बीते एक साल में सुशील से दो मुलाकातें हुईं.दो अलग-अलग आयोजनों में. दोनों बार उनके अपने शहर मोतिहारी में ही. स्वभाव से संकोची, अंतर्मुखी और सरल सुशील से दोनों बार बातचीत का एक ही अनुभव रहा- वे अंदर ही अंदर परेशान से रहते हैं. बेचैन भी. यह परेशानी और बेचैनी किसी दूसरी वजह से कम और ‘क्या करें, क्या ना करें’ वाले सवाल को लेकर ज्यादा है. लेकिन वे अपनी कमजोरियों को छिपाते नहीं. बड़ी-बड़ी डींगें नहीं हांकते और न ही खयाली दुनिया का बाशिंदा बनने की कोशिश करते हैं. ईमानदारी से कहते हैं, ‘ हम बहुत कुछ सोचकर देख लिए, कुछ के बारे में करने की कोशिश कर भी देख लिए. हमने खुद का मूल्यांकन कर लिया है. एक नौकरी करने के ही योग्य हैं हम. चाहे वह क्लर्क की ही नौकरी क्यों न हो.’
सुशील से हम पूछते हैं कि 25 अक्तूबर, 2011 को अचानक आप सुर्खियों के बादशाह बने थे, कौन बनेगा करोड़पति में पांच करोड़ की रकम जीतनेवाले पहले करोड़पति बने थे, अचानक इतना पैसा आया था, अंदर से बदलाव का भाव नहीं आया..! बीच में ही बात रोकते हुए सुशील कहते हैं, ‘ हम जमीन के आदमी थे. उस दिन को भी देखे हैं जब हमारे यहां दो वक्त भोजन तक नहीं बन पाता था, मैं तो खुद पढ़ाई करते ही पांच सौ रुपये की नौकरी करने लगा था और उसके बाद जब केबीसी जीता तो आठ हजार रुपये की नौकरी अपने शहर मोतिहारी से दूर बेतिया के चनपटिया में कर रहा था. तो हमारे जीवन में संघर्ष इतना था कि हम बड़े और बेमतलबी ख्वाबों की दुनिया में कभी विचरण ही नहीं किए. हां, अचानक रातों-रात पैसा आया, शोहरत आई तो कुछ देर के लिए आंतरिक बदलाव तो हुए लेकिन हमने खुद से ही जूझना शुरू किया, खुद से ही लड़ता रहा और फिर आत्मनियंत्रण भी कर लिया.’
ग्लैमर का भूत सवार हुआ तो मुंबई चला गया. सोचा कि वहां फिल्मों के लिए लिखूंगा, लेकिन वहां कोई काम नहीं मिला
सुशील ऐसी ही कई बातें बताते हैं. वे खुद भी और उनके करीबी भी. वे जब अमिताभ बच्चन के सामने हॉट शीट पर बैठकर केबीसी का खेल खेल रहे थे और आगे बढ़ रहे थे, तभी पूरे बिहार के हीरो बन गए थे लेकिन जिस रोज वे विजेता बने, उस दिन तो वे पूरे बिहार नहीं, देश भर में सुर्खियों में आ गये. सुशील कहते हैं, ‘अचानक ही तमाम मीडिया में इंटरव्यू आने लगे. मेरे बारे में छपने लगा. हर वक्त मीडियावालों का फोन, जबकि उसके पहले मेरा नाम अखबार में एक बार ही छपा था, जिसे मैं कटिंग कर अपने पास सुरक्षित रख लिया था. अखबार में वह नाम भी इस रूप में छपा था कि जब मैं चनपटिया में मनरेगा ऑफिस में काम किया करता था तो ब्लॉक ऑफिस में एक मीटिंग हुई थी. उसी से संबंधित खबर छपी थी, छोटी सी, जिसमें मीटिंग में उपस्थित दर्जन भर लोगों के नाम थे तो मेरा भी एक नाम था. मैंने सोचा कि अब अखबार में नाम कभी आनेवाला तो है नहीं, इसलिए उसे ही काटकर, सहेजकर रख लिया था.’
