मोदी की शह पर फिर भाजपा के शाह

Amit-Shah-web

सोमवार, 25 जनवरी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पश्चिम बंगाल में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. इस दौरान आत्मविश्वास से लबरेज शाह ने ममता सरकार की जमकर बखिया उधेड़ी. उन्होंने कहा कि ममता ने परिवर्तन नहीं सिर्फ पतन किया है. रैली की खासियत यह थी कि शाह दोबारा या कहें कि पूरे तीन साल के लिए पार्टी अध्यक्ष चुने जाने के बाद पहली बार सार्वजनिक रैली को संबोधित कर रहे थे. मजेदार बात यह है कि पार्टी अध्यक्ष चुने जाने को लेकर शाह इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने बाकायदा अध्यक्ष के चुनाव वाले दिन अपनी रैली तय कर रखी थी. दरअसल 20 जनवरी को दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय 11, अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होगा. एक से डेढ़ बजे तक नाम वापस लेने और जांच करने का काम होगा. और जरूरी हुआ तो 25 जनवरी को चुनाव होगा. लेकिन इसी के साथ अगर अमित शाह के कैलेंडर की जांच करें तो पहले से ही यह तय था कि वह 25 जनवरी को पश्चिम बंगाल के हावड़ा में रैली करेंगे. यानी कि अध्यक्ष का चुनाव सिर्फ औपचारिकता था. सारी बातें पहले से ही तय थीं.

हालांकि बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार के बाद जिस तरह से पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा का साझा बयान आया था, उससे यह लगता था कि अमित शाह की वापसी में दिक्कतें आएंगी. इसके अलावा बीच-बीच में दूसरे नेताओं व संघ परिवार की नाराजगी की भी खबरें आती रहीं. इस दौरान अमित शाह के नेतृत्व पर भी सवाल उठाए जाते रहे. लेकिन अमित शाह को एक बार फिर से तीन साल के लिए निर्विरोध भाजपा अध्यक्ष के तौर पर चुन लिया गया. वैसे भी भाजपा में निर्विरोध अध्यक्ष चुनने की परंपरा रही है. वह इस बार भी कायम रही.

­­­­­भाजपा मुख्यालय पर उनकी ताजपोशी के वक्त राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू समेत कई केंद्रीय मंत्री मौजूद रहे. इसके अलावा नामांकन और अध्यक्ष के निर्वाचन की घोषणा के वक्त भाजपा शासित लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद रहे. वहीं इस कार्यक्रम के लिए देश भर से 1500 से ज्यादा प्रदेश व जिला स्तर के नेताओं को दिल्ली बुलाया गया था. हालांकि इस पूरे कार्यक्रम से भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी नदारद रहे. इसे लेकर भी सवाल उठते रहे. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि अमित शाह को दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाया गया तो इसका कारण उनकी कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता, उनकी कार्यशैली को समझने का हुनर और संघ परिवार के पास बेहतर विकल्प का न होना था.

‘संगठन में सबको साथ लेकर चलने की चुनौती अमित शाह के सामने है. भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन पर यह आरोप लगता रहा है कि अभी तक वह सबको साथ लेकर चलने में असफल रहे हैं, जो कि पार्टी और सरकार दोनों के लिए खतरनाक है’

अब जब वह अध्यक्ष बन गए हैं तो उनके सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं. अमित शाह को इनसे पार पाना होगा. अगले दो साल में 10 राज्यों में चुनाव होने हैं. पश्चिम बंगाल, असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु में 2016 में चुनाव होंगे. उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड में 2017 में चुनाव होंगे.

राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे कहते हैं, ‘2016 में अमित शाह को पांच चुनावों का सामना करना पड़ेगा और इन पांचों जगहों पर भाजपा के जीतने की कोई उम्मीद नहीं हैं. केवल असम में भाजपा के लिए कुछ उम्मीदें है. अब अमित शाह के सामने चुनौती यह है कि इन जगहों पर जहां भाजपा की हार तय है, वह अपने वोट बैंक में बढ़ोतरी करें. अगर वोट बैंक नहीं बढ़ा तो अमित शाह के नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाएगा. इसके अलावा अमित शाह को भाजपा के अंदर क्षेत्रीय नेतृत्व पैदा करना है. हालिया बिहार और दिल्ली चुनाव में हार का यह प्रमुख कारण रहा है. उत्तर प्रदेश में भी अभी उनके पास मुख्यमंत्री पद का योग्य दावेदार नहीं है. केवल कुछ राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ही ऐसे हैं, जहां पर क्षेत्रीय नेतृत्व सही तरीके से विकसित हुआ है. अमित शाह अगर भाजपा को दूरगामी लाभ पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें क्षेत्रीय नेतृत्व विकसित करना होगा. इसके अलावा  शाह के सामने भाजपा के वरिष्ठ नेतृत्व को साथ में लेकर चलने की भी चुनौती है. उनके अध्यक्ष चुने जाने के कार्यक्रम से मार्गदर्शक मंडल गायब रहा. अगर ऐसा करने में नाकामयाब रहे तो जैसे ही वह पहली गलती करेंगे, मार्गदर्शक मंडल का पत्र आ जाएगा, जिससे नेताओं और कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जाएगा.’

इसके अलावा अमित शाह के सामने उत्तर प्रदेश सबसे कड़ी चुनौती है. यहां पर उनके ऊपर अध्यक्ष के साथ-साथ मुख्यमंत्री पद के दावेदार को चुनने की चुनौती है. इसी तरह पश्चिम बंगाल में नेता का चुनाव शाह को करना है. वहीं पंजाब और असम जैसे राज्यों में भी पार्टी को मजबूत करना है. विश्लेषकों का कहना है कि अमित शाह के सामने 2016 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन करने का दबाव है. अगर वह इसमें असफल रहते हैं तो इसका सीधा परिणाम 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा. जिसे उनके लिए आगामी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस बार भी केंद्र की सत्ता पर वह खासकर उत्तर प्रदेश के जरिये ही कब्जा जमाने में सफल रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अगर शाह के नेतृत्व में इस साल भाजपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं होता है, तो इसका सीधा असर अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव पर पड़ेगा. भाजपा के लिए ये पांच राज्य अब से पहले इतने महत्वपूर्ण कभी नहीं रहे. अगर वह यहां कुछ भी बेहतर करते हैं तो इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा. इसके अलावा संगठन में सबको साथ लेकर चलने की चुनौती अमित शाह के सामने है. भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन पर यह आरोप लगता रहा है कि अभी तक वह सबको साथ लेकर चलने में असफल रहे हैं, जो कि पार्टी और सरकार दोनों के लिए खतरनाक है. सीधी बात यह है कि उन्हें बाहरी चुनौतियों से पहले भीतरी चुनौतियों से निपटना है, क्योंकि इसके बगैर बड़ी जीत संभव नहीं है.’

‘अमित शाह का अभी का कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं रहा है. उन्होंने केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया है. वह भाजपा के दफ्तर में नौकरशाह की तरह बैठे रहते हैं. किसी भी नेता यहां तक कि मंत्रियों और सांसदों को उनसे मिलने में दिक्कतें होती हैं’

कुछ ऐसी ही राय वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अजय बोस की भी है. वे कहते हैं, ‘भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र रहा है. लेकिन शाह के आने के बाद इसमें कमी आई है. कई वरिष्ठ नेताओं ने इस पर सवाल भी उठाया है. इसे दूर करने की चुनौती अमित शाह के सामने है. इसके अलावा 2016 में पश्चिम बंगाल,  असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में होने वाले विधानसभा चुनाव में जीतने की संभावना तो कम ही है, लेकिन उनकी पार्टी को इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा. बंगाल में अगर यह दूसरे नंबर पर आ जाए तो अमित शाह के लिए बड़ी कामयाबी होगी. केरल, तमिलनाडु में कुछ सीटें लाने की चुनौती उनके सामने है. अमित शाह का सबसे बड़ा इम्तिहान असम में होने वाला है. वहां लोग कांग्रेस शासन से ऊबे हुए हैं. ऐसे में भाजपा एक विकल्प हो सकती है. अगर वह इस साल किसी भी एक राज्य में बेहतर प्रदर्शन करेंगे तो इसका फायदा उन्हें 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश  विधानसभा चुनाव में मिलेगा, जो भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनकी सबसे बड़ी चुनौती है.’

Shah-web

वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते अमित शाह को संगठन की मजबूती के साथ सरकार की छवि को भी सुधारना होगा. इसके लिए शाह को मंत्रियों के साथ सांसदों-विधायकों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह सरकारी योजनाओं को जनता के बीच ले जाएं. उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी पार्टी के सांसद और विधायक बेहतर तरीके से काम करें और जनता से निरंतर संवाद करें. इसके साथ ही उन्हें सरकार को बेहतर और जनोपयोगी काम के लिए प्रेरित करना होगा. उनके भावी कार्यकाल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह एक तरफ सरकार की छवि को बेहतर तरीके से सांसदों, विधायकों और कार्यकर्ताओं के जरिये जनता के बीच ले जाएं. दूसरी तरफ संगठन में सुयोग्य लोगों को लाकर उसे मजबूत करें. जातीय समीकरण के साथ योग्यता का भी ध्यान रखें. उन्हें युवा व साफ छवि वाले  चेहरों को आगे बढ़ाना है.

नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अभी भाजपा के सांसद, विधायक सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में रुचि नहीं ले रहे हैं. वह सक्रिय तरीके से इन योजनाओं के बारे में जनता को नहीं बता रहे हैं. अमित शाह को पार्टी सांसदों और संगठन के वरिष्ठ लोगों को इसके लिए प्रेरित करना होगा. पिछली संप्रग सरकार के दौरान भी ऐसा हुआ था. कांग्रेस सांसदों और बड़े पदाधिकारियों ने सरकार की योजनाओं में रुचि लेना बंद कर दिया था. इसका क्या परिणाम आया, यह हम सबको पता है.’

राजनीति के जानकारों का कहना है कि अमित शाह के पिछले कार्यकाल की सफलता में मूलतः मोदी का हाथ रहा है. चार राज्यों में मिली सफलता में मोदी का बड़ा हाथ रहा है. इस दौरान अमित शाह ने मोदी का जमकर इस्तेमाल भी किया. अब से पहले राज्य विधानसभा चुनावों में किसी भी प्रधानमंत्री ने इतनी रैलियां नहीं कीं. लेकिन आने वाला समय भाजपा और सरकार दोनों के लिए मुश्किल भरा है. इसका असर शाह की दूसरी पारी पर भी दिखेगा. अभी की हालत यह है कि विकास के बजाय देश में बढ़ती असहिष्णुता, अभिव्यक्ति पर खतरा और बहुलतावादी परंपरा नष्ट करने की कोशिश के आरोपों से मोदी सरकार की प्रतिष्ठा और भाजपा की स्वीकार्यता पर चोट लगी है.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राशिद किदवई कहते हैं, ‘भाजपा अभी मोदी के दमखम पर चुनाव लड़ रही है. इसके चलते अमित शाह का भी ग्राफ ऊपर चल रहा है. दिल्ली और बिहार में पार्टी को मिली हार के बावजूद वोट बैंक सुरक्षित रहा है. लेकिन अब शाह के ऊपर पार्टी का दायरा बढ़ाने की जिम्मेदारी है. अभी पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और असम में चुनाव होने हैं. यहां उन्हें अपना राजनीतिक कौशल दिखाना होगा, क्योंकि इन जगहों पर पार्टी के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. लेकिन अगर पार्टी का प्रदर्शन बेहतर नहीं होगा, तो शाह के नेतृत्व पर सवाल उठना शुरू हो जाएगा.’

