आपलोग यह कह रहे हैं कि न तोड़ेंगे, न छोड़ेंगे, सुधरेंगे और सुधारेंगे लेकिन लग तो नहीं रहा कि पार्टी इसके लिए तैयार है. दो दिन पहले ही अरविंद केजरीवाल ने फिर से एक बार दुहराया कि आप लोगों को निकाले जाने का फैसला किस प्रकार सही था. ऐसे में सुधरने और सुधारने की कोई गुंजाइश बचती है क्या?
सुधरने और सुधारने की गुंजाइश हमेशा रहती है. मेरी उम्र अभी इतनी नहीं हुई है कि मैं सुधर न सकूं. मैं तो सुधरने के लिए तैयार हूं. बाकियों को भी सुधरना ही होगा. जब गौतम बुद्ध अंगुलीमाल को सुधार सकते हैं, महात्मा गांधी हिंसा फैला रही भीड़ को अहिंसक बना सकते हैं तो सुधार की गुंजाइश यहां भी है. हम इसी गुंजाइश को तलाश रहे हैं. हमलोगों के लिए आम आदमी पार्टी एक औजार है. हम कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस औजार को बनाया है. हम इसमें सुधार नहीं करेंगे तो कौन करेगा. फिलहाल जो लोग पार्टी में हैं और अपने को नायक-अधिनायक समझ रहे हैं उन्हें हमने यानी कार्यकर्ताओं ने बनाया है. वो नायक नहीं हैं. वो हमारे एजेंट हैं जिन्हें हमने वहां बिठाया है. हमने इनकी छवि बनाई है क्योंकि हमें नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी पसंद नहीं थे. अब अगर ये नापसंद होने की हदतक विकृत हो जाएंगे तो जनता इनके साथ भी वही करेगी जो वो बाकी नेताओं के साथ करती है. जनता इन्हें भी बदल देगी. क्योंकि नेता को यह भ्रम हो सकता है कि उससे जनता है लेकिन असलियत में नेता, जनता से होता है. और अगर जनता ने इन्हें देवता नहीं माना तो वही वाली बात हो जाएगी-मानो तो देवता नहीं तो पत्थर.
आम आदमी पार्टी दो हिस्सों में बंट चुकी है. अगर ‘स्वराज संवाद’ के आयोजन को आधार बनाकर पार्टी ने आप लोगों की प्राथमिक सदस्यता भी छीन ली तो फिर आपकी रणनीति क्या होगी?
अगर ऐसा कुछ हुआ तो इसे क्रिकेट की भाषा में हिट विकेट होना कहेंगे. अगर पार्टी प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा, प्रो. राकेश सिन्हा, विशाल शर्मा, क्रिस्टिना शामी, मेधा पाटकर जैसे लोगों को प्राथमिक सदस्य होने लायक भी नहीं मानती और इन्हें हटा देती है तो लोग यही कहेंगे कि आम आदमी पार्टी सत्ता के विकार से पीड़ित हो चुकी है. अभी तक यह साफ नहीं है कि इनलोगों का गुनाह क्या है? इनकी गलती क्या है? क्या अपराध हुआ है, यह साफ नहीं है लेकिन फैसले धड़ाधड़ आ रहे हैं. लोग यह भी कहेंगे कि पार्टी के मौजूदा नेतृत्व का एक हिस्सा अहंकार से पीड़ित है. शायद दिल्ली चुनाव में मिले बहुमत से इनलोगों का दिमाग खराब हो गया है. जब पार्टी हमें प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित कर देगी तब हम सोचेंगे कि क्या करना है. अभी तो हम सुधरने और सुधारने की ही कोशिश कर रहे हैं.
क्या ‘स्वराज संवाद’ के जरिए आप लोग अपनी जमीन नहीं तलाश रहे हैं? क्या आप इस बैठक के माध्यम से यह नहीं देखना-समझना चाह रहे हैं कि पार्टी के कितने कार्यकर्ता आपके साथ हैं?
(हंसते हुए) फिलहाल, किसानों की जमीन तो नरेंद्र मोदी हड़पना चाहते हैं. और अगर हमारे पास कोई जमीन है जिसे नरेंद्र मोदी के ये नए संस्करण छीनना चाहते हैं तो उन्हें मुबारक. योगेंद्र यादव, आसमान से उतरे किसी हवा-हवाई नेता का नाम नहीं है. योगेंद्र यादव एक ऐसा नेता है जो 30 साल लंबी राजनीतिक यात्रा से बना है. उनकी अपनी जमीन है, हमें अपनी जमीन तलाशने की कतई जरूरत नहीं है. योगेंद्र यादव ने हरियाणा में झाड़ू को हर गली-मुहल्ले तक पहुंचा दिया है. जब पार्टी दिल्ली में योगेंद्र यादव को निकालने और रखने के लिए बैठक कर रही थी तो उस वक्त वो हरियाणा में किसानों के पक्ष में रैली कर रहे थे. इस रैली ने खट्टर सरकार के दांत खट्टे कर दिए हैं. और अगर ऐसा हुआ है तो इससे यह साबित होता है कि योगेंद्र यादव और उनके साथियों की जमीन सुरक्षित है. इसलिए हमें जमीन तलाशने की कोई जरूरत नहीं है.
आम आदमी पार्टी को सुधारने की बजाय आप लोग अपनी एक नई पार्टी क्यों नहीं बना रहे हैं? नई पार्टी के साथ लोगों के बीच जाने का कोई विचार है क्या?
हम पार्टी छोड़ने, तोड़ने और नई पार्टी बनाने के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच रहे हैं. वैसे भी यह सवाल हमसे नहीं श्री अरविंद केजरीवाल से पूछा जाना चाहिए. हमने तो अबतक एक बार भी नहीं कहा कि हम नई पार्टी बनाएंगे लेकिन वो दो बार कह चुके हैं कि अगर ये लोग पार्टी में रहे तो मैं अपने 67 विधायकों के साथ अलग पार्टी बना लूंगा. वो अलग पार्टी बनाना चाह रहे हैं. हम तो पार्टी में सुधार लाना चाहते हैं. हम तो पार्टी को अपने उन कार्यकर्ताओं की याद दिलाना चाहते हैं जिन्हें पार्टी भूल चुकी है. वैसे भी यह पार्टी न तो अरविंद केजरीवाल की है, न ही प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की. यह देश की पार्टी है, जनता की पार्टी है. यह किसी एक व्यक्ति की पार्टी नहीं है. हां, फिलहाल पार्टी में कुछ ऐसे किराएदार आ गए हैं जो पार्टी में गलत जगहों पर फ्लैट पा गए हैं और अब ये लोग केवल गणेश वंदना करके मालिक बनना चाह रहे हैं. अब ऐसे किरायदारों को यह समझाना होगा कि वो मालिक नहीं बन सकते. हमें विश्वास है कि यह काम पार्टी का कार्यकर्ता कर लेगा. इस पार्टी के कार्यकर्ता बड़े शक्तिशाली हैं.
पार्टी के अरविंद गुट का मानना है कि चुनावी राजनीति आपलोगों के बस की बात नहीं है. पार्टी के नेता संजय सिंह ने तो साफ-साफ कहा कि आपलोग बंद कमरे में किताब पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग हैं. क्या कहेंगे इस बारे में?
(हंसते हुए) यह बात तो सही है कि मैं लोकसभा का चुनाव हार चुका हूं. योगेंद्र यादव भी इस चुनाव में हार गए थे. मुझे भोजपुरी के एक गायक के खिलाफ लड़ना पड़ा था. फिर भी मुझे 4.5 लाख वोट मिले थे और मुझे लगता है कि यह छोटी बात नहीं है. इसमें कांग्रेस के प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई थी. अगर किसी को हमारी राजनीतिक यात्रा के बारे में शक हो और लगे कि हम किसी लायक नहीं हैं तो मैं उन्हें यह कह देना चाहता हूं कि हमने कई चुनाव ताल ठोककर लड़े हैं. जरा रायबरेली जाकर पूछ लें कि 1977 में क्या हुआ था. कोई यह भी देख ले कि 1989 में बनारस में क्या हुआ था. सारे तथ्य यहीं हैं, यह तो देखने-जानने की बात है. लेकिन यह जरूर है कि अभी-अभी राजनीति के कुछ दुधमुंहे बच्चों ने अभी-अभी अपना पहला शिकार किया है तो उन्हें लग रहा है कि उनसे पहले कोई नहीं था और उनके बाद भी कोई नहीं होगा. असल में यह अनुभवहीनता के आधार पर मूल्यांकन है और इसपर ज्यादा चर्चा करने की कोई जरूरत मैं नहीं समझता. जहां तक बात संजय सिंह की है तो वो इस लायक ही नहीं हैं कि मैं या कोई और उनके किसी बात का जवाब दे. संजय सिंह के पास अज्ञानता की बहुत बड़ी गठरी है.
