दिसंबर के पहले हप्ते में देश के अलग-अलग इलाकों के तमाम जनसंगठन एक मंच के तले अपनी मांगों को लेकर जंतर-मंतर पर एकत्रित हुए. इस महाजुटान का मकसद केंद्र में बनी एक अतिशक्तिशाली सरकार को अनियंत्रित होने से रोकना और जन सरोकार से जुड़े मसलों पर सरकार को कायम रखना है
बचपन में दूरदर्शन पर देखी गई गणतंत्र दिवस की झांकी भला किसे याद नहीं होगी? देश के अलग-अलग प्रांतों, अलग-अलग हिस्सों की वह रंगबिरंगी झांकी जिसमें सबकुछ बहुत खुशहाल और हरा-भरा नजर आता है. मानो अगर कहीं स्वर्ग है तो बस यहीं है. लेकिन इसे देखने वाले भी जानते हैं कि यह सच नहीं है. दिसंबर की दो तारीख की सुबह जब हम राजधानी के प्रख्यात धरना स्थल जंतर-मंतर पहुंचे तो लगा मानों वहां भी पूरा देश ही उतर आया है. अपनी-अपनी बोली-बानी लिए बिहार, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड सब वहां आ जुटे थे. जो बात उसे गणतंत्र दिवस से अलग बना रही थी वह थी झांकी और खुशियों की कमी.
सुनहरी झांकी के बजाय पूरा जंतर-मंतर नारों से गूंज रहा था. अबकी बार, मोदी सरकार की तर्ज पर अबकी बार, हमारा अधिकार के नारे लग रहे थे. नारेबाजी और प्रदर्शन के बीच लोगों में गजब की एकता और तालमेल नजर आ रही थी. सब एकजुट थे क्योंकि सबके दिलों में चुभन एक सी थी. लोगों के हाथ में प्ले कार्ड लहरा रहे थे. जिनमें कोई जल, जंगल, जमीन पर अपने अधिकार के लिए दुखी था तो कोई और नरेगा में किए जा रहे बदलाव को लेकर असंतुष्ट. इस जुटाव के पीछे मुख्य तौर पर चार जनसंगठनों की भूमिका थी- जनआन्दोलनों का राष्ट्रीय समंवय (एनएपीएम), राष्ट्रीय रोजगार अधिकार मोर्चा, पेंशन परिषद और रोजी रोटी अधिकार अभियान. इन संगठनों ने इसी साल अगस्त में तय किया था कि जन संगठनों का एक साक्षा मंच हो.
भीड़ में सबसे आगे की कतार में बैठे एक शख्स का नाम अर्जुन सिंह है, वे अपने कई साथियों के साथ राजस्थान से आए हैं. पचास की उम्र में पहुंच चुके सिंह से जब सवाल किया जाता है कि वे 400 किमी का सफर तय करके यहां क्यों आए हैं तो वे कहते हैं, ‘जब पेट पर मार पड़ने वाली हो तो शरीर के बाकी अंगों को समय रहते हरकत में आ जाना चाहिए. अगर जो ऐसा न किया जाए तो सारा शरीर बेकार हो जाएगा क्योंकि पेट भरेगा, तभी शरीर चलेगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘हम गांव में रहते हैं. वहां यहां की तरह हर दिन काम तो होता नहीं है. खेती का काम भी कम ही होता है. पूरा देश जानता है कि राजस्थान के लोगों को नरेगा से कितना फायदा मिला है. नरेगा जैसी योजना को और बढ़ाने की जरुरत है लेकिन यह सरकार उल्टे उस योजना पर कैंची चलाने की बात कर रही है. जिन योजनाओं से हमारा पेट भरता है उनपर कैंची चल जाए और जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है उसे उनसे लेकर बाकी का काम भी तमाम कर दिया जाए.’
