लेखक की स्वतंत्रता, उसका सम्मान मेरे लिए एक बड़ा मूल्य है. इसलिए जब किसी लेखक को अपने लिखे या कहे हुए के लिए क्षमायाचना करनी पड़े, किसी अफ़सर या मंत्री के आगे सिर झुकाना पड़े, सफाई देनी पड़े तो मुझे अफ़सोस होता है. `नया ज्ञानोदय’ नाम की पत्रिका में प्रकाशित अपने साक्षात्कार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से विभूति नारायण राय को माफी मांगते देखकर भी ऐसा ही अफ़सोस हुआ.
आप कीचड़ उछाल कर भाग रहे हैं और बार-बार अपनी जगह बदल रहे हैं ताकि न आप कीचड़ उछालते नज़र आएं और न ही इसकी कोई सज़ा पाएं
क्या विभूति नारायण राय को भी दुख हुआ होगा? या उनके लिए यह माफ़ीनामा सिर्फ अपने बच निकलने की एक रणनीति भर था जिसके बाद वे मुस्कुराते हुए लेखिकाओं को अपना मित्र बताते रहे? दुर्भाग्य से यह पूरा छिनाल प्रसंग इसी संदेह की पुष्टि करता है. एक रणनीति के तहत उन्होंने साक्षात्कार दिया और एक दूसरी रणनीति के तहत माफ़ी मांग ली. अपने साक्षात्कार में जो कुछ उन्होंने कहा, अगर उस पर उन्हें ख़ुद इतना बद्धमूल भरोसा होता तो शायद वे माफी नहीं मांगते. एक लेखक अगर अपने विश्वासों की, उनसे जुड़े शब्दों की रक्षा नहीं कर सकता, उनके लिए कोई क़ीमत चुकाने को तैयार नहीं रह सकता तो उसे लेखक रहने का अधिकार नहीं रह जाता है.
दरअसल, विभूति नारायण राय ने अपने माफ़ीनामे से अपने पूरे साक्षात्कार को अविश्वसनीय और अप्रासंगिक बना डाला है. जो लेखक-लेखिकाएं इस तथ्य की ओर ध्यान खींचने की मासूम कोशिश कर रहे हैं कि इस साक्षात्कार को कुछ शब्दों की छाया से बचाकर पूरा पढ़ा जाए तो इसकी नारी पक्षधरता को कहीं ज्यादा बेहतर और बहसतलब ढंग से समझा जा सकता है, उन्हें भी इस माफीनामे के बाद समझना चाहिए कि विभूति नारायण राय ने साक्षात्कार में जो कुछ कहा वह उनके लेखकीय विश्वास की नहीं, सही-गलत की दुविधा और नैतिकता-अनैतिकता के पचड़ों से दूर एक विवादप्रिय मस्तिष्क की उपज है जिसके केंद्र में स्त्री अस्मिता के प्रश्न से ज्यादा साहित्यिक गुटबाज़ी का प्रसंग है.
अगर यह आरोप है तो इसके तर्क साक्षात्कार के बाद विभूति नारायण राय के आचरण ने ही सुलभ कराए हैं. दो दिन तक वे बताते रहे कि छिनाल शब्द का इस्तेमाल प्रेमचंद ने भी किया है- इस जाने-पहचाने तर्क की उपेक्षा करते हुए कि कथा साहित्य में चरित्रों के हिसाब से भाषा तय होती है, वहां ली जाने वाली भाषिक छूट आलोचनात्मक और वैचारिक लेखन में नहीं ली जा सकती. इसके बाद उन्होंने इस शब्द के प्रयोग से बचने की कोशिश की- इस कच्ची सफाई के साथ कि उन्होंने बेवफ़ा कहा था जिसे छिनाल कर दिया गया. अपनी लेखकीय ज़िम्मेदारी से भागने का यह निकृष्टतम उदाहरण है क्योंकि इसका शिकार कोई और- इस प्रसंग में पत्रिका का कोई अदना-सा उपसंपादक या प्रूफरीडर- बन सकता है, बनाया जा सकता है.
दुर्भाग्य से इस पलायन को पहला सहयोग नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया के इस वक्तव्य से मिला कि उन्होंने तो इस शब्द को संपादित कर दिया था, फिर भी यह चला गया तो यह किसी और की चूक है. हैरान करने वाली बात है कि एक-दूसरे के सहयोग के लिए दिए जा रहे इन अंतर्विरोधी वक्तव्यों के तत्काल बाद दूसरी तरह के वक्तव्य आ चुके हैं. अभी तक आई नवीनतम सफाई यह है कि रवींद्र कालिया ज्ञानपीठ सम्मान के सिलसिले में गोवा प्रवास पर थे और तभी यह असंपादित-अमर्यादित प्रसंग पत्रिका में चला गया. यहां भी लेखक और संपादक की वह ख़तरनाक दुरभिसंधि प्रत्यक्ष है जिसके निशाने पर कोई और- कोई प्रूफरीडर या उपसंपादक- हो सकता है.