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे अमित शाह को 80 में से 73 सीटें जिताने के लिए बड़ा इनाम दिया गया था. राजनाथ सिंह ने मोदी सरकार में शामिल होने के बाद अध्यक्ष पद छोड़ दिया था. तब 9 जुलाई, 2014 को पहली बार शाह ने भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी. इसके बाद से भाजपा ने छह राज्यों में चुनाव लड़े. चार में उसकी सरकार बनी. दो में वह चुनाव हार गई.

उनके पहले कार्यकाल के बारे में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘अमित शाह का जो पहला कार्यकाल है वह बड़ी उम्मीदों का रहा है. उम्मीद मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि भाजपा की केंद्र में सरकार बन गई थी. एक सत्तारूढ़ पार्टी के वे अध्यक्ष बने. 11, अशोक रोड पर सरकार बनने के बाद बहुत भीड़ होती थी. एक व्यवस्था अमित शाह ने ये बनाई थी कि मंत्री पार्टी मुख्यालय में बैठें और कार्यकर्ताओं की परेशानी को सुनें. शुरू-शुरू में मंत्री आकर सुनते भी थे. आज भी आते हैं, लेकिन लोगों का काम नहीं हुआ. इसलिए अमित शाह के बारे में लोगों में शिकायत फैलने लगी. पहली कि अमित शाह लोगों और कार्यकताओं से मिलते नहीं हैं. दूसरी शिकायत मंत्री पार्टी मुख्यालय में बैठते तो हैं, लेकिन काम नहीं होता है. तो एक तरह से निराशा धीरे-धीरे फैली और बिहार व दिल्ली विधानसभा चुनाव में जो परिणाम आया उसका कारण यह भी रहा. हर पार्टी के कार्यकताओं को यह उम्मीद होती है कि जब उनकी सरकार आए तो उनका जायज काम आसानी से हो जाए. जब यह नहीं होता है तो इसका दोष अध्यक्ष पर जाता है और इसके जरिये सरकार पर जाता है.’

भाजपा अध्यक्ष के रूप में अमित शाह के कामकाज पर सवाल दूसरे विश्लेषक भी उठाते हैं. अभय दुबे कहते हैं, ‘अमित शाह के कार्यकाल के दौरान जिन राज्यों में भाजपा अपनी सरकार बना पाई है, इन राज्यों में हरियाणा को छोड़कर वोट बैंक में लोकसभा चुनाव के मुकाबले गिरावट आई है. इसके अलावा वहां पर भाजपा को विपक्ष के बिखराव का फायदा मिला. झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के गठबंधन टूटने से भाजपा जीतने में सफल हुई है. इसके अलावा दिल्ली और बिहार ने अमित शाह के साथ-साथ मोदी की साख को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है. कुल मिलाकर कहा जाए तो अमित शाह का अभी का कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं रहा है. उन्होंने केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया है. उनसे मिलने में लोगों को दिक्कतें होती हैं. वह भाजपा के दफ्तर में नौकरशाह की तरह बैठे रहते हैं. किसी भी नेता यहां तक कि मंत्रियों और सांसदों को उनसे मिलने में दिक्कतें होती हैं. वह सांगठनिक सत्ता के बड़े केंद्र हैं, लेकिन अगर ऐसा नेता लोगों को साथ लेकर नहीं चलता तो असंतोष फैल जाता है.’  हालांकि ऐसा सभी का कहना नहीं है. पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की सोच इससे भिन्न है.’

लोकसभा चुनाव के दौरान शाह के साथ काम कर चुके और अभी उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते हैं, ‘अमित शाह के साथ मेरा काम करने का अनुभव अविस्मरणीय रहा है. लोकसभा चुनाव में वे उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे. तत्काल निर्णय लेना और उसे तुरंत पूरा करना उनकी सबसे बड़ी खूबी है. इसी का असर रहा कि पार्टी ने महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में बेहतर प्रदर्शन किया. आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हम अमित शाह के नेतृत्व में मजबूती से लड़ेंगे. जिस प्रकार की आवश्यकता उस प्रकार का व्यवहार उनकी सबसे बड़ी खासियत है. यदि हम अनुशासन की दृष्टि से बात करें तो सख्त व्यवहार और अगर साथ में बैठकर खाना खा रहे हैं तो यह पता ही नहीं चलेगा कि इस व्यक्ति ने हमें अभी इतनी बुरी तरह से डांटा था.’

