‘आप जानते हैं कि इस बस्ती का नाम भिखनाठोरी क्यों है? बुद्ध के जमाने में बौद्ध भिक्षुओं का अहम ठौर था, इसीलिए. अपभ्रंश नाम है यह. कहते हैं कि ह्वेनसांग, फाह्यान भी गुजरे थे इधर से. 1904 में ही यहां रेल लाइन पहुंच गई थी. भारत का आखिरी रेलवे स्टेशन बना भिखनाठोरी. अब भी रोजाना तीन दफा सवारी ट्रेन की आवाजाही होती है. एक दशक पहले तक यह गांव 10-12 हजार लोगों की बसाहट से गुलजार रहता था. फिर एक-एक कर लोग चले गए. जो रह गए हैं उनकी जिंदगी पहाड़ है. पीने का पानी, आने-जाने के लिए रास्ता तो कभी मिला ही नहीं. जो पगडंडीनुमा राह थी उसमें भी अब ताले जड़ दिए गए हैं. 1972 से एक सरकारी स्कूल है. दो कमरों में आठवीं तक के बच्चे बैठते हैं. नामांकन बढ़ता ही जा रहा है. काफी कोशिश के बाद स्कूल की खातिर नई बिल्डिंग का फंड आया. बिल्डिंग बननी शुरू ही हुई थी कि उसे रुकवा दिया जंगलवालों ने. यह कहकर कि यहां रेलवे और वन विभाग के अलावा किसी विभाग की या किसी निजी व्यक्ति की जमीन नहीं है. सब अवैध हैं. राशन की दुकान, सरकारी स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्र और इंसानों की बसाहट… सब अवैध. जब यह वन विभाग और रेल का ही इलाका रहा था तो स्कूल क्यों खोल दिया था सरकार ने? जब इंसानों के बसने की इजाजत नहीं थी तो करीब 400 मतदाताओं का वोट लेने के लिए पोलिंग बूथ क्यों बनता है यहां? जो लोग पीढ़ियों से अपना घर-बार और जमीन छोड़कर यहां बसने आ गए थे, उनकी यह पीढ़ी अब कहां चली जाए, बताइए…?’
भारत-नेपाल सीमा पर बसे एक गांव भिखनाठोरी में आयोजित एक चौपाल की ये बातें और उनके अंत में उठे सवाल उस त्रासदी की एक झलक देते हैं जिस पर अगर जल्द ही ध्यान न दिया गया तो वह एक बड़े खतरे का सबब बन सकती है. यह खतरा है हिंसा की राह चलने का.
नेपाल से सटे हुए इस इलाके का नाम थरुहट है. थरुहट यानी थारुओं का इलाका. थारु यानि पीढ़ियों से वनक्षेत्र में रहने वाली और नौ साल पहले कागजी तौर पर आदिवासी समुदाय में शामिल हुई एक जाति. ऐतिहासिक, पौराणिक दृष्टि से भी नायकविहीन समुदाय. वह समुदाय, जो कड़ी मशक्कत के बाद कागजी तौर पर आदिवासी समुदाय में शामिल कर लिए जाने के बावजूद घड़ी के पेंडुलम की तरह डोल रहा है. पिछड़ी श्रेणी में होने का लाभ मिलता था, वह भी गया और आदिवासी समुदाय में शामिल कर लिए जाने के बाद भी कागजी पेंच की वजह से वे सुविधाएं उसे नहीं मिल सकी हैं जो मिलनी चाहिए.
भिखनाठोरी, इसके बाद भतुझला और फिर ढायर जैसे थरुहट के कई गांवों से गुजरते हुए और इस दौरान कई चौपाली बतकहियों में शामिल होने के बाद रात को हम दोन क्षेत्र में प्रवेश करते हैं. थरुहट और दोन दोनों ही इलाके बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के हिस्से हैं. घनघोर जंगल में राह तलाशते हुए गाड़ी चला रहे थारू समुदाय के सुधांशुु गढ़वाल और हेमराज तरह-तरह के किस्से सुनाते हैं. हेमराज बताते हैं कि पिछले सप्ताह गन्ना काट रही एक महिला पर जंगली भालू ने हमला किया था. कुछ दूर आगे बढ़ने पर सुधांशु बताते हैं कि कुछ साल पहले यहां से गुजरते हुए दो दोस्तों में से एक को बाघ ने हमला कर मार डाला था. रोंगटे खड़े कर देने वाले ऐसे किस्सों की यहां कमी नहीं.
