22 मार्च को बिहार की राजधानी पटना में ‘बिहार दिवस’ की धूम थी. सालाना सरकारी जलसे में हर साल की तरह तामझाम के बीच बिहार का गौरवगान हुआ. इतिहास के पन्ने पलटकर सब गौरवान्वित हुए. ढेर सारे आयोजन हुए. बिहार की सांस्कृतिक विरासत को देश और दुनिया में अद्वितीय बताते हुए उसे और समृद्ध करने का संकल्प लिया गया. बिहार दिवस का आयोजन मूलतः शिक्षा विभाग करता है. हालांकि बिहार दिवस के ठीक पहले मैट्रिक की परीक्षा में घनघोर तरीके से हो रही नकल की तस्वीरों और उससे जुड़े किस्सों ने महोत्सव का मजा किरकिरा कर दिया. उस पर शिक्षा मंत्री का विवादित बयान कि नकल रोकने में सरकार अक्षम है, यह सरकार के बस की बात नहीं- के कारण पूरे शिक्षा विभाग की छिछालेदर हो गई. फिर भी बिहार का गौरवगान हुआ.
सुशासन और बिहारी अस्मिता तो इस आत्मगान के आवश्यक तत्व थे ही. लेकिन बिहार दिवस के खत्म होने और परीक्षा में चीटिंग के बाद सरकार के आत्ममुग्ध रवैये की हवा राजभाषा विभाग ने निकालनी शुरू की. इसने छिछालेदर के एक नये अध्याय की शुरुआत की. 24 मार्च को बिहार राजभाषा विभाग ने अपना पिटारा खोला और साहित्य में योगदान के लिए बिहार के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों की सूची जारी की. सर्वोच्च सम्मान डॉ राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान के लिए डॉ राम परिमेंदु का नाम सामने आया. तीन लाख रुपये के इस सम्मान का नाम सामने आते ही लोग चौंक गये. रोज-ब-रोज साहित्य का अखाड़ा सजाने वाले बिहार में अधिकांश साहित्यानुरागियों के लिए यह नाम अनजान था. उसके बाद ढाई लाख रुपयेवाले बाबा साहब अंबेडकर सम्मान के लिए जेएनयू से संबद्ध रहे प्रसिद्ध व चर्चित रचनाकार दिवंगत डॉ. तुलसी राम का नाम सामने आया. इस नाम पर किसी को आपत्ति नहीं थी, हां कुछ लोगों को अफसोस था कि काश तुलसी राम को यह सम्मान उनके जीवित रहते ही मिल जाता. इसके आगे दो लाख और पचास हजार रुपयेवाले पुरस्कारों व सम्मानों के लिए 15 लोगों के नाम की सूची जारी हुई. कवि आलोक धन्वा, कर्मेंदु शिशिर, सुरेश कंटक, नंदकिशोर नंदन, गंगेश गुंजन, जाबिर हुसैन, रश्मि रेखा आदि के नाम इनमें शामिल रहे. इस सूची में एक आखिरी नाम सच्चिदानंद सिन्हा का भी था, जो मुजफ्फरपुर के गांव मनिका में रहते हैं. वह प्रख्यात समाजवादी चिंतक व मौलिक विचारक हैं. राजनीति और समाजवाद पर उन्होंने कई चर्चित किताबें लिखीं हैं. वे द इंटरनल कॉलोनी जैसी किताब के लेखक भी हैं. द इंटरनल कॉलोनी वही किताब है, जिसके जरिये सच्चिदानंद सिन्हा ने वर्षों पहले बिहार से होने वाले भेदभाव का मुद्दा उठाया था. उसी के आधार पर आज बिहार का हर नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपने साथ होनेवाले भेदभाव को सामने रखता है और विशेष राज्य का दर्जा मांगता है. इस सूची में सबसे नीचे उनका नाम देखकर उन्हें जाननेवाले हैरत में थे और शर्मसार भी. सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने नाम पर किसी भी किस्म का बवाल करने की गुंजाइश नहीं छोड़ी. उन्होंने साफ कह दिया कि, ‘मेरे नाम पर 50 हजार रुपये के फादर कामिल बुल्के पुरस्कार की घोषणा हुई है लेकिन मेरा हिंदी साहित्य से कोई सरोकार नहीं रहा है. सरकार साहित्याकारों की आजीविका की व्यवस्था करे. पुरस्कार या सम्मान देने से क्या होता है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि नौकरशाह साहित्यकारों के कृतित्व का आकलन कर पुरस्कार व सम्मान की सूची तैयार करते हैं.’
सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने बयान के साथ तर्क का विवेक दिखाया. कर्मेंदु शिशिर ने भी सम्मान को लेने से मना कर दिया. लेकिन डॉ. परिमेंदु, जिन्हें सबसे बड़ा सम्मान देने की घोषणा हुई और जिनके नाम पर बवाल मचा और जो बिहार के साहित्यिक गलियारे में अनजान नायक की तरह यकायक भारी-भरकम दस्तक दे रहे हैं, उन्होंने दूसरा तर्क दिया. डॉ. परिमेंदु की एक पहचान यह रही है कि वे एक समय में बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे थे और 1997 में ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं. डॉ. परिमेंदु के मुताबिक वे न जाने कितने वर्षों से हिंदी और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. उन्हें यह सम्मान बहुत विलंब से मिला है. डॉ. परिमेंदु के पक्ष में कुछ लोग उतरे लेकिन कोई भी उनकी साहित्य सेवा का सबूत नहीं जुटा सका. ऐसे ही कई और विवाद हुए, बवाल मचे लेकिन इसमें सबसे मजेदार, हास्यास्पद और भद्दे मजाक की तरह यह रहा कि इन पुरस्कारों अथवा सम्मानों के लिए जो चयन समिति थी, उस समिति को यह मालूम ही नहीं हो सका कि इस बार किसे यह सम्मान मिल रहा है.
इस पुरस्कार के लिए चयन समिति के अध्यक्ष हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह हैं. जब नामवर सिंह से पूछा गया तो उन्होंने झटककर साफ कह दिया कि उन्हें नहीं मालूम कि किसे क्या मिल रहा है. निर्णायक मंडल के अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा कि उन्हें तो वह सूची भी नहीं दिखाई गई जिसमें इस बार के बिहार राजभाषा सम्मान पानेवालों के नाम शामिल थे. यह आरोप सिर्फ नामवर सिंह का ही नहीं है. निर्णायक मंडल में शामिल साहित्यकार व हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित उषा किरण खान कहती हैं कि इस बार जिस डॉ. परिमेंदु को सबसे बड़ा सम्मान यानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान दिया जा रहा है, वे तो उन डॉ. परिमेंदु को जानती ही नहीं. उषा किरण खान कहती हैं कि एक अधिकारी ने बैठकर सारी सूची तैयार कर दी और सम्मान की घोषणा कर दी गई.
किसी अफसर ने यह सूची तैयार की या नहीं, यह तो पक्के तौर पर मालूम नहीं हो सका लेकिन इस मसले पर बिहार के अफसरों का जिस तरह का रवैया रहा, उससे इस बात के संकेत जरूर मिले कि गड़बड़ी हुई है. कैबिनेट सचिव बी प्रधान से बात हुई तो उन्होंने कहा, ‘अभी तक लिखित तौर पर यह मामला मेरे संज्ञान में नहीं आया है. अगर कोई शिकायत मुझे मिलती है तो देखेंगे.’ जब यही सवाल राजभाषा विभाग के निदेशक रामविलास पासवान के पास गया तो उनका टका-सा जवाब मिला, ‘सबको चिट्ठी भेजी जाएगी. जिनको सम्मान लेना हो ले, नहीं लेंगे तो भी कोई बात नहीं. पैसा ही बचेगा, जिससे जनहित में दूसरे काम होंगे.’ रामविलास पासवान का लापरवाह बयान किसी तानाशाह के गरूर जैसा है और यह बताने के लिए भी काफी है कि संस्कृति-साहित्य के इतिहास पर इतरानेवाले बिहार में फिलहाल साहित्य व साहित्यकारों की वखत कितनी बची हुई है. इस पूरे प्रसंग में दूसरे और भी कई सवाल हैं. संस्कृतिकर्मी और पत्रकार कमलेश जैसे लोगों ने यह सवाल उठाए कि सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि वामपंथी और प्रगतिशील कहनेवाले कई साहित्यकार इस पूरे प्रसंग पर कुछ बोल ही नहीं रहे.
खैर! सभी पुरस्कारों की घोषणा के बाद उठनेवाले विवादों की तरह यह विवाद भी जल्द ही शांत हो जाएगा. शिक्षा मंत्री पीके शाही और राजभाषा अधिकारी रामविलास पासवान परीक्षा में चीटिंग और राजभाषा पुरस्कारों के नाम पर बयान देकर नीतीश कुमार की किरकिरी करवा चुके हैं. संभव है कि नीतीश कुमार अपनी चिर परिचित शैली में चुप्पी साधे हुए निकल जाएं. लेकिन राजभाषा पुरस्कार पर जो बवाल हुआ, उससे दूसरे किस्म के सवाल जो उभरे हैं, वह बहुत गौर करने लायक हैं. अपनी साहित्यिक व सांस्कृतिक विरासत पर इतरानेवाले बिहार में आखिर साहित्य व संस्कृतिक की हैसियत कितनी बची हुई और नीतीश कुमार, जो साहित्यानुरागी और संस्कृतिप्रेमी मुख्यमंत्री माने जाते हैं, उन्होंने अपने शासनकाल में आखिर कौन से ऐसे प्रयास किए जिससे बिहार के गौरवमयी इतिहास में वर्तमान से भी कुछ स्थायी पन्ने जुटते. कुछ लोग यह कहते हैं कि नीतीश कुमार ने पटना में नया म्यूजियम बनाना शुरू किया है. यह उनकी बड़ी उपलब्धि है लेकिन अधिकांश लोग यह मानते हैं कि बिहार में नए म्यूजियम की खास जरूरत नहीं थी. नीतीश कुमार ने बड़े-बड़े प्रचार कर पवन वर्मा जैसे विदेश सेवा के अधिकारी को सांस्कृतिक सलाहकार बनाया था. पवन वर्मा ने बिहार में बड़े आयोजन करके अपना फर्ज निभाया. नामचीन लोगों को बिहार बुलाया. सबने बिहार के बदलाव का गान किया. बाद में पवन वर्मा जदयू के कोटे से राज्यसभा सांसद बन गए. यह अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था कि पवन वर्मा बिहार में अपने मकसद के साथ आए हैं और मकसद पूरा होने के बाद वे बिहार से विदा हो जाएंगे. वही हुआ.