भाजपा कार्यकर्ता अरुण कुमार कहते हैं, ‘अमित शाह कम बोलते हैं इसलिए लोगों को गलतफहमी हो जाती है. वैसे भी जब भी हिंदी बेल्ट के बाहर से पार्टी का अध्यक्ष चुना जाता है, तो लोगों को संवाद बनाने में थोड़ी परेशानी होती है. लेकिन वह भी समय के साथ दूर होती है. नितिन गडकरी के साथ भी शुरुआत में ऐसा हुआ था, लेकिन बाद में सब ठीक हो गया. अमित शाह की सबसे बड़ी खूबी है कि वह पार्टी की हर छोटी-बड़ी गतिविधि व कार्यक्रम पर पैनी नजर रखते हैं और कार्यकर्ताओं को खूब छूट देते हैं. हमेशा मनोबल बढ़ाते रहते हैं.’ कुछ ऐसा ही मानना उत्तर प्रदेश भाजपा के मीडिया प्रभारी मनीष शुक्ला का है. वे कहते हैं, ‘अमित शाह चुनावी राजनीति के माहिर आदमी हैं. जहां वह अनुशासन में कड़े हैं, वहीं कार्यकर्ताओं के प्रति बहुत विनम्र हैं. उनके नेतृत्व में भाजपा कार्यकर्ताओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनी है. कार्यकर्ताओं के लिए उनसे मिलना बहुत आसान है.’ बहरहाल अमित शाह की टीम पर हमेशा सवाल खड़े होते हैं.

जानकारों का कहना है कि अमित शाह का संगठन अब तक का सबसे कमजोर संगठन रहा है. एक ऐसे समय में जब पार्टी सत्ता में है तो संगठन को मजबूत किया जाना चाहिए था, लेकिन शाह इसमें नाकाम रहे. अभी उनके पदाधिकारी सरकार के कार्यक्रमों को जनता के बीच ले जाने में पूरी तरह से असफल रहे हैं. राम बहादुर राय कहते हैं, ‘जब वे अध्यक्ष बने तो उन्होंने ऐसी टीम बनाई जिसका कोई चेहरा ही नहीं है और कहना होगा कि वह ऐसे लोगों की टीम थी, जो दरअसल गणेश परिक्रमा के लिए जाने जाते हैं. मतलब कि वह जनता के बीच में नहीं सत्ता के इर्द-गिर्द परिक्रमा करने वाले हैं. इससे भी भाजपा के कार्यकर्ता को निराशा हुई. अगर आप राजनाथ की टीम और गडकरी की टीम को देखें तो ऐसा बिल्कुल नहीं था. नितिन गडकरी में एक दृष्टि थी. उनका मानना था कि जब वे अध्यक्ष पद से हटें तो ऐसे नए लोग तैयार रहें जो यह जिम्मेदारी उठा सकें. उन्होंने धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, जेपी नड्डा जैसे नेताओं को आगे बढ़ाया. उस दृष्टि से देखें तो अमित शाह की टीम बहुत कमजोर रही.’