एक ही नदी को करीब दर्जन बार पार करके रात को हम सघन दोन के केंद्र में पहुंचते हैं. बिहार के बेतिया शहर से हमारे मार्गदर्शक बने वनाधिकार मंच के शशांक कहते हैं, ‘आप बिहार और भारत के उस हिस्से में चल रहे हैं जो बारिश के दिनों में शेष हिस्से से पूरी तरह कट जाता है. यहां जिंदगी गुजारने का अपना फॉर्मूला है. इतने संघर्ष के बाद भी यहां के लोग सब्र नहीं खोते.’
लेकिन अब वह सब्र जवाब दे रहा है. कुदरत इन लोगों के सामने जो मुश्किलें खड़ी करती है उनसे उन्हें कोई शिकायत नहीं. व्यवस्था की उपेक्षा के भी वे आदी हो चुके हैं. लेकिन पिछले कुछ समय में उन्हें उनकी जड़ों से उखाड़ने की जो तैयारी हो रही है और जिस अंदाज में हो रही है उसके विरोध में ये लोग किसी भी राह जाने को तैयार दिखते हैं. हिंसक टकराव की भी.
थरुहट और दोन में ऐसे सवाल और उसकी परिधि में एक नई लड़ाई की अंगड़ाई दरअसल सरकार और शासन के एक फरमान के बाद से तेज हुई है. पश्चिमी चंपारण के जिलाधिकारी श्रीधर सी ने 26 नवंबर, 2011 को आदेश दिया था कि आठ दिसंबर को वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना के अंतर्गत पड़ने वाले राजस्व ग्रामों की ग्रामसभा की बैठक में इस परियोजना के लिए बफर क्षेत्र की स्वैच्छिक घोषणा को पारित करवाया जाए. जिलाधिकारी द्वारा प्रखंड विकास अधिकारी व अन्य छोटे अधिकारियों के जरिए ग्रामसभाओं को लिखी गई इस चिट्ठी ने थरुहट व दोन क्षेत्र के लोगों को सकते में डाल दिया.
इस फरमान ने अपने-अपने दुखों के साथ बिखरे थरुहटवासियों को बहुत हद तक एक होने का मौका भी उपलब्ध कराया. 26 नवंबर को चिट्ठी जारी हुई. आठ दिसंबर को ऐसा कर लेने का आदेश था. इस बीच के समय को थरुहट और दोन क्षेत्र के लोगों ने दिन-रात एक कर एक-दूजे से संपर्क स्थापित करने में लगाया. जबरदस्त तरीके से गोलबंदी हुई. नतीजा यह हुआ कि आठ दिसंबर को जिलाधिकारी का आदेश कहीं काम न कर सका. 152 गांवों की करीब 51 हजार एकड़ जमीन को बफर क्षेत्र घोषित करने के संदर्भ में यह आदेश था. एकाध गांव को छोड़ करीब-करीब सभी ने इसका बहिष्कार कर दिया. अपनी बसाहट वाले क्षेत्र और रैयती जमीन को बफर जोन में शामिल नहीं करने की जिद तो इतने गांवों के लोगों ने एक साथ दिखाई ही, अब उसी के बहाने नासूर की तरह अंदर ही अंदर रिस रहे सभी जख्म भी ताजा हो आए हैं. इसी एकजुटता के बूते एक-एक कर हर हिसाब लेने की सुगबुगाहट भी इस इलाके में शुरू हो गई है.
