भारत की आत्मा अब गांवों में नहीं रहती है। पंद्रह साल पहले की सरकारी टेक्स्टबुक एलान करती थी कि भारत की आत्मा गांवों में रहती है। जब भी गांव से शहर आता था लगता था कि गांव में आत्मा को अकेला छोड़ कर आ रहे हैं। शहर में आते ही लगता था यहां सब है मगर आत्मा नहीं क्योंकि आत्मा तो गांवों में रहती है। भूगोल का ज्ञान हुआ तो सोचने लगा कि भई अमेरिका या जापान की आत्मा कहां रहती होगी? क्या उधर की आत्मा भी गांव में रहती है या फिर सबर्ब या उपनगर में रहती है। जवाब किसी से नहीं मिलता। सवाल पूछता भी नहीं वरना लोग कहते बेवकूफ है। लिहाज़ा ख़ुद को बुद्धिमान कहलाते रहने के लिए ऐसे सवालों को ताक पर रख देता।
बिहार की राजधानी पटना से मोतिहारी ज़िला अपने गांव जाता था तो लगता था कि वहां आत्मा इंतज़ार कर रही होगी। टूटी सड़कें, बैलगाड़ियां, कभी न खड़े हो सकने वाले बिजली के खंभे आदि आदि। इन्हीं सब में आत्मा नहीं होती थी। ये तमाम समस्याएं आत्माओं के अभाव में बेजान पड़ी रहती थीं। आदमी चलते फिरते नज़र आते थे तो लगता था कि हां इन्हीं में है आत्मा। मगर शहर में भी तो आदमी चलते हैं। वहां आत्मा किधर रहती है। इतिहासकार भी तो बता रहा था कि बिहार बनने से सदियों पहले पाटलीपुत्र काल में पटना के आस पास गांव ही होंगे। जब गांव से शहर बना होगा तब क्या आत्माओं ने पटना छोड़ दिया होगा। इतिहासकार भी तो बता रहा था कि बिहार बनने से सदियों पहले पाटलीपुत्र काल में पटना के आस पास गांव ही होंगे। जब गांव से शहर बना होगा तब क्या आत्माओं ने पटना छोड़ दिया होगा।
ख़ैर अच्छा हुआ मैंने इस सरकारी टेक्स्टबुक को दूसरी क्लास में नहीं पढ़ा। हमारे हिंदुस्तान में टेक्स्टबुक के साथ सबसे बड़ी ख़ूबी यही है। आपको एक साल के लिए ही झेलना पड़ता है। दूसरी क्लास में दूसरी टेक्स्टबुक आ जाती हैं। लेकिन ज़ेहन में गांवों में आत्मा के रहने का ख़्याल बना रहता था। अब तो यह कहा जा रहा है कि गांव से लोग शहर में आ रहे हैं। गांव के लोगों का काम आत्माओं से नहीं चल रहा। उन्हें कमाना है, खाना है और बच्चों को पढ़ाना है। इसके लिए आत्मा की विशेष ज़रूरत नहीं होती।
पिछले साल एक रिपोर्ट आई थी। कहा गया कि आज से २२ साल बाद यानी २०३० में भारत में शहर में रहने वालों की आबादी बढ़ जाएगी। इस समय कुल भारतीय आबादी का २८.४ फीसदी हिस्सा ही शहरों में रहता है। २२ साल बाद यह ४०.७६ फ़ीसदी हो जाएगा। यानी शहर बढ़ेंगे और गांव घटेंगे। दिल्ली के आस पास न जाने कितने गांवों को पांच साल के भीतर दफन होते देखा है। कई सारे गांवों को खत्म कर एनसीआर बन गया है। मुंबई भी आस पास के गांवों को निगलती जा रही है। शहर फैल रहे हैं और शहर में लोग आ रहे हैं। गांव के गांव खाली हो गए हैं। पुरानी सरकारी योजनाओं के तहत बनी सरकारी इमारतों में अब कोई नज़र नहीं आता। बीच बीच में आइडिया, वोडाफोन और एयरटेल के फोन की घंटी बजती रहती है। लगता है खंडहर होते गांवों में आत्माएं मिलकर कोई भुतहा नाच कर रही हैं। दिल्ली, मुंबई, सूरत और सतना से आवाज़ आती है। हैलो। हैलो। हां हां बोलो। घन्न घन्न आती आवाज़ सांय सांय की जगह ले रही है। गांव में बैठे बूढ़े मां बाप शहर गए बच्चों की आत्मा को फिक्स डिपोज़िट की तरह संभाल कर रखे होते हैं। उन्हें लगता है कि बेटा लौटेगा। कुछ दिन तक तो यह सिलसिला होली, दिवाली और छठ में चलता है। बाद में दिल्ली में पूर्वांचल समाज बन जाता है। कालोनी में गड्ढा खोद कर सूरज को अर्घ्य देने लगते हैं। यमुना नदी पर छठ से अनजान शीला दीक्षित छठ समारोह का औपचारिक उद्घाटन कर देती हैं। गांव वाली आत्मा इंतज़ार करती रहती है।
मुझे लगता है कि अब आत्माओं की संवैधानिक जगह में बदलाव करने का वक्त आ गया है। सरकारी टेक्स्ट बुक को बदलना होगा। बोलना होगा कि भारत की आत्मा गांव से शहरों की तरफ बहुत तेज़ी से शिफ्ट हो रही है। गांवों में आत्माओं की संख्या में गिरावट देखी गई है। शहर में आत्माओं की संख्या बढ़ रही है। अब मुझे शहर में खालीपन नहीं लगता। गांव की याद नहीं आती। क्योंकि वहां रहने वाली आत्मा अब यहां आ गई है। अब उससे मिलने के लिए ट्रेन पकड़ कर नहीं जाना पड़ेगा।
रवीश कुमार