प्रसिद्धि आैैर पैसे से सुशील के लिए एक स्वभाविक परेशानियां भी शुरू हो गईं. घर पर तरह-तरह के लोगों का जमावड़ा लगने लगा. मदद- मनुहार के साथ रोजाना जगह-जगह से लोग आने लगे. सुशील भी उनकी मदद करने लगे. वे कहते हैं, ‘तुरंत ही मुझे यह पता भी चलने लगा कि इनमें अधिकांश अर्जी-फर्जी लोग हैं. मदद करने की कोई सीमा तो है नहीं और सबकी बातों पर भरोसा कर, सबको मदद करना मेरे बस की बात भी नहीं सो मैंने तय किया कि सबसे पहले जो घर-परिवार के लोग हैं, मित्र-रिश्तेदार हैं और जरूरतमंद हैं, उनकी मदद करूंगा और वैसा ही करना शुरू भी किया.’ सुशील अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘मुश्किलें इतनी ही नहीं थी कि मदद मांगनेवालों का तांता लगना शुरू हुआ बल्कि जो उनके शहर के बड़े लोग थे, उनमें से कुछ की अलग परेशानी थी. वे मौके-बेमौके आकर सुनाया करते कि पांच करोड़ की क्या औकात है. पांच करोड़ तो हम चुटकी बजाकर उड़ा देते हैं. हमारी इतनी समझदारी तो थी ही. हम समझ रहे थे कि मुझे आकर ऐसा सुनानेवाले आत्ममुग्धता की बजाय जलनराग में ऐसी बातें ज्यादा बोल रहे हैं, लेकिन मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया वैसी बातों पर और सबको सम्मान देते हुए, सबकी हां में हां मिलाता रहा.’
केबीसी में पहली बार पांच करोड़ जीतने वाले सुशील के बारे में उनके साथी बताते हैं कि जब वे विजेता बने थे, तब उनके घर आनेजानेवालों का तांता लगा रहता था लेकिन जल्द ही वह सिलसिला थम गया. सुशील अपने दायरे में रहने लगे. अपने घर-परिवार और खास मित्रों के दायरे में. कुछ खास मित्रों के साथ बैठना, उनसे बातचीत करना और सप्ताह में एक-दो दिन बाजार में निकलकर पत्र-पत्रिकाओं के स्टॉल से कुछ पत्रिकाओं को खरीदकर घर लौट आना यही उनकी दिनचर्या है. सुशील कहते हैं, ‘सब पत्रिकाएं पढ़ नहीं पाता, किताबें पलटकर देख नहीं पाता लेकिन यही एक हॉबी है. पत्र-पत्रिकाओं और किताबों को खरीदना. यह केबीसी जीतने के बाद की हॉबी नहीं, पहले की हॉबी है. इसमें मेेरा मन लगता है.’ हम सुशील से पूछते हैं कि केबीसी विजेता बनने पर तो अपार खुशियां मिली होंगी और घरवालों की भी अपेक्षाएं बढ़ गई होंगी लेकिन आपने तो उस तरह से दिखावे का कुछ किया नहीं. आपकी पत्नी, जिनसे आपकी शादी केबीसी के छह माह पहले ही हुई थी, उनकी खास फरमाइश रही होगी, वह पूरी की कि नहीं! सुशील जवाब देते हैं, ‘हम संयुक्त परिवार में रहते हैं. पत्नी का फरमाइश होना, उनके मन में आकांक्षाओं का जगना स्वाभाविक था लेकिन वे हमें जानती हैं. हम सिर्फ उनकी फरमाइश कैसे पूरा नहीं कर सकते थे!’
‘मुझे लगा कि मेरी जरूरत स्कूटी से पूरी हो जाएगी तो दो साल पहले हमने स्कूटी ली है. शहर भी घूम लेता हूं और पास में ही ससुराल है तो वहां भी चला जाता हूं’
इतनी बड़ी रकम आई , एक अच्छी गाड़ी खरीदने का मन तो किया होगा, देश घूम आने का मन तो किया होगा…? वह कहते हैं, ‘नहीं, मुझे लगा कि मेरी जरूरत स्कूटी से पूरी हो जाएगी तो दो साल पहले हमने स्कूटी ली है. शहर भी घूम लेता हूं और पास में ही ससुराल है तो वहां भी चला जाता हूं. रही बात जमीन खरीदने की तो कुछ खेतिहर जमीन गांव में लिया है. और देश घूमने की जहां तक बात है तो धार्मिक स्थलों पर जाते रहता हूं, वह मुझे पसंद रहा है.’