दोन में रहने वाले लोग कई मायने में नाम के नागरिक हैं. बिजली, सड़क जैसी सुविधाएं यहां दूर-दूर तक नहीं दिखतीं. मोबाइल जरूर दिखता है मगर उससे भी आपस में संपर्क हो पाएगा इसकी गारंटी नहीं. मोबाइल से बात हो जाए इसके लिए घर-घर में एंटीना लगे दिखते हैं. एंटीना में तार जोड़ घंटों मशक्कत करने के बाद बात हो जाती है. ऐसी कई मुश्किलें हैं यहां. विकसित होते बिहार का रोजमर्रा वाला जो गान होता है उसकी गूंज क्या कानाफूसी तक नहीं हुई यहां. लेकिन संघर्ष के बीच सृजन की अद्भुत कला और क्षमता से लबरेज इलाका. बीते आठ-नौ नवंबर को दोन क्षेत्र के हजारों बाशिंदों ने बैलगाड़ियों पर मिट्टी ढो-ढाकर दो दिन में 13 किलोमीटर का रास्ता खुद ही तैयार कर लिया.
उसी नए रास्ते से गुजरते हुए हम रात के करीब दस बजे दोन क्षेत्र के गोबरहिया दोन गांव पहुंचते हैं. वहां सामुदायिक भवन में पहले से ही ग्रामीणों की भीड़ दिखती है. एक और चौपाली सभा. कुछ देर में ही पता चल जाता है कि यहां मौजूद भीड़ में शामिल ग्रामीण दूसरी सभाओं में मिले लोगों की तरह ही सहज-सरल तो हैं लेकिन उनकी बातों में दया के पात्र बन जाने की याचना भर नहीं दिखती. आर-पार की लड़ाई लड़ने की कसमसाहट और अकुलाहट भी दिखती है. आधी रात तक चली सभा में दर्जन भर से अधिक लोगों के संवादों के टकराव के कई निहितार्थ निकलते हैं. लेकिन मूल में एक ही बात कि हम जंगल नहीं छोड़ेंगे और अब याचना भी नहीं करते रहेंगे.
हालांकि बफरजोन निर्धारण के लिए चिट्ठी जारी करने वाले पश्चिमी चंपारण के जिलाधिकारी श्रीधर सी तहलका से बातचीत में कहते हैं कि कहीं न कहीं चिट्ठी को लेकर कोई भ्रम जैसा हुआ है और उसकी गलत व्याख्या कर ली गई. वे बताते हैं, ‘फिर भी किसी ग्रामीण ने बहिष्कार नहीं किया है. बल्कि एक भ्रम का माहौल बना है, जिसे हम दूर कर लेंगे. हम ग्रामीणों से मिल रहे हैं. हम शीघ्र ही उस इलाके में ईको हर्ट सेंटर शुरू करेंगे, इंटरप्रेटेशन सेंटर खोलेंगे…’ यह सब कहने के बाद वे कहते हैं कि जंगल और जंगल के दावेदारों के तकनीकी पेंच को समझने के लिए आप वन विभाग के अधिकारियों से संपर्क करें.
श्रीधर सी बहुत ही सहजता से बात समेट देते हैं. लेकिन बात इतनी आसानी से समेटने वाली नहीं लगती. खबरिया दुनिया में इस दुरूह क्षेत्र की
मुकम्मल खबर नहीं आने की वजह से भले ही इसका अंदाजा बाहरी तौर पर नहीं मिल रहा और इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा लेकिन संकेत कुछ ठीक नहीं मिल रहे.
वाल्मीकि व्याघ्र अभयारण्य नेपाल की सीमा पर स्थित देश का चर्चित बाघ अभयारण्य है. सब मिलाकर यह कुल 880.78 वर्ग किलोमीटर का इलाका है. बिहार सरकार की ख्वाहिश है और बार-बार घोषणा की जा रही है कि इस स्थल को ईको टूरिज्म, टाइगर सफारी, बेजोड़ पर्यटन स्थल आदि के तौर पर विकसित किया जाएगा. इलाके को लेकर और भी कई हसीन ख्वाब दिखाए जा रहे हैं. इसी सिलसिले में टाइगर प्रोजेक्ट एरिया में निर्माण के लगभग दो दशक बाद कोर और बफर जोन का निर्धारण किए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई है. बफर जोन यानी वह इलाका जहां जंगली जानवर आसानी से विचरण कर सकते हैं. लेकिन इस जोन का दायरा कितना होगा, यही अब तक तय नहीं हो सका है और चिट्ठी जारी हो गई. भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि कोर जोन कितना होगा यह अब तक तय नहीं है.
