और परंपरा से संचालित हैं. इस क्षेत्र में एक समानांतर व्यवस्था चल रही है. बाकी क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जैसे मान लिया कि कोई व्यक्ति अपराध करता है तो यह नहीं देखा जाता कि वह किस समुदाय का है. कॉमन सिविल कोड मौजूद है वहां. अगर हम आपकी मानहानि करते हैं तो आप इस आधार पर मुकदमा करते हैं कि हमने आपकी मानहानि की. इस आधार पर नहीं करते कि मैं हिंदू हूं या मुसलमान हूं. दो-तीन बातें हैं जिनका निराकरण हो जाएगा तो यह मसला सुलझ जाएगा.’
‘संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है’
अगर मौजूदा व्यवस्था ही बनी रहे, समुदायों के पर्सनल कानून ही लागू रहें तो इसके क्या नुकसान हैं? इसके जवाब में राम बहादुर राय कहते हैं, ‘आप कैसे इस चीज को देखते हैं, इस पर निर्भर करता है. कौन व्यक्ति इसको किस रूप में देखता है, यह महत्वपूर्ण है. हमारे एक मित्र हैं, जिनका मैं बहुत आदर करता हूं. लेकिन उनका मानना है कि खाप पंचायत बहुत आदर्श व्यवस्था है. अब खाप अगर आदर्श व्यवस्था है तो खाप जो फैसला करेगी, उस समुदाय पर वही लागू होगा. किंतु अब सवाल यह है कि जो भारतीय अपराध संहिता है वह लागू होगी या खाप की व्यवस्था लागू होगी. यहां पर टकराव आता है. दूसरा उदाहरण है ट्राइबल इलाकों की पंचायतें. कोई अपराध वगैरह होता है तो वे बैठते हैं और कई-कई दिन तक उस पर बात करते हैं. वहीं खाना-पीना होता है, वहीं पर सोना होता है. वे उस पर सर्वानुमति से फैसला लेते हैं. मेरा ख्याल है कि विनोबा जी ने सर्वोदय में जो सर्वानुमति चलाई, उसकी प्रेरणा यहीं से मिली होगी. अब कोई सरकार अगर वहां सर्वानुमति से राय लेती है कि कोई कानून लागू नहीं होगा और कोई अपराध होता है तब क्या होगा? अरुणाचल प्रदेश में 1980-82 तक कोई जेल नहीं थी. अब वहां पर जेलें हैं. जो लोग इस मुद्दे को उठाते हैं उसके पीछे दो तरह की अवधारणा है. पहली अवधारणा यह है कि हमारे संविधान का जो केंद्रीय बिंदु है, जो मुख्य पात्र है, वह नागरिक है. खाप, पंचायत या दूसरी व्यवस्था मान्य नहीं है. ये व्यवस्थाएं तभी तक चल सकती हैं, जब तक उनका कानून से कोई टकराव न हो. जहां टकराव होता है तो यह मांग उठती है कि भाई सबके लिए एक कानून लागू क्यों नहीं करते. दूसरा, अगर नागरिक के स्तर पर भेदभाव होता है तो सवाल उठता है कि एक को आप कानून से संचालित करना चाहते हैं, दूसरे को आप उसकी मर्जी के कानून से संचालित करते हैं.’
इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालने वाले अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘देखिए, मुझे लगता है कि अनुच्छेद 44 हमारे संविधान की आत्मा है. कुछ ऐसे अनुच्छेद हैं, जैसे अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता की बात करता है और अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की. अगर हम मूल अधिकार में देखें तो ये दोनों मूल अधिकारों की आत्मा हैं. ऐसे ही अगर हम नीति निदेशक तत्वों में जाकर देखें तो अनुच्छेद 44 यानी यूनीफॉर्म सिविल कोड उसकी आत्मा है. हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था और ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ में अगर यूनीफॉर्म सिविल कोड नहीं लागू होता और पर्सनल लॉ चलते हैं, तो मुझे लगता है कि हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वाले बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई, मौलाना कलाम और तमाम सारे लोगों का अपमान कर रहे हैं. वोटबैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में ये अभी तक लागू नहीं किया गया. तमाम लोगों से मेरा एक सवाल है कि अगर बाबा साहेब आंबेडकर, नेहरू, किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा. यह बहुत बेसिक बात है. आजादी के बाद संविधान बनाया गया था. उन लोगों को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ी वोट के चक्कर में क्या-क्या कर देगी. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. वोट की राजनीति ने हमारा बहुत नुकसान किया है.’