Shah-Modi-web

अमित शाह की टीम में जातीय समीकरण भी ठीक नहीं रहा है. राजनीतिक विश्लेषक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, ‘यदि हम पिछड़े और दलित लोगों के संदर्भ में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कार्यकाल का आकलन करें तो कुछ बहुत बेहतर नहीं रहा है. कोई भी बड़ा दलित नेता अभी अमित शाह की टीम में नहीं है. वैसे भी दलित भाजपा का कभी कोर वोट बैंक नहीं रहा है. लेकिन राष्ट्रीय पार्टी के नाते भाजपा को दलित नेतृत्व को आगे बढ़ाना चाहिए. अब उन्हें नया कार्यकाल मिला है तो हम उम्मीद करते हैं कि वह नए कार्यकाल में दलित नेतृत्व का ख्याल रखेंगे. एक नया दलित नेतृत्व भाजपा में उभरकर सामने आएगा.’ इस बात से इत्तेफाक अजय बोस भी रखते हैं. वे कहते हैं, ‘दलित प्रतिनिधित्व का मामला भाजपा में हमेशा कमजोर रहा है. अमित शाह इसमें बदलाव नहीं ला पाए हैं. इस दौरान दलितों और पिछड़ों की बात तो बहुत हुई, लेकिन न तो कोई नया दलित नेतृत्व सामने आया और न ही जमीनी स्तर पर दलितों को जोड़ने में पार्टी सफल रही है.’

अगर हम अमित शाह के अध्यक्षीय कार्यकाल में किए गए कामों के बारे में देखें तो उनकी वेबसाइट पर कहा गया है कि उन्होंने अपने 18 महीने के कार्यकाल में पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रतिदिन 495 किमी के औसत से कुल 2,65,600 किमी की यात्रा की. चुनाव के अतिरिक्त किसी और प्रयोजन के लिए पार्टी के पदाधिकारियों द्वारा निजी विमान के उपयोग पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया. इसके अलावा सामान्य परिस्थितियों में प्रवास के दौरान महंगे होटलों में ठहरने पर रोक लगाकर सरकारी गेस्ट हाउस में रुकने के लिए पार्टी के पदाधिकारियों को प्रोत्साहित किया. वह स्वयं भी इस नियम का पालन करते हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी ने सदस्यता के पूर्व के सारे कीर्तिमानों को तोड़ते हुए सदस्यों की संख्या 2,47,32,439 से पांच गुना बढ़ाकर 11,08,88,547 तक पहुंचा दी. हालांकि सदस्य संख्या बढ़ाने के तरीके पर सवाल भी उठते रहे हैं. पार्टी ने मिस कॉल और एसएमएस के जरिये भी सदस्यता अभियान चलाया है, जिससे बड़ी संख्या में फर्जी सदस्यता की खबरें आईं.

‘अमित शाह कम बोलते हैं इसलिए लोगों को गलतफहमी हो जाती है. वैसे भी जब भी हिंदी बेल्ट के बाहर से पार्टी का अध्यक्ष चुना जाता है, तो लोगों को संवाद बनाने में थोड़ी परेशानी होती है. लेकिन वह भी समय के साथ दूर हो जाती है’

राम बहादुर राय कहते हैं, ‘हम भाजपा द्वारा बताई जा रही सदस्य संख्या पर भरोसा तो नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना जरूर है कि शाह ने इस दिशा में बहुत मेहनत की है. अमित शाह की एक ताकत है. संगठन का उनको अनुभव है. उनका स्वभाव भी परिश्रमी है. अब बिहार चुनाव का ही उदाहरण लीजिए. दूसरे नेता जो हेलीकाॅप्टर से घूमते थे. बड़े होटलों में रुकते थे. चुनाव प्रचार कर वापस फिर वहीं आ जाते थे. उससे भिन्न अमित शाह जहां जाते थे, वहीं कार्यकर्ताओं के घर या साधारण गेस्ट हाउस में रुकते थे. उन्होंने भाजपा की पुरानी परंपरा को जिंदा रखा.’