इस मूल सवाल को पूछने पर वन संरक्षक संतोष तिवारी उसी को तो निर्धारित करने की प्रक्रिया में लगे हैं हम, सर्वे होगा, नोटिफिकेशन होगा जैसी तमाम बातें कहते हैं. वे यह भी स्वीकारते हैं कि कुछ गलती ग्रामीणों की है कि वे किसी तीसरे पक्ष के बहकावे में आकर सहयोग नहीं कर रहे और कुछ गलती उनके महकमे की भी है कि वह उन्हें ठीक से समझा नहीं सका. तिवारी कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि थरुहट है, थारू हैं तभी व्याघ्र क्षेत्र है और पार्क है, यह हम जानते हैं इसलिए हम चाहते हैं कि उन्हें वनाधिकार मिलें.’
लेकिन लगता है कि बात समझने-समझाने, चाहने-न चाहने की मंशा के दायरे से बाहर निकल चुकी है. थरुहट और दोन क्षेत्र के लोग एक-एक कर कई सवालों का जवाब चाहते हैं. स्थानीय पत्रकार सत्यार्थी कहते हैं, ‘पता नहीं क्यों जान-बूझकर फिर एक गलती की जा रही है. क्यों शासन-प्रशासन के लोग भूल जा रहे हैं कि 2005 में इसी दोन से सटे नेपाल के पास धूप पहाड़ पर माओवादियों की एक बड़ी बसाहट का पता चला था. वहां से पांच-छह जेनरेटर, कई टेंट, अत्याधुनिक उपकरण, कंप्यूटर आदि मिले थे. अब यदि दोनवालों को और परेशान किया जाएगा तो फिर वे किसी के सॉफ्ट कॉर्नर बन सकते हैं, क्योंकि वे सहज लोग हैं.’
सत्यार्थी जैसी ही बात थारू समुदाय के प्रतिष्ठित बुजुर्ग, पूर्व विधान पार्षद व इस समुदाय के अब तक के इकलौते पूर्व मंत्री व थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष प्रेमनारायण गढ़वाल कहते हैं. वे कहते हैं, ‘करीब साढ़े तीन लाख की आबादी है, 2.60 लाख वोटर हैं, सैकड़ों गांव हैं, राजनीतिक-सामाजिक और व्यक्तिगत कोई अधिकार ही नहीं मिलेगा और कोई रास्ता नहीं बचेगा तो आंदोलन ही होगा और आंदोलन तो किसी दिशा में जा सकता है!’
गढ़वाल की बातों को यदि हालिया घटनाओं से जोड़कर देखें तो सिर्फ जिलाधिकारी की बफर-कोर जोन वाली चिट्ठी ही नहीं बल्कि उसके समानांतर भी कई मसलों को लेकर इसकी बुनियाद तैयार होती रही है. पिछले 31 दिसंबर को शेरवा दोन में डीएफओ ने ईंट भट्ठे पर काम कर रही महिलाओं की ईंटें अपनी गाड़ी से रौंद डाली थीं. ग्रामीण बताते हैं कि डीएफओ नशे में धुत थे और उन्होंने हवा में दो-तीन गोलियां भी चलाईं. बाद में डीएफओ की जमकर पिटाई हुई. वहां वन संरक्षक भी पहुंचे. डीएफओ ने लिखकर दिया कि उनकी गलती है. लेकिन जैसे ही वे गांव से छूटे उनको बचाने वाले ग्रामीणों पर ही केस कर दिया गया. इस घटना के बारे में संतोष तिवारी कहते हैं, ‘मैं गवाह नहीं लेकिन यह देखना होगा कि डीएफओ ने तीन गोली ही चलाई, वह चाहता तो कुछ और कर सकता था.’ फिर संभलते हुए कहते हैं, ‘हां, कुछ गलती डीएफओ की भी रही होगी. यह अकेली घटना नहीं है. अतीत में यह सब होता रहा है.’