समान नागरिक संहिता पर ऐतिहासिक मतभेदों और विवादों का जिक्र करते हुए रामबहादुर राय बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में जो विवाद था वह इसी बात पर था. राजेंद्र प्रसाद यह नहीं चाहते थे कि हिंदू कोड बिल केवल हिंदुओं के लिए लागू हो. अगर आप हिंदू कोड बिल बना रहे हैं तो मुस्लिम कोड बिल भी बनाइए. और हिंदू कोड बिल, मुस्लिम कोड बिल की क्या जरूरत है, कॉमन कोड क्यों नहीं हो सकता? ये 1954-55 से चला आ रहा विवाद है. वे कहते हैं, ‘इसका व्यापक पक्ष जो है वह दूसरा है. वह इससे संबंधित है कि हमने अभी भी भारत के लोगों के लिए, जिसमें हिंदू-मुसलमान-ईसाई-पारसी का सवाल नहीं है, इस पर विचार ही नहीं किया है कि भारतीय नागरिक के लिए किन्हीं परिस्थितियों में कैसा कानून होना चाहिए. जहां कोई अड़चन आती है, वहां मौजूद कानूनों में ही हेरफेर करके काम चला लेते हैं. यह व्यापक प्रश्न है, जिस पर विचार होना चाहिए.’
समान नागरिक संहिता का महत्व और पर्सनल कानून की निरर्थकता बताते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘दुनिया के बहुत सारे इस्लामिक देशों में यूनीफॉर्म सिविल कोड है. अपने भारत में गोवा में लागू है और वहां चल रहा है. वहां हर समुदाय के लिए एक कॉमन लॉ है. जो लोग इसका विरोध करते हैं, वे महिला और गरीब विरोधी हैं. पर्सनल लॉ महिलाओं को दबाने का स्पेस है. यूनीफॉर्म सिविल कोड आएगा तो महिलाओं के शोषण पर लगाम लग जाएगी. सिर्फ महिलाओं नहीं, कई बार पुरुषों का भी शोषण होता है, वह भी रुकेगा. मेरा अपना मानना है कि हर एक पर्सनल लॉ, हिंदू हो या इस्लामिक या ईसाई, सबमें कुछ-कुछ अच्छी चीजें हैं. उन सबकी बेहतर चीजों को निकालकर एक कॉमन ड्राफ्ट बनाना चाहिए. उस ड्राफ्ट को संसद में ले आना चाहिए फिर उस पर चर्चा हो. अभी दिक्कत ये है कि इसका कोई प्रारूप नहीं है.’