सुशील से और उनके दोस्तों से लंबी बातचीत करने पर साफ हो जाता है कि वे बेहद गंभीर किस्म के इंसान हैं. उफनानेवाला स्वभाव नहीं है उनका. हमेशा हंसकर बात करना, बहुत ही मासूमियत और ईमानदारी से बात करना उनके स्वभाव का हिस्सा है. हम उनसे पूछते हैं कि अब तो वह शोहरत भी मिट गई, शहर भर में बनी पहचान के साथ ही इसी तरह केबीसी से मिले पैसे के सहारे जिंदगी गुजार देने का इरादा है या कुछ और सोचते हैं? वे कहते हैं, ‘सोचा था न. एक बार झलक दिखला जा… के सेट पर बुलाया गया. ग्लैमर की दुनिया को करीब से देखा. लौटकर आया तो वही ग्लैमर की दुनिया का भूत सवार रहा. फिर मुंबई चला गया कि फिल्म के लिए लिखूंगा. वहां गया एक माह रहा. कहीं कोई मौका नहीं मिला. परिचितों ने कहा – मामूली रोल-वोल कर लो, लिखना तेरे वश की बात नहीं. मैं लौट आया. एक बार फिर उसी सपने के साथ मुंबई गया लेकिन अबकि हफ्ते-दस दिन में ही लौट गया. इस संकल्प के साथ कि उधर नहीं जाना है. और आने के बाद अपने एमए के विषय मनोविज्ञान को लेकर नेट परीक्षा की तैयारी में लग गया. पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करता हूं. हर बार सोचता हूं कि छह माह जमकर पढ़ूंगा तो निकाल लूंगा परीक्षा लेकिन छह माह पढ़ नहीं पाता.’
केबीसी के बाद झलक दिखला जा… एक बड़ा मौका रहा जब सुशील टीवी पर फिर से कुछ दिनों के लिए चर्चा में रहे. सेलिब्रिटियों से मिलने का एक और मौका उन्हें आईबीएन-7 ने द्वारा आयोजित इंडियन ऑफ द ईयर का अवार्ड के आयोजन पर मिला. यहां उनकी अमिताभ बच्चन से दोबारा मुलाकात हुई. सुशील बताते हैैं, ‘अमिताभ बच्चन जी से दो बार मुलाकात हुई और दोनों बार वे बेहद आत्मीयता से पेश आए और हालचाल पूछा उन्होंने. रही बात शहर में सेलिब्रिटी बनकर जाने की तो मैं खुद बचता हूं उससे, मुझे ज्यादा रुचि ही नहीं ऐसी चीजों में.’
तो क्या अब सुशील के लिए केबीसी में विजयी होने की यादें ही ऊर्जा से लबरेज रहने और खुश होने का मंत्र हैं. इसके आगे वे कुछ नहीं सोच रहे? सुशील जवाब देते हैं, ‘ऐसा नहीं है. केबीसी में विजयी होना जिंदगी की कई खुशियों में एक अहम खुशी के क्षण की तरह आया लेकिन उसके पहले और उसके बाद भी खुशी के ऐसे क्षण आये, जिन्हंे मैं याद करता हूं तो रोमांचित हो जाता हूं अब भी.जब मैं चौथी क्लास में था तो एक प्रतियोगिता हुई थी. मैं टॉपर तो नहीं बन सका था लेकिन हेडमास्टर साहब ने मंच से बार-बार मेरा नाम लेकर कहा था कि यह टॉपर नहीं बना तो क्या हुआ, यह बहुत ही तेज है और फिर विशेष ईनाम दिया गया था मुझे. उसके बाद जब केबीसी जीत गया तो एक रोज एक पत्र भी अमेरिका से आया था मेरे पते पर. बिहार के ही एक एनआरई भेजे थे. उस पत्र के लिफाफे पर मेरे पते के रूप में सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था- सुशील कुमार, केबीसी विनर, बिहार, भारत…! वह पत्र मुझ तक पहुंचा. बता नहीं सकता कि उस दिन कितना खुश था!’
सुशील के बारे में हम मोतिहारी में ही रहनेवाले शैलेंद्र से पूछते हैं. वह कहते हैं, ‘मेरी व्यक्तिगत जान-पहचान नहीं है उनसे लेकिन मैं कभी-कभार शहर में आते जाते उन्हें देखता हूं. कोई परिचित मिलता है तो मुस्कुराते हैं और फिर लौट जाते हैं..! 31 साल के सुशील की इस गंभीर मुद्रा के कायल कई लोग मिलते हैं मोतिहारी में. कुछ शिकायतों का पिटारा लिए भी मिलते हैं कि इतना पैसा मिला, कुछ तो करते शहर के लिए.
सुशील को मोतिहारी शहर में हर कोई जानता है. नाम से, चेहरे से भी. वे किसी के रोल मॉडल भी बन सके हैं या नहीं, यह तो पता नहीं चलता. लेकिन जरूर महसूस होता है कि अचानक ही मोतिहारी, चंपारण और बिहार की परिधि लांघ देश-दुनिया में सुर्खियां बटोरनेवाले सुशील मोतिहारी के दायरे के एक सामान्य वासी हो गए हैं. मोतिहारी के भी नहीं बल्कि अपने मोहल्ले हनुमानगढ़ी के. इंटरनेट, मेल, फेसबुक, ट्विटर… आभासी दुनिया मंे विचरण करने के इन तमाम विकल्पों से भी कोसों दूर.