वनाधिकार मंच के प्रवक्ता शशांक कहते हैं, ‘थरुहट के साथ हमेशा पेंच फंसाया जाता रहा है. वर्तमान जिलाधिकारी ने पत्र जारी कर बफर व कोर जोन के निर्धारण की बात कही है. ऐसा ही प्रस्ताव 2005 में भारत ज्योति नामक एक अधिकारी ने तैयार किया था. लेकिन उसे राज्य सरकार ने खारिज कर दिया था. फिर वही प्रस्ताव लाया गया है जबकि जो मूल काम होना चाहिए था वह नहीं हो रहा.’
उनका इशारा वनाधिकार की तरफ है. एक जनवरी, 2008 को देश में वनाधिकार कानून लागू हुआ. सात जुलाई, 2008 को बिहार में राज्यपाल ने इस संबंध में पत्र जारी किया. लेकिन उसके बाद से इस कानून को लागू करवाने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं हुई. काफी मशक्कत के बाद अब किसी तरह ग्राम समितियों के गठन का काम शुरू हुआ है. लेकिन उसमें भी खानापूरी ही अधिक है, जबकि वनाधिकार लागू करने से इस क्षेत्र की कई समस्याओं का हल खुद ही हो जाएगा. दूसरी ओर थरुहट के रहनेवाले और अनुसूचित जनजाति आयोग के सदस्य नंदलाल महतो से जब बात होती है तो वे जो बोलते हैं उसका आशय कुछ नहीं निकल पाता. वे कहते हैं, ‘2001 की जनगणना के आधार पर चुनाव हुआ है, 2003 में थारू आदिवासी बने, अब की जनगणना के बाद उनके लिए विधानसभा सीट रिजर्व हो ही जाएगी. डीएफओ भी बहुत बदमाशी करते रहता है तो लोग गुस्साएंगे ही. वैसे कोर और बफर जोन क्या होता है, हम नहीं जानते.’
उस रात गोबरहिया दोन में सामुदायिक भवन में आधी रात तक चली ग्रामीण चौपाली सभा में प्रतापचंद काजी, समाजसेवी गगनदेव बाबू, महेंदर बाबू, शीतलजी,मोतीचंद, मुसला साह, रामप्रवेशजी, सुधांशु,रूदल, हेमराज जैसे थरुहट के चर्चित लोगों की उपस्थिति में कई-कई वाक्य एक-दूजे से टकराए थे. उन वाक्यों को समेटकर-सहेजकर यदि एक मुकम्मल स्वरूप दें तो अधरतिया की सभा का आख्यान कुछ ऐसा था- ‘हम दोन वाले, थरुहट वाले जंगल के लोग हैं. जंगल से पीढ़ियों से नाता है. जानवर हमें मारते हैं, हमारी फसल बर्बाद करते हैं, लेकिन हम धैर्य नहीं खोते. हम जानते हैं कि यह उनका जन्मगत स्वभाव है. आजादी के बाद हमें कुछ नहीं मिला लेकिन हम इसके लिए भी सड़कों पर नहीं उतरते. हमारे इलाके में बिजली आ जाती, सड़क बन जाता तो क्या-क्या बदलाव होते हमारी जिंदगी में, इसका आकलन नहीं करते हम कभी! हम यथासंभव खुद ही अपनी राह तैयार करते रहते हैं. नदियों पर पुल तो नहीं बना सकते लेकिन आपस में एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए राह बनाते रहते हैं. पिछले माह ही बैलगाड़ी से मिट्टी वगैरह ढोकर दोन के करीब आठ हजार लोगों ने स्वेच्छा से 13 किलोमीटर सड़क तैयार की, ताकि खेत में उपजे गन्ने को हम गन्ना बिक्री केंद्रों तक पहुंचा सके.