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी इस मसले पर अपनी राय रखते हैं, ‘हम तो उन लोगों में हैं जिन्होंने मुल्क में सेक्युलर दस्तूर को बनवाया है. वह दस्तूर जिसके तहत अपने मजहब पर आजादी के साथ अमल करते हुए मुल्क की तरक्की के लिए, मुल्क को आगे बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. हमने मजहबी अकलियत को अपनी मजहबी निशानी के साथ दस्तूर में जिंदा रखवाया है. हमारा किरदार है वो. हम सबने गांधी-नेहरू के साथ मिलकर उस दस्तूर को बनवाया है कि जिसमें मुल्क को आगे बढ़ाने में हर आदमी, चाहे वो किसी भी मजहब का हो, मददगार बने और अपने मजहब पर कायम रहने का उसे मुकम्मल हक हो. मुल्क 70 साल से उन्हीं दस्तूरों पर चल रहा है. हम उसके मुखालिफ कैसे हो सकते हैं. हम तो जम्हूरियत और सेक्युलरिज्म की ताईद ही इस वजह से करते हैं कि मुल्क के अंदर तमाम अकलियत को जोड़कर रखने का एक ही रास्ता है और वह है सेक्युलरिज्म. सेक्युलरिज्म ही देश को और मजबूत कर सकता है. तमाम सारी अकलियत को अगर उनके मजहब से काटकर रखा जाएगा तो ये तो झगड़ा पैदा करेगा. हम उसकी ताईद नहीं करते. हम ये मानते हैं कि अपने-अपने मजहब पर अमल करते हुए तमाम लोग मुल्क की आजादी और तरक्की के लिए काम करें. यही अमन और प्यार-मोहब्बत का रास्ता है.’
दूसरी ओर अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘हमारा संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. किसी कीमत पर नहीं. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू होने से ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को निकाह करना पड़ेगा और मुसलमानों को सात फेरे लेने पड़ेंगे. ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को दफनाना पड़ेगा और मुसलमानों को जलाना पड़ेगा. ये उसमें कहीं आड़े नहीं आता. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले हैं. जस्टिस खरे का है, जस्टिस चंद्रचूड़ का है. बड़ी-बड़ी पीठों के फैसले हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार ये वस्तुत: सेक्युलरिज्म का पार्ट हैं, ये पर्सनल कानून या आस्था से नहीं चल सकते. ऐसा नहीं हो सकता कि एक महिला तलाक ले तो उसे दस रुपये मिलें और दूसरी महिला तलाक ले तो उसे एक पैसा न मिले. ऐसा नहीं चल सकता.’
महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही है कि कॉमन सिविल कोड पर अभी ही चर्चा हो और ये लागू हो. अभी बहुत सारी योजनाएं हैं जिनका चुनाव के टाइम ऐलान किया गया था. सरकार का जो लक्ष्य है 2017 का, सबका साथ सबका विकास, शिक्षा, हेल्थ और तमाम मुद्दे हैं, सरकार उन पर काम करे. जो लोग कॉमन सिविल कोड को किसी खास मकसद से लाना चाहते हैं, वे चुनाव को नजर में रखकर इसे उछाल रहे हैं, तो मेरी यही गुजारिश है मुस्लिम समाज मुस्लिम कानून और मजहब के हिसाब से ही काम करेगा. हम महिलाएं अदालत में अपने कानून को मजबूती से लागू करने की लड़ाई लड़ रही हैं.’
समान नागरिक संहिता की चर्चा में सबसे तीखा विरोध मुस्लिम समुदाय की ओर से उठता है. संविधान सभा में बाबा साहेब आंबेडकर का इस मुद्दे पर भाषण भी मुसलमानों पर ही केंद्रित है. अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘जो तथाकथित धर्मगुरु लोग विरोध करते हैं, उन्हें मालूम है कि यह महिलाओं के पक्ष में है. लेकिन ये लोग अपनी दुकान चलाने के लिए विरोध करते हैं. इससे तो धर्म का फायदा है. इस्लाम की जो बेसिक थीम पैगंबर साहेब ने दी थी, वह बराबर की थी. इस्लाम की बेसिक थीम बराबरी है कि हमारे यहां जाति, लिंग आदि का कोई भेद नहीं होगा. अगर बेसिक कॉन्सेप्ट बराबरी है तो कोई भी पर्सनल लॉ जो आर्टिकल 14 का उल्लंघन करे वह तो होना ही नहीं चाहिए. सबसे बेसिक कानून अनुच्छेद 14 और 21 है. जो लोग बाकी अनुच्छेदों की बातें करते हैं, 13, 25, 29 या 30, ये सब 14 के बाद आते हैं. यह एक आॅर्डर में है. बेसिक कानून 14 है. कानून के समक्ष बराबरी बेसिक है. ऐसा नहीं हो सकता है कि शादी के वक्त आप पूछें कि मंजूर है कि नहीं और तलाक देते वक्त नहीं पूछें कि मंजूर है कि नहीं. इसमें सबसे ज्यादा जरूरी है कि पहले कानून का ड्राफ्ट आ जाए. ड्राफ्ट आ जाएगा तो जितने विवाद हैं, वे ज्यादातर अपने आप हल हो जाएंगे.’
