कश्मीर पर न्यूज कर्फ्यू

कश्मीर उबल रहा है. लोग सड़कों पर हैं. क्या नौजवान, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं और क्या बच्चे, सभी सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने में होड़ कर रहे हैं. चौबीस घंटे का कर्फ्यू भी बेमानी हो चुका है. लोगों को जान की परवाह नहीं. पत्थर फेंकती भीड़ पर सुरक्षा बलों की गोलीबारी में पिछले दो-ढाई महीनों में कोई 50 से ज्यादा लोग, जिनमें ज्यादातर युवा हैं, मारे जा चुके हैं. एक तरह की आम सिविल नाफरमानी का माहौल है. लगता नहीं कि वहां राज्य या केंद्र की सत्ता का कोई इकबाल रह गया है, लगभग खुले विद्रोह की स्थिति है.

ऐसी रिपोर्टिंग से कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर किसी वैकल्पिक व साहसिक पहल और हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रह जाती

लेकिन अगर आप खबरों के लिए केवल अपने खबरिया खासकर हिंदी न्यूज चैनल देखते हों तो संभव है कि कश्मीर के मौजूदा हालात का उपर्युक्त चित्रण आपको स्थिति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया या चौंकाने वाला या फिर ‘पाकिस्तान की कोई नई साजिश’ लगे. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. इसमें आपकी कोई गलती भी नहीं है. आपको उतनी ही जानकारी है, जितना न्यूज चैनलों ने बताया-दिखाया है. हालांकि इस मामले में न्यूज चैनल अकेले नहीं हैं, अख़बारों का भी कमोबेश यही हाल है. लगता है जैसे कश्मीर के मामले में चैनलों में किसी अदृश्य और अघोषित सहमति के साथ एक सेल्फ सेंसरशिप काम कर रही है. लगभग एक तरह का न्यूज कर्फ्यू सा मालूम होता है. नतीजा, सभी खबरिया चैनल कश्मीर की सच्चाई से उसी तरह आंखें चुराने की कोशिश कर रहे हैं जैसे राजनीतिक रूप से यूपीए सरकार कर रही है. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की कश्मीर की मौजूदा स्थिति में कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं पड़ती. कश्मीर की लगातार बिगड़ती और विस्फोटक होती स्थिति के बावजूद उन्हें यह इतनी बड़ी खबर नहीं दिखाई देती जिसे कभी-कभार हेडलाइंस में ले लेने और कभी चलते-चलाते किसी भी अन्य खबर की तरह बुलेटिन में दिखा देने से अधिक कुछ किया जाए. वहां स्टार रिपोर्टरों की टीम भेजने और उसे प्राइम टाइम में ‘तानने’ का तो सवाल ही बहुत दूर है. उल्टे एक तरह से हिंदी चैनलों के दृश्यपटल से कश्मीर काफी हद तक ब्लैक आउट है.

संभव है कि इसकी एक वजह यह भी हो कि कश्मीर में एक भी टीआरपी मीटर नहीं लगा है. न्यूज चैनल कहते भी रहे हैं कि जहां हमारे दर्शक नहीं वहां हमारी दिलचस्पी नहीं. इसलिए कश्मीर जलता भी रहे तो क्या? जाहिर है कि टीआरपी के मारे चैनलों के लिए उससे भी बड़े कई गम हैं. उन्हें ‘डांस इंडिया डांस’ और राहुल महाजन से फुरसत कहां? उनके न्यूज जजमेंट में आम तौर पर कश्मीर की मौजूदा स्थिति से बड़ी खबर दिल्ली की बारिश और उससे लगा जाम या लौकी के जूस से कोई मौत या फिर ऐसी ही कोई ‘खबर’ होती है.    

मीडिया की इसी प्रवृत्ति को लक्षित करते हुए शायद जार्ज बर्नार्ड शा ने कभी कहा था कि अखबार (अब चैनल भी) एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम मालूम होते हैं. लगता है कि अपने खबरिया चैनल भी दिल्ली-मुंबई-अहमदाबाद की बारिश से जाम या लौकी के जूस से हुई एक मौत और कश्मीर की निरंतर गहराती त्रासदी के बीच फर्क करने में अक्षम हो गए हैं. लेकिन बात सिर्फ यही नहीं, कश्मीर के मामले में यह वास्तव में एक ‘साजिश भरी चुप्पी’ (कांसपिरेसी ऑफ साइलेंस) का भी मामला लगता है.

आखिर सवाल देशभक्ति का है. ऐसा लगता है कि अधिकांश खबरिया चैनलों को डर लगता है कि अगर कश्मीर की असलियत को दिखाया गया तो इसका फायदा देश-विरोधी अलगाववादी शक्तियां उठाएंगी. कश्मीर को लेकर जारी प्रोपेगेंडा युद्ध में पाकिस्तान इसे सबूत की तरह पेश करेगा. यह एक ऐसा डर है जिसके जवाब में चैनलों की ‘देशभक्ति’ जग जाती है. नतीजतन अधिकांश चैनल खुद भी एक तरह के प्रोपेगंडा युद्ध में शामिल हो गए हैं. वे साबित करने पर तुले हैं कि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी-अलगाववादी संगठनों के भड़कावे और भाड़े पर हो रहा है, कुछ गुमराह और बेरोजगार नौजवान 200 रुपए के डेली वेज पर पत्थर फेंक रहे हैं, यह पूरी समस्या सिर्फ कुछ इलाकों (खरी बात कहने वाले विनोद दुआ के शब्दों में सिर्फ 50 किलोमीटर) तक सीमित है. ठीक इसी तर्ज पर कश्मीर पर होने वाली बहसों में भी चर्चा बहुत सीमित दायरे में होती है. 

सबको पता है कि यह सच नहीं है या पूरा सच नहीं है. लेकिन कोई सच स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. सभी उसे दबाने में लगे हुए हैं. गोया उनके दबाने से सच दब जाएगा! कश्मीर में सच तो नहीं दब रहा है, अलबत्ता उसे दबाने की कोशिश में कश्मीर के हालात और बिगड़ते जा रहे हैं.  चैनलों की ऐसी रिपोर्टिंग और सीमित बहसों से कश्मीर को लेकर देश में जो जनमत बनता है उसमें कश्मीर की मौजूदा स्थिति को लेकर किसी वैकल्पिक और साहसिक पहल और हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रह जाती. साफ है कि कश्मीर में न्यूज मीडिया समाधान का नहीं समस्या का हिस्सा बना हुआ है. न्यूज कर्फ्यू से समस्या सुलझ नहीं, और उलझ रही है. नतीजा, कश्मीर में सच एक नासूर की तरह लगातार बह और दर्द दे रहा है.