हमारी यह उद्यमिता चर्चा में नहीं आई, क्योंकि रातों-रात 13 किलोमीटर रास्ता तैयार करने में नए और विकसित होते बिहार की सरकार की कोई भूमिका नहीं थी. खैर, हमें इसकी चाहत भी नहीं. पर अब पानी सिर के उपर से गुजर रहा है तो धैर्य चूकता जा रहा है. सहने की एक सीमा होती है. हम समझौता करते-करते सिमटते रहे हैं, लेकिन अब याचना की बजाय रण चाहते हैं. दो दशक पहले बगैर हमारी जानकारी के हमारी रैयती जमीन का रसीद नहीं काटे जाने की भूमिका तैयार हुई. तब से रसीद नहीं कट रही. हमें घरसंगहा, हरसंगहा, सवइया आदि मिलता था. घरसंगहा से हम घर बनाने के लिए लकड़ी ला सकते थे, हरसंगहा के लिए हल बनाने के लिए लकड़ी ला सकते थे और सवइया घास से हम झाडू़ आदि बनाकर जीवन की गाड़ी चला पाते थे. यह सब बंद कर दिया गया, हम कुछ नहीं बोले. समझौता-दर-समझौता कर खुद को छोटे दायरे में समेटते गये. लेकिन अब हमें उस दायरे से भी बेदखल किए जाने की तैयारी है. बाघों को बचाने और बाहर से आने वाले सैलानियों के दम पर हम मूल बाशिंदों को यहां से हटाए जाने की योजना बनी है. बाघ के नाम पर कैसा खेल चलता है, यह हर कोई जानता है. दो दशक पहले जब जंगल वाले यहां नए-नए आए थे तो बाघों की संख्या 80 से ज्यादा बताई गई थी. ‘
‘अब आठ बचे हैं. हमारी व्यवस्था रहने तक 80 बाघ रहते थे, जंगल वालों का राज आया तो दसवां हिस्सा बचा. हम चाहते हैं कि सैलानी यहां आए, हमें भी अच्छा लगेगा. रोजगार मिलेगा. बाघ बचे, हम भी चाहते हैं, उनके संग पीढ़ियों से हमारा रिश्ता है. लेकिन यह सब हमारे अस्तित्व की कीमत पर हो, यह कैसे संभव होगा? कई बार जंगल के अधिकारी कहते हैं कि एक बाघ की कीमत दोन के दो-तीन गांवों के बराबर है, हम हंसकर टाल देते हैं कि चलो कुछ तो कीमत है हमारी. हम मूलतः गन्ना उपजाने वाले किसान हैं. हमारे गन्ने का भुगतान जंगल में ही होता रहा है. लेकिन अब उसे भी रोक दिया गया है. अब हमें दूर-दराज जाकर चीनी मिल से पेमेंट लेने को कहा जा रहा है. दस-बीस हजार रुपये मिलते हैं साल भर में. वह लेकर आएंगे, रास्ते में कोई छीन ले तो हमारी साल भर की कमाई एक झटके में चली जाएगी. दोन के करीब 27 गांवों में 20 हजार आबादी है हमारी. दोन और उसके बाहर रहने वाले 152 गांव के बाशिदों को पिछले माह एक नोटिस मिला. इसमें कहा गया था कि हम ग्राम सभा की बैठक में शामिल होकर यह फैसला कर लंे कि हम अपनी बसाहट वाले इलाके में करीब 51 हजार एकड़ रैयती जमीन बाल्मीकि नगर टाइगर प्रोजेक्ट के लिए बफर जोन घोषित करने का एलान करते हैं. चिट्ठी का लहजा ऐसा है जैसे वह कोई तानाशाही फरमान हो. ग्रामसभाओं को इस लहजे में आदेश देने का यह पहला मामला होगा शायद. हमने भी वही किया जो कभी, कहीं नहीं हुआ होगा शायद. हम ने एकजुट होकर जिलाधिकारी के आदेश का बहिष्कार कर दिया. अब संभव है, बौखलाहट में हम पर थर्ड डिग्री का भी इस्तेमाल हो. हम बहुत शांतिप्रिय लोग हैं. कुछ साल पहले माओवादियों ने फरमान सुनाया था कि हर गांव से पांच बेटे-बेटियों को देना होगा, हमने उन्हें खदेड़ दिया था. बाद में वे इधर फटके भी नहीं. हम थारूओं की आबादी बिहार में तीन लाख से भी ज्यादा है. हम एक ही हिस्से में रहते हैं. सामूहिकता के साथ ही रहना चाहते हैं. लेकिन जब बार-बार हमारे अस्तित्व को मिटा देने, सामूहिकता को खत्म कर देने की कोशिश होगी तो हम किसी भी रास्ते जा सकते हैं…!’