बिहार राजभाषा विभाग ने साहित्य में योगदान के लिए सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों की सूची जारी की. सूची में शामिल नामों के सामने आते ही लोग चौंक गए
नीतीश कुमार ने बिहार की संस्कृति में एक और नया अध्याय जोड़ा. भाजपा से अलगाव के बाद उन्होंने जब नए मंत्रिमंडल का गठन किया तो उसमें विनय बिहारी को संस्कृति मंत्रालय का जिम्मा थमा दिया. विनय बिहारी निर्दलीय विधायक हैं और वे बिहार में सतही भोजपुरी संगीत के लिए मशहूर रहे हैं. नीतीश कुमार ने उन्हें ही संस्कृति मंत्रालय का जिम्मा देते हुए मांझी को राजपाट सौंपा था. विनय बिहारी जितने दिन मंत्री रहे, अपने हिसाब से विभाग का बंटाधार करते रहे और बयान देते रहे कि इंटरनेट के कारण अश्लीलता बढ़ी है. हालांकि अब वही विनय बिहारी नीतीश से दगाकर मांझी खेमे के खेवनवहार बन गए हैं.
बात इतनी भर नहीं है. बिहार में कला-संस्कृति-साहित्य का क्या हाल है, इसे दूसरे तरीके से भी समझा जा सकता है. आज राजभाषा सम्मान के नाम पर विवाद हो रहा है लेकिन वहां एक राष्ट्रभाषा परिषद भी है, जहां दुर्लभ किताबों का संसार है. जिसकी लाइब्रेरी समृद्ध है. जहां से एक समय में न जाने कितने महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हुआ लेकिन अब वह राष्ट्रभाषा परिषद आगे नाथ ना पीछे पगहा वाली हालत में है. वहां की न जाने कितनी किताबें गिलहरियां और दीमक कुतर चुके हैं. बिहार में एक हिंदी साहित्य सम्मेलन भी है, जिसका एक गौरवमयी इतिहास रहा है. वहां देश के चर्चित रचनाकार आते रहे हैं. इसकी स्थापना डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने की थी. वह बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पिछले दो सालों से आपसी वर्चस्व का अखाड़ा बना हुआ है. इस टकराव के एक छोर पर अनिल सुलभ जैसे लोग हैं, जो कांग्रेस से ताल्लुक रखते हैं, पटना में अपना संस्थान चलाते हैं और दूसरे छोर पर अजय कुमार जैसे बाहुबली हैं जो उस पर किसी तरह कब्जा रखना चाहते हैं.
यह अध्याय यहीं बंद नहीं होता. बिहार में संस्कृति के नाम पर स्मारिकाओं का प्रकाशन तो खूब हुआ, पटना में तरह-तरह के आयोजन भी हुए. बिहारी अस्मिता के नाम पर जन संस्कृति से जुड़ी कितनी किताबों को प्रकाशित किया गया और फिर उसे लाइब्रेरियों में कैद कर रख दिया गया. तीन साल पहले बिहार में सरकार ने बिहार के दो प्रमुख नेताओं डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा की 125वीं जयंती मनायी थी. संयोग से वही साल बिहारी अस्मिता के एक बड़े नायक, रंगकर्मी और नाटककार भिखारी ठाकुर की 125वीं जयंती का वर्ष भी था. न जाने कितनी बार, न जाने कितने संगठन भिखारी ठाकुर की 125वीं जयंती उसी तरह से मनाने की मांग कर रहे थे, लेकिन सरकार की नजर में भिखारी उतने महत्वपूर्ण नहीं बन सके. ऐसे ही कई अबूझ और शर्मिंदगी भरे किस्से हैं बिहार के साहित्य जगत के. कला की दुनिया में कलाबाजी के.