तो क्या आप लोग संजय सिंह को यह साबित करके दिखाने का मन बना रहे हैं कि चुनाव लड़ भी सकते हैं और जीत भी सकते हैं?
इन्हें क्या साबित करना है. चुनाव जीतना तो एक लंबी प्रक्रिया का अंतिम चरण है. सबसे पहले विचार और कार्यक्रम का होना जरूरी है. इसके बाद एक संगठन चाहिए जो जनता के बीच जाकर ईमानदारी से काम करे. इसके बाद चुनाव होता है और जीत मिलती है. लेकिन आजकल कुछ लोग पैराशूट से उतरते हैं और पकी-पकाई खीर खा जाते हैं. दिल्ली में जो जीत आम आदमी पार्टी को मिली है वो कमोबेश ऐसी ही है. असली कार्यकर्ता पीछे छूट गए. वास्तविक नेता पीछे रह गए और बाहर से जो आए वो जीत गए और अब इस जीत को वे संभाल नहीं पा रहे हैं. हम वर्षों से सिद्धांत के लिए लड़ते आए हैं. आगे भी लड़ेंगे. जिन्हें जीत चाहिए उन्हें उनकी जीत मुबारक. हमें अपनी लड़ाई पर आज भी गर्व है.
एक आम धारणा यह भी है कि जब पार्टी पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत गई और आप लोगों के साथ पावर शेयरिंग नहीं हुआ तो आपने विरोध करना शुरू कर दिया. अगर अरविंद इतने ही गलत और अलोकतांत्रिक थे तो क्या आप लोगों की जिम्मेदारी नहीं थी कि चुनाव से पहले दिल्ली की जनता को उनके बारे में बताते.
आप शायद शिष्टाचार की वजह से ऐसा कह रहे हैं जबकि लोग तो पूछते हैं कि कहीं यह मलाई की लड़ाई तो नहीं है. सबसे पहले इसी पर बात करते हैं. जब मैं लोकसभा चुनाव हार गया और हम विधानसभा के लिए तैयारी कर रहे थे तो उन्होंने मुझे टिकट देने की बात की थी. तब मैंने पार्टी से कहा था कि मेरी उम्र 50 के पार हो चुकी है. मैं लोकसभा लड़ चुका हूं अगर मैं ही विधानसभा लड़ूंगा तो 25, 30 और 35 साल की उम्रवाले हमारे साथी क्या करेंगे. मैंने कहा था कि हम इन्हें टिकट दें. इसी तरह प्रशांत भूषण ने खुद पार्टी से कहा था कि वो पार्टी से जुड़े कानूनी पक्ष ही देखना चाहेंगे. योगेंद्र यादव ने भी पार्टी से अपने लिए कुछ मांगा हो ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है. दूसरी बात आपने कही कि अगर पार्टी में ऐसी गड़बड़ियां पहले से थीं तो हमने जनता को क्यों नहीं बताया. हमने इन गड़बड़ियों को पार्टी के अंदर बार-बार उठाया. और आज इसी वजह से प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने दिल्ली चुनाव के वक्त पार्टी को हराने के लिए काम किया. जब पार्टी चुनाव के लिए जा रही थी तो ऐसे में पार्टी की गड़बड़ियों को सार्वजनिक करना हमें ठीक नहीं लगा. अगर यह अपराध है तो हमसब इसके लिए दोषी हैं.
अरविंद केजरीवाल ने अपनी गलती मानते हुए कहा है कि फोन पर जो अपशब्द उन्होंने आपके लिए इस्तेमाल किए थे वो आवेश में निकल गए थे आपकी इस बारे में प्रतिक्रिया.
खुशी है कि अरविंद ने यह तो माना कि वो निर्विकार नहीं हैं. यहां उन्हें पूरे नंबर मिलने चाहिए. उन्होंने मेरे लिए जो ‘विशेषण’ इस्तेमाल किया था वो बहुत हल्के किस्म का था और इसके लिए मैं उन्हें शुक्रिया कहूंगा. उन्होंने मेरे उपर कोई गंभीर राजनीतिक आरोप नहीं लगाया मेरे लिए यह बड़ी बात है. जो शब्द अरविंद ने मेरे लिए इस्तेमाल किया है उससे कहीं ज्यादा खराब शब्द तो नेहरू के साथियों ने राम मनोहर लोहिया के लिए इस्तेमाल किया था. जेपी को तो सीआईए का एजेंट तक बोला गया था.