अर्जुन सिंह की बात अभी खत्म हुई ही थी कि बिहार के मोतिहारी से आए 30 वर्षीय कुंदन पटेल बोल उठते हैं, ‘बिहार में नरेगा का काम ठप है. काम के लिए पूछते हैं तो पता चलता है कि केंद्र से फंड ही नहीं मिल रहा है. सरकारी दुकान से मिलने वाले तेल-राशन के बदले पैसा देने की बात हो रही है. गरीब के पेट में रोटी जाने का जुगाड़ नहीं है और बैंक अकाउंट खुलवा रहे हैं. क्या करेंगे बैंक अकाउंट का? भुख लगेगी तो चाटेंगे क्या?’ कुंदन अपने इलाके के एक कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं. बटाई पर खेती करते हैं और कॉलेज की पढ़ाई करते हैं. कुंदन उन युवाओं में से हैं जो खेती करके अपने जीवन और पढ़ाई को बड़ी मुश्किल से चला पा रहे हैं. इनके परिवार के कई लोग नरेगा से काम पाते रहे हैं. इनके घर में जन वितरण प्रणाली की सरकारी दूकान से चीनी और केरोसिन का तेल आता है और अब उन्हें डर लग रहा है कि कोटे की दुकान से मिलने वाला सामान बंद हो जाएगा और उसके बदले कुछ नगद पैसे पकड़ा दिए जाएंगे. नरेगा का काम पहले ही ठप है और अब सरकार जो बदलाव इस कानून में करने जा रही है उनसे इनके परिवार की आय का एक स्रोत भी बंद हो जाएगा.
बिहार के कुंदन और राजस्थान के अर्जुन सिंह की तरह यहां हजारों लोग हैं जिनकी लगभग-लगभग यही आशंकाएं हैं. ये लोग अपनी इन्हीं आशंकाओं को खत्म करने और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को यह याद दिलाने के लिए यहां आए हैं कि भूख लगने पर पैसे नहीं, अन्न खाया जाता है. यहां इकट्ठा हुए कई लोग यह पूछते हैं कि जब सरकार हमारे बगल के सरकारी अस्पताल में आजतक दवाई नहीं पहुंचा सकी तो इसका भरोसा कैसे किया जाए कि वो सभी योजनाओं के बदले नकद पैसा अकाउंट में पहुंचा देगी? इनलोगों की चिंता और सरकार के प्रति इनकी शंकाओं ने ही इस बड़े प्रदर्शन की नींव रखी है.
सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे अपनी बातचीत में उन आशंकाओं को एक साथ जोड़ते हैं जिसकी वजह से यह साझा मंच बना और यह प्रदर्शन हुआ. वो कहते हैं, ‘केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार है. यह सरकार सत्ता में आई तो अच्छे दिनों के वायदे के साथ है लेकिन आते ही इसने अपने असल इरादे साफ कर दिए. नरेगा में बदलाव करने के प्रस्ताव दिए जाने लगे हैं. इस योजना को देश के कुछ जिलों तक सीमित कर देने का प्रस्ताव है. सूचना के अधिकार को लोगों के लिए और मुश्किल बनाने के बारे में विचार हो रहा है. लोगों की जमीन का अधिग्रहण आसानी से कैसे हो इसके लिए उपाये खोजे जा रहे हैं. असल में यह सरकार एक तरफ से कई हर जन कल्याण योजना को बंद या कमजोर करना चाह रही है. तो ऐसे में जन संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वो एक जगह आएं. सरकार को चेतावनी दें कि वो जो-जो करना चाह रही है वैसा होने नहीं दिया जाएगा और यह प्रदर्शन इसी दिशा में पहली कोशिश है.’
हालांकि यह मंच अभी अपनी शुरुआती अवस्था में है और इसका कोई एक नाम भी अभी तय नहीं हुआ है. लेकिन निखिल डे की बातों से यह आभास मिलता है कि मजबूत सरकार और कमजोर विपक्ष की स्थिति में यह मंच भविष्य में एक नियंत्रक की भूमिका अख्तियार कर सकता है. मोर्चे के ढांचागत विकास की प्रक्रिया जारी है. विभिन्न संगठनों के प्रमुखों के मुताबिक अगर सरकार मनमाने तरीके से काम करती रही तो उनके संगठन इस साझे मंच से सरकार के खिलाफ देश भर में इसी तर्ज पर धरना-प्रदर्शन करते रहेंगे.
