शबनम मौसी

shabnam

‘देश की पहली किन्नर विधायक’. यही शबनम मौसी का एक वाक्य में जीवन-परिचय है. किन्नरों को वोट डालने का अधिकार मिलने के केवल पांच वर्ष बाद ही 1999 में एक निर्दलीय के रूप में भारी मतों से चुनाव जीत कर शबनम मौसी रातों रात राष्ट्रीय फलक पर स्थापित हो गई थीं. मध्य प्रदेश के शहडोल जिले की सोहागपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनकर आई इस विधायक का विधानसभा में एक अलग ही अंदाज होता था. भाषण जोरदार देती थीं और बातें दिलचस्प करती थीं. उस वक्त के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के हाथों में राखी बांध चुकी थीं और यही सब उनसे अखबारों को चाहिए भी था. कहते हैं अपने विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने काम भी काफी करवाया. अफसरों, नेताओं से लड़-झगड़कर, दबंगई कर वे अपने इलाके के लिए सुविधाएं ले आती थीं. दिग्विजय सिंह उनकी तारीफ करते थे और चाहते थे कि वे विरोध में न रहकर उनकी तरफ रहें, लेकिन शबनम बेखौफ रहकर लोगों की चहेती बन रहीं थीं, शानदार राजनीतिक भविष्य की तरफ बढ़ रही थीं.

‘उन दिनों मध्यप्रदेश की राजनीति बुरे दौर से गुजर रही थी. मंत्रियों ने जनता के लिए काम करना बंद कर दिया था. शायद इसलिए लोगों ने सोचा कि नर को देख लिया, नारी को देख लिया, अब किन्नर को देखते हैं.’  शबनम मौसी बताती हैं और हंसती हैं. उन दिनों के राजनीतिक चिंतकों को लगने लगा था कि किन्नरों को समाज और राजनीति में सम्मानजनक स्थान दिलाने में मध्य प्रदेश अग्रणी होने वाला है. इसकी वजह भी थी. शबनम मौसी के जीतने के कुछ वक्त बाद ही चार और किन्नर मध्य प्रदेश की अलग-अलग नगर पालिकाओं  में चुने गए. कमला जान कटनी की महापौर बनीं, मीनाबाई सीहोरा नगरपालिका की अध्यक्ष, हीरा बाई जबलपुर और गुलशन बीना की कॉर्पोरेटर. लोग इन्हें पांच पांडव बुलाने लगे. राजनीति में ऐसे जोरदार प्रवेश के बाद प्रदेश के किन्नरों का आत्मविश्वास बढ़ने लगा और वे नई-नई चीजों में हाथ आजमाने लगे. 2001 में भोपाल में हुई किन्नरों की मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता उसी आत्मविश्वास का उदाहरण थी. उसी दौरान शबनम मौसी राष्ट्रीय स्तर पर समाज सेवा भी करने लगीं और जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने एड्स विरोधी अभियान के विज्ञापन के लिए उन्हें अकेले भारतीय चेहरे के रूप में चुना तो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी वे पहचानी जाने लगीं.

लेकिन यह शबनम मौसी के विधायक बनने के शुरुआती दिनों की मनोहर कहानी है. कुछ वक्त गुजरने के बाद ही मध्य प्रदेश विधानसभा में उनका मजाक बनाया जाने लगा, जिसमें कांग्रेसी नेता सबसे आगे थे. वे शबनम पर फब्तियां कसते, उनके उठाए सवालों पर हंसते थे और उनके किन्नर होने को बार-बार मुद्दा बनाते थे. शबनम मौसी पर खुद असभ्य व्यवहार के आरोप भी लगने लगे. कहते हैं उन पर कांग्रेस विधायक बिसाहूलाल सिंह की कृपा थी, लेकिन एक बार विधानसभा की लॉबी में दोनों में इस कदर झगड़ा हुआ कि आवाजें सदन तक पहुंचीं. और झगड़ा भी. विवाद इतना बढ़ा कि शबनम मौसी कांग्रेस विधायक के पीछे जूता लेकर दौड़ गईं. इससे एक दिन पहले ही वे प्रदेश सचिवालय पहुंच कर जोरदार हंगामा खड़ा कर चुकी थीं. इस तरह की कुछ और अप्रिय घटनाओं ने उन्हें प्रदेश की विधानसभा में बहिष्कृत-सा कर दिया. उन पर अपहरण गिरोह चलाने का भी आरोप लगा. इन आरोपों और घटनाओं ने शबनम मौसी की लोकप्रियता का क्षेत्रफल और उसका घनत्व काफी कम कर दिया. यह समझ कर वे बीजेपी और कांग्रेस दोनों के करीब जाने की कोशिश करने लगीं लेकिन किसी ने उन्हें हाथ नहीं लगाया. ‘मैं सोनिया गांधी से भी मिली. उन्होंने सहानभूति भी दिखाई लेकिन उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राधा किशन मालवीय और उन जैसे दूसरे कांग्रेसी नेताओं की वजह से मुझे पार्टी में शामिल नहीं किया गया’. आखिरकार, 2003 के विधानसभा चुनावों में वे बुरी तरह हारीं. इन चुनावों में प्रदेश के किन्नरों द्वारा मिलकर बनाई गई पार्टी ‘जीती जिताई पार्टी’ ने मध्य प्रदेश में सौ से ज्यादा किन्नरों को चुनाव में उतारा, और शबनम मौसी सहित सभी हारे. राजनीतिक चिंतक सही सिद्ध नहीं हो सके.