विभूति नारायण राय या रवींद्र कालिया अपने रुख पर कायम रहते और छिनाल शब्द के प्रयोग को सही बता रहे होते तब भी यह उतने अफसोस का विषय नहीं होता जितना यह अनैतिक और गैरज़िम्मेदार रवैया है. अगर वाकई किसी लेखक को लगता हो कि लेखिकाएं छिनाल हैं और उनका लेखन बेवफाई का महोत्सव है तो अपनी बीमार मानसिकता के बावजूद उसे यह बात कहने और इसके लिए लड़ने का हक है. ज्ञानपीठ से सम्मानित राजेंद्र शाह ने गुजरात पर लिखी अपनी विवादास्पद कविताओं के लिए कभी खेद नहीं जताया और `जनसत्ता’ में सती प्रसंग पर प्रभाष जोशी अपने अखबार में छपे मत के साथ अडिग खड़े रहे. यह हठधर्मिता अवांछित भले हो, इसमें राय और कालिया वाली बेईमानी नहीं है.
यह सब करके इन दोनों लेखकों ने लेखिकाओं पर बाद में, पहले अपने कुलपतित्व और संपादकत्व पर ही कीचड़ उछाला हैऐसा नहीं कि कोई लेखक अपने विचार बदल नहीं सकता या अपने कहे हुए को वापस नहीं ले सकता. संशयशीलता एक अनिवार्य लेखकीय मूल्य है. अगर विभूति नारायण राय ने साक्षात्कार के प्रकाशन के तत्काल बाद क्षमा मांगी होती कि उनसे किसी असावधानी में चूक हो गई है और वे शर्मिंदा हैं, तब भी उनके साथ सहानुभूति हो सकती थी. लेकिन यह कैसी लड़ाई और सफाई है जिसमें आप कीचड़ उछालकर भाग रहे हैं और बार-बार अपनी जगह बदल रहे हैं ताकि न आप कीचड़ उछालते नज़र आएं और न ही इसकी कोई सज़ा पाएं? क्या यह सिर्फ एक लेखकीय और संपादकीय असावधानी का मामला है और एक अपवाद भर है जिसमें हिंदी की लेखिकाओं और उनके लेखन के लिए एक अशिष्ट शब्दावली चली आई? या इसका वास्ता किसी मानसिकता, किसी मनोवृत्ति से है जो स्त्री अस्मिता के साथ यह खिलवाड़ पहले से करती आई है? इस सवाल के जवाब में हमें साक्षात्कार से नज़र हटाकर उस पत्रिका पर निगाह डालनी होगी जिसमें यह छपा है. `नया ज्ञानोदय’ ने अपने इस विशेषांक को `सुपर बेवफाई विशेषांक’ कहा है. यह सुपर बेवफ़ाई क्या होती है? यह विज्ञापनबाज़, बाज़ारू भाषा स्त्री-पुरुष के रिश्तों की जटिलता समझने, स्त्री और पुरुष का मन टटोलने की भाषा है या बाजार में खड़े पाठकों को पुकारने की कि देखो, हम तुम्हें कुछ ऐसा दिखाने और पढ़ाने जा रहे हैं जिसमें आपसी रिश्तों की गंदगी नजर आएगी, जिसमें दैहिक संबंधों के कुत्सित खेल दिखेंगे. दरअसल, यह स्पष्ट है कि विभूति नारायण राय बेवफ़ाई के जिस महोत्सव के लिए लेखिकाओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं, वह `नया ज्ञानोदय’ के पन्नों पर चल रहा है. ऐसे महोत्सव में ही संभव है कि संपादक अपने संपादकीय में उस साक्षात्कार को खास माल की तरह पेश करे जिसकी सड़ांध की वजह से बाद में उसे वापस लेने की मजबूरी पैदा हो जाए.
लेकिन यह सब करके इन दोनों लेखकों ने लेखिकाओं पर बाद में, पहले अपने कुलपतित्व और संपादकत्व पर ही कीचड़ उछाला है. निश्चय ही यह ज्ञानपीठ और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं की अवमानना है. अगर मेरे लिए इन दोनों को इनके पदों से हटाए जाने की उचित और सार्वजनिक मांग का कोई ख़ास मतलब नहीं है तो बस इसलिए कि ऐसी सारी संस्थाओं के पतन की कहानी मुझे कहीं ज़्यादा वीभत्स और डरावनी लगती है जिनमें कोई आता है तो अपनी योग्यता से कम और अपने संपर्कों और तिकड़मों के बूते ज्यादा आता है और जाता है तो इसलिए कि समीकरण उसके ख़िलाफ़ चले जाते हैं.
