नौ बरस में न्याय या अन्याय

बीएमडब्लयू मामले में संजीव नंदा को दोषी ठहराए जाने के बाद मेरी पहली प्रतिक्रिया थीआखिर इसमें इतना समय क्यों लगा? अपने बेटे नितीश के लिए न्याय की लड़ाई में मैंने कभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी थी. हालांकि दूसरे पक्ष ने इसमें रोड़ा अटकाने की जी-तोड़ कोशिशें की. मेरे जैसे किसी वेतनभोगी व्यक्ति के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना बेहद मुश्किल काम था. ऐसा करते हुए मुझे तमाम दूसरी जरूरतों की तिलांजलि देनी पड़ीः आप अपने काम पर ध्यान नहीं दे पाते, आपका करियर प्रभावित होने लगता है, आपको तमाम तरह की शारीरिक समस्याएं घेरने लगती हैं. तारीख पर तारीख पड़ने से अपराधियों का हौसला बढ़ता है और वो आप पर हावी होने लगते हैं. यहां तक कि गवाहों की रुचि और याददाश्त भी समय के साथ धुंधलाने लगते है. जब भारती यादव वापस लौटी तब तक साढ़े चार साल की देरी हो चुकी थी. ये देरी पीड़ित के लिए असह्य वेदना और अपराधियों के लिए किसी वरदान सरीखी होती है. मेरे ख्याल से व्यवस्था को कड़ाई से उन वकीलों पर नकेल कसनी चाहिए जो हास्यास्पद वजहें गिना-गिनाकर तारीखें बढ़वाने में लगे रहते हैं.

इस तरह के मामलों में हर तरह की शक्ति अपनी भूमिका अदा करती है. पैसे वाले व्यक्ति द्वारा नियुक्त वकील और एक साधारण व्यक्ति द्वारा नियुक्त वकील में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है. दिल्ली के मुख्य सरकारी वकील और दूसरे सफल वकीलों के दफ्तरों की ही तुलना करके देखें तो ये अंतर साफ हो जाता है. मेरे मामले में सरकारी वकील के पास मामले की रिसर्च आदि के लिए कोई सहायक तक नहीं था. सरकारी वकीलों के ऊपर काम का बोझ इतना ज्यादा होता है कि वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते.

जिन लोगों के खिलाफ खड़ी थी वो संजीव नंदा से काफी अलग किस्म के थे. हम ऐसे लोगों के खिलाफ लड़ रहे थे जिनकी एक लंबी आपराधिक पृष्ठभूमि रही थी. पिता बी-क्लास हिस्ट्रीशीटर है. राजनेता-अपराधी गठजोड़ की वजह से मेरी परेशानियां कहीं ज्यादा बड़ी थीं.

किसी हाई प्रोफाइल मामले में ताकतवर आरोपी को दोषी साबित करना बहुत दुष्कर होता है. लेकिन लडा़ई यहीं खत्म नहीं हो जाती. बीएमडब्ल्यू हादसे में मारे गए एक पुलिस कांस्टेबल की विधवा को मैंने किसी टेलीविज़न चैनल पर ये कहते सुना कि उसे यकीन ही नहीं है कि संजीव नंदा कुछ सालों तक जेल में रहेगा. वो ग़लत नहीं है. ऐसा क्यों है कि हत्या का आरोपी भी 14 साल की सुनवाई के बाद माफी की मांग कर सकता है. कई बार ऐसा होता है कि अपराधी को जितने समय की सज़ा मिलती है उससे ज्यादा समय पीड़ित अदालत के चक्कर काटने में बिता देता है.

आम धारणा के विपरीत मैं अपने और बीएमडब्ल्यू मामले की तुलना नहीं कर सकती. पहली बात तो ये कि बीएमडब्ल्यू मामला केस पीड़ितों की लड़ाई नहीं था. दूसरी बात, मैं जिन लोगों के खिलाफ खड़ी थी वो संजीव नंदा से काफी अलग किस्म के थे. हम ऐसे लोगों के खिलाफ लड़ रहे थे जिनकी एक लंबी आपराधिक पृष्ठभूमि रही थी. पिता बी-क्लास हिस्ट्रीशीटर है. राजनेता-अपराधी गठजोड़ की वजह से मेरी परेशानियां कहीं ज्यादा बड़ी थीं. ये चीज़ मुझे चिंता में डालती है कि संसद या विधानसभाएं अपराधियों के लिए सुरक्षित शरणगाहें बन गई हैं. उनके खिलाफ लोग आवाज़ उठाने से भी डरते हैं. मैं राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण के खिलाफ लड़ रही थी.

इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद किसी मोड़ पर भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मुझे पीछे हट जाना चाहिए. इसकी वजह थी कि मैं अपने बेटे और एक बड़े मकसद के लिए लड़ रही थी. बहुत से लोग मुझसे कहते थे कि इसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा. लेकिन मुझे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर पूरा भरोसा था. अगर एक जगह न्याय नहीं मिलता तो मैं इसे अगले स्तर पर ले जा सकती थी. जब भी मैं पटियाला हाउस कोर्ट जाती हूं तो मुझे वहां बहुत से लोग बिना किसी उम्मीद के बैठे दिखते हैं. कहने को मैं पढ़ी-लिखी हूं, लेकिन मैं वो दिन याद करती हूं जब मुझे बारी भरकम कानूनी शब्दों को समझने के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ा. मैं ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाई पर इस लायक ज़रूर हो गई कि कम से कम कुछ सवाल तो पूछ पाऊं. जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू और नितीश कटारा के मामलों के बाद एक अंतर ज़रूर आया है. अपने किसी करीबी को खो चुके लोग मुझे फोन कर पूछते हैं, “हमने 15 साल पहले किसी को खो दिया था लेकिन तब हम पर मुंह न खोलने का जबर्दस्त दबाव था. पर अब हम इसे फिर से उठाना चाहते हैं.” लोगों में आई इस जागरुकता से मुझे बेहद खुशी होती है. साथ ही ये अपराधियों के लिए निरोधक का काम भी करता हैं. स्कूली बच्चे हथियार उठाकर एक-दूसरे पर हमले कर रहे हैं. जब वो देखते हैं कि 28 साल का एक व्यक्ति हत्या करने के बाद भी सज़ा नहीं पाता तो स्वाभाविक रूप से वो भी ऐसा करने से नहीं डरते. अपराध का दायरा फैलता जा रहा है और साथ ही एक बेशर्मी का भाव भी तेजी से पांव पसार रहा है कि आप अपराध करने के बाद भी बचे रह सकते हैं.

लोग कह सकते हैं कि मेरे जैसे लोगों को न्याय सिर्फ इसलिए मिला क्योंकि मीडिया हमारे साथ था. मुझे नहीं लगता कि इस देश के न्यायाधीश अख़बारों औऱ चैनलों के लिखे-कहे के आधार पर फैसले देते हैं. अगर ऐसा होता तो मेरा मामला छह महीने में ही निपट गया होता. पर ऐसा नहीं हुआ इसमें छह साल लग गए. यहां डीपी यादव है जो चुनावी फायदे के लिए जीनत अमान को जहाज में बिठाकर उड़ता है. दूसरी तरफ आम आदमी लंबे समय से शोषित-पीड़ित है. उसकी आवाज़ को बुलंद करने के लिए अब कोई तो चाहिए. अगर वो मीडिया हो तो इसमें बुराई क्या है. हालांकि ये बहुत छोटी शुरुआत है पर इसे काफी पहले हो जाना चाहिए था.

नीलम कटारा(रोहिणी मोहन से बातचीत पर आधारित)