यहीं से शबनम मौसी के राजनीतिक जीवन के पटाक्षेप की शुरुआत हुई. उनके साथ उस तरह के लोग भी नहीं थे जो दम लगा के कह सकें, ‘अभी न परदा गिराओ कि ठहरो, दास्तान अभी और भी है’. 2005 में हालांकि उन पर बनी आशुतोष राणा अभिनीत फिल्म ‘शबनम मौसी’ आई, लेकिन कुछ वक्त की त्वरित प्रसिद्धि के अलावा वह मौसी को कुछ नहीं दे पाई. राजनीति में हाशिए पर पहुंच चुकी शबनम मौसी ने फिर हर मौजूदा राजनीतिक पार्टी के दरवाजे की सांकल बजाना शुरू किया. 2008 में दरवाजा खोला लालू प्रसाद यादव की आरजेडी ने जिसकी तरफ से शबनम 2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में खड़ी हुई और एक बार फिर बुरी तरह हारीं. ‘लालू चीटर है, हमको चीट किया. चुनाव में कैंपेन करने तक नहीं आया’, हारने के बाद ऐसा कहकर शबनम मौसी ने लालू की पार्टी छोड़ दी. चार साल बाद 2012 में उन्होंने मध्य प्रदेश भी छोड़ा और उत्तर प्रदेश के कानपुर कैंट क्षेत्र से ‘राष्ट्रीय विकलांग पार्टी’ की तरफ से चुनाव लड़ा. इससे पहले कि इसे आप उनकी राजनीतिक जीवटता समझें, आगे पढ़िए. 1999 की वह स्टार विधायक जो सोहागपुर सीट 18 हजार मतों से जीती थी, उतने मत जितने उस वक्त के कांग्रेस और बीजेपी उम्मीदवारों के मिलाकर भी नहीं थे, उसको 2012 में सिर्फ 118 वोट मिले. पूछने पर कहती हैं, ‘अब मुझे यह तो पता नहीं है कि मुझे कानपुर में कितने वोट मिले, लेकिन मौका मिला तो मैं अगला चुनाव भी जरूर लडूंगी’. अगला विधानसभा चुनाव वे कहां से लड़ेंगी और किस पार्टी की तरफ से, उन्हें अभी इसकी अनुभूति नहीं हुई है.

‘मैं सोनिया गांधी से भी मिली. उन्होंने सहानभूति भी दिखाई लेकिन प्रदेश कांग्रेस नेताओं की वजह से मुझे पार्टी में शामिल नहीं किया गया’

1955 की मुंबई में एक पुलिस अफसर के यहां जन्मी शबनम मौसी का जन्म का नाम चंद्र प्रकाश था लेकिन परिवार ने नकारा, तो पालन-पोषण आदिवासी परिवार में हुआ. आठवीं तक पढ़ी शबनम मौसी जीविका की तलाश में बंबईया फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा भी बनीं. उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ भी फिल्म की और राजेश खन्ना के साथ भी. अमर अकबर एंथोनी, जनता का हवलदार, कुंवारा बाप. बाद में वे मध्य प्रदेश आ गईं और समाज सेवा करने लगीं. यहीं से राजनीति में आईं. कहते हैं उन्हें 14 भाषाओं का ज्ञान है. अंग्रेजी का तो जरूर है, यह पता चलता है क्योंकि बातचीत में वे ‘आई एम बिजी राइट नाऊ’ बार-बार कहने में काफी रुचि लेती हैं. वैसे आजकल उनकी व्यस्तता मध्य प्रदेश स्थित अनूपपुर के मंदिरों में शाम को प्रभु की आरती करना, भजन गाना, समाज सेवा करना (उनके अनुसार), और जब कभी किन्नरों को लेकर कोई राष्ट्रीय खबर बने, तो अपने फोन बजने का इंतजार करना है. हमारे टीवी न्यूज चैनल उन्हें इसी सिलसिले में फोन करते हैं, कभी थर्ड जेंडर की मान्यता पर तो कभी मध्य प्रदेश सरकार के किन्नरों को नौकरी देने के लिए डेटाबेस बनाने और एक बोर्ड का गठन करने पर बाइट लेने के लिए, फोनो लेने के लिए.

कुछ समाज जिम्मेदार है और कुछ वे खुद कि आज हिंदुस्तान की पहली किन्नर विधायक शबनम मौसी हाशिए पर बैठी हैं, समाज में अपनी जगह तलाश रहीं हैं, पुराने दिनों की यादों में अपना आज गुजार रही हैं.