चूंकि मंच अभी भी गठन की प्रक्रिया में है इसलिए स्पष्ट तौर पर इनकी मांगों की कोई सूची सामने नहीं आई लेकिन बातचीत में जो चिंताएं उभर रहीं है उनके मुताबिक नरेगा से लेकर भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों पर सरकार की तिरछी नजर से इन संगठनों के भीतर एक किस्म की आशंका व्याप्त है जो आगे चलकर इनकी मांगों में परिवर्तित हो सकती है. बहुत कुछ आगे केंद्र सरकार के रुख पर भी निर्भर करेगा. एक विशेषता यह भी थी कि प्रदर्शन में शामिल लोग अलग-अलग राज्य से आए थे और उनकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं. एक मुददे पर सभी संगठनों की एक राय थी कि केंद्र की सरकार का मौजूदा रुख निजी कंपनियों के हित में जाता दिख रहा है. सरकार एक-एक कर जन कल्याण की सभी योजनाओं को या तो बंद करना चाहती है या उसे कमजोर करना चाह रही है.
यहां इकट्ठा हुए लोगों की भारी संख्या इस बात की उम्मीद जगाती हैं कि केंद्र सरकार के लिए इन्हें अनदेखा करके फैसले लेना आसान नहीं होगा लेकिन ऐसे साझे मंच और प्रयास को लेकर एक ऐसी चिन्ता भी है जिसका निवारण उनलोगों को करना है जो इसका नेतृत्व कर रहे हैं. चिन्ता यह है कि क्या इतने सारे जनसंगठन लंबे समय तक एक मंच पर और एक साथ रह पाएंगे? इस बात की पूरी संभावना है कि आपसी मतभेद की वजह से फिलहाल आपस में मंच साझा कर रहे जनसेवी और सामाजिक कार्यकर्ता बाद में अलग-अलग राह चले जाएं.
इस चिंता को जब बिहार से आए वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता आशीष रंजन के सामने रखा गया तो उन्होंने इसे खारिज कर दिया. आशीष उन लोगों में से एक हैं जिनके प्रयास से करीब 30 जनवादी संगठनों का यह मंच अस्तित्व में आ सका है. वो कहते हैं, ‘देखिए, अभी-अभी तो सब लोगों के प्रयास से एक साझे मंच का निर्माण हुआ है. अभी तो इस मंच का कोई नाम भी नहीं रखा जा सका है. सो अभी से इस बारे में कुछ कहना या अंदाजा लगाना सही नहीं होगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘यह मंच लोगों का है. यहां कोई नेता नहीं है. किसी का अपना कोई हित नहीं है. सारे लोग अलग-अलग मुद्दों की लड़ाई लड़ रहे हैं सो इस वजह से ऐसा होना तो नहीं चाहिए. अगर ऐसा होता है तो जनता नेतृत्व करने वालों से हिसाब मांगेगी. लोग इतनी दूर फिर कभी नहीं आएंगे. जंतर-मंतर आने के लिए न तो चन्दा देंगे और न ही झोली फैलाकर चन्दा जुटाएंगे.’
नर्मादा बचाओ आंदोलन से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर इस साझे मंच को मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरुरत बताती हैं. उनके शब्दों में, ‘यह सरकार बनी तो है देश की बहुसंख्य गरीब जनता के वोट से लेकिन काम कर रही है प्राईवेट कंपनियों के लिए. मेक इन इंडिया के लिए ये लोग देश के बचे खुचे श्रम कानून को खत्म कर देंगे. सरकार एक मिनट में, अदानी को कई करोड़ का कर्ज दे देती है लेकिन आमलोगों का बैंक अकाउंट खुलवाने का ढोल पीटती है. सामने कंपनी की सरकार है अगर ऐसे में हम सब एक साथ नहीं आएंगे तो टिक नहीं पाएंगे.’ इस प्रदर्शन में जन संगठनों ने जो हुंकार भरी है वो केंद्र सरकार की नीतिओं पर कितना असर डालेगी और यह साझा मंच कब तक एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार के सामने टिका रहेगा इसका जवाब जल्द ही मिलने लगेगा. फिर भी इतना साफ है कि सरकार के लिए उस आवाज को, जो गांव की पगडंडी से चलकर देश की संसद के पास तक पहुंची है, अनसुना कर पाना मुश्किल होगा.