लेकिन यह सब लिखने का मतलब सिर्फ विभूति नारायण राय या रवींद्र कालिया को अपात्र या अपराधी साबित करना नहीं है. मेरे लिए ज्यादा अहम सवाल दूसरा है. यह सिर्फ अनायास नहीं है कि जिस विवाद की वजह से ये दोनों सज्जन कठघरे में हैं उसके केंद्र में स्त्री और उसके रिश्ते हैं. दरअसल, हमारा यह दौर स्त्री के साथ एक दोहरे खेल का दौर है. इस दौर में स्त्री काफी आज़ाद हुई है- घर और दफ्तर की कई बाड़ेबंदियां उसने तोड़ी हैं, वह नए क्षेत्रों में जा रही है, नए इलाकों में दाखिल हो रही है, नया साहित्य लिख रही है. वह अपने आप को बदल रही है. देश और दुनिया की सरहदें अब उसके लिए मायने नहीं रखतीं.
लेकिन क्या इत्तिफाक है कि इसी दौर में स्त्री सबसे ज्यादा व्यापार की वस्तु भी बनी है. जिसे ट्रैफिकिंग कहते हैं वह अपराध देह व्यापार की एक अंतर्राष्ट्रीय मंडी बनाता है जिसमें गरीब देशों की छोटी-छोटी बच्चियां अमीर सैलानियों की कुंठित ज़रूरतें पूरी करने के लिए सरेआम बेची-खरीदी और परोसी जा रही हैं. बाजार ने स्त्री को नए अवसर दिए हैं, ऊंचे ओहदे दिए हैं, लेकिन उसने उसे एक उत्पाद में भी बदल डाला है. अनजाने में नहीं, जान-बूझ कर हमारा पूरा का पूरा मनोरंजन उद्योग, हमारा विज्ञापन संसार 24 घंटे तक कटी-छंटी देह मुद्राओं के साथ एक ऐसी स्त्री बनाता चलता है जिसका उसकी देह के बाहर कोई वजूद ही नहीं है. इस लिहाज से देखें तो वाकई स्त्री नितांत मार्मिक अर्थों में वर्चस्ववादी पुरुष सत्ता का आखिरी उपनिवेश और आखेट प्रांत बनी हुई है.
यही वह स्त्री है जो क्रिकेट को बेचने के लिए चीयरलीडर्स की तरह पेश की जाती है और `नया ज्ञानोदय’ के विशेषांक बेचने के लिए छिनाल की तरह. ज्ञानपीठ को अगर गुमान है कि उसके नए संपादक ने पत्रिका की बिक्री बढ़ा दी है तो उसे देखना चाहिए कि इस बिक्री के विज्ञापन किस तरह तैयार किए जा रहे हैं. इसी दोहरे रवैये की वजह से स्त्री मुक्ति के पक्ष में दिया और बताया जा रहा एक साक्षात्कार अचानक एक बीमार मानसिकता का आईना बन जाता है.
हैरानी की बात नहीं कि यह मानसिकता उस स्त्री पर हमले कर रही है जो इस दोहरे रवैये से लड़ती हुई, उसे पहचानती हुई, इससे पैदा हुए जटिल अनुभव का साहित्य रचती हुई, कई निजी प्रसंगों को सार्वजनिक करने का जोखिम उठाती हुई, अपने लिए जगह बना रही है. छिनाल प्रसंग ने सिर्फ इतना बताया है कि उसकी लड़ाई सबसे ज़्यादा अपने करीब दिखने वाले, अपने को उसका दोस्त बताने वाले लोगों से है. यह लड़ाई ज़रूरी है क्योंकि इसका वास्ता दो लोगों को उनके पद से हटाने भर से नहीं है, स्त्री के उस स्वाभिमान से भी है जिसे बचाकर ही वह इस जटिल दुनिया में अपनी बराबरी की जगह हासिल कर सकती है. अफसोस कि राय न इस स्त्री अस्मिता- और इसके माध्यम से व्यक्त होने वाली मानवीय गरिमा- का सम्मान कर पाए और न अपने लेखकीय स्वाभिमान का. काश वे समझ पाते कि ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी चीज़ें हैं. एक को निशाना बनाने की कोशिश में अंततः उन्होंने दूसरे को नष्ट कर दिया.