वहीं राजनीतिक विश्लेषक आर राजगोपालन कहते हैं, ‘अमित शाह ने भाजपा अध्यक्ष के रूप में बहुत ही बेहतरीन काम किया है. केवल बिहार में ही उन्हें असफलता हाथ लगी. लेकिन उनका नया कार्यकाल उम्मीदों भरा है. असम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश उनके सामने चुनौती हैं लेकिन अमित शाह इससे बढ़िया तरीके से निपटने में सक्षम हैं. सबसे बड़ी बात कि संघ का समर्थन उनके पास है. इसके अलावा मार्गदर्शक मंडल भी अब उनके पक्ष में है. आडवाणी का हालिया बयान इसकी पुष्टि करता है. वैसे भी अमित शाह एक कुशल राजनीतिज्ञ हैं. इस कार्यकाल में वह उन सारी कमियों को दूर करेंगे, जिसका आरोप उनके ऊपर लगता रहा है.’

भाजपा अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की तुलना हमेशा उनके पूर्ववर्ती लोगों से की जाती है. लंबे समय से भाजपा से जुड़े अरुण कुमार पिछले दो अध्यक्षों से तुलना करते हुए कहते हैं, ‘एक कार्यकर्ता के रूप में यदि मैं कहूं तो पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी का जनसंवाद बहुत बेहतर रहा है. यह बात नितिन गडकरी की किताब के विमोचन के दौरान अमित शाह ने स्वीकार भी की है. नितिन जी के कार्यकाल में पार्टी कार्यालय में काम करने वाले कार्यकर्ताओं की तनख्वाह बढ़ाई गई. भाजपा के कार्यालयों को बेहतर बनाया गया. वह पार्टी कार्यकर्ताओं का बहुत ख्याल रखते थे. वहीं राजनाथ जी की अधिकतम सक्रियता गरीबों और किसानों के बीच रही. वह जातिगत भावना से ऊपर उठकर काम करते थे. वो जहां जाते थे वहां ग्रामीण लोगों की भीड़ लग जाती थी. लोग आसानी से उनके साथ मिल जाते थे. जब से अमित शाह का नेतृत्व भाजपा में आया है, तब से पार्टी की कार्यप्रणाली में बहुत बदलाव आया है. उन्होंने बड़े पैमाने पर मतदाताओं और कार्यकर्ताओं का डाटाबेस तैयार कराया है. करीब दस करोड़ लोगों का डाटा तैयार किया गया है. महासम्पर्क अभियान के जरिये वह जमीनी स्तर पर लोगों को जोड़ने में कामयाब रहे. इसका फायदा हमें आगामी चुनावों में मिलेगा’

जानकार कहते हैं कि अमित शाह को दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाए जाने के फैसले पर इसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुहर लगाई. भाजपा का अध्यक्ष अमित शाह को दोबारा बनाना चाहिए या नहीं इस पर जलगांव में 6 से 8 जनवरी तक संघ परिवार के प्रमुख स्वयंसेवक ही चिंतन करते हैं. चिंतन के बाद 17 जनवरी को सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल प्रधानमंत्री मोदी को जानकारी देते हैं. उनकी राय लेते हैं और प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति या इच्छा मानकर 18 जनवरी को कृष्ण गोपाल भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिलते हैं, उन्हें खुशखबरी देते हैं.

अब संघ के सामने अमित शाह से बेहतर कोई विकल्प क्यों नहीं था इस सवाल पर राम बहादुर राय कहते हैं, ‘अमित शाह की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उनके अलावा कोई और नरेंद्र मोदी सरकार के साथ तालमेल बिठाकर चलने में सक्षम नहीं होगा. इसी वजह से उन्हें नया कार्यकाल मिला है. संघ ने तय कर लिया है कि नरेंद्र मोदी सरकार से उसको किसी तरह की शिकायत नहीं है. ऐसी परिस्थिति में भाजपा का अध्यक्ष कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो संघ, पार्टी और प्रधानमंत्री के बीच किसी तरह का भ्रम पैदा करने का अवसर न दे. इस पैमाने के प्रति अमित शाह पर संघ का विश्वास है. दो-तीन महीने पहले से यह बात चल रही थी कि अमित शाह को हटाया जाएगा और दूसरा कोई अध्यक्ष बनेगा. लेकिन संघ ने यह पाया कि अमित शाह सबसे बेहतर हैं. वह ठीक समन्वय के माध्यम हो सकते हैं. हमारे यहां यह सवाल हमेशा से सत्तारूढ़ पार्टी के साथ बना रहा है कि अध्यक्ष कौन हो. इसका सबसे अच्छा विकल्प यह है कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे प्रधानमंत्री के साथ-साथ पार्टी का भी विश्वास हासिल हो. आप देखेंगे कि कांग्रेस में आजादी के साथ ही यह समस्या आ गई. कृपलानी उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे. नेहरू तब कृपलानी से बिना पूछे काम किया करते थे. कृपलानी ने इसे मुद्दा बनाकर इस्तीफा दे दिया. इसके बाद पी. सीतारमैया अध्यक्ष बने जो नेहरू के विश्वासपात्र थे. इसी तरह वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो कुशाभाऊ ठाकरे अध्यक्ष बने, लेकिन वह कुछ ऐसे सवाल उठाते रहे जो सरकार के लिए परेशानी का कारण बनते थे. अंततः कुशाभाऊ ठाकरे को इस्तीफा देना पड़ा. फिर जे. कृष्णामूर्ति अध्यक्ष बने. यह पहले से ही चलता रहा है. इस समय अमित शाह दोनों के विश्वासपात्र हैं. यही इनकी सबसे बड़ी ताकत है.’

‘मोदी के प्रति आलोचना का भाव रखते हुए भी संघ नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता है. कहा जाए तो जैसे गलत शादी हो जाती है तो पूरा परिवार मिलकर उसे ढोता है. वही हालत भाजपा, संघ, मोदी और शाह की है. सारे लोग एक गलत शादी को सही करने में लगे हैं’

हालांकि अभय दुबे इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वह कहते हैं, ‘संघ मोदी के प्रति आलोचना का भाव रखते हुए भी उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता है. मोदी की छवि गिरने का मतलब पूरी सरकार की छवि खराब होगी. कुल मिलाकर कहा जाए तो जैसे गलत शादी हो जाती है तो पूरा परिवार मिलकर उसे ढोता है, वही हालत भाजपा, संघ, मोदी और शाह की है. सारे लोग एक गलत शादी को सही करने में लगे हैं.’

वैसे अमित शाह के फिर से भाजपा अध्यक्ष बनने से साफ हो गया है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ही पार्टी को 2019 लोकसभा में नेतृत्व देगी. संघ का समर्थन हासिल करने में उनके व्यक्तित्व ने एक बड़ी भूमिका अदा की है. वे बहुत कम बोलते हैं, पार्टी की विचारधारा के प्रति समर्पित हैं, पार्टी-सरकार के बीच सही संतुलन रखते हैं. शाह को संघ के बड़े नेताओं का पूरा समर्थन हासिल है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद कई विधानसभा चुनावों में शाह ने संघ कार्यकर्ताओं का बढ़िया इस्तेमाल किया. पार्टी और संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं से उनका सीधा संपर्क है. अभी अमित शाह के नेतृत्व के चलते मोदी के पास अपनी सरकार का एजेंडा लागू करने के लिए पूरी आजादी होती है. अब यह आगे भी रहेगी. वैसे भी देखा जाए तो पार्टी और सरकार के बीच वर्तमान में तनाव पूरी तरह से गायब है.

राम बहादुर राय कहते हैं, ‘भाजपा आडवाणी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद से ही संक्रमण के दौर से गुजर रही है. वह संक्रमण अमित शाह के अध्यक्षीय कार्यकाल में खत्म हो जाएगा. यानी एक ऐसा अध्यक्ष भाजपा को मिल रहा है जो अपने ढंग से पार्टी को पुनर्गठित करेगा. जैसा कि आडवाणी ने लंबे समय तक किया था. अमित शाह की समझ और निष्ठा में किसी को संदेह नहीं है. उन्हें असफलता तभी हाथ लग सकती है अगर वह नई पीढ़ी की आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल रहते हैं. ऐसे में पार्टी अपना जनाधार खो देगी.’