मई 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता अनिवार्य रूप से लागू करने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था, ‘इससे जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. किसी समुदाय के इस तरह के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता’
शाइस्ता अंबर यह तो मानती हैं कि मुस्लिम समाज में बहुत-से सुधारों की जरूरत है, लेकिन वे इस बात की हिमायती हैं कि इनका निदान इस्लामी कानून और कुरान के मद्देनजर ही होना चाहिए. बातचीत में वे कहती हैं कि इस्लामी कानून अपने आप में मुकम्मल हैं. वे मानती हैं कि मुसलमान औरतों को न्याय कुरान की बुनियाद पर मिलना चाहिए. उन्होंने बताया कि हमने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को एक सिफारिश भेजी थी कि जिस तरह हिंदू कोड बिल है, उसी तरह एक मुस्लिम कोड बिल बनाया जाए. वे कहती हैं, ‘हम कॉमन सिविल कोड स्वीकार तब करें जब हमारे मुस्लिम पर्सनल कानून में कुछ गलत हो. जब पर्सनल लॉ में कोई कानून गलत है ही नहीं, पहले से ही सारे अधिकार मिले हुए हैं तो हमें कॉमन सिविल कोड की जरूरत ही नहीं है. हमारा विश्वास ऐसे कानून में है जो कॉमन सिविल कोड से ज्यादा मुकम्मल है.’
चूंकि भाजपा कश्मीर में धारा 370, राम मंदिर और यूनीफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाती रही है, इसलिए इस मामले में और भी भ्रम की स्थितियां बनी हैं. भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा के कारण मुस्लिम समुदाय में यह संदेश गया है कि यह भाजपा का हिंदूवादी एजेंडा है. मौलाना अरशद मदनी कहते हैं, ‘हम समझ रहे हैं, हो सकता है कि मेरी यह बात किसी को बुरी लगे लेकिन वो जो एक आवाज उठी थी सबको घर वापस लाओ, अब तक वो आवाज जनता के बीच थी, अब सरकार उस आवाज के दरख्त को पालने के लिए पानी दे रही है और ये दूसरे रास्ते से उसी की तरफ लेकर चलना चाहते हैं. हमें तो ये मंजूर नहीं है. हम तो मरना और जीना इस्लाम और मजहब के साथ ही बावस्ता रखना चाहते हैं. हम इसकी ताईद नहीं करेंगे. हमारा अपना स्टैंड है और वह बहुत मजबूत है. हमारा इसमें कोई समर्थन और विरोध नहीं है. हम बस इतना जानते हैं कि हर आदमी मुल्क को आगे बढ़ाए और अपने मजहब पर कायम रहते हुए बढ़ाए.’
अब तक यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू न होने के लिए वोटबैंक राजनीति को जिम्मेदार ठहराते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘वोट के लालच ने देश का बहुत नुकसान किया है. राइट टू एजुकेशन को मूलाधिकार बनाकर 21 ए में रखा गया. लेकिन उसमें भी विसंगतियां हैं. हमारे देश में तीन चीजें बहुत जरूरी हैं. यूनीफॉर्म एजुकेशन, यूनीफॉर्म हेल्थकेयर और यूनीफॉर्म सिविल कोड हो. अगर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना है तो ये तीन चीजें बहुत जरूरी हैं.’