स्वायत्तता की दबी फाइल को बाहर निकालना और वादी में सेना की उपस्थिति स्थायी है इस भावना को खत्म करना, दो ऐसी चीजें हैं जो तुरंत की जा सकती हैंकिसी लोकतांत्रिक संप्रभु राष्ट्र के लिए दो बातें सबसे अहम होती हैं. एक, उसे हर चीज स्वीकार्य हो सकती है लेकिन देश की अखंडता के साथ समझौता नहीं. और दूसरी यह कि वह देश अपनी जनता की आकांक्षाओं और पीड़ा को ज्यादा देर तक नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकता. अब कश्मीर की तात्कालिक और 60 साल पुरानी समस्यायों का समाधान भी लोकतंत्र के इन्हीं दो सर्वमान्य सिद्धांतों के दायरे में खोजे जाने की जरूरत है. अगर स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो कश्मीर के उन बाशिंदों को जो आज भारत से अलग होने की मांग पर अड़े हैं, सीधे-सीधे यह समझना होगा कि भारत से खुद को अलग करने की मांग का नतीजा वही ढाक के तीन पात होने वाला है. उन्हें समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय एक संपूर्ण और अपरिवर्तनीय सत्य है और बात तथा आंदोलन की कोई भी गुंजाइश केवल उसके केंद्र के साथ संबंधों को पुनर्परिभाषित करने, उनमें कुछ नई व्यवस्थाओं की स्थापना पर ही बन सकती है.
दूसरी ओर कश्मीर पर कोई भी निर्णय ले सकने और धारा 370 खत्म करने की जिद पर अड़े लोगों को कश्मीरी लोगों की आकांक्षाओं और पीड़ा को भलीभांति समझना और इसके लिए संविधान के दायरे में जो संभव हो करना होगा. उन्हें यह समझना होगा कि लोकतंत्र में तंत्र की व्यवस्था लोगों के लिए ही होती है और यदि इस तंत्र में लोग ही शामिल न हों या जबरन किए गए हों तो उसका कोई मतलब ही नहीं.
1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत से विलय का अनुरोध न केवल वहां के राजा ने बल्कि कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना के लिए आंदोलन चला रहे वहां के सबसे बड़े और प्रभावशाली संगठन के मुखिया शेख अब्दुल्ला ने भी अलग से किया था. पाकिस्तान ने भी कश्मीर पर हमला इसीलिए बोला था. उसे पता था कि जो एक साल का ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ उसने किया है उसके खत्म हो जाने के बाद भी कश्मीर उसके हाथ नहीं आने वाला क्योंकि वहां का ज्यादातर जनमानस भारत के साथ विलय का पक्षधर था. यही वजह थी कि नेहरू जी ने भी अपनी तरफ से ही पाकिस्तानी सेना के कश्मीर से खदेड़े जाने के बाद जनमत संग्रह की बात यह कहते हुए कही थी कि वे कश्मीर की मजबूरी का फायदा उठाकर नहीं बल्कि उसकी जनता की मांग पर उसे अपने साथ रखने के पक्षधर हैं. बाद में भी वे संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक 1956 तक जनमत संग्रह कराने के लिए तैयार थे बशर्ते पाकिस्तान पहले अपने कब्जे वाले कश्मीर से हट जाए. 1956 में जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा ने भारत के साथ विलय का अनुमोदन कर दिया और मामले को अब ज्यादा उलझने से बचाने के लिए भारत ने इसी को पूरे जम्मू-कश्मीर की भावनाओं का प्रतिबिंब मान लिया.
तो फिर कभी इस कदर भारत के पक्ष में होने वाला कश्मीर की जनता का मानस आज इस तरह भारत विरोधी क्यों दिखाई दे़ रहा है? दरअसल, ऐसा होने के पीछे भी ‘बाहरी ताकतों’ से ज्यादा हम खुद जिम्मेदार हैं. जिस तरह से हिंदी के पैरोकारों की राजभाषा बनाने की उतावली और बेसिरपैर कोशिशों ने हिंदी को हमेशा के लिए देश में अंग्रेजी की पुछल्ली भाषा बनाकर छोड़ दिया है कुछ-कुछ उसी प्रकार कश्मीर के मामले में भी हुआ. धारा 370 हटाने और कश्मीर के भारत में संपूर्ण विलय के लिए जम्मू प्रजा परिषद और जनसंघ द्वारा चलाए आंदोलनों और जल्दबाजी में कश्मीर के प्रशासनिक ढांचे में बदलाव लाने की कोशिशों ने सारे मसले को बिगाड़कर रख दिया. इससे घाटी में अलगाव और संप्रदायपरस्त ताकतों को सर उठाने में मदद मिली. इन ताकतों की ताकत को ज्यादा और भारत की धर्मनिरपेक्षता की ताकत को कम आंककर शेख अब्दुल्ला के सुर भी बदलने लगे. 1953 में अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद से कश्मीर भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अकर्मण्यता और सरकारों और राष्ट्रपति शासनों के आने-जाने के भीषण दुश्चक्र में फंसा रहा. चूंकि पाकिस्तान भी कश्मीर की मूल समस्या का एक स्थायी खंभा रहा है, इसलिए सेना की लगातार उपस्थिति ने भी मानवाधिकारों के हनन आदि की समस्याओं को जन्म देकर समस्या में नए आयाम जोड़ दिए.
तो अब क्या किया जा सकता है? कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कोई एक बटन तो है नहीं. इसके कई पहलू हैं और सभी से एकसाथ निपटना संभव नहीं है. कुछ हमारे हाथ में हैं भी नहीं. मगर जो हैं उन पर तो शुरुआत की ही जा सकती है. हो सकता है उस दिशा में बढ़ने पर आगे और रास्ते खुलने लगें. तो जो तुरत-फुरत में किया जा सकता है वह है स्वायत्तता की दबी फाइल को झाड़-फूंककर बाहर निकालना और वादी में सेना की उपस्थिति स्थायी है इस भावना को खत्म करना. स्वायत्तता के मुद्दे पर कुछ घोषणाएं तुरंत ही की जा सकती हैं कुछ पर बाद में बातचीत हो सकती है. आम कानून-व्यवस्था के लिए साधारण पुलिस बल को सक्षम बनाने की जरूरत है. कुछ सुझाव उमर अब्दुल्ला सरकार को बर्खास्त करने के भी दिए जा रहे हैं लेकिन ऐसा करना न केवल सफल और निष्पक्ष चुनाव की हमारी उपलब्धि को कम कर देगा बल्कि कश्मीर के मामले में केंद्र के अनावश्यक हस्तक्षेप के आरोपों को और भी मजबूत करने का